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________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-6-5-2(208) 83 कि- आगमसूत्र की विधि से धर्मकथा कहनेवाला साधु कितनेक मुमुक्षु जीवों को दीक्षा-प्रव्रज्या देकर साधु बनाते हैं, तथा कीतनेक जीवों को अणुव्रत देकर श्रावक बनाते हैं... एवं कितनेक जीव सम्यग्दर्शनवाले होते हैं... और कितनेक जीव न्याय-नीति-सदाचार के पक्षवाले होकर प्रकृतिभद्रक भाव को प्राप्त करते हैं. प्रश्न- द्वीप की तरह शरण योग्य होनेवाले उस साधु में कौन कौन गुण हैं ? * उत्तर- भावोत्थान याने संयमानुष्ठान में सम्यक् प्रकार से रहा हुआ वह साधु सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में अच्छी तरह से रहा हुआ है, तथा राग एवं द्वेष से रहित होने के कारण से वह साधु अस्निह है... अर्थात् कोइ भी द्रव्य-क्षेत्रादि में प्रतिबद्ध-आसक्त नहि है... तथा परीषह एवं उपसर्गों के वा-वंटोल में भी अचल (स्थिर) है... तथा अबहिर्लेश्य याने संयमस्थान के हि अध्यवसाय (लेश्या) वाला है... ऐसे गुणवाला वह साधु चारों और से संयमानुष्ठान में हि रहतें हैं; अत: आश्रितों को उपकारक होतें हैं... तथा शुभ धर्म को अंत:करण में अवधारण करके सम्यक् दृष्टिवाला या सदनुष्ठानवाला वह मुनी दृष्टिमान् है... तथा कषायों के उपशम या क्षय से परम शीतल बने हुए है... क्योंकिजिन्हों ने धर्म का अवधारण नहि कीया है; वे मिथ्यादृष्टि होने के कारण से शांत-शीतल नहि होतें... जैसे कि- विपरीत दर्शनवाला मिथ्यादृष्टि पुद्गलों के संगवाला होने के कारण से आकुलव्याकुलता स्वरूप चंचलता से मुक्त नहि होता है... इसलिये सूत्रकार महर्षि शिष्यों को कहतें हैं कि- देखो ! मात-पिता, पुत्र एवं स्त्री आदि तथा धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्ण आदि के संग या संग के फलों को विवेक-चक्षु से देखिये... नवविध बाह्य परिग्रह एवं चौदह प्रकार के अभ्यंतर परिग्रह की ग्रंथि से बंधे हुए लोग प्रतिक्षण खेद-संताप पाते हैं... और परिग्रह के संग मे डूबे हुए लोग काम-भोग की इच्छाओं में आसक्त होने से उपशम-शांति-संतोष को नहि पा शकतें... इस प्रकार कामभोगों में आसक्त चित्तवाले लोग स्वजन-धन-धान्यादि में मूर्च्छित होकर शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से सदा पीडित रहतें हैं... अत: हे शिष्य ! आप नि:संग स्वरूपवाले संयमानुष्ठान से कभी भी न डरें... किंतु सदैव आत्मसुख के अनुभव की प्राप्ति से प्रसन्न रहें... और अनेक दुःखों से पीडित संगासक्त जीवों पे करुणा करें... उन्हें सदुपदेश दें... ___तथा जिस महामुनी ने संसार एवं मोक्ष के कारणों को याने आश्रव स्वरूप आरंभसमारंभों को जाना-समझा है; वह मुनी उन आरंभों को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग स्वरूप संवर करता है... जब कि- जो अज्ञानी जीव है; वे मोह के उदय से कामभोग में आसक्त होकर उन आरंभों से डरतें नहि हैं; अर्थात् उन आरंभों का त्याग नहि करतें; किंतु उन आरंभों में हि मग्न रहते हैं... वे संसार में परिभ्रमण करते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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