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नियमसार - प्राभृतम्
परमात्मनः आयुराविशेषाघातिकर्मणामपि य आत्यन्तिकपूथग्भावो विश्लेषो स द्रव्यमोक्ष इति । "
अतों ज्ञायते आर्हन्त्यावस्थावाप्तिर्भावमोक्षः सिद्धावस्थावाप्तिर्द्रव्यमोक्ष
इति ।
नियमो मोक्षोपायो यद्यपि व्यवहारनयेन क्षीणकषायान्त्य समयपरिणामस्तथाप्यधातिकर्मवशेन केवलिनामपि चारिणेषु वः संभवन्ति । तथा च व्युपरतक्रिया निवृत्तिलक्षणं ध्यानमपि उपचारेण तत्र कथ्यते । अतो निश्चयनयेनायोगकेवलिनामन्त्य समयपरिणामोऽपि रत्नत्रयस्वरूपमोक्षमार्ग एव । उक्तं च श्रीविद्यानन्दमहोदयैः“निश्चयनयादयोगकेव लिचरमसमयवर्तिनो व्यवस्थितेः ।"
मुक्तेर्हेतुत्व
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नाम
परमात्मा हैं, उनके उस चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में आयु, वेदनीय, और गोत्र इन चारों अघातिया कर्मों का भी अत्यंत रूप से पृथक् हो जाना द्रव्य मोक्ष है ।
रत्नत्रयस्य
इस कथन से यह जाना जाता है कि अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेना भावमोक्ष है और सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हो जाना द्रव्यमोक्ष है |
यह नियम नाम से जो मोक्ष का उपाय है, अर्थात् रत्नत्रय है, वह यद्यपि व्यवहारनय से क्षीणकषायी मुनि के अन्तिम समय का परिणाम है, फिर भी अघाति कर्म के निमित्त से केवली भगवंतों के चारित्र गुणों में आनुषंगिक दोष संभव हैं । तथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम का चौथा शुक्ल ध्यान भी उनके वहाँ पर उपचार से कहा गया है, इसलिए निश्चयनय से अयोगिकेवलियों का अन्तिम समय का परिणाम भी रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही है ।
१. बृहद्रव्य संग्रह |
२. इलोकवासिक, अ० १ ० १ ० १४८ ।
आचार्य श्री विद्यानंद महोदय ने कहा भी है
" निश्चयनय से अयोगकेवली का अन्तिमसमयवर्ती रत्नत्रय मुक्ति का हेतु है, यह बात व्यवस्थित है । "
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