________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-6-1-1(186) 7 साधुओं को धर्म कहते हैं... अर्थात् ऐसे मनुष्यों को हि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के धर्म का उपदेश देते हैं... साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा के मुख से हि धर्म को सुननेवाले कितनेक लघुकर्मी जीव तत्काल धर्म का स्वीकार करके धर्माचरण के लिये तत्पर होते हैं, और अन्य जीव केवल धर्मकथा हि सुनते हैं किंतु संयमाचरण के लिये उद्यम नहि करतें... यह बात सूत्र के पदों से इस प्रकार कहतें है- तीर्थंकर परमात्माने धर्म का उपदेश दीया तब कितनेक उत्तम जीव विविध प्रकार से संयम रूप संग्राम-युद्ध में कर्म रूप शत्रुओं के उपर आक्रमण करतें हैं अथवा इंद्रियों को वश करने में पराक्रम करतें हैं... वे संयमशील साधु हैं... तथा सकल संशयों के विनाशक साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा के मुख से धर्म सुनने पर भी जो लोग प्रबल मोह के उदय से संयमाचरण में खेद पाते हुए आलश-प्रमाद करते हैं; ऐसे उन गृहस्थों को हे मुनिजन ! आप देखो ! वे लोग आत्मा के हितकारी प्रज्ञा के अभाव में संयम में खेद पातें हैं ऐसा हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं... यहां कूर्म = कच्छुए का दृष्टांत इस प्रकार से है... एक बडे सरोवर (द्रह) में मूढ चित्तवाला एक कच्छुआ रहता था, किंतु वह सरोवर पलाशपत्र के समान सेवाल से परिपूर्ण होने के कारण से वह कच्छुआ खुले आकाश को देखना चाहता हुआ भी देख नहि पाता था... इस दृष्टांत का भावार्थ इस प्रकार है- एक हजार योजन विस्तारवाला कोइक एक सरोवर है; किंतु वह गाढ सेवाल से चारों और से आच्छादित (ढका) हुआ है, ओर वह द्रह जलहस्ति, मगर, मच्छलीयां, कच्छुआ आदि अनेक प्रकार के जलचर जंतुओं से भरा हुआ ___ एक बार अकस्मात् हि उस सेवाल में कच्छुए के मुख प्रमाण छेद हुआ, उस समय वह कच्छुआ अपने परिवार से बिछडा हुआ भटकता-भटकता वहां सेवाल के छिद्र के पास जा पहुंचा और अपनी गरदन बाहार निकाली, तब आकाश में सोलह कलाओं से पूरे आकाश को दूध के जैसी उज्ज्वल चांदनी से छलकाते हुए शरद पूर्णिमा के चंद्र को देखा और सेंकडो ताराओं से भरे हुए आकाश को देखकर बहोत हि प्रसन्न-खुश हुआ, तब मन में सोचा किस्वर्ग के जैसा सुंदर यह दृश्य मेरे परिवार के लोगों को भी दिखाउं... यदि वे इस सुंदर दर्शनीय आकाश को देखेंगे; तब हि मेरा मनोरथ पूर्ण होगा, और मुझे अच्छा लगेगा... ऐसा सोचकर जल्दी से अपने बंधुजनों को ढूंढने के लिये यहां वहां खूब घूमा, और क्रमशः अपने परिवार के कच्छुओं को लेकर छिद्रं को ढुंढने के लिये चारों और परिभ्रमण