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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - चार्वाक इस प्रकार अपने सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं -
(पांचभूतों के अतिरिक्त कोई भी परलोक जाने वाला-मृत्यु के उपरान्त अन्यभव प्राप्त करने वाला आत्मा नाम का पदार्थ नहीं है । न पाप है और न पुण्य है । ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकृतकर ये लोकायतिक-इसलोक को ही सब कुछ मानने वाले चार्वाक-इन सिद्धान्तों में विश्वास करने वाले पुरुष कामनाओं में-सांसारिक सुखों की अभिप्सा और भोग आदि में आसक्त लोलुप बने रहते हैं। वे इन शब्दों में एक महिला को संबोधित करते हुए कहते हैं-हे कल्याणी ! ये मानवलोक इतना ही है जितना इन्द्रियों द्वारा दृष्टिगोचर होता है, प्राप्त होता है । एक मनुष्यमार्ग से निकला । मार्ग में उसके पैर का निशान अंकित हो गया, उसे देखकर अबहुश्रुत-अज्ञानी पुरुष कह देते है कि ये भेड़िये के पंजे का निशान है । स्वर्ग, आदि भी इसी प्रकार अज्ञानजनित मित्याकल्पनाएं है । हे सुन्दरी !-उत्तम देहधारिणी, अच्छा खाओ और पीओ । जो व्यतीत हो गया, वह तुम्हारा नहीं है । हे भोली ! जो चला गया, वो वापस नहीं लौटता । यह शरीर पांच तत्वों का समुदय या सम्मिलित पुंज है ।
__ इस प्रकार अपने-अपने सिद्धान्तों में जिनका अन्तःकरण अनुवासित-आसक्त है, वे परमार्थ को नहीं जानते । तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का अतिक्रमणकर-त्यागकर अपने-अपने ग्रन्थों में सिद्धान्तों में बंधे रहते हैं तथा काम भोगों में लिप्त रहते हैं ।
संति पंच महब्भूया, इह मेगेसिमाहिया ।
पुढवी आउ तेऊ वा वाउ आगासपंचमा ॥७॥ छाया - संति पञ्च महाभूतानीहैकेषा माख्यातानि ।
पृथिव्यापस्तेजो वा वायुराकाशपञ्चमानि ॥७॥ अनुवाद - पंचभूतवादी ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच महाभूत ही इस जगत में मूल तत्व है ।
टीका - साम्प्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वाकमतमाश्रित्याह - संति विद्यन्ते महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, सर्वलोकव्यापित्वान्महत्वविशेषणम् अनेन् च भूताभाववादिनिराकरणं द्रष्टव्यम् ‘इह' अस्मिन् लोके एकेषां भूतवादिनाम् आख्यातानि' प्रतिपादितानि तत्तीर्थकृता तैर्वा भूतवादिभिर्बार्हस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि स्वयमङ्गीकृतान्येषाञ्च प्रतिपादितानि । तानि चामूनि, तद्यथा-पृथिवी कठिनरूपा, आपोद्रवलक्षणाः तेजउष्णरूपं, वायुश्चलनलक्षणः, आकाशं सुषिरलक्षणमिति, तच्चपञ्चमं येषां तानि तथा, एतानि साङ्गोपाङ्गानि प्रसिद्धत्वात् प्रत्यक्ष प्रमाणावसेयत्वाच्च न कैश्चिदपोतुंशक्यानि।ननु च सांख्यादिभिरपि भूतान्यभ्युपगतान्येव, तथाहि सांख्यास्तावदेवमूचुः -सत्वरजस्तमोरूपान्, प्रधानान्महान् बुद्धिरित्यर्थः महतोऽहङ्कारः-अहमिति प्रत्ययः, तस्मादप्यहङ्कारात् षोडशको गण उत्पद्यते, सचायं-पञ्चस्पर्शनादीनि बुद्धीरिन्द्रयाणि, वाक्पाणिपादपायूपस्थरूपाणि पञ्चकर्मेन्द्रियाणि, एकादशमनः, पञ्चतन्मात्राणि, तद्यथा-गन्ध रस रूपस्पर्शशब्द तन्मात्राख्यानि । तत्र गन्धतन्मात्रात्पृथिवी, गन्धरसरूपस्पर्शवती।रसतन्मात्रादापो रसरूपस्पर्शवत्यः।रूपतन्मात्रात्तेजो रूपस्पर्शवत् स्पर्शतन्मत्राद्वायुःस्पर्शवान् शब्दतन्मात्रादाकाशं गन्ध रसरूप स्पर्शवर्जितमुत्पद्यत इति । तथा वैशेषिका अपि भूतान्यभिहितवन्तः तद्यथा-पृथिवीत्वयोगात्पृथिवी, साच परमाणु लक्षणा नित्या, द्वयणुकादिप्रक्रमनिष्पन्न कार्य्यरूपतयात्वनित्या । चतुर्दशभिर्गुणै रूपरसगन्ध
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