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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8-23 262) 207 और समभाव-समाधि में रहे... v सूत्रसार : ____ परीषहों का संबन्ध शरीर के साथ है। शरीर के रहते हुए ही अनेक तरह की वेदनाएं उत्पन्न होती हैं, अनेक कष्ट सामने आते हैं। शरीर के नाश होने के बाद तत्सम्बन्धित कष्ट भी समाप्त हो जाते हैं। अत: साधक को जीवन की अंतिम सांस तक उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। इस गाथा में यह भी बताया गया है कि- संवृत्त आत्मा अर्थात् समस्त दोषों से निवृत्त एवं संवर में स्थित आत्मा अथवा ज्ञान संपन्न-सदसद् के विवेक से युक्त साधु ही परीषहों को समभाव से सह सकता है। क्योंकि- जो दोषों को जानता ही नहीं और जो उनसे निवृत्त ही नहीं है, वह साधना के पथ पर चल ही नहीं सकता है। इसलिए सदसद् के विवेक से संपन्न साधक ही सम्यक्तया पादोपगमन अनशन का परिपालन कर सकता है। ___ इतनी उत्कृष्ट साधना में संलग्न साधक को देखकर यदि कोई राजा उसे भोगों का निमन्त्रण दे तो उस समय उसे क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 23 // // 262 // 1-8-8-23 भेउरेसु न रज्जिज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि / इच्छालोभं न सेविज्जा, धुववन्नं सपेहिया // 262 // II * संस्कृत-छाया : भिदुरेषु न रज्येत, कामेषु बहुतरेष्वपि / इच्छा लोभं न सेवेत, ध्रुववर्णं संप्रेक्ष्य // 262 // III सूत्रार्थ : यदि कोई राजा महाराजा आदि पादपोपगमन अनशन वाले मुनि को भोगोपभोगों के लिए आमंत्रित करे तब विनाशशील उन काम भोगों में राग न करे, अर्थात् उनमें आसक्त न होवे। निश्चल आत्म स्वरूप को जान कर यथावत् संयम परिपालन करने वाला यह साधु इच्छा रूप लोभ का आदर न करे।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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