________________ 54 1-6-3-3 (200) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के अध्यापन से जब तक गीतार्थ न हो; तब तक सभी अवस्थाओं में पालन-रक्षण करतें हैं... किंतु जो साधु स्वच्छंदता के कारण से आचार्य के उपदेश का उल्लंघन करके जैसे तैसे याने मन चाहे वैसे प्रकार से धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होतें हैं; वे उज्जयिनी के राजपुत्र की तरह नष्ट होते हैं... वह कथा इस प्रकार है... उज्जयिनी नगरी में जितशत्रु राजा के दो पुत्र थे, उनमें से ज्येष्ठ पुत्र धर्मघोष नाम के आचार्य के पास संसार की असारता को जानकर प्रव्रजित हुआ, और अनुक्रम से आचारांगादि शास्त्रों के सूत्र, अर्थ तदुभय को प्राप्त करके जिनकल्प स्वीकारने की इच्छा से दुसरी सत्त्वभावना को परिभावित करतें हैं... वह सत्त्वभावना पांच प्रकार से होती है... उनमें प्रथम सत्त्वभावना उपाश्रय में, तथा दुसरी उपाश्रय से बाहार, तीसरी नगर के चोराहे में, चौथी शून्य घर में एवं पांचवी सत्त्वभावना स्मशान भूमी में होती (की जाती) है... जब वे पांचवी सत्त्वभावना को भावित करतें थे तब; वह छोटा भाइ बडे भाइ के अनुराग के कारण से आचार्य के पास आकर कहता है कि- मेरे बडे भाइ कहां हैं ? उस वख्त अन्य साधुओं ने कहा कि- आपको क्या काम है ? तब वह बोला कि- मैं प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूं... तब आचार्य ने कहा कि- प्रव्रज्या ग्रहण करो बाद में आप अपने बडे भाइ को देख शकोगे... तब उसने भी वैसा हि कीया अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण कर ली... अब एक बार पुनः उसने अपने बड़े भाइ को देखने के लिये पुछा; तब आचार्य कहते हैं किउनको देखने का क्या काम है ? क्योंकि- वे अभी किसी के भी साथ बात नहि करतें, वे अभी जिनकल्प को स्वीकार ने की इच्छावाले हैं... तब वह बोला कि- भले हि बात न करे, तो भी मैं उनको देखना चाहता हुं... छोटे भाइ का अतिशय आग्रह देखकर आचार्य ने बडे भाइ मुनी का दर्शन करवाया... तब मौन भाव में हि रहे हुए उन बडे भाइ को वंदन कीया... बडे भाइ-मुनि के प्रति अनुराग के कारण से वह छोटा भाइ-मुनि जब बड़े भाइमुनि की तरह अनुष्ठान-विधि करने को तत्पर हुआ तब आचार्य ने निषेध कीया, उपाध्याय ने भी मना करी, और अन्य साधुओं ने भी रोका और कहा कि- आपको अभी ऐसे अनुष्ठान का समय नहि है, क्योंकि- यह धर्मानुष्ठान दुष्कर है एवं दुर्गम है, इत्यादि प्रकार से मना करने पर भी उसने कहा कि- हम दोनो के पिता एक हि है, अतः मैं भी यह अनुष्ठान करूंगा; ऐसा कहकर अभिमान से एवं मोहमुग्धता से वह भी बडे भाइ की तरह धर्मानुष्ठान करता है... अब एक बार कोइ देवता आकर बडे भाइ (मुनी) को वंदन कीया... नवदीक्षित ऐसे उस छोटे भाइ को वंदन नहि कीया, तब वह अपरिकर्मित मतीवाला होने के कारण से “यह . अविधि है" ऐसा कहकर कोपायमान हुआ... तब देवता भी उस छोटे भाइ मुनी के उपर कोपायमान होकर पादतल के (पैर) के प्रहार से अक्षिगोलक (आंखे) बाहार निकाल दी...