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________________ 941 - 8 -0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नि. 266 अब अपराक्रम मरण की बात कहते हैं... पराक्रम याने सामर्थ्य जहां न हो वह अपराक्रम मरण... जैसे कि- जंघाबल से परिक्षीण उदधि नाम के आर्यसमुद्र का मरण हुआ... यह आदेश याने दृष्टांत वृद्ध वाद से आया हुआ है... पादपोपगमन में भी इसी प्रकार हि आदेश (दृष्टांत) जानीयेगा... जैसे कि- पादपोपगमन-अनशन से हि आर्य समुद्र का मरण हुआ था... यह अपराक्रम-मरण आर्य समुद्र का हुआ था... इसी प्रकार अन्य जगह भी जानीयेगा... यह गाथार्थ है... भावार्थ कथानक से जानीयेगा... जैसे कि- आचार्यजी आर्य समुद्र प्रकृति से दुर्बल हि थे, और बाद में जब जंघाबल से क्षीण हुए तब देखा कि- इस शरीर से अब संयमानुष्ठान का लाभ सुलभ नहि है, तब शरीर का त्याग करने की इच्छा से गच्छ में हि रहकर अनशन स्वीकार करके उपाश्रय के एक विभाग में निर्दारिम पादपोपगमन अनशन कीया था... नि. 267 अब व्याघातिम अनशन का स्वरूप कहते हैं... सिंह आदि से विशेष प्रकार के आघात-व्याघात से जो शरीर का विनाश हो, वह व्याघातिम मरण है... जैसे कि- किसी सिंह आदि के उपद्रव से हुए मरण को व्याघातिम मरण कहते हैं... यहां वृद्धवाद से आया हुआ आदेश (दृष्टांत) इस प्रकार है... जैसे कि- तोसलि नाम के आचार्य ने महिषी (जंगली भेंस) के द्वारा हुए उपसर्ग में चतुर्विध आहार का त्याग करके मरण को प्राप्त कीया था... यह व्याघातिम मरण है... यहां कथानक इस प्रकार है... जंगली भेंसो ने तोसलि नाम के आचार्य के उपर उपद्रव कीया था अथवा तोसलि-देश में बहोत सारी जंगली भेंस (महिषी) हैं... अब एक बार कोइ एक साधु अटवी में से पसार हो रहे थे; तब जंगली भेंसो के उपद्रव होने से साधुने देखा कि- अब जीना असंभव है, तब उन्हों ने चतुर्विध आहार का त्याग कर अनशन का स्वीकार कीया था... अब अव्याघातिम का स्वरूप कहतें हैं... नि. 268 आनुपूर्वी याने क्रम... अर्थात् अनुक्रम से जो होवे वृह अनुक्रमग... यहां वृद्धवाद आदेश इस प्रकार है कि- संयम के लिये तत्पर हुए मुमुक्षु को प्रथम प्रव्रज्या प्रदान करें... बाद / सूत्र का पठन और अर्थ का ग्रहण... और बाद में तदुभय याने सूत्रार्थानुसार संयमाचरण से परिपक्व होने पर गुरुजी की अनुज्ञा प्राप्त करके भक्तपरिज्ञादि तीन प्रकार में से कोई भी एक प्रकार के अनशन के लिये तैयार (तत्पर) होकर त्रिविध याने आहार, शरीर एवं उपधिशय्या के नित्य परिभोग का त्याग करता है... यदि वे आचार्य पद पे आरूढ हो, तब आचार्य पद योग्य शिष्य को आचार्य पद
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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