________________ 140 9 -8 -4 - 1 (224) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को धोवे नहि, किंतु जो गच्छवासी स्थविरकल्पवाले साधु हैं वे वर्षाकाल के पूर्व एवं ग्लानरोगादि अवस्था में अचित्त जल से जयणा के साथ वस्त्रों को धोवे... तथा धोये हुए एवं रंगे हुए कपडे-वस्त्र साधु धारण न करें... तथा एक गांव से दुसरे गांव की और जाते समय साधु वस्त्रों को छुपावे नहिं, अर्थात् गुप्त न रखें... क्योंकि- साधु के वस्त्र अंत-प्रांत याने तुच्छअसार होने के कारण से छुपाने की आवश्यकता नहि है... इस प्रकार यह साधु अवमचेलिक (अचेलक) है अर्थात् अल्प मूल्यवाले एवं प्रमाणोपेत अर्थात् गीनती के दो या तीन हि वस्त्र होतें हैं अतः यह हि प्रमाणोपेत वस्त्रधारी साधुओं का सर्वस्व-साधुपना है और यह तीन वस्त्र के साथ उत्कृष्ट से बारह प्रकार की उपधिवाले हि जिनकल्पिक साधु होतें हैं... अन्य नहि... अब कहते हैं कि- जब शीतकाल बीत जाय तब साधु उन वस्त्रों का भी त्याग करें इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र अभिग्रह निष्ठ या जिनकल्प की भूमिका पर स्थित साधु के विषय में है। इसमें बताया गया है कि- जिस मुनि ने तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि शीतादि का परीषह उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा न करे। वह अपनी प्रतिज्ञा का दृढता से पालन करने के लिए समभाव पूर्वक परीषह को सहन करे। परन्तु, अपनी प्रतिज्ञा एवं मर्यादा से अधिक वस्त्र संग्रह करने की भावना न रखे। यदि उसके पास अपनी की हुई प्रतिज्ञा से कम वस्त्र है, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है। उस समय उसे जैसा वस्त्र उपलब्ध हो, उस का उसी रूप में उपयोग करे। न उसे पानी आदि से साफ करे और न उसे रंगकर काम में ले। वह गांव आदि में जाते समय उस वस्त्र को छुपाकर भी न रखे। उक्त मुनि के पास अल्प मूल्य के थोडे वस्त्र होने के कारण सूत्रकार ने साधु को अवमचेलक (अचेलक) अल्प वस्त्रवाला कहा है। . वृत्तिकार ने पात्र शब्द से पात्र के साथ उसके लिए आवश्यक अन्य उपकरणों को भी ग्रहण किया है। जैसे- 1. पात्र, 2. पात्र बन्धन, 3. पात्र स्थापन, 4. पात्र केसरिकप्रमार्जनिका, 5. पटल, 6. रजत्राण, 7. गोच्छक-पात्रं साफ करने का वस्त्र, ये सात उपकरण हुए और तीन वस्त्र, रजोहरण ओर मुखवस्त्रिका, इस प्रकार जिनकल्प की भूमिका पर स्थित अभिग्रह निष्ठ मुनि के 12 उपकरण होते हैं। - साधु को मर्यादित उपधि रखने का उपदेश देने का कारण यह है कि- उपधि संयम का साधन मात्र है। अत: साधु संयम की साधना के लिए आवश्यक उपधि के अतिरिक्त उपधि का संग्रह न करे। क्योंकि- अनावश्यक उपधि के संग्रह से मन में ममत्व का भाव जगेगा और उसका समस्त समय जो अधिक से अधिक स्वाध्याय, धर्मध्यान एवं चिन्तन