Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद निश्चय से "मोणं वा वयगुत्ति" मौन से रहना, शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बचनों से निवृत्त होना वचन गुप्ति है।
आगे कायगुप्ति का स्वरूप नियमसार में इस प्रकार बताया गया है--
चंधनछेदन मारण प्राकुचण तह पसारणादीया ।
काकिरिया णियत्ति द्दिठ्ठा कायगुत्ति त्ति || शरीर मे हिंसात्मक कार्यों का न करना. बन्धन दन मारणादि कार्य तथा पर्थ में आकुञ्चन' प्रसारणादि कार्य का न करना कायगुप्ति है । अथवा शुभ अशुभ दोनों प्रकार की क्रियाओं से निवृत्त होकर शरीर को निष्क्रिय रखना कायगुप्ति है।
__ ये तीनों ही गृप्तियां अति दुर्लभ हैं । विशिष्ट तपस्वी मुनियों में ही पायी जाती हैं तथा मुनिजनों के लिये थे गुप्तियाँ ही ग्राभूषण हैं उनकी शोभा को बढ़ाने वाली हैं इसी प्रकार योग्य मन्त्रणा देने वाले मन्त्री, अनुकूल आचरण करने वाले उत्साहशील राजाओं और उत्तम सैन्य बल आदि की प्राप्ति होना राजा के लिये प्राभूषण है । इनसे राजा की शोभा बढ़ती है ॥७७।।
न केवलं बहिः शत्रून् जयतिस्म महीपतिः ।
अन्तरङ्गोरूशत्रूश्च सविधान् संव्यजेष्ट सः ।।७८॥
अन्वयार्थ--(महीपतिः) राजा श्रेणिक (न केवल) न केवल (बहिः शत्रुन) बाह्य शत्रुओं को (जयतिस्म) जीतता था अपितु (षट् विधान ) छः प्रकार के (डरु अन्तरङ्ग शत्रून्) बलिष्ट अन्तरङ्ग शत्रुओं को भी (संन्यजेष्ट जीतता था ।
भावार्थ - राजा श्रेणिक महाराज अपने विशिष्ट शौर्य, वीर्य, पराक्रम के द्वारा तथा निज सैन्य बल से वाह्य में विपरीत पाचरण करने वाले जो शत्रुगण हैं उनको जीतने में तो कुमल था ही, साथ में जो क्रोध, मान, माया लोभ हर्ष और मद रूप शत्रु हैं उन पर भी विजय प्राप्त करने वाला था । अर्थात् राजा श्रेणिक महाराज अन्तरङ्ग बहिरङ्ग दोनो प्रकार से बलिष्ट थे । मावा मियाल्व अज्ञानादि अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतने की कला में भी निपुण थे, इन्ही अन्तरङ्ग शत्रुओं का निर्देश करते हुए आचार्य लिखते हैं- ।।७।।
कामलोधश्चमानश्च लोभोहर्षस्तथामवः । ।
अन्तङ्गारिषड्वर्गाः क्षितीशानां भवन्त्यमी ॥७॥ अन्वयार्थ . (कामक्रोधश्चमानश्च) काम, क्रोध और मान (लोभोर्षस्तथामदः) लोभ हर्ष तथा मन्द (अमीषड्वर्गाः) ये छः प्रकार के ( क्षितीशानां) राजाओं के (अन्तरङ्गारि) अन्तरङ्ग शत्रु हैं।
भावार्थ -- अन्तरङ्ग शत्र छ: प्रकार के हैं०(१) काम–पञ्चेन्द्रिय विषयों की इच्छा वाञ्छा को काम कहते हैं।