SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 1-9 -1 - 12/13 (276-277) 247 में विशेष पराक्रम करते रहते थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर का जीवन सदा त्याग निष्ठ जीवन रहा है। जब वे गर्भ में आए तब उन्होंने सोचा कि- हाथ-पैर आदि के संचारण से माता को पीड़ा होगी। इसलिए अंगोपांगों को संकोच कर वे स्थिर हो गए। इससे माता को गर्भ के मरने या गलने या गिरने का संदेह हो गया और सुख के स्थान में शोक जनित दःख की वेदना बढ़ गई। इस बात को जानकर भगवान ने पन: अपने शरीर संचरण का आरम्भ कर दिया। तब सारे घर में खशी एवं आनन्द का वातावरण छा गया। उस समय भगवान ने यह प्रतिज्ञा की थी कि- जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। इस कारण भगवानने 28 वर्ष तक दीक्षा की बात नहीं की। 28 वर्ष की अवस्था में माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर आपने अपने ज्येष्ठ भ्रातासे दीक्षा की आज्ञा मांगी तो उन्होंने कुछ समय तक और ठहरने का आग्रह किया और भाई की बात को मानकर आप दो वर्ष और ठहर गए / परन्तु ये दो वर्ष अपनी साधना में ही बिताए। और इन दिनों में सचित्त पानी को नहीं पिया। वे सदा एकत्व भावना में संलग्न रहते थे। इससे आत्मा के साथ संबद्ध राग-द्वेष आदि विकारों को क्षय करने में प्रबल सहायता मिलती है और साधना में तेजस्विता आती है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप के चिन्तन के कारण ही वे परीषहों को सहन करने में सक्षम बने। क्योंकिवे आत्मा के अतिरिक्त समस्त साधनों को क्षणिक, नाशवान एवं संसार में प्ररिभ्रमण कराने वाले समझते थे। इस कारण भगवान सभी भोगोपभोग के साधनों से अलग होकर अपने एकत्व स्वरूप के चिन्तन में ही संलग्न रहते थे। - प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त ‘पिहिच्चे' का अर्थ है- जिसने क्रोध रूप ज्वाला को शान्त कर दिया है या जिसका शरीर गुप्त है- वस्त्र के अभाव में भी नग्न दिखाई नहीं देते हैं। इससे भगवान की निस्पृहता स्पष्ट होती है। उन्होंने केवल वस्त्र आदि का ही त्याग नहीं किया था, किंतु क्रोध आदि कषायों से भी वे सर्वथा निवृत्त हो चुके थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनके मन में क्रोध की भावना नहीं जगती थी। वे शान्त भाव से सदा आत्मशोधन में संलग्न रहते थे। उनके त्यागनिष्ठ जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 12/13 // // 276-277 // 1-9-1-12/13 पुढविं च आउकायं च, तेउकायं च वायुकायं च। पणगाई बियहरियाई तसकायं सव्वसो नच्चा // 276 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy