Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
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(२) क्रोध-.-'ऋध' धातु से क्रोध शब्द बना है जो क्षमा गुण का घात करने वाले कषाय विशेष का बोधक है । यह यात्मा को सर्वतः कष्ट देने वाला परिणाम है जैसा कि कहा भी है-कषति हिनस्ति आत्मानं कुगति प्रापणात् इति कषायः" जो हर प्रकार से जीव को कष्ट देता है दुर्गति का कारण है उसे कयाय कहते हैं और कषायों में क्रोध का प्रथम स्थान है।
__ शक्ति की अपेक्षा क्रोध चार प्रकार का है-(१) पत्थर पर खींची गई रेखा के समान अधिक काल तक रहने वाला (२) पृथ्वी पर खींची गई रेखा के समान । जिसकी बासना छ: महीने तक बनी रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । (३) धुलि रेखा के समान-जिसकी वासना १५ दिनों तक बनी रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । (४) जल रेखा के समान-जिसकी वासना अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकती है ऐसी क्रोधाग्नि । ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव गति के कारण हैं।
__ मान कषाय-मदुता या विमय गुण का घात करने वाले परिणाम विशेष को मान कहते हैं । माक्ति के तरतम स्थानों की अपेक्षा मान के भी ४ भेद हैं- (१) पत्थर के समान (२) हङ्गडी के समान (३) काठ के समान (४) बेंत के समान । इनकी वासना का काल ऋभ से श्रोध के समान ही जान लेना चाहिए । इनमें पत्थर के समान मान नरक भति का कारण है हड्डी के समान जो मान हैं बह निर्यच्च गति का कारण है । काठ के समान मान मनुष्य गति का और बेत के समान मान देव गति का कारण है।
(३) माया कषाय-यात्मा के ऋजुता या सरलता गुरण का घात करने वाले कषाय विशेष का नाम माया है। इनके भी शक्ति की अपेक्षा ४ भेद है: (१) बाँस की जड़ के समान (२) मेढ़ी के सींग के समान (३) गोमूत्र के समान (४) खुरपे के समान । शेष कथन पूर्वबत् जानना चाहिये ।
(४) लोभ कषाय शुचिता निर्लोभत। या आकिञ्चन्य गुण का घात करने वाले कषाय विशेष का नाम लोम है । इनके भी शक्ति की अपेक्षा ४ भेद हैं- (१) क्रिमीराग के समान–किरिमची का रङ्ग अत्यंत गाढ़ होता है और बड़ी मुश्किल से छूटता है (२) चक्रमल के समान अर्थात् रथ आदि के पहियों के भीतर की ओंगन के समान (३) शरीर के मल के समान (४) हल्दी के रङ्ग के समान । शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिथे।
इन कषाय रूपी शत्रुओं को जीतने के लिये वाह्य अस्त्र, शस्त्र, तलवार भाला आदि की आवश्यकता नहीं होती है इनको आत्म विशुद्धि के बल से जीता जा सकता है ।
(५) हर्ष --इन्द्रिय सुख की सामग्री के मिलने पर उसमें विशेष प्रानन्द मानना और शरीर सुख से अपने को सुखी मानना-इत्यादि रूप जो हर्ष है यह भी आत्म गुणों का घातक शत्रु है।
(६) मद-- अहंकार भाव को मद कहते हैं । मद आठ प्रकार का है- (१) ज्ञान