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इस श्लोकमें नारायण संज्ञापदका निर्वचन हुआ हैं नरसे उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहते हैं वह नारही उसका प्रथम अयन अर्थात् निवास स्थान है इसलिए विष्णुको नारायण कहते हैं । विष्णुका समुद्रशयन प्रसिद्ध है। नारायणसंबंधी निर्वचनका यह श्लोक अग्नि पुराण एवं मनुस्मृतिमें भी प्राप्त होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराणमें भी नारायण शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है।
सारूप्यमुक्तिवचनो नारेति च विदुर्बुधाः यो देवोऽप्ययनं तस्य स च नारायणस्मृतः । नाराश्च कृतपापाश्चाऽप्ययनं गमनं स्मृतम् यतो हि गमनं तेषां सोऽयं नारायणः स्मृतः । नारश्च मोक्षणं पुण्यं अयनं ज्ञानमीप्सितम् तयोर्ज्ञानं भवेद्यस्मात् सोऽयं नारायणः स्मृतः ।।
व वै0 पु० (हला0 387) मैवं भो रक्ष्यतामेष यैरुक्तं राक्षसास्तु ते
ऊचुः खादाम इत्यन्ये ये ते यक्षास्तु जक्षणात् ।।' इस श्लोकमें राक्षस एवं यक्ष शब्दोंके निर्वचन प्राप्त होते हैं इनकी रक्षा करो-ऐसा कहनेके कारण रक्ष रक्षणे धातुसे राक्षस कहलाये। जिन लोगों ने कहा हम खायेंगे फलतः ये जक्षण क्रियाके कारण यक्ष कहलाये । राक्षस शब्दमें रक्ष् धातु एवं यक्ष शब्दमें जक्ष् धातुका योग माना गया है। जक्ष् धातुसे यक्षमें ध्वन्यात्मक औदासिन्य है।
"प्राण प्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभूत्पिता
ततस्तु पृथिवी संज्ञामवापाखिलधारिणी। इस श्लोकमें पृथिवीका विवेचन प्राप्त होता है । पृथु प्राण दान करने के कारण भूमिके पिता हुए । अतः सर्वभूतधारिणीकी पृथिवी संज्ञा हुई। यहां पृथुसे पृथिवी संज्ञाका इतिहास स्पष्ट होता है । इस निर्वचनमें अर्थात्मक संकीर्णता है। पृथुके महत्त्व प्रतिपादनके लिए सम्भवतः ऐसी कल्पनाकी गई है। निरुक्तमें 'प्रथनात् पृथिवीः की प्राप्ति होती है।' 4. एवं प्रभावस्स पृथुः पुत्रो वेनस्य वीर्यवान् ३४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क