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________________ 250 // 1-9-1-12/13 (276-277) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थावर। स्थावर जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से पुनः दो प्रकार के होते हैं। सूक्ष्म जीव समस्त लोक में व्याप्त है बादर पृथ्वीकाय श्लक्षण और कठिन के भेद से दो प्रकार की है। श्लक्षण पृथ्वीकाय सात प्रकार की है- 1. कृष्ण, 2. नील, 3. लाल, 4. पीत, 5. श्वेत, 6. पंडुक और 7. मटिया और कठोर पृथ्वीकाय के शर्करा आदि 36 भेद बताए हैं। बादर अपकाय के शुद्ध उदक (जल) आदि 5 भेद हैं। बादर तेजस्काय (अग्नि) के भी अंगारा आदि 5 भेद हैं। बादर वायु के भी उत्कालिक आदि 5 भेद है। बादर वनस्पति काय के 6 भेद है- 1. अग्रबीज, 2. मूलबीज, 3. पर्वबीज, 4. बीजबीज, 5. संमूछिम और 6. स्कन्ध बीज / वनस्पति काय प्रत्येक और साधारण शरीर की अपेक्षा से दो प्रकार की है। जिस वनस्पति में एक शरीर में एक जीव रहता हो वह प्रत्येक शरीर वनस्पति कहलाती है और जिस के एक शरीर में अनन्त जीव रहते हों वह साधारण वनस्पतिकाय कहलाती है। प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, शकरकंद आदि जमीन में पैदा होने वाले कंद मूल साधारण वनस्पतिकाय या अनन्त काय कहलाते हैं / शेष सभी प्रकार की वनस्पति के जीव प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय कहलाते हैं। त्रसकाय के 4 भेद हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। इनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं। इन सभी का परिज्ञान करके भगवान महावीर स्वामीजी समस्त प्राणियों की रक्षा करते हए विचरते थे। वर्तमान काल में वैज्ञानिक लोग अनुमान एवं उपमा की सहायता से स्थावर जीवों की चेतना को जानने का प्रयत्न करतें हैं। वनस्पति की सजीवता तो हमे स्पष्ट रूप से दिखती हि है... परन्तु, 2500 वर्ष पहले श्रमण भगवान महावीर ने अपने दिव्यज्ञान के द्वारा इन जीवों की सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था। भगवान की साधना के संबन्ध में वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि श्रमण भगवान महावीर पृथ्वी आदि पांचों को सजीव मानते थे। उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा उनकी सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था। आगम एवं अनुमान के द्वारा छद्मस्थ प्राणी भी उनमें सजीवता की सत्ता का अनुभव कर सकता है, उसे प्रत्यक्ष देखने की शक्ति सर्वज्ञ पुरूषों में ही है। जैनदर्शन में पृथ्वी आदि को सचेतन और अचेतन दोनों तरह का माना है। इस सम्बन्ध में हम प्रथम अध्ययन में विस्तार से वर्णन कर चुके हैं। इन स्थावर जीवों में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त जीव पाए जाते हैं। जीवों की विचित्रता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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