________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 14 (278) 251 F सूत्र // 4 // // 278 // 1-9-1-14 अदु थावरो य तसत्ताए तसा य थावरत्ताए / अदुवा सव्व जोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला // 278 // संस्कृत-छाया : II अथ स्थावराश्च त्रसतया, त्रसाश्च स्थावरतया / अथवा सर्वयोनिकाः सत्त्वाः कर्मणा कल्पिता: पृथक् बालाः // 278 // III सूत्रार्थ : स्थावर जीव त्रस में उत्पन्न होते हैं और त्रसजीव स्थावरकाय में जन्म ले सकते हैं। या यों कहिए, संसारी प्राणी सब योनियों में आवागमन करते वाले हैं। और अज्ञानी जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते है। IV टीका-अनुवाद : पृथ्वीकायादि स्थावर जीव एवं बेइंद्रियादि त्रस जीवों के भेद-प्रभेद कहकर, अब वे पृथ्वीकायादि स्थावर जीव उदयागत कर्म के अनुसार जन्मांतर में बेइंद्रियादि त्रस जीव के परिणाम को प्राप्त करतें हैं. तथा बेइंद्रियादि त्रस जीव उदयागत कर्मो के अनुसार जन्मांतर में स्थावर पृथ्वीकायादि के परिणाम को भी प्राप्त करते हैं। ___ अन्यत्र भी कहा है कि- भगवन् ! पृथ्वीकायादि स्थावर जीव क्या त्रसकायादि परिणाम को प्राप्त करतें हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं कि- हे गौतम ! हां, पृथ्वीकायादि स्थावर जीव कर्म परिणाम से त्रसकाय के परिणाम को प्राप्त करते हैं, और त्रसकाय के जीव कर्म परिणाम से पृथ्वीकायादि स्थावर परिणाम को प्राप्त करतें है... यह विपरिणाम एक बार नहि किंतु बार बार अर्थात् अनंत बार भूतकाल में प्राप्त कर चुके हैं... __ अथवा योनि याने जीवों का उत्पत्ति स्थान... अर्थात् सभी जीव कालक्रम से चोरासी लाख (84,00,000) योनिओं में अनंतबार उत्पन्न हो चूके हैं... ऐसा होने में स्वकृत कर्म हि प्रधान कारण है अन्यत्र भी कहा है कि- इस चौदह राज प्रमाण संपूर्ण लोक (विश्व) में ऐसा कोइ वालाग्र मात्र याने सूक्ष्म से सूक्ष्म क्षेत्र (जगह) नहि है, कि-जहां पृथ्वीकायादि सर्व संसारी जीव अनेक बार जन्म-मरणादि दुःख पाये न हो... इस विश्व स्वरूप रंगमंच में सभी संसारी जीवों ने विभिन्न प्रकार के कर्म स्वरूप नेपथ्य