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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः स्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोग विभाग परत्वापरत्व गुरुत्व द्रवत्ववेगाख्यै रूपेता। तथाऽप्त्वयोगादापः,ताश्चरुपरसस्पर्श संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग परत्वापरत्व गुरुत्वस्वाभाविक द्रवत्व स्नेह वेगवत्यः तासु च रुपं शुक्लमेव, रसोमधुर एव स्पर्श:शीत एवेति । तेजस्वाभिसम्बन्धात्तेजः, तच्च रुपस्पर्शसंख्या परिमाण पृथक्त्व संयोगविभागपरत्वापरत्वनैमित्तिकद्रवत्ववेगाख्यैरेकादशभिर्गुणैर्गुणवत् । तत्र रूपं शुक्लं भास्वरंच, स्पर्श उष्णएवेति। वायुत्वयोगाद् वायुः, सचानुष्णाशीतस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्व वेगाख्यैवभिर्गुणैर्गुणवान्, हृत्कम्पशब्दानुष्णशीतस्पर्शलिङ्गः । आकाशमिति पारिभाषिकी संज्ञा एकत्वात्तस्य, तच्च संख्यापरिमाण पृथक्त्व संयोगविभागशब्दाख्यैः षड्भिर्गुणैर्गुणवत्, शब्दलिङ्गञ्चेति । एवमन्यैरपि वादिभिर्भूतसद्भावाश्रयणे किमिति लोकायतिकमतापेक्षया भूतपञ्चकोपन्यास इति ? उच्यते-सांख्यादिभिर्हि प्रधानात् साहङ्कारिकं तथा कालदिगात्मादिकं चान्यदपि वस्तुजातमभ्युपेयते, लोकायतिकैस्तु भूतपञ्चकव्यतिरिक्तं नात्मादिकं किञ्चिदभ्युपगम्यत इत्यतस्तन्मताश्रयणे नैव सूत्रार्थो व्याख्यायतइति ॥७॥
टीकार्थ – सूत्रकार विशेष रूप से चार्वाक सिद्धान्त को उपलक्षित कर कहते हैं -
'ये पांचों समस्त लोक में व्याप्त हैं, इसलिए इनके साथ महत्त्व विशेषण का उपयोग हुआ है, ये महाभूत कहे जाते हैं । इस विवेचन से जो भूतों का अभाव मानते हैं, ऐसे सिद्धान्तवादियों का मत खण्डित हो जाता है-ऐसा समझना चाहिए । इस संसार में भूतवादी, उनके तीर्थंकर-सिद्धान्त प्ररूपक पुरुष अथवा बृहस्पति के सिद्धान्तों का अनुसरण करने वाले पुरुषों में इन्हीं पांचमहाभूतों का आख्यान या प्रतिपादन किया है, स्वयं इसको स्वीकार किया है, दूसरों को वैसा करने का उपदेश दिया है । वे पांच महाभूत इस प्रकार है - (१) पृथ्वी का स्वरूप कठिनता या सख्ती लिए हुए हैं । (२) जल द्रव या तरल रूप है, (३) अग्नि का स्वरूप उष्णता है, (४) वायु का लक्षण चलनशीलता या गतिशीलता है (५) आकाश का स्वरूप रिक्तता या खालीपन है। ये भली भाँति प्रसिद्ध हैं । प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा जाने जा सकते हैं । इसलिए कोई इन्हें असत्य नहीं कह सकता। सांख्यआदि अन्य दर्शनों ने भी पांच भूतों को स्वीकार किया है । सांख्यदर्शनवेत्ता ऐसा बतलाते हैं-सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण मूलक प्रकृति से महत् तत्व उत्पन्न होता है । महत् का अर्थ बुद्धि है । बुद्धि से अहंकार की उत्पत्ति होती है, अहं-मैं हूँ ऐसी प्रतीति होती हैं, उस अहंकार से सोलह तत्वों का समूह उत्पन्न होता है । जो इस प्रकार है-स्पर्शन आदि पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाणी, हाथ, पैर, मलस्थान, मूत्रस्थान ये पांच कर्मेन्द्रिया, ग्यारहवां मन, तथा पांचतन्मात्राऐं । वे तन्मात्राए-गन्धतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा और शब्दतन्मात्रा के रूप में है । गन्ध तन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न होती है, पृथ्वी में गन्ध, रूप, रस और स्पर्श ये चार गुण है। रसतन्मात्रा से जल उत्पन्न होता है, उसमें रस, रूप और स्पर्श ये तीन गुण है । रूपतन्मात्रा में अग्नि उत्पन्न होती है, उसमें रूप और स्पर्श ये दो गुण हैं । स्पर्शतन्मात्रा से वायु उत्पन्न होता है । स्पर्शवायु का गुण है। शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है । वह गन्ध, रस रूप और स्पर्श से रहित है।
वैशेषिक दर्शन में आस्थाशीलजनों ने भी इन भूतों का वर्णन किया है । उनके अनुसार पृथिवीत्व योग से-पृथ्वी धर्म के संबंध से पृथ्वी उत्पन्न होती है । वह नित्य और अनित्य दो प्रकार की है । परमाणु के रूप में-परमाणुविक स्वरूप की अपेक्षा से नित्य है । द्वयणुकादि के क्रम से उसके जो भिन्न-भिन्न कार्य उत्पन्न होते है, उनके अनुसार वह अनित्य है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और वेग इन १४ गुणों से युक्त है । अपत्व-जलत्व के योग से-जलत्व धर्म के संबंध से जल का अस्तित्व है । वह रूप, रस, स्पर्श, संख्या, परिमाण पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व,