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(४६)
श्री विपाकसूत्र
[प्राक्कथन उन के समान ईश्वर की प्रेरणानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले दोपी नहीं होने चाहिये ?
२ ईश्वर सर्वशक्तिसम्पन्न है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, अतः उस के द्वारा दी हुई अशुभ कर्मों की सज़ा अलंघनीय, अनिवार्य और अमिट होनी चाहिए, किन्तु संसार में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । देखिये-ईश्वर ने किसी व्यक्ति को उस के किसी अशुभकर्म का दण्ड देकर, उस के नेत्र की नज़र कमजोर कर दी, वह अब न तो दूर की वस्तु साफ़ देख सकता है और न छोटे२ अक्षरों की पुस्तक ही पढ़ सकता है । ईश्वर का दिया हुआ यह दण्ड अमिट होना चाहिये था, परन्तु उस व्यक्ति ने नेत्रपरीक्षक डाक्टर से अपने नेत्रस्वास्थ्य के संरक्षण एवं परिवर्धन के लिये एक उपनेत्र (ऐनक) ले लिया, उस उपनेत्र को लगा कर उस ने ईश्वर से दी हुई सज़ा को निष्फल कर दिया । वह ऐनक से दूर की चीज़ साफ़ देख लेता है, और बारीक़ से बारीक़ अक्षर भी पढ़ लेता है।
ईश्वर जापान में बार २ भूकम्प भेज कर उस को विनष्ट करना चाहता है परन्तु जापानी लोगों ने हलके मकान बना कर भूकम्पों को बहुत कुछ निष्फल बना दिया है। इसी भाँति ईश्वर की भेजी हुई प्लेग, हैजा आदि बीमारियों को डाक्टर लोग, सेवासमितियां अपने प्रबल उपायों से बहुत कम कर देते हैं। इस के अतिरिक्त कर्मों का फल भुगताने के लिये भूकम्प भेजते समय ईश्वर को यह भी ख्याल नहीं रहता कि जहां मेरी उपासना एवं आराधना होती है, ऐसे मन्दिर, मस्जिद आदि स्थानों को नष्ट कर अपने उपासकों की सम्पत्ति को नष्ट न होने दू।।
३-संसार जानता है कि चोर आदि की सहायता लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध भी है। जो लोग चोर आदि की सहायता करते हैं वे शासनव्यवस्था के अनुसार दण्डित किये जाते हैं। ऐसी दशा में जो ईश्वर को कर्मफलदाता मानते हैं और यह समझते हैं कि किसी को जो दुःख मिलता है वह उस के अपने कर्मों का फल है और फल भी ईश्वर का दिया हुआ है। फिर वे यदि किसी अन्धे की, लूले लंगड़े आदि दुःखी व्यक्ति की सहायता करते हैं । यह ईश्वर के साथ विद्रोह नहीं तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नहीं कर रहे हैं ? और क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियों पर प्रसन्न रह सकेगा ? तथा ऐसे दया, दान आदि सदनुष्ठानों का कोई महत्त्व रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कदापि नहीं।
४-यदि ईश्वर जीवों के किये हुए कर्मों के अनुसार उन के शरीरादि बनाता है तो कर्मों की परतन्त्रता के कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता, जैसेकि- जुलाहा । तात्पर्य यह है कि जो स्वतंत्र है, समर्थ है, उसी के लिये ईश्वर संज्ञा ठीक हो सकती है । परतन्त्र के लिये नहीं हो सकती। जुलाहा यद्यपि कपड़े बनाता है परन्तु परतन्त्र है और असमर्थ है । इसलिये उसे ईश्वर नहीं कह सकते।
५-किसी प्रान्त में किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उस के प्रभाव से चोरों, डाकुओं आदि का चोरी आदि करने में साहस ही नहीं पड़ता और वे कुमार्ग छोड़ कर सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं । जिस से प्रान्त में शांति हो जाती है और वहां के लोग निर्भयता के साथ *कर्मापेक्षः शरीरादिर्देहिनां घटयेधदि। न चैवमीश्वरो न स्यात् पारत च्यात् कुर्विदवत् ।
(सृष्टिवादपरीक्षा में श्री चन्द्रसैन वैद्य)
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