________________ 4 // 1-6-1 - 1 (186) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D हि अधिकार है... इसी अर्थ को अब विशेष प्रकार से कहते हैं... नि. 252 देव मनुष्य एवं तिर्यंच जीवों के द्वारा होनेवाले उपसर्गों को सम-भाव से सहन करना अर्थात् उपसर्गों को निष्फल करना... संसार-वृक्ष के बीज समान कर्मो का विनाश करना वह भाव-धूत है... अथवा क्रिया एवं क्रिया के कर्ता का अभेद संबंध होता है, अत: कर्मो का धूनन हि भाव-धूत है... नाम-निष्पन्न निक्षेप पूर्ण हुआ, अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण सहित सूत्र का उच्चार करना चाहिये... और वह सूत्र यह है... श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 1 # स्वजनविधूननम् // I सूत्र // 1 // // 186 // 1-6-1-1 . ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ स नरे, जस्स इमाओ जाइओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिसं, से किदृइ तेसिं समुट्ठियाणं निक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं एवं (अवि) एगे महावीरा विप्परिक्कमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपण्णे से बेमि। से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छण्णपलासे उम्मग्गं से नो लहइ, भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति, एवं एगे अणेगरूवेहिं कुलेहिं जायारूवेहि सत्ता कलुणं थणंति नियाणओ ते न लभंति मुक्खं, अह पास तेहि कुलेहि आयत्ताए जाया // 186 // II संस्कृत-छाया : अवबुध्यमानः इह मानवेषु आख्याति स: नरः, यस्य इमा जातयः सर्वतः सुप्रत्युपेक्षिताः भवन्ति, आख्याति सः ज्ञानं अनीदृशं, सः कीर्तयति तेषां समुत्थितानां निक्षिप्तदण्डानां समाहितानां प्रज्ञानवतां इह मुक्तिमार्ग एवं (अपि) एके महावीराः विपराक्रमन्ते, पश्यत एकान् अवसीदतः अनात्मप्राप्तान् सोऽहं ब्रवीमि स: यथा अपि कूर्मः हृदे विनिविष्टचित्तः प्रच्छन्नपलाशः उन्मार्गं स: न लभते भग्नका इव सन्निवेशं न त्यजन्ति, एवं एके अनेक रूपेषु कुलेषु जाता: रूपेषु सक्ताः करूणं स्तनन्ति, निदानं ते न लभन्ते, मोक्षं अथ पश्य तेषु कुलेषु आत्मत्वाय जाताः // 186 //