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________________ 318 // 1-9-4 -14 (331) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भगवान महावीर भी जब निर्दोष आहार उपलब्ध होता था, तब अनासक्त भाव से ले लेते थे। वे दधि आदि सरस पदार्थ मिलने पर हर्षित नहीं होते थे और कुल्माष अदि नीरस पदार्थ मिलने पर शोक नहीं करते थे। उनका उद्देश्य संयम-साधना के लिए पेट को भरना था। इसलिए यथासमय जैसा भी शुद्ध आहार मिलता उसी से संतोष कर लेते थे। इससे रसना इन्द्रिय पर सहज ही विजय प्राप्त हो जाती है। और इस वृत्ति से एक लाभ यह होता है किसाधु में दाता की निन्दा एवं प्रशंसा करने की भावना प्रगट नहीं होती। जिसकी रसों में आसक्ति होती है, वह सरस आहार देने वाले की प्रशंसा एवं नीरस आहार देने वाले व्यक्ति की निन्दा करके पाप कर्म का बन्ध कर लेता है। इसलिए साधु को समय पर सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक ग्रहण करना चाहिए। टीकाकार ने प्रस्तुत गाथा में आहार के विषय में प्रयुक्त शब्दों का निम्न अर्थ किया है- 1. सुइयं दध्यादिना भक्तमार्दीकृतमपि तथाभूतम्। 2. सुक्कं-वल्लचनकादि। 3. शीतपिंडंपर्युषितभक्तम्। 4. वुक्कसं-चिरन्तनधान्यौदनम्। 5. पुलागं-यवनिष्पावादि / .. इससे यह स्पष्ट होता है कि- मुनि स्वाद के लिए आहार नहीं करता, केवल संयम की साधना के लिए शरीर को स्थिर रखना होता है और इस कारण वह आहार करता है। अब साध्य प्राप्ति का उपाय बतलाते हुए सूत्रकार महर्षि. आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 14 // // 331 // 1-9-4-14 ___ अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढं अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने // 331 // // संस्कृत-छाया : अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थ: अकौत्कुचः ध्यानम् / ऊर्ध्वमस्तिर्यग् च प्रेक्षमाणः समाधि अप्रतिज्ञः // 331 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, स्थर आसन एवं स्थिर चित से धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। वे उस ध्यान मुद्रा में ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यग् लोक में स्थित द्रव्य और उनकी पर्यायों को देखते हुए सदा ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। IV टीका-अनुवाद : उपर कहे गये स्वरूपवाले आहारादि यदि निर्दोष प्राप्त होते हैं, तब प्रभुजी आहार
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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