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________________ वहां प्रथम का 1 अंक प्रथम श्रुतस्कंध का सूचक है... द्वितीय स्थानमें 6 अंक षष्ठ अध्ययन का सूचक है... तृतीय स्थानमें 1 अंक प्रथम उद्देशकका सूचक है, एवं चतुर्थ स्थानमें 1 अंक प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र का सूचक है..., तथा (186) अंक सूत्र का अविभक्त सलंग क्रमांक है... . इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के षष्ठ अध्ययन में पांच उद्देशक है... पांचवे उद्देशक का अंतिम सूत्र क्रमांक 209 है... अतः हमने 1-6-5-3 (209) लिखा है. प्रत्येक पेइज के उपर लिखे गये 1-6-1-1 (186) इत्यादि क्रमांक को देखने से यह पता चलेगा कि- यह आहोरी हिन्दी टीकानुवाद या सूत्रसार कौन से श्रुतस्कंध के कौन से अध्ययन के किस उद्देशक के कौन से सूत्र का प्रस्तुत है... इस आहोरी हिंदी टीका ग्रंथ का सही सही उपयोग इस प्रकार देखा गया है, कि- / ' जो साधु या साध्वीजी म. सटीक आचारांग व्यंथ पढना चाहते हैं... और उन्हें अध्ययन में कठीनाइयां आती है इस परिस्थिति में यह अनुवाद व्यंथ उन्हें उपयुक्त सहायक बनेगा ऐसा हमारा मानना है... अतः हमारा नम्र निवेदन है कि- आप इस ग्रंथ का सहयोग लेकर सटीक .. आचारांग ग्रंथ का हि अध्ययन करें... गणधर विरचित मूलसूत्र में एवं शीलांकाचार्य विरचित संस्कृत टीका में जो भाव-रहस्य है वह भावरहस्य अनुवाद में कहां ? जैसे कि- गोरस दुध में जो रस है वह छास में कहां ? तो भी असक्त मनुष्य को मंद पाचन शक्ति की परिस्थिति में दूध की जगह छास हि उपकारक होती है क्योंकि- दोनों गोरस तो है हि... ठीक इसी प्रकार मंद मेधावाले मुमुक्षु साधुसाध्वीजीओं को यह भावानुवाद-ग्रंथ अवश्य उपकारक होगा हि... गणधर विरचित श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन आत्म विशुद्धि के लिये हि होना चाहिये... आत्म प्रदेशों में क्षीरनीरवत् मीले हुए कर्मदल का पृथक्करण करके आत्म प्रदेशों को सुविशुद्ध करना, यह हि इस महान् ग्रंथ के अध्ययन का सारभूत रहस्य है, अतः इस महान् ग्रंथ के प्रत्येक पद-पदार्थ को आत्मसात् करना अनिवार्य है... कथाग्रंथ की तरह एक साथ पांच दश पेइज पढने के बजाय प्रत्येक पेइज के प्रत्येक पेराव्याफ (फकरे) को चबाते चबाते चर्वण पद्धति से पढना चाहिये... अर्थात् चिन्तन-मनन अनुप्रेक्षा के द्वारा आत्मप्रदेशों से संबंध बनाना चाहिये... __ आत्म प्रदेशों में निहित ज्ञानादि गुण-धन का भंडार अखुट अनंत अमेय एवं अविनाशी . है... कि- जो गुणधन कभी भी क्षीण नहि होता... और न कोइ चोर लुट शकता... और न कभी शोक-संताप का हेतु बनता, किंतु सदैव सर्वथा आत्महितकर हि होता है... अतः ज्ञान
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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