________________
( ३२ )
भाषा-तत्व की दृष्टि से पालि औरप्राकृतों में अनेक समानताएं हैं । उपर्युक्त विकास-विवरण से स्पष्ट है कि मागधी, अर्द्ध-मागधी, शौरसेनी और पैशाची प्राकृत ही पालि के तुलनात्मक अध्ययन में अधिक ध्यान देन े योग्य हैं । पहले हम सामान्यतः पालि में पाये जाने वाले प्राकृत-तत्वों का निर्देष करेंगे और फिर मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी ओर पैशाची के साथ उसका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करेंगे ।
पालि और प्राकृत भाषाओं का ध्वनि - समूह प्रायः एक सा ही है । ऋ, ऋ, लृ, ऐ और औ का प्रयोग पालि और प्राकृतों में समान रूप से ही नहीं पाया जाता । केवल अपभ्रंश में ऋ ध्वनि अवश्य मिलती है । पालि और प्राकृतों में ॠ ध्वनि अ, इ, उ, स्वरों में से किसी एक में परिवर्तित हो जाती है । ह्रस्व ए और ह्रस्व ओका प्रयोग पालि और प्राकृत दोनों में ही मिलता है । विसर्ग का प्रयोग पालि और प्राकृत दोनों में ही नहीं मिलता । श्, ष् की जगह मागधी को छोड़ कर और सब प्राकृतों और पालि में 'स्' ही हो जाता है । मूर्द्धन्य ध्वनि 'ळ' पालि और प्राकृत दोनों में ही पाई जाती है ।
विशेष रूप से प्राकृत-तत्त्व पालि में व्यंजन- परिवर्तनों में ही पाये जाते हैं । ये परिवर्तन इस प्रकार हैं (१) शब्द के अन्तः स्थित अघोष स्पर्श की जगह य या व् का आगमन (२) शब्द के अन्तःस्थित घोष महाप्राण की जगह ह हो जाना (२) शब्द के अन्तःस्थित अघोष स्पर्शो का घोष हो जाना । ( ४ ) महाप्राणत्व (ह-कार) का आकस्मिक आगमन या लोप ( ५ ) आकस्मिक वर्ण - व्यत्यय । ये परिवर्तन पालि में अनियमतः कहीं-कहीं और प्रायः अन्य सब प्राकृतों में नियमतः पाये जाते हैं | आगे पालि के ध्वनि-समूह के विवेचन में इनका सोदाहरण विवरण दिया जायगा । वास्तव में बात यह है कि जिन ध्वनि- परिवर्तनों का पालि में सूत्रपात ही हुआ है, उन्हीं का विकास हमें प्राकृतों में देखने को मिलता है । यही इन समानताओं का कारण है । इसका कुछ विस्तार से विवेचन हम आगे पालि के ‘व्यंजन-परिवर्तन' पर विचार करते समय करेंगे । यहाँ इतना ही कह देना आवश्यक है कि पालि के जिस रूप के साथ प्राकृत की समानता है अथवा उसके जिस रूप में प्राकृत-तत्त्व मिलते हैं, वह पालि का प्राचीन रूप न होकर उसका विकसित रूप है । इसीलिये पालि-भाषा के विकास में भी हम तारतम्य देखते हैं, जिसका वर्णन हम अभी आगे करेंगे ।