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________________ 288 1 -9-3-2(305) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परीषह उत्पन्न होते थे। भगवान ने दीक्षा लेते समय जो देवदूष्य वस्त्र ग्रहण किया था, उसके अतिरिक्त अन्य वस्त्र नहीं लिया। वह वस्त्र भी 13 महीने तक रहा था। उसके रहते हए भी भगवान उस से शरीर को चारों ओर से ढकते नहिं थे / इसी तरह वस्त्र का उपयोग न करने के कारण भगवान को सर्दी एवं गर्मी का कष्ट भी होता था और मच्छर आदि भी डंक मारते थे। इस तरह भगवान को यह विभिन्न परीषह उत्पन्न होते थें / फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे समस्त परीषहों को समभाव पूर्वक सहते हुए आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। इतना ही नहीं, किंतु भगवान ने अनेक बार परीषहों को आमंत्रण भी दिया अर्थात् / परीषह सहने के लिए ही भगवान ने लाट-अनार्य देश में भी विहार किया। इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 305 // 1-9-3-2 अह दुच्चरलाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च / पंतं सिज्जं सेविंसु आसणगाणि चेव पंताणि // 305 // // संस्कृत-छाया : अथ दुश्चरलाढं चीर्णवान् वज्रभूमिं च शुभ्रभूमिं च। प्रान्तां शय्यां सेवितवान्, आसनानि चेव प्रान्तानि // 305 // III सूत्रार्थ : भगवान ने दुश्चर लाढदेश की वज्र और शुभ्रभूमि में विहार किया और प्रान्तशय्या एवं प्रान्तआसन का सेवन किया। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी जब दुश्चर ऐसे लाढ (अनार्य) देश में ग्रामानुग्राम विचरते थे तब परमात्मा को बहोत हि कष्टदायक वसति में ठहरना होता था... वहां ऐसी वसति प्राप्त होती थी कि- जहां धूली के ढेर, कंकर एवं लोष्ट (ढेफे) बहोत होतें थे, तथा दुर्घटित काष्ठवाले पाट एवं आसन प्राप्त होते थे तथा शून्यगृहादि स्वरूप वसति और भी अन्य अनेक उपद्रवों से युक्त होती थी... लाढ (अनार्य) देश वज्रभूमी एवं शुभ्रभूमी ऐसे दो प्रकार का है, उन दोनों प्रकार के लाढ देश में प्रभुजी ने समता भाव से विहार कीया था...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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