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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8 - 8 - 2 (241) 181 अध्यवसायवाले साधु सभी कार्य एवं अकार्यको जानकर विवेक करनेवाले अथवा भक्तपरिज्ञा आदि मरणके प्रकारको धृति एवं संघयण आदि बलकी अपेक्षासे अद्वितीय अनशनविधिको जानकर समाधिको प्राप्त करे... V सूत्रसार : यह तो स्पष्ट है कि- जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है। अतः साधक मृत्यु से डरता नहीं, घबराता नहीं। वह पहले से ही जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए मृत्यु को सफल बनाने का प्रयत्न करना शुरु कर देता है। वह विभिन्न तपस्या के द्वारा अपनी साधना को सफल बनाता हुआ पण्डितमरण की योग्यता को प्राप्त कर लेता है। पंडितमरण के लिए चार बातों का होना जरूरी है- 1. संयम, 2. ज्ञान, 3. धैर्य, और 4. निर्मोहभाव। संयम एवं ज्ञान सम्पन्न साधक ही हेयोपादेय का परिज्ञान करके दोषों का परित्याग एवं शुद्ध संयमका पालन कर सकता है और धैर्यता के सद्भाव में ही साधक समभाव पूर्वक परीषहों को सह सकता है। वह साधु मोह से रहित हो कर ही शुद्ध संयम का पालन कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि- संयम, ज्ञान एवं धर्म से युक्त तथा मोह रहित साधक ही पंडितमरण को प्राप्त करता है। मृत्यु को सफल बनाने के लिए ज्ञान, धैर्यता एवं अनासक्त भाव होना आवश्यक है। इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 241 // 1-8-8-2 ___ दुविहं पि विइत्ता णं बुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुव्वीइ संखाए आरंभाओ तिउदृइ // 241 // // संस्कृत-छाया : द्विविधं अपि विदित्वा बुद्धाः धर्मस्य पारगाः। आनुपूर्व्या सङ्ख्याय आरम्भात् त्रुट्यति // 241 // III सूत्रार्थ : श्रुत और चारित्र रूप धर्म का पारगामी तत्त्वज्ञ मुनि बाह्य और अभ्यन्तर तपको धारण करके अनुक्रम से संयम का आराधन करते हुए मृत्यु के समय को जानकर आठ कर्मों से मुक्त हो जाता हैं।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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