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* प्राकृत व्याकरण *
अमर-पंक्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भमर पन्ति होता है। इस सूत्र संख्या २७९ से 'र' का लोपः १-३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'तू' होने से 'न' की प्राप्ति २७७ से 'कू' का लोप और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होकर भमर-पन्ति सिद्ध हो जाता है
रूपक इसमें ऊपर करदी गई है। पृथिवी : ईशः = पृथ्वीशः ) संस्कृत रूप हं । इसका प्राकृत रूप हवीसो होता है। इसमें सूत्र संख्या ११३१ से 'क' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति १-८८ से प्रथम '' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति १-१८७ से 'य' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति १५ से द्वितीय 'ई' की सजातीय स्वर होने से संधिः १-२१० से ' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति को एक वचन म अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुहवीतो रूप सिद्ध हो जाता है । १-६ ॥
एदोतोः स्वरे ॥ १-७ ॥
एकार - श्रकारयोः स्वरे परे संधिर्न भवति ॥
बहु
नहुलि बन्वन्तीए कन्चु मयरद्धय-सर-धोरण-धारा -अ च दीसन्ति ॥
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मासु अज्जम - कलम-दन्ता वहा समूरुजु तं चैव मलि-विस- दण्ड- विरस मालक्खिमां एसिंह || २ | अहो अच्छर । एदोतीरिति किम् ॥ अत्थाजोग्रण- तरला इअर कई ममन्ति बुद्धी श्री । अत्थच्चे निरारम्भमेन्ति हिग्रयं कन्दाणं || ३ ||
अङ्गं ।
१ ॥
अर्थः- प्राकृत शब्दों में अन्त्य 'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् कोई स्वर आ जाय तो परस्पर में इस 'ए' reer 'ओ' के साथ आगे आये हुए स्वर की संधि नहीं होती है। जैसा कि उपरोक्ष गायाओं में कहा गया है:
'लिहणे आवन्तोए' 'में' 'ए' क' पदचात् 'आ' आया हुआ हूं तथा 'आलक्सिमो एव्ह' में 'ओ' के पश्चात् 'ए' माया हुआ है । परन्तु इनकी संधि नहीं की गई हूँ । यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । उपरोक्त गाथाओं की संस्कृत छाया इस प्रकार हूं।
Fear (वधू कायाः) नखोलेखने आवघ्नत्या कञ्चुकमङ गे । मकरध्वज-शर- धोरखि-धारा छेदा इच दृश्यन्ते ॥ १ ॥ अपर्याप्त भदन्तावभासमूरुयुगम् 1 तदेव मृदित बस दण्ड विरसमालचयामह इदानीम् ॥ २ ॥
उपमासु