________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-1-5(190) 13 - iv टीका-अनुवाद : इस प्रकार सोलह (16) महारोग यहां अनुक्रम से कहे गये हैं... अब आतंक याने तत्काल जीवित का नाश करनेवाले शूल आदि व्याधि... तथा स्पर्श याने गाढ प्रहार से होनेवाले व्याधि... वे व्याधि असमंजस याने अनुक्रम से एक एक अथवा युगपद् याने एक साथ सभी व्याधि तथा कोइ विशेष कारण से या बिना कारण विविध प्रकार के व्याधि-रोग जीव को दुःख देते हैं... संसारी जीव मात्र रोग एवं आतंक से हि पीडित होते हैं; ऐसा नहि है; किंतु और भी निकाचित उग्र कर्मवाले एवं गृहवास में आसक्त मनवाले जीव क्रमशः या एक साथ एवं सकारण या निष्कारण हि रोगातंकों से दुःख पाकर मरण पाते हैं... अत: इस प्रकार के संसारी जीवों के दुःखों को देखकर एवं बांधे हुए आयुष्य कर्म के अनुसार देवों का उपपात (जन्म) एवं च्यवन (मरण) को जानकर यह जीवात्मा ऐसा शुभ कार्य करे कि- जिससे गंडादि रोगों का एवं जन्म-मरण का सर्वथा अभाव हो... तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योगों के द्वारा बांधे हुए, और अबाधाकाल पूर्ण होने के बाद उदय में आये हुए कर्मो के विपाक (फल) को अच्छी तरह से देखकर एवं जीवों के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के कारणों का चिंतन करके उन कर्मों के एवं कारणों के विनाश के लिये मुमुक्षु-साधु सदा-सर्वदा जिनाज्ञानुसार प्रयत्न करें... तथा जन्म एवं मरण के समय संसारी जीव करुण रुदन करते हैं; इत्यादि कहने के बाद अब संसारी जीवों को संसार में निर्वेद (उद्वेग-बेचेनी) हो; एवं वैराग्य भाव की प्राप्ति के लिये और भी संसार में संभवित होनेवाले उत्कट (विषम) दु:खों को कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 190 // 1-6-1-5 - मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं नच्चा परियागं च संपेहाए तं सुणेह-जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया तामेव सई असई अइअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं - संति पाणा वासगा रसगा उदए उदएचरा आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महब्भयं // 190 // II संस्कृत-छाया : मरणं तेषां संप्रेक्ष्य उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा पर्यायं च संप्रेक्ष्य तं शृणुत-यथा तथा सन्ति प्राणिनः अन्धाः तमसि व्याख्याताः, तामेव सकृत् असकृत् अतिगत्य उच्चावचस्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, बुद्धैः एतत् प्रवेदितम्-सन्ति प्राणिनः वासकाः रसगाः