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________________ 6 1 -6-1-1(186) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि चार अघाति कर्मो के सद्भाव से मनुष्यगति में रहे हुए वे केवलज्ञानी प्रभु धर्म का स्वरूप कहते हैं ऐसा जिनमत का कथन है... जब कि- शाक्यमतवाले कहते हैं कि- भीत-दिवार आदि में से धर्मदेशना प्रगट होती है... तथा वैशेषिक मतवाले कहते हैं कि- प्रभु उलूक-भाव से याने घूवड के रूप में रहकर पदार्थों का स्वरूप कहते हैं इत्यादि... किंतु जिनमत में ऐसा नहि माना है... क्योंकि- ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मो के क्षय होने से प्रगट केवलज्ञानवाले तीर्थंकर परमात्मा कृतार्थ होते हुए भी मनुष्य देह में जब तक हैं; तब तक जगत के जीवों के हित के लिये देव-मनुष्य की पर्षदा में धर्म का स्वरूप कहते हैं... प्रश्न- क्या तीर्थंकर परमात्मा हि धर्म कहतें हैं कि- अन्य भी ? उत्तर- तीर्थंकर परमात्मा धर्म का उपदेश देते हैं, और अन्य भी आचार्यादि जो कोइ जिनागमानुसार विशिष्ट ज्ञान से तत्त्व-पदार्थों के ज्ञाता हैं; वे भी धर्म का उपदेश देतें अतींद्रिय ज्ञानी (केवलज्ञानी) अथवा श्रुतकेवली स्थविर-आचार्य शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कहे गये सूक्ष्म एवं बादर तथा पर्याप्त एवं अपर्याप्त एकेंद्रियादि जीवों का स्वरूप शंकादि के निराकरण से स्पष्ट अनुभव सिद्ध होने पर धर्म का उपदेश देतें हैं, इनके सिवा अन्य कोई भी व्यक्ति-साधु धर्म का उपदेश नहि कहते... इसी कारण से यहां कहा है कि- तीर्थंकर परमात्मा, सामान्य केवलज्ञानी और अतिशयज्ञानी श्रुतकेवली हि धर्म कहते हैं... ज्ञान = जिससे जीवादि पदार्थों का परिज्ञान हो; वह ज्ञान है... और वह मति-श्रुत आदि पांच प्रकार का है... सकल संशयों का विच्छेद होने से जो विशिष्ट ज्ञानवाले हैं; वे हि आत्मा के अलौकिक स्वरूप को कहते हैं... तीर्थंकर एवं गणधर आदि स्थविर आचार्यजी देव-मनुष्यादि की पर्षदा में मुमुक्षु जीवों को जगत् के यथावस्थित भावों को कहते हैं... जगत के जीव दो प्रकार से उत्थित होतें हैं... 1. द्रव्य से 2. भाव से 1. द्रव्य से शरीर के द्वारा एवं भाव से ज्ञानादि द्वारा, उनमें भी जो महिलाए साध्वी एवं श्राविका हैं; वे समवसरण में दोनों प्रकार से उत्थित होती है... 1. शरीर से.... 2. ज्ञानादि से... तथा पुरुष मति-श्रुतादि ज्ञान से उदिथत होतें हैं... शरीर से तो वे बैठे हुए हि धर्म सुनते हैं... अर्थात् भावोत्थित मनुष्यों को हि धर्म कहतें हैं... तथा देव और तिर्यंच जीव भी जो कोइ उत्थान के अभिमुख हैं; उन्हे भी धर्म कहते हैं... तथा जो लोग कौतुकादि से भी सुनतें हैं; उन्हें भी धर्म कहते हैं. भाव-समुत्थित मनुष्यों को तथा प्राणीओं को पीडा-दुःख देने स्वरूप दंड का जिन्हों ने त्याग कीया है; ऐसे निक्षिप्त दंडवाले साधुओं को, तथा ठीक तरह से जो कोइ तपश्चर्या एवं संयम में उद्यमवाले हैं; एसे साधुओं को... तथा प्रकृष्ट-निर्मल आगमसूत्र के ज्ञानवाले
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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