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अनेकान्त
। वर्ष
दृष्टि-पाकर्षण किया।
पशु वर्ग के लिये पृथक् पृथक बैठनेके सुन्दर स्थान थे, तदन्तर मांमारक वातावरणमे दूर रहते हुए, वन- दिव्य प्रकारास समवशरण रात-दिन जगमगाता था। असंख्य पर्वतोंका निर्जनभूमिमें भगवान महावीर ने दुद्धर्ष तपस्या प्रणधारी भगवान महामोरके दर्शनार्थ तथा दिव्य उपदेश की। सी. गर्मी. वर्षा अपने 'गे शरीपर बिताते हुए सुननेके लिय वहां एकत्र हुए । सब में उत्साह था, भानंद एकान्त स्थानोंगर १२ वर्ष तक पूर्ण मौन रहकर काटन था और तीव्र इच्छा इस बात के सुननेकी कि 'देखें भगवान तपश्चर्या करते रहे। इस विकट, अमाधारण तपश्चरणने हमारे उद्धारके लिये क्या कुछ अमोघ उपाय बतलाते हैं।" महामा महावीरको भगवान महावीर बना दिया ।
किन्तु महान अश्चर्य हुश्रा सब किसीको यह देखकर मात्माको मांसारिक कारागारमें बलात् रोक रखने ली घातक कर्मबेड़ी महावीरकी महती तपस्यापे टूट कर अलग
कि "भगवानका मौन दूर नहीं होता । साधु अवस्थाका जा पही जिममे कि उनक' श्रामीय अनन्त, अनुपम प्रकश
१२ वर्षका मौन अब भी बना हुआ है । यह बात तो ठीक
है कि भगवान निरीह, नि:स्पृह है। उन्हें कोई भी किमी इस प्रकार प्रादुर्भून हुपा जिम प्रकार सूर्यपरमे याद नीका
भी प्रकार का राग या इच्छाभाव नहीं, जनताको उन्होंने पटल हट जानेमे उपकी ज्योति निकल पाती है। मुयकी
अपने निकट बुलाया नहीं और न उन्हें यह लालसा ही है ज्योति सीमित होती है किन्तु भगवान महावारको पूर्ण,
कि जनसमुह उनके पास भाकर बैठे, जनता उनके पास निर्मल ज्ञानज्योति प्रीमित थी उस ज्योनिमें समस्त
श्रावे नो क्या और न श्रावे नो क्या. उनके लिये दोनों (निलोक, अलीक, विश्व इस प्रकार प्रतिबिम्बत होना था
बात समान है, वे समस्त अभिलाष ओम प्रतीत होचुके हैं, जिस प्रकार निर्मल दर्पण में मनुष्यका मुख।
यह सब कुछ ठीक है किन्तु यह भी तो ठीक है कि अभी इम मिवाय मोह, राग, द्वेष, मद श्रादि श्राध्या
वे शरीरधारी है, वाचनिक माधन उनके निकट हैं, तीर्थ कर स्मिक दुषित मल पूर्णतया महावीरक महान श्रा'मा जिमम
कर्मप्रकृति अभी समाप्त नहीं हुई. मौन ( मूक ) केवली वे सर्वथा हट गये थे इस कारण भगवान महावीर प्रकार
हैं नहीं उन्हें तो इच्छ। विना भी तं यंकर प्रकृति अवश्य पूर्ण ज्ञानी थे उसी तरह पूणनिरजजन-स्वच्छ भी थे। एवं श्रामिक अनन्त शनि, उनके श्रामाम प्रगट हो
बुलवावेगी, उनके पापारिक निरावरण परिपूर्ण ज्ञानका
श्रांशिक ला जन-धारणा को अवश्य पहुंचावेगी, उनकी चकी थी और प्रारमासे विकलता पर्वथा दूर होजानके
मान्यता और विश्वपूज्य भावका भी प्रधान कारण यही कागा भगवान महावीर निविन निराबाध, परिपूर्ण सुख
दिव्य उपदेश है फिर वह अब सब धन मिलने पर भीक्यों भी प्राप्त कर चुके थे । इस प्रकार व शरीरधारी किन्तु
नहीं हो रहा, क्या कमी शेष रह गई है ?" बन्धनविमुक्त जीवन्मुक्न थे। भगवान महावीर के सर्वज्ञता दृष्टा होने का वह शुभ दिवस सामान
इत्यादि विनारधार ये आगन्तुक श्रोताओंके हृदयमें बह जीवन के ४३ व वर्ष वैशाख शुक्ल पक्ष का दशवां दिन था। रही थीं। "शायद थान नहीं तो कल भगवानका तीन
नाकलोकनामी देवोंको तथा उनके अधिपति सौधर्म भंग अवश्य होगा। इस प्रतीक्षामें जनता निराश न हाँ। इन्द्रको जब भगवान महावीरके कैवल्य प्राप्त होने का शुभ किन्तु यह क्या २-४-१०-२० दिन ही क्या, पहला और ममाचार ज्ञात हश्रा नब वे इस पृथ्वीतलकी सबसे बड़ी दूपरा माप ममाप्त होगया और दो मामके पीछे भी विभूतिको अपने नेत्रांप देखने ममाह पाये। जीवन्मुकका भगवान मुखमरसे उपदेशधारा प्रवाहित न हुई । जनता दर्शनकर बहुत हए और सन्तुष्ट हए । इन्द्रने भगवानके
में अदभुत हैरानी थी। यह तो श्रोताओंको निश्चय था कि दिव्य उपदेश प्राप्त करने के लिये अद्भुत सुन्दर, विशाल
उपदेश तो अवश्य होगा किन्तु यह अनिश्चय सबको दिव्य सभा मंडपका निर्माण कराया जिसका नाम बिकल कर रहा था कि वह होगा कौनसे शुभ समय ! 'समवसरण' था । समवशम्याके मध्य में उच्च स्थानपर भगवानका प्रधान भक्त इन्द्र सबसे अधिक विस्मित भगवान विराजमान थे । उनके चागों ओर देव, मानव, था क्योंकि भगवान के कैवल्यसे लाभ उठानेका सारा प्रबंध