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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 12/13 (276-277) : 249 अंगारादि भेद से पांच प्रकार के होते हैं... वायुकाय जीवों के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म वायुकाय एवं 2. बादर वायुकाय.... उन में सूक्ष्म वायुकाय शुक्लवर्णादि भेद से पांच प्रकार के होते हैं, और बादर वायुकाय के जीव उत्कलिकादि भेद से पांच प्रकार के हैं... .. वनस्पतिकाय के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म वनस्पतिकाय एवं 2. बादर वनस्पतिकाय... उन में सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव इस लोक में सर्वत्र रहे हुए हैं, और बादर वनस्पतिकाय सामान्य से छह (6) प्रकार के होते हैं... 1. अग्रबीज... 2. मूलबीज, 3. स्कंधबीज, 4. पर्वबीज 5. बीज एवं 6. संमूर्च्छन... पुनः बादर वनस्पतिकाय के दो भेद होते हैं... 1. प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय, एवं 2. साधारण बादर वनस्पतिकाय... उन में प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव वृक्ष, गुच्छ आदि भेद से बारह (12) प्रकार के होते हैं... और साधारण बादर वनस्पतिकाय जीवों के कंद-मूल आदि अनेक भेद होते हैं... इस प्रकार विभिन्न भेदवाले वनस्पतिकाय के सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में सर्वत्र रहे हुए हैं, एवं वे अतींद्रिय हैं, अर्थात् इंद्रिय के विषय में नहि आते... तथा बादर वनस्पतिकाय पनक याने बीज-अंकुरादि भाव (स्वरूप) से रहित लीलफुल-निगोद आदि... तथा बीज याने अग्रबीज आदि... और हरित शब्द से शेष सभी प्रकार के बादर वनस्पतिकाय का ग्रहण करें... - इत्यादि पूर्वोक्त बादर पृथ्वीकाय के जीव इस विश्व में यथास्थान में रहे हुए हैं, वे सचित्त याने सजीव हैं, अतः उन को पीडा-कष्ट न हो इस प्रकार इर्यासमिति संपन्न श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी पृथ्वीतल पे ग्रामानुग्राम विहार करते थे... V. सूत्रसार : भगवान महावीर की साधना प्राणी जगत के हित के लिए थी। आगम में बताया गया है कि- समस्त प्राणियों की रक्षारूप दया के लिए भगवान ने अपना प्रवचन दिया था। वे सभी प्राणियों के रक्षक थे। उन्हें समस्त प्राणियों के स्वरूप का परिज्ञान था। क्योंकि- जीवों की योनियों का अवबोध होने पर ही साधक उनकी रक्षा कर सकता है। इसलिए प्रस्तुत गाथा में समस्त जीवों के भेदों का वर्णन किया गया है। समस्त जीव 6 प्रकार के हैं- 1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेजस्काय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय और 6 त्रसकाय। पहले पांच प्रकार के जीव स्थावर कहलाते हैं और इनको केवल एक स्पर्श इन्द्रिय होती है। इस अपेक्षा से जीव दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं- 1. त्रस और 2.
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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