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१. सम्यग्दर्शनाधिकार
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ज्ञान ) कराता है यह "हैं और व्यवहार नय पदार्थोके असत्य ( नकली अभूतार्थ) स्वरूपका बोध . मूल भेद है । अतएव व्यवहारनय प्रारम्भमें कामचलाऊ अस्थायी साधन है लेकिन य अवश्य है । और निश्चयन हमेशा कार्यकारी व स्थायी साधन है और उपादेय है । फलतः व्यवहारनयका प्रयोजन जबतक उसकी सहायतासे निश्चयनयका या पदार्थोके असली स्वरूपका ज्ञान नहीं हो जाता care लिए है, हृाके लिए उसका आलम्बन व प्रयोजन नहीं है (निका उद्योत होने पर वह स्वयं सिरोहित या अनावश्यक हो जाता है, कारण कि निश्चयrय स्वयं स्वसहाय है पर सहाय नहीं है। तभी तो 'स्वाश्रितो निश्चयः', 'पराश्रितो व्यवहारः' कहा गया है। सारांश व्यवहार नयकी उपयोगिता ( सार्थकता तभीतक है जबतक निश्चयलयका राज्य नहीं होता है। जिस } प्रकार म्लेच्छ भाषाका उपयोग तबतक किया जाता है जबतक कि म्लेच्छ ( अनार्थ ) जीव आर्यभाषा नहीं जानता, जब वह आर्यभाषा जान लेता है तब फिर अनार्य भाषाका प्रयोग बन्द कर दिया जाता है । ऐसा हो प्रयोजन व्यवहारनधका समझना चाहिये । परन्तु दोनों नय परस्पर सापेक्ष ( संधिरूप ) एकत्र अवश्य रहते हैं व माने जाते हैं अर्थात् एकके अभाव में दूसरा नय अपना कार्य करता है । सारांश यह कि जब एक नय अपना कार्य नहीं करता तब दूसरा ( विपक्ष ) नय अपना कार्य करता है और एक दूसरेकी सत्ता ( अस्तित्व ) स्थापित करता है क्योंकि एकके बिना दूरेका नामनिर्देश हो नहीं सकता ऐसा परस्पर जोड़ा है, हो, गणनुदरा बहती है ि अधिकरण भी दोनों नमोंका एक ही द्रव्य है ।
वहान भेद व कार्य
पर्याव्यवहारय तीन प्रकारका होता है ( १ ) भेदाति वा भेदरूप मान्यता ( २ ) श्रित या पर्याय मान्यता ( ३ ) पराश्रित या निमित्ताधीन मान्यता । इन सीनोंका उदाहरण प्रयोजनवश व्यतिक्रमरूपसे दिया जाता है । और जीवद्रव्यका ज्ञान करानेके लिये व्यवहारको विधि ( प्रक्रिया ) बतलाई जाती हैं। यथा---
( १ ) जब कोई अज्ञानी मनुष्य जीवके निश्चय स्वरूपको जानना चाहता है तब यदि उसको इकदम प्रारंभ में यह बताया जाय कि जीवका निश्चयस्वरूप 'एकत्वविभक्त' है इत्यादि, तब बिना दिखाये या व्यवहारनयकी सहायता व आलम्बन लिये वगैर अनंत कालतक वह जोवcount नहीं जान सकता, यह पक्का है । इसलिये प्रारंभकालमें जीवका ज्ञान, पर्यायाश्रित व्यवहारनयका आश्रय लेकर कराया जाता है कि - जिसके मनुष्य देवनारकतिचिका शरीर हो या पाँच इन्द्रियां हों, वही जीव कहलाता है । उस जिज्ञासु श्रोताको यह ज्ञान हो जाता है कि मेरे मनुष्य शरीर व इन्द्रियाँ हैं, अतः में जीव हूँ । यहाँ पर जीवका ज्ञान संयोगी पर्याय द्वारा कराया जाता है जो व्यवहारयरूप है या व्यवहारका कार्य हैं अर्थात् इस प्रकार जीवद्रव्यका श्रोता या जिज्ञासुको ज्ञान होना व्यवहारनपाश्रित है, निश्चयनयाश्रित ज्ञान नहीं है। उपचरितज्ञान है कारण कि शरीर या इन्द्रियाँ सब पुद्गलको पर्याय हैं जो जीवद्रव्यसे भिन्न हैं ।
( २ ) इसी तरह पराश्रित ( निमित्ताश्रित ) व्यवहारनयका उदाहरण ऐसा है— जो इन्द्रियों