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+ ईधातुका योग हैं। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार रखता है। द्वितीय निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। निरुक्तमें भी सूर्य शब्द को सृ धातुसे निष्पन्न माना गया है। 7. चारू द्रमति वा चायंश्चायनीयो द्रमत्युत
चमेः पूर्वं समेतानि निर्मिमीतेऽथ चन्द्रमा ।।13 इस श्लोकमें चन्द्रमा शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है । चन्द्रमाके निर्वचन में कई कल्पनाएं स्पष्ट हैं- चारू+द्रम् धातु, चाय धातु+ द्रम् धातु, चायनीय + द्रम् धातु आदि । निरुक्तमें भी इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं ।14
वृहद्देवताके उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि ये विकसित निर्वचन प्रक्रियाके परिणाम हैं। इसके निर्वचन प्रायः निरुक्त पर ही आधारित हैं। ये निर्वचन देवताओंके स्वरूप एवं कर्मका आधार रखते हैं। कहीं कहीं ध्वन्यात्मकताका अभाव भी पाया जाता है।
संदर्भ संकेत :1. वृ० दे0 3 126, 2.नि 811, 3. वृ० दे० 2 |34, 4. नि0 1011, 5.वृ० दे० 2136, 6. नि0 1011,7. वृ० दे० 2 160, 8. नि0 11 11, 9. वृ० दे0 2 169, 10. अथयद्विषितोभवति तद्विष्णुर्भवति । विष्णुर्विशतेर्वा व्यश्नोतेर्वा-नि0 12 12, 11. वृ० दे07/12, 12. सरतेर्वा सुवतेर्वा-नि0 12 12, 13. वृ० दे07/129,14. नि0 11111 (च) पुराणमें निर्वचनों का स्वरूप
पुरानवं भवति'अर्थात् पहले वह नवीन होता है, इस निर्वचनके अनुसार पुरा+ (नव)- ण ही पुराण है। न का ण णत्व का परिणाम है। पुराण भारतीय आख्यानोंका विपुल समूह हैं। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्वर एवं वंशानुचरितोंका आख्याता पुराण है। पुराणोंकी संख्या 18 है। पुराणोंमें भी निर्वचन प्राप्त होते हैं। प्रायः किसी नाम विशेषके मूलान्वेषण में निर्वचन दिये गये हैं। पुराणोंके कुछ निर्वचन द्रष्टव्य हैं
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ।।
३३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क