________________ 182 1-8-8 - 3 (242) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : बाह्य एवं अभ्यंतर (दो प्रकारकी) तपश्चर्याको जानकर अर्थात् आसेवन करके... अथवा मोक्षके अधिकारमें त्याग करने योग्य शरीर आदि बाह्य उपकरणादि एवं राग-द्वेषादि अंतरंग दोषोंको सम्यग् प्रकार से जानकर त्याग करनेवाले बुद्ध याने तत्त्वको जाननेवाले तथा श्रुत एवं चारित्रधर्मके पारगामी साधु प्रव्रज्यादि क्रमसे संयमानुष्ठान का पालन करने पर जब जाने किअब यह शरीर संयमानुष्ठानके पालनमें समर्थ नहि है, तब शरीरके त्यागका अवसर हुआ है एवं मैं मरणके लिये समर्थ हुं ऐसा जानकर शरीरको संभालना, आहारादिका अन्वेषण (गवेषणा) करना इत्यादि आरंभका त्याग करते हैं... अथवा पाठांतरसे-आठों कर्मोके बंधनसे मुक्त होता है... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- धर्म के स्वरूप का परिज्ञाता, तत्त्वज्ञ, साधक ही मृत्यु के समय को जानकर कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए ज्ञान का होना जरूरी है। ज्ञान सम्पन्न साधक वस्तु के हेयोपादेय स्वरूप को भलीभांति जान सकता है और त्यागने योग्य दोषों से निवृत्त होकर साधना में संलग्न रहता है। वह मृत्यु से डरता नहीं, अपितु मृत्यु के समय को जानकर तप के द्वारा अष्ट कर्मों को क्षय करता हुआ समाधि मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। इससे स्पष्ट होता है किज्ञान पूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया साधक को साध्य के निकट पहुंचाती है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “आरम्भाओ तिउट्टई" पद में भविष्यत् काल के अर्थ में वर्तमान काल का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार का भी यही मत है। , __ किसी प्रति में चतुर्थ पद में “कम्मुणाओ तिउट्टई" यह पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। इसका तात्पर्य है- आठ प्रकार के कर्मों से पृथक होना। अब संलेखना के अंतरंग अर्थ को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 242 // 1-8-8-3 कसाए पयणू किच्चा अप्पाहारे तितिक्खए / अह भिक्खू गिलाइज्जा आहारस्सेव अंतियं // 242 //