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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9 - 3 - 1 (304) 287 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 3 卐 परीषहः // द्वितीय उद्देशक कहा, अब तीसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इस का यहां यह अभिसंबंध है... कि- दुसरे उद्देशक में श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी की शय्या याने वसति का स्वरूप कहा... अब कहतें हैं, कि- उन वसति में रहने पर परमात्मा को जो कोइ उपसर्ग एवं परीषह आये, तब परमात्मा ने भी उन को समभाव से परास्त कीये... इत्यादि अतः परीषह की बात कहने के लिये इस तीसरे उद्देशक का आरंभ करतें हैं... अतः इस पूर्वापर संबंध से आये हुए इस. तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... सूत्र // 1 // // 304 // 1-9-3-1 . तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दंसमसगे य। अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं // 304 // II संस्कृत-छाया : तृणस्पर्शान् शीतस्पश्चि तेजःस्पांश्च दंशमशकांश्च / अध्यासयति सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् // 304 // III सूत्रार्थ : ___ समिति-गुप्ति से युक्त श्रमण भगवान महावीर तृण स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशक स्पर्श और नाना प्रकार के स्पर्शों को, सदा समभाव पूर्वक सहन करते थे। IV टीका-अनुवाद : तृण याने कुश-दर्भ इत्यादि के तीक्ष्ण स्पर्श... तथा शीतकाल में शीत का स्पर्श... और गरमी के दिनो में (उनाले में) उष्ण-स्पर्श... तथा दंशमशकादि मच्छर आदि क्षुद्र जंतुओं का उपद्रव... इत्यादि विभिन्न प्रकार के तृणस्पर्शादि परीषहों को पांच समितिवाले श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी समता से सहन करतें थे... सूत्रसार : एस्तुत एएए में बताए एएए है कि- एखार को तृए स्पर्श, शीत एक आदि के
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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