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________________ 2961 - 9.- 3 -9-10 (312-313) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी नहीं सोचा कि- यहां जंगली जानवर मुझे कष्ट देंगे। वे निश्चिन्त होकर आत्म-चिन्तन में संलग्न हो गए। अब लाढ़ देश में अनार्य लोगों द्वारा भगवान को दिए गए परीषहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 312 // 1-9-3-9 उवसंकमन्तमपडिन्नं, गामंतियम्मि अप्पत्तं / पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु, एयाओ परं पलेहित्ति // 312 // II संस्कृत-छाया : अपसंक्रामन्तं अप्रतिज्ञं, ग्रामान्तिकं अप्राप्तम् / प्रतिनिष्क्रम्य अलूलिषुः इतः परं पर्येहीति // 312 // III सूत्रार्थ : जब अप्रतिज्ञ भगवान भिक्षा या स्थान के लिए ग्राम के समीप पहुंचते अथवा ग्राम से बाहर निकलते हुए अनार्य लोग पहले तो भगवान को पीटते और फिर कहते कि- तुम यहां से दूर चले जाओ। IV टीका-अनुवाद : नियत-निवासादि की प्राप्ति के अभाव में या तो वसति प्राप्त होने पर परमात्मा जब भिक्षा के लिये गोचरी निकलते या तो वसति की गवेषणा के लिये निकलते तब वहां के लोग परमात्मा को कहते थे कि- तुम यहां से दूर चले जाओ... इत्यादि परिस्थिति में भी प्रभुजी ने कभी भी आर्तध्यान नहि कीया, परंतु अपने संयमानुष्ठान में हि लीन रहे थे... सूत्र // 10 // // 313 // 1-9-3-10 हयपुव्वो तत्थ दण्डेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुन्तफलेण। अदु लेलुणा कवालेण हंता हंता बहवे कंदिसु // 313 // // संस्कृत-छाया : हतपूर्वः तत्र दण्डेन, अथवा मुष्टिना अथवा कुन्तफलेन / अथवा लोष्टुना कपालेन, हत्वा हत्वा बहवश्चक्रन्दुः // 313 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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