Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
[ ३६ अन्वयार्थ—(रूपलावण्य सौभाग्य) सुन्दर रूप कान्ति और उत्तम भाग्यवाली (रत्नाकर क्षितिः) गुण रूपी रत्नों युक्त अथवा रत्नों से परिपूर्ण भूमि के समान (सुव्रता सा) श्रावकोचित श्रेष्ट व्रतों को धारण करने वाली बह (निजपुण्येन) अपने पुण्य से (मुनेर्मतिः वा) वीतरागी मुनि की पवित्र बुद्धि के समान (रेजे) शोभती थी।
भावार्थ-महारानी चेलना की रूप राशि अद्वितीय थी। उसे अपने रूप का तनिक भी मद नहीं था, बह लावण्य की प्रतिमा, सहज सौभाग्य की खान पुण्यरूपी रत्नों से भरपूर धेष्ठभूमि के समान अथवा रत्नाकर समुद्र के समान थी । समुद्र में अनेकों रत्न छिपे रहते हैं. इस रानी में भी दया दान, वात्सल्य, त्याग भाव. कला, विज्ञान, पातिन्नत, शीलाचारादि रत्नराशि अन्तनिहित थी । नगर्भा भमि में जैसे हीरा, माणिक पन्ना, पुखराज, नीलम आदि
प्रकार के रत्त होते हैं उसी प्रकार यह चेलनी भी गण रूपी रत्नों से मण्डित थी तथा मद रहित अहंकार से रिक्त थी अत: उसकी शोभा मुनिजनों की पवित्र बुद्धि के समान श्रेष्ठ वा अनुपम थी। जिस प्रकार साधुजन निर्मल चारित्र और तप को धारण करते हुए तथा तलस्पर्शी आगमज्ञ होने पर भी उसका गर्व नहीं करते हैं उसी प्रकार चेलना रानी गुणों की खान थी पर उसे उनगुण रूपादि का अहंकार नहीं था ।।८१।।
पात्रदानेन पूतात्मा या सदा शर्मकारिणी ।
अभूत् त्रिविष्टपेख्याता कीर्ति वा श्रेयसः प्रभोः ॥२॥
अन्वयार्थ (पात्रदानेन पूतात्मा) पात्रदान से पवित्रात्मा (सदा शर्मकारिणी) सदा सुखशान्ति के कार्यों को करने बाली (या) जो अर्थात् चेलनी महारानी (श्रेयसः) हितकर उत्तम कार्यों को करने वाले (प्रभोः) राजा श्रेणिक की (विविष्टपे) विश्व में विख्यात (कीर्ति वा अभूत् ) कीति स्वरूप थी।
भावार्थ-यद्यपि चेलना कला, कौशल, रूप विद्या शिल्पादि अनेक गुणों से सम्पन्न थी किन्तु उसकी महतो कीति का कारण पात्र दान था । सदा सबका हित चाहने वाली परस्परोपग्रह की उत्तम भावना से पवित्र चेलना उत्तम मध्यम और जघन्य पात्रों को निरन्तर यथाविध दान देते रहने से विश्व में विख्यात हो गई थी जिस प्रकार महाराजा श्रेणिक सबके लिये सदा श्रेयकारी थे उसी प्रकार उत्तमोत्तम गुरणों से युक्त महारानी चेलना भी श्रेयकारिणी थीं। वे निरन्तर पात्रों को ही दान करती थी कुपात्र अपात्र को नहीं । क्योंकि पात्र को दिया गया दान ही परम्परा से मुक्ति का कारण है।
___ यहाँ यह प्रश्न होता है कि पात्र, कुपात्र और प्रपात्र में क्या भेद है ? और पात्र दान से किस प्रकार आत्मशुद्धि होती है ?
समाधान--जो मोक्ष के कारण भूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप गुणों से युक्त हैं, वे पात्र हैं । सकल चारित्र और सम्यक्त्व सहित महामुनि उत्तम पात्र हैं । देश