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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीकाम 1 - 9 - 2 - 3 (290) // 269 महावीर भी कभी कभी ऐसी सभाओं में रात्रि व्यतीत करते थे। प्रपा (प्याऊ)- जहां राहगीरों को पानी पिलाया जाता है, उसे प्रपा या प्याउ कहते हैं। रात के समय यह स्थान प्रायः खाली रहता है अतः आत्म चिन्तन के लिए ऐसे प्याउ के स्थान अनुकूल होने से अनुमति लेकर प्रभुजी प्याउ में भी कभी कभी वसतिनिवास करते थे. पण्यशाला (दुकानें)- जहां लोगों को जीवन के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र आदि बेचे जाते हैं, उन्हें पण्यशाला कहते हैं। ये स्थान भी रात में खाली रहते हैं। जबकि दुकानदार अपनी दुकान को जिस में सामान भरा रहता है, ताला लगा देता है, फिर दुकान के आगे का छप्पर या वरंडा खाली पड़ा रहता है। अतः भगवान कई बार ऐसे स्थानों में भी ठहरे थे... कर्मस्थान - जहां लुहार, सुथार आदि अपना व्यवसाय करतें हैं ऐसी लुहारशाला सुथारशाला आदि में भी प्रभुजी अनुमति लेकर ठहरतें थे... पलाल पुंज- जहां पर पशुओं के लिए चार खंभों के सहारे घास का समूह बिछाया जाता है उसे पलाल पुंज कहते है। ये स्थान भी साधक के ठहरने योग्य हैं। इस तरह भगवान महावीर ने अपने साधना काल में ऐसे स्थानों में निवास किया। इससे साधु जीवन की कष्टसहिष्णुता एवं निस्पृहता का तथा उस समय के लोगों की उदार मनोवृत्ति का पता लगता है। प्रत्येक गांव में आगंतुक व्यक्ति भूखा प्यासा, एवं निराश्रित नहीं रहता था। सार्वजनिक स्थानों के अतिरिक्त लुहार एवं बढ़ई आदि श्रमजीवी लोगों की इतनी उद्योग शालाएं थीं कि- कोई भी यात्री विश्रान्ति कर सकता था। इससे उस युग के ऐतिहासिक रहन-सहन एवं उद्योग-धन्धे का भी पता चलता है। उस यग का रहन-सहन सादा था, मकान भी सादे होते थे। धनाढ्यों के भवनों को छोड़कर साधारण लोग मिट्टी के बने साधारण घरों में ही रहते थे / औद्योगिक एवं कृषि कार्य अधिक था। गांवों के लोग प्रायः कृषि कर्म पर ही आधारित रहते थे। बडे-बडे वाणिक् भी कृषि कर्म करते या करवाते थे। आगमों में आनंद आदि श्रावकों का वर्णन आता है कि- उन्होंने अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार 500 हल या इससे कम-ज्यादा खेती करने की मर्यादा रखी थी। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि- भगवान ऐसे स्थानों में ठहरते थे कि- जहां किसी को किसी तरह का कष्ट न हो और अपनी साधना भी चलती रहे। वे अपने उपर आने वाले समस्त परीषहों को समभाव पूर्वक सह लेते थे, परन्तु, अपने जीवन से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देते थे।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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