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श्रमण-सूत्र
नहीं है, यह तो पारस है ।' गरीब को कैसे विश्वास होता ? परन्तु ज्यों ही फकीर ने दरिद्र के तवा, करछी, चिमटा श्रादि लोहे की चीजों को पारस से छूया तो सब सोने के बन गए। अब क्या था, एक क्षण में ही उस ग़रीब की सारी दरिद्रता मिट गई, आँखें खुल गई ! ठीक यही दशा हमारी है। पारस रूप श्रात्मा से विण्यभोग की चटनी पीस रहे हैं । परन्तु ज्यों ही मगल-चतुष्टय के उज्ज्वल प्रकाश से आँखे खुलती हैं तो एक ही क्षण में जीवन का नकशा बदल जाता है। प्रभु-शक्ति हमारे अन्दर ही है, वह माँगी हुई बाहर से नहीं मिलती। जैन धर्म का श्रादर्श बाहर से कुछ पाने का नहीं है । और न किसी से कुछ लेने का ही है । मंगल चतुष्टय की शरण हमें कुछ देती नहीं है। प्रत्युत हमें अपना भान कराती है, सुत ज्ञान-चेतना को जागृत करती है । 'याशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादशी'-न्याय के अनुसार, जो जैसा स्मरण करता है वह वैसा बन जाता है । ध्यान की महिमा अपरंपार है ।
एक प्रश्न है, उस पर विचार कर ले। अाजकल लोग इतना नाम लेते हैं, प्रभु का स्मरण करते हैं; किन्तु उद्धार नहीं होता, यह क्या बात ? ठीक है, हमारा उद्धार इसलिए नहीं हो रहा है कि जिस प्रकार नाम लेना चाहिए वैसे नहीं लेते। केवल बला टालने के लिए, लोकदिखावे के लिए, संख्या-पूर्ति करने के लिए भगवान का नाम लिया जाता है । यदि भागध्य देव के प्रति हृदय में यथार्थं श्रद्धा हो, आकर्षण
और प्रेम हो, श्रादर-बुद्धि हो, निष्काम भाव हो तो अवश्य ही ज्ञान की चिनगारी प्रज्वलित होगी । श्रद्धा का बल असीम होता है । . प्रतिक्रमण श्रावश्यक के प्रारंभ में यह मंगल, उत्तम, एवं शरण सूत्र इसलिए पढ़ा जाता है कि साधक शान्त भाव से अपने मन को दृढ़, निश्चल, सरस एवं श्रद्धालु बना सके। प्रतिक्रमण के लिए
आध्यात्मिक भूमिका तैयार करने के लिए ही यह त्रिसूत्री यहाँ स्थान पाए हुए है । 'दसण सुद्धि-निमित्त' श्रावश्यक चूणि ।
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