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"अरोदीदन्तरिक्षे यद् विद्युदृष्टिं ददन्नृणाम्
चक्षुर्भिर्ऋषिभिस्तेन रूद्र इत्यभिसंस्तुतः ।। यहां रूद्र व्याख्यात है। अरोदीत् क्रिया पदका सम्बन्ध रूद्रसे स्पष्ट परिलक्षित है। अरोदीत्में रूद्धातुका योग है। रूद्रमें भी रूद्धातु है। निरुक्तमें रूद्रके अनेक निर्वचन प्राप्त होते हैं जिनमें एक यह भी है।'
इरा दृणाति यत्काले मरूभिः सहितोऽम्बरे
रवेन महता युक्तस्तेनेन्द्रमृषयोऽब्रुवन् ।। इस श्लोकमें इन्द्रका निर्वचन प्राप्त होता है। इरा (जल को) दृणाति से इन्द्र माना गया है। इरा+दृ विदारणे धातुका योग इन्द्र शब्दमें स्पष्ट है। इसने गंभीरगर्जनके साथ जलको प्रकट किया। फलतः इन्द्र कहलाये। निरुक्तमें इन्द्र के कई निर्वचन प्राप्त होते हैं जिनमें प्रथम निर्वचन इससे साम्य रखता है।
__ “यत्तु प्रच्यावयन्नेति घोषेण महता मृतम्
तेन मृत्युमिमंसन्तं स्तौति मृत्युरिति स्वयम् ।। इस श्लोकमें मृत्युपद व्याख्यात है। मृतम् च्यावयतिसे मृत्यु माना गया है। इसमें मृत+च्युधातुका योग है । निरुक्तमें यास्क शतवलाक्ष्य मौद्गल्यका मत निर्देश करते हैं जिसके अनुसार भी मृत्यु शब्दमें मृत + च्यु धातु का योग
5. विष्णोतेर्विशतेर्वा स्याद् वेवेष्टेाप्ति कर्मणः
विष्णुर्निरुच्यते सूर्यः सर्वं सर्वान्तरश्च यः।।' इस श्लोकमें विष्णुः पद व्याख्यात है। विष्णुपद में विष् व्याप्तौ या विश् प्रवेशने या व्याप्ति कर्मा वेविश्धातुका योग है। यहां विष्णु सूर्यके वाचक हैं जो सर्वत्र व्याप्त हैं। निरुक्तमें भी इसी प्रकार विष्णु शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है।
“सूर्यः सरति भूतेषु सुवीरयति तानि वा
सु ईर्यत्वाय यात्येषु सर्वकार्याणि संदधत्।।1 इस श्लोकमें सूर्य शब्द व्याख्यात है। सूर्य शब्दमें - सृगतौ धातु या सु
३२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क