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________________ 206 // 1-8-8-22 (261) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हुए, आत्म चिन्तन में संलग्न रहे और उस समय उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव से सहन करे। उपस्थित परीषहों को साधु कब तक सहन करे ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 22 // // 261 // 1-8-8-22 जावज्जीवं परिसहा, उवसग्गा इति संखया / संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए // 261 // II संस्कृत-छाया : यावज्जीवं परीषहाः, उपसर्गाः इति संख्याय / संवृत्तः देहभेदाय, इति प्राज्ञः अध्यासयेत् // 261 // III सूत्रार्थ : पादपोपगमन अनशन के विधान को जानने वाला संवृत्त साधु उपस्थित परीषह एवं उपसर्गों को जीवन पर्यन्त अर्थात् अन्तिम सांस तक समभाव से सहन करे। IV टीका-अनुवाद : अब कहतें हैं कि- यह परीषह एवं उपसर्गों को कब तब सहन करें ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- यावज्जीव पर्यंत याने इस देह में जब तक आत्मा है, तब तक इन परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करना है, ऐसा जान-समझ कर वह साधु समाधि में हि रहे... अथवा तो यह परीषह एवं उपसर्ग जीवन पर्यंत रहनेवाले नहि है, अर्थात् थोडे समय में हि अपने आप चले जाएंगे... ऐसा सोचकर समाधि में रहे... अथवा तो अब जीवन थोडा हि रहा है, अतः कभी जीवन पर्यंत भी यह परीषह एवं उपसर्ग रहे तो भी मुझे चिंता नहि है, मैं तो समाधि में हि रहुंगा... मुझे परीषहादि की पीडा नहि लगती... _ इत्यादि सोच-विचार करनेवाला वह साधु पादपोपगमन अनशन के द्वारा देह का त्याग करने के लिये कृतनिश्चय होता है... अर्थात् इस परिस्थिति में जो कोइ परीषह एवं उपसर्गों का कष्ट आवे, तब देव-गुरू के वचनों में दत्तचित्त वह साधु सम्यक् प्रकार से सहन करे...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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