________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 - 2 -2 (289) 267 ऐसा श्री शीलांकाचार्यजी म. कहते हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा प्रतिज्ञा सूत्र है। इसमें सूत्रकार यह प्रतिज्ञा करता है कि- इस उद्देशक में मैं यह बताऊंगा कि- भगवान ने विहार काल में कैसी वसती एवं शय्या आदि का सेवन किया था। यह गाथा अपने आप में इतनी स्पष्ट है कि- इसके लिए व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं है। चूर्णिकार ने प्रस्तुत उद्देशक की इस गाथा को उद्धृत करके उसके विषय में “ऐसा पूछा अर्थात् यह प्रश्न है।" ऐसा कहा है। परन्तु, इसकी व्याख्या नहीं की किन्तु, आचार्य शीलांक ने लिखा है कि- प्रस्तुत गाथा सूत्रपुस्तक में उपलब्ध होती है। परन्तु चिरन्तन टीकाकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इसका कारण गाथा की सुगमता है या उन्होंने इसे मूलसूत्र रूप नहीं माना। इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते। आचार्य शीलांक ने किसी टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं करके केवल चिरन्तन टीकाकार शब्द का प्रयोग किया है। इससे ऐसा लगता है कि- चिरन्तन टीकाकार शब्द से चूर्णिकार अभिप्रेत हो सकते हैं। क्योंकि- उन्होंने इस गाथा को उद्धृत तो किया है, परन्तु, उसकी व्याख्या नहीं की और चूर्णिकार के अतिरिक्त अन्य टीकाकार भी अभिप्रेत हो सकते हैं। जिनकी टीका उनके युग में प्रचलित रही हो, और आज उपलब्ध न हो। परन्तु, इतना स्पष्ट है कि- आचार्य शीलांक से भी पूर्व आचाराङ्ग पर टीका लिखी जा चुकी थी। इस तरह जैनागमों पर और भी अनेक टीका, चूर्णि एवं भाष्य आदि लिखे गए हैं। परन्तु, आज वे अनुपलब्ध हैं... वर्तमान में प्राप्त टीका ग्रन्थ अपने युग में प्रचलित प्राचीन टीका ग्रन्थों के आधार पर ही संक्षिप्त एवं विस्तृत रूप से रचे गए हैं। किसी किसी टीकाकार ने तो अपने पूर्व टीकाकार के भावार्थ ही नहीं, किंतु श्लोक एवं गाथाएं भी ज्यों की त्यों उद्धृत कर ली हैं। इससे यह कहना समुचित होगा कि- पुरातन टीकाएं कुछ अंश रूप वर्तमान टीकाओं में सुरक्षित हैं। प्रस्तुत गाथा में शय्या आदि के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 289 // 1-9-2-2 आवेसणसभापवासु पणियसालासु एगया वासो। अदुवा पलियठाणेसु पलाल पुंजेसु एगया वासो // 289 //