SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1- 9 - 1 - 97 (281) 255 V - सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में दो प्रकार की क्रिया का वर्णन किया गया है- 1. साम्परायिक और 2. ईर्यापथिक। कषायों के वश जो क्रिया की जाती है, वह साम्परायिक क्रिया कहलाती है। उससे सात या आठ कर्मों का बन्ध होता है इस से आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है। तथा राग द्वेष और कषाय रहित भाव से यतना पूर्वक की जाने वाली क्रिया ईर्यापथिकी क्रिया कहलाती है। यह ईर्यापथिकी क्रिया सयोगी केवली गुणस्थानक में हि होती है अतः इस क्रिया से संसार नहीं बढ़ता है। भगवान महावीर दोनों प्रकार की क्रियाओं के स्वरूप को भली भांति जानते थे। वे साम्परायिक क्रिया का सर्वथा उन्मूलन करने के लिये हि संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील थे। क्रियां के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए आगम में कहा है कि- अयतना-विवेक रहित गमनागमन आदि कार्य करते हुए प्रमादी जीव साम्परायिक क्रिया के द्वारा कर्मों का बन्ध करता है और आगम के अनुसार यतना-विवेक पूर्वक क्रिया करने से संवर होता है। इससे स्पष्ट है कि- कषाय युक्त भाव से की जाने वाली क्रिया संसार परिभ्रमण कराने वाली है और कषाय रहित अनासक्त भाव से की जाने वाली क्रिया संसार का विच्छेद करनेवाली होती है... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 17 // // 281 // 1-9-1-17 अइवत्तियं अणाउटिं, सयमन्नेसिं अकरणयाए। जस्सित्थिओ परिन्नायाः सव्व कम्मावहाउ से अदक्खु // 281 // II संस्कृत-छाया : ____ अतिपातिकाम् अनाकुटि-स्वयं अन्येषां अकरणतया। यस्य (येन) स्त्रियः परिज्ञाताः, सर्वकर्मावहाः स एवमद्राक्षीत् // 281 // II सूत्रार्थ : भगवान ने स्वयं निर्दोष अहिंसा का आचरण किया और अन्य व्यक्तियों को हिंसा नहीं करने का उपदेश दिया। भगवान स्त्रियों के यथार्थ स्वरूप एवं उनके साथ होनेवाले भोगोपभोग के परिणाम से परिज्ञात थे अर्थात् काम-भोग समस्त पाप कर्मों के कारण भूत हैं, ऐसा जानकर भगवान ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy