________________
चार्वाकदर्शनम्
११
लिङ्ग या हेतु को
अवस्था में अनुमान
में पक्ष और साध्य का । मूल ग्रन्थ की पंक्ति में कहा है कि अनुमान में व्याप्ति और पक्षधर्मता के वाक्यों में स्थित रहना चाहिए । प्रत्येक की सफलता व्याप्ति पर ही अवलम्बित है अतः व्याप्तिज्ञान के लिए न्याय - दर्शन में अनेक उपाय बतलाये गये हैं । पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तो इसके लिए पूरा आगमन तर्कशास्त्र ( Inductive Logic ) ही पड़ा हुआ है । चार्वाक सिद्ध करते हैं कि व्याप्ति को न तो प्रत्यक्ष से जान सकते, न अनुमान से; उपमान और शब्द भी इसमें असफल हैं ।
1
व्याप्ति के ज्ञान में दो उपाधियाँ ( Condition ) होती हैं— निश्चित और शंकित । यह तो स्पष्ट है कि व्याप्ति में उपाधि रहने पर निगमन भी सोपाधिक होगा अर्थात् अशुद्ध होगा । निम्नलिखित अनुमान सोपाधिक है
सभी हिंसाएँ अधर्म का साधन हैं, यह हिंसा भी हिंसा ही है, .. यह हिंसा अधर्म का साधन है ।
यहाँ पर व्याप्तिवाक्य में 'निषिद्ध' उपाधि है अर्थात् व्याप्ति को इस प्रकार होना चाहिए - 'सभी निषिद्ध हिंसाएँ अधर्म का साधन हैं' यदि ऐसा नहीं किया जाय तो वेदविहित- हिंसा भी अधर्म का साधन हो जाय । इसी उपाधि के चलते निगमन भी सोपाधिक ( Conditional ) हो गया कि 'यदि यह निषिद्ध हिंसा है तो अधर्म का साधन है' । अस्तु ऊपर कहा जा चुका है कि व्याप्ति की सत्ता से ही अनुमान लाभान्वित नहीं होता, जब तक कि उसका निश्चित ज्ञान न हो। इसी प्रकार व्याप्ति यदि उपाधि में निश्चित हो तब तो अनुमान हो नहीं सकता । उपाधि के शंकित होने पर भी कहीं व्याप्ति होगी, कहीं नहीं । ऐसी अवस्था में व्याप्ति होने पर भी उसके निश्चित ज्ञान के अभावमें अनुमान नहीं हो सकता, व्याप्ति न रहने पर तो अनुमान का प्रश्न ही नहीं उठता । इसीलिए व्याप्ति को उभयविध-उपाधि से विधुर ( रहित ) होना कहा गया है । ( ८. प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता )
न तावत्प्रत्यक्षम् । तच्च बाह्यमान्तरं वाऽभिमतम् । न प्रथमः । तस्य सम्प्रयुक्तज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसम्भवेऽपि भूतभविष्यतोस्तदसम्भवेन सर्वोपसंहारवत्याः व्याप्ते दुर्ज्ञानत्वात् । न च व्याप्तिज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योरविनाभावाभावप्रसङ्गात् । नाऽपि चरमः अन्तःकरणस्य बहिरिन्द्रियतन्त्रत्वेन बाह्येऽर्थे स्वातन्त्र्येण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । तदुक्तम् - चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्रं बहिर्मनः ( त० वि० २० ) । इति ॥
प्रत्यक्ष प्रमाण से तो [ व्याप्ति का ज्ञान ] नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष या तो बाह्य ( External ) होता है या अन्तर ( Internal)। इनमें पहले (बाह्य) प्रत्यक्ष से