________________ 214 // 1-9-0-09 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रथमश्रुतस्कन्धे नवममध्ययनम् 卐. उपधानश्रुताध्ययनम् // आठवा अध्ययन कहा, अब नवमे अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर इन अध्ययनों में यह अभिसंबंध है कि- पूर्वोक्त आठ अध्ययनों में जो कुछ कहा गया है, वह आचार, चौवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी ने स्वयं हि अपने श्रमण जीवन में आचरित कीया है... अतः यह बात इस नवमे अध्ययन में कही जाएगी... आठवे अध्ययन में कहा गया है कि- अभ्युद्यत मरण तीन प्रकार के हैं, उनमें से कोइ भी एक प्रकार में व्यवस्थित साधु, समवसरण में सर्व जीवों के हित के लिये धर्मदेशना देते हुए परमात्मा श्री महावीर (वर्धमान) स्वामीजी का ध्यान करे... वे श्री वर्धमान स्वामीजी कैसे हैं ? तो कहते है कि- आठ अध्ययन में कहे गये आचार का अनुष्ठान करनेवाले, अतिघोरातिघोर परीषह एवं उपसर्गों को शमभाव से सहन करेवाले, तथा ज्ञानावरणीयादि घनघाति चार कर्मो के संपूर्ण क्षय से अनंत वस्तु-पदार्थो के अनंत पर्यायों के भावों के अवभासक केवलज्ञान से विभूषित एवं मोक्षमार्ग के उपदेशक इत्यादि अनेक गुणगण से अलंकृत ऐसे श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी का ध्यान करें... इत्यादि... बातें कहने के लिये उपधानश्रुत नामक इस नवमें अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... इस उपरोक्त अभिसंबंध से आये हुए उपधानश्रुत नामके इस नवमे अध्ययन के चार अनुयोग द्वार होते हैं... 1. उपक्रम, 2. निक्षेप, 3. अनुगम, एवं 4. नय... ' वहां उपक्रम-द्वार में अधिकार दो प्रकार से है... 1. अध्ययनार्थाधिकार, 2. उद्देशक अर्थाधिकार... इन दोनों में अध्ययनार्थाधिकार पहले संक्षेप में कहा गया है, उस अध्ययनार्थाधिकार को यहां नियुक्तिकार महर्षि विस्तार से कहते हैं... नि. 265 जब कभी जो कोइ तीर्थंकर परमात्मा होते हैं, वह अपने तीर्थ याने शासन में आचार की बातें कहने के बाद अंतिम अध्ययन में अपने श्रमण जीवन में की गयी तपश्चर्या का कथन करतें हैं, यह सभी तीर्थंकरों का कल्प याने आचार-मर्यादा है... प्रस्तुत आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में उपधानश्रुत नामक अंतिम अध्ययन कहा है अतः इस नवमे अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है...