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________________ 266 // 1- 9 -2-1(288) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 2 // शय्या है प्रथम उद्देशक कहा, अब द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- पहेले उद्देशक में परमात्मा की चर्या-विधि कही, अब इस चर्याविधि में अवश्य कोइ भी प्रकार की शय्या की संभावना होती है, अतः शय्या के स्वरूप को कहने के लिये इस द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इस अभिसंबंध से आये हुए द्वितीय उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 288 // 1-9-2-1 चरियासणाई सिज्जाओ, एगइयाओ जाओ बुइयाओ / आइक्ख ताई सयणासणाई जाइं सेवित्था से महावीरे // 288 // II संस्कृत-छाया : चर्यासनानि शयनानि एकै कानि यानि अभिहितानि / आचक्ष्व तानि शयनासनानि यानि सेवितवान् स महावीरः // 288 // III सूत्रार्थ : विहार के समय में भगवान महावीर ने जिस शय्या एवं आसन का सेवन किया, उसके संबन्ध में जम्बूस्वामी के पूछने पर पंचमगणघर श्री सुधर्मास्वामी ने इस प्रकार कहा। IV टीका-अनुवाद : चरम केवली श्री जंबूस्वामीजी अपने गुरूदेव श्री सुधर्मस्वामीजी को विनम्रभाव से पुछतें हैं, कि- हे गुरूजी ! चर्या में शय्या अवश्य होती हि है, अत: हे गुरूजी ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजीने कौन से प्रकार के शय्या एवं फलकादि आसन का उपयोग (सेवन) कीया था ? इस प्रथम सूत्र की व्याख्या चिरंतन टीकाकार महर्षिने नहि की है... अत: यहां कारण क्या है ? सुगम होने के कारण से ? या सूत्र के अभाव से ? क्योंकि- सूत्र-पुस्तकों में यह गाथा दीखाइ देती है... यहां वास्तविक कारण (अभिप्राय) क्या है ? वह हम नहि जानतें...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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