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मागधी और पालि के सम्बन्ध का विवेचन हम पहले कर चुके ह । अद्धमागधी के सम्बन्ध में भी कुछ कह चुके हैं । यहाँ केवल इतना ही कहना है कि जिस रूप में अर्द्धमागधी के स्वरूप का साक्ष्य हमें जैन आगमों में मिलता है, उसकी ध्वनि और रूप की दृष्टि से पालि से समानताएँ तो हैं किन्तु अर्धमागधी को पालि का उद्गम या आधार स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्युत उसका विकास पालि के बहुत बाद हुआ है । पालि और अर्द्धमागधी की कुछ समानताएँ इस प्रकार हैं--(१) संस्कृत 'अस्' और 'अर्' के स्थान में 'ए' हो जाना। पालि के पुरे (पुरः); सुवे (श्वः); भिक्खवे (भिक्षवः); पुरिसकारे (पुरुषकारः); दुक्खे (दुःखं) जैसे शब्दों में यह अर्द्धमागधीपन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। (२) संस्कृत 'तद्' के स्थान पर 'से' हो जाना। यह प्रवृत्ति 'सेय्यथा' (तद्यथा) जैसे पालि के प्रयोगों में रूढ़ हो गई है। (३) इसी प्रकार संस्कृत यद् के स्थान पर 'ये' हो जाना (४) र का ल हो जाना अर्द्धमागधी की एक बड़ी विशेषता है। पालि में भी यह कही-कहीं दृष्टिगोचर होती है, नियमानुसार नहीं (५) स्वरों और अनुनासिक स्वरों के बाद आने पर 'एव' का अर्द्धमागधी में 'येव' हो जाता है। पालि में भी यह प्रवृत्ति कहीं कहीं दृष्टिगोचर होती है। (६) कहीं कहीं वर्ण-परिवर्तन का विधान भी पालि में अर्द्ध-मागधी के समान ही है। उदाहरणतः संस्कृत'
पालि
अर्द्धमागधी साक्षं (आँखों के सामने) सक्खि (सक्खिं भी) सक्खं त्सरु (मूंठ, तलवार) थरु
थरु (छरु भी) वेणु (बाँस)
वेळु
वेळु लांगल (हल)
नंगळ
नंगळ लूडर्स ने, अर्द्धमागधी के प्राचीन स्वरूप को पालि का आधार माना है, अतः उन्होंने उपर्युक्त समानताओं पर अधिक जोर दिया है । किन्तु इन समानताओं की एक मर्यादा है। केवल कुछ छुटपुटे उदाहरणों को छोड़ पालि में ये प्रवृत्तियाँ नियमित दृष्टिगोचर नहीं होतीं। उदाहरणतः, सं० अस् की जगह 'ए' हो जाना, 'र' की जगह 'ल' हो जाना आदि प्रवृत्तियां जो अर्द्धमागधी की अनिवार्य विशेषताएँ हैं, पालि में कहीं कहीं ही पाई जाती हैं।
शौरसेनी प्राकृत शूरसेन अर्थात् ब्रज-मंडल या मध्य-मंडल की भाषा थी। यह प्राकृत संस्कृत के अधिकतम समीप है। उत्तरकालीन पालि में भी यही प्रवृत्ति