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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 18 (257) 201 नहि करता... किंतु वर्धमान शुभ अध्यवसाय कंडकवाला होता है... तथा अपूर्व अपूर्व शुभ परिणाम की श्रेणी में चढता रहता है... तथा सर्वज्ञ परमात्मा ने कहे हुए आगमवचन के अनुसार विश्व के पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का निरूपण करने में दृढमतिवाला होता है... तथा वह साधु यह जानता हि है कि- यह शरीर त्याज्य हि है... इस शुभ अध्यवसायवाला वह साधु उस इंगितमरण अनशन काल में अनुकूल या प्रतिकूल जो कोइ उपसर्ग हो या परीषह हो अथवा वात पीत या कफ के कारण से उत्पन्न होनेवाले रोगों के कष्ट हो, तब वह साधु ऐसा सोचे कि- सकल कर्मो के क्षय के लिये तत्पर होनेवाले मुझे इन कष्टकारी परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करने चाहिये... ___ वह मुनि ऐसा सोचे कि- यह शरीर हि मुझे कष्ट देता है, स्वीकृत कीये गये धर्माचरण तो कभी भी कष्ट नहि देते, ऐसा सोचकर मुनि उपस्थित सभी प्रकार के परीषह एवं उपसर्गो को समभाव से सहन करे, अर्थात् आर्तध्यान न करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में इंगितमरण अनशन का उपसंहार करते हुए बताया गया है किआवश्यकता होने पर मुनि को घूमना पडे तो वह मर्यादित भूमि में घूम फिर सकता है। यदि उसे थकावट मालूम हो तो वह किसी काष्ठ फलक का सहारा लेकर खड़ा होना चाहे तो पहले उसे यह देख लेना चाहिए कि- उसमें घुण आदि जीव-जन्तु तो नहीं है। यदि उसमें जीव-जन्तु आदि हों तो उसका सहारा न ले और जीव जंतु वाले किसी भी तख्त आदि का उपयोग भी न करे। क्योंकि- इससे जीवों की विराधना होती है और फलस्वरूप पाप कर्म का बन्ध होता है और वह पाप कर्म वज्रवत् आत्मा का विनाशक हो शकता / इसलिए जिस क्रिया से पापकर्म का बन्ध हो उस क्रिया से साधक को सदा दूर रहना चाहिए एवं ऐसी किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहिए कि- जिससे जीवों की हिंसा होती हो। मुनि को सदा आत्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। एवं अपनी आत्मा को कभी भी दुर्ध्यान में नहीं लगाना चाहिए। दुष्ट चिन्तन एवं बुरे विचार आत्मा के विनाशक हैं। अत: मुनि को कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने चिन्तन की धारा को धर्मध्यान में हि लगानी चाहिए। परीषहों के उत्पन्न होने पर भी विचलित नहीं होना चाहिए, किंतु समभाव से सभी परीषहों को सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को सदा आत्म विकास में लगाए रखना चाहिए। इस तरह जीवों की रक्षा स्वरूप शुभ चिन्तन के द्वारा साधक समाधि मरण को प्राप्त करता है और फल स्वरूप स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त करता है। इंगित मरण के बाद पादोपगमन अनशन का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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