________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-२-3(१९६)卐 35 I सूत्रार्थ : कुछ एक व्यक्ति धर्म को ग्रहण कर, धर्मोंपकरणादि से युक्त होकर संयम मार्ग में विचरते हैं तथा माता पिता आदि में अनासक्त होकर संयमभाव की दृढता से भोगाकांक्षा को छोड़ कर संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील होते हैं। संयम मार्ग में चलने से ही उस मनुष्य को मुनि कहते हैं। वह मुमुक्षु-मनुष्य सर्व प्रकार के संग को छोड़ कर- "मैं इस संसार में अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है"। इस प्रकार की भावना से आत्मा का अन्वेषण करता है, जिनशासन में विचरने का यत्न करता हुआ सावध व्यापार का त्याग करके वह अनागार सर्व प्रकार से मुण्डित होकर संयमभाव में विचरता है। और अचेल धर्म में वसा हुआ वह ऊनोदरी तप में स्थित रहता है तथा वचन से आक्रोशित किया हुआं, एवं दंडादि से ताड़ित किया हुआ तथा केशोत्पाटनादि से लुञ्चित किया हुआ तथा किसी पूर्व दृष्कृत्य के कारण निन्दित किया हुआ, अतथ्य शब्दों से पीडित किया हुआ और शस्त्रादि से घायल किया हुआ; वह भिक्षु दृढप्रहारी एवं अर्जुनमाली मुनि की तरह अपने स्वकृत पूर्व कर्मों के फल का विचार कर शान्त चित्त से संयम मार्ग में विचरता है। इसी प्रकार अनुकूल और प्रतिकूल अर्थात् मन को प्रसन्न करने वाले तथा मन में खेद उत्पन्न करने वाले परीषहों को शान्ति पूर्वक सहन करता हुआ विचरता है। इसी कारण वह अपने अभीष्ट-मोक्षपद को सिद्ध करने में सफल होता है। IV टीका-अनुवाद : अब कितनेक मनुष्य निकट मोक्षगामी होने से विशुद्ध परिणामों से श्रुत एवं चारित्र धर्म को स्वीकार करके वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरणों से युक्त धर्मानुष्ठान में एकाग्र (सावधान) होतें हैं, एवं परीषहों को जीतते हुए सर्वज्ञ प्रभुने कहे हुए धर्मानुष्ठानों का आचरण करतें हैं... यहां पूर्व कहे गये प्रमाद-सूत्र अप्रमाद के अभिप्राय से कहना चाहिये... कहा भी है कि- जहां प्रमाद से अप्रमाद ढका हुआ है, वहां जिनागमोपदिष्ट प्रयत्न विशेष से प्रमाद भी अप्रमाद से निवृत्त हो जाता है; इसीलिये विवक्षित अधिकार के अनुसार सूत्रविधि को जाननेवाले आचार्य सूत्रों को व्यतिरेक रूप से भी कहते हैं... तथा कामभोग में या मात-पितादि के मोह में नहिं फंसनेवाले मुमुक्षु साधु, तपश्चर्या एवं संयमादि में दृढता को धारण करते हुए पंचाचारात्मक धर्माचरण करते हैं... तथा भोगसुखों की गृद्धि-आसक्ति का ज्ञपरिज्ञा एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करें... काम-भोग की पिपासा (इच्छा) के त्यागी मुनी हि संयम अर्थात् संवरभाव से कर्मो की निर्जरा में सावधान होते हैं; अतः वे हि महामुनी कहलाते हैं, अन्य नहि...