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________________ 152 // 1-8-5-1(229)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का निर्देश है... कि- जो दो वस्त्र धारण करते हैं... यहां वस्त्र शब्द का प्रयोग सामान्य से है, अतः एक सूती वस्त्र एवं एक गरम (ऊन) का वस्त्र (कंबल) इन दो वस्त्रों से संयमाचरण में रहे हुए साधु... तथा तीसरा एक पात्र को धारण करनेवाला वह साधु यदि देखे कि- अभी वात-पित्त आदि रोगों से घेरा हुआ मैं संयमानुष्ठान में समर्थ नहि , तथा भिक्षा के लिये एक घर से दुसरे घर में जाने के लिये भी मैं समर्थ नहि हुं... इत्यादि परिस्थिति में रहे हुए उस ग्लान साधु को देखकर कोइक गृहस्थ... अनुकंपा एवं भक्तिभाववाला होकर साधु की तकलीफ - वेदना को देखकर पृथ्वीकायादि जीवों का उपमर्दन विराधना करके आहारादि अशन-पान-खादिम एवं स्वादिम अपने घर से लाकर साधु को दे... इस स्थिति में सूत्र एवं अर्थ के अनुसार संयमानुष्ठान आचरनेवाला वह ग्लान साधु जीवन एवं मरण की अभिलाषा न करे किंतु ऐसा अध्यवसाय करे कि- यह आहारादि निर्दोष है या दुषित है ? अथवा तो कौन सा दोष लगता है ? इत्यादि विचारे... जिनकल्पवाले या परिहारविशुद्धिकल्पवाले या यथालंदिक या प्रतिमा वहन करनेवाले वे साधु सदोष जीवन की कामना नहि करतें, किंतु सोचते हैं कि- मरण तो आयुः पूर्ण होने पर आयेगा हि... अतः मैं श्रमण जीवन को दोषों से दूषित क्यों करूं ? गृहस्थ ने लाये हुए इस आहारादि में अभ्याहत दोष लग रहा है ऐसा जानकर वह साधु गृहस्थ को कहे किहे आयुष्यमन् ! गृहपति ! अभ्याहृत याने घर से यहां लाये हुए यह आहारादि हमे भोजनपान में कल्पता नहि है... इसी प्रकार अन्य आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि भी अकल्पनीय है इत्यादि प्रकार से दान में उद्यत उस गृहस्थ को साधु अपना आचार कहे... ' यह बात पाठांतर से इस प्रकार कही गइ है... जैसे कि- ग्लान साधु के पास आकर कोइक गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि लाकर देता हूं.... तब वह साधु गृहस्थ की बात सुनकर कहे कि- हे आयुष्यमन ! आप जो हमारे लिये आहारादि लाने का सोचते हो, किंतु हमे ऐसे आहारादि भोजन-पान के लिये अकल्पनीय होते हैं... अन्य भी ऐसे आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि भी अकल्पनीय होता है... इस प्रकार निषेध करने पर भी श्रावक या सज्जन (संज्ञी) या प्रकृतिभद्रक कोइ भी गृहस्थ ऐसा सोचे कि- यह साधु ग्लान (बिमार) है... भिक्षा के लिये जा नहि शकते हैं, और न तो कीसी अन्य को आहारादि लाने के लिये कहतें हैं... अतः भले हि साधु ने निषेध कीया, किंतु मैं कोइ अन्य बहाना बनाकर साधु को आहारादि ला देता हुं... ऐसा सोचकर वह श्रावकादि गृहस्थ आहारादि लाकर साधु को देवे तब वह साधु यह आहारादि अनैषणीय है ऐसा सोचकर निषेध करता है... V सूत्रसार: पूर्व सूत्र में तीन वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में बताया
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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