Book Title: Jawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Jawahar Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gle&bilsk Ik જૈન ગ્રંથમાળા हाहासाहेब, लावनगर.. झोन : ०२७८-२४२५३२२ 5822008 किरण १६ किरणावली 148 बीकानेर के व्याख्यान Predes व्याख्याताः । स्वर्गीय जनाचार्य. श्री जवाहरलालजी महाराज सम्पादकः श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल, न्यायतीर्थ. G 8.6.50 जवाहर साहित्य समिति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara, Surat www.umarag nandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। श्रीजवाहर किरणावली-उन्नीसवीं किरण बीकानेर के व्याख्यान GandDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDODANDAMAD CADS व्याख्याता:जैनाचार्य पूज्यश्री १००८ श्री जवाहरलालजी महाराज सम्पादकश्री शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक:श्री जवाहर-विद्यापीठ भीनासर ( बीकानेर ) ....... की ओर से . सेठ पीरदानजी रावतमलली गुलगुलिया நேருக்குற்ற்ற கமருவற் குரு குகற்றுத் தரும் Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकःपीरदानजी रावतमलजी गुलगुलिया देशनोक (बीकानेर) प्रथमावृत्ति १००० सन् २६४६ मुद्रकाथी जालमसिंह के प्रबन्ध से गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, व्याघर में मुद्रित. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक का परिचय 'बीकानेर के व्याख्यान' श्रीमान सेठ पीरदानजी रावतमलजी गुलगुलिया देशनोक (बीकानेर) को तरफ से प्रकाशित हो रही है । गुलगुलियाजी मूलत: नाल (बीकानेर) के निवासी हैं। आप संवत् १९२५ में देशनोक आकर बसे । सं.१६३६ में सेट पीरदानजी सिलहट जैसे दूरवर्ती प्रान्त में गये तथा १९४२ में आपने मोलवी बाजार (सिलहट) में व्यापार प्रारंभ कर दिया। दो वर्ष बाद सेठ रावतमलनी भी सिलहट पहुँच गये और दोनों भाइयों ने मिलकर व्यापार की खूब उन्नति की। सं. १६४७ में इस फर्म की एक ब्रांच श्रीमंगल (सिलहट) में भी खोल दी गई। सं. १६६५ में दोनों भाइयों का कारबार अलग-अलग हो गया। तब से मोलवी बाजार की दुकान सेठ रावतमलजी के हिस्से में पाई और श्रीमंगल की दुकान सेठ पीरदानजी के भाग में। मगर दोनों जगह पुराने नामों से ही व्यापार चालू रहा। सं. १६७८ में सेठ पीरदानजी का स्वर्गवास हो गया। सेठ पीरदानजी बड़े ही सुयोग्य पुरुष थे। देश में भी और परदेश में भी, आपकी खूब ख्याति थी। आपका समुख चेहरा सब को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख ) प्रसन्न कर देता था। प्रसन्न वदन और विनोदमय स्वभाव, प्रकृति की मनुष्य के लिए बड़ी से बड़ी देन है। यह देन आपको पर्यात मात्रा में प्राप्त थी। इसके साथ ही धर्म की ओर आपकी गंभीर अभिरुचि भी थी । व्यापार करते हुए भी धर्म का परिपालन किस प्रकार किया जा सकता हैं, दोनों का किस प्रकार समन्वय किया जा सकता है, यह बात सेठ पीरदानजी के जीवनव्यवहार से सीखने योग्य है । आपका स्वर्गवास हुए, एक लम्बा अर्सा हो गया है, फिर भी आपका नाम जिह्वा पर रहता है। आपके पाँच पुत्र हुए-तोलारामजी, मोतीलालजी, प्रेमसुखजी, नेमिचन्द्रजी तथा सोहनलालजी। दो पुत्रियां भी हुई। इनमें से श्रीतोलारामजी सं.१९७२ में ही, छोटी उम्र में अपनी बुद्धिमत्ता और व्यापारकुशलता का परिचय देकर असार संसार का त्याग कर गये। श्रीप्रेमसुखजी अपने काका सेठ रावतमलजी के यहां दत्तक हैं। ___ संठ रावतमलजी का जन्म सं. १६१८ में हुआ था। आपने भी मोलवी बाजार में उन्म श्रेणी की प्रतिष्ठा प्राप्त की। एक प्रतिष्ठित व्यापारी समझकर सरकार ने आपको वहाँ के लोकल बोर्ड के सदस्य बनाकर अपनी कद्रदानी का परिचय दिया। संवत् १९७७ में आपने श्रीमंगल में एक नवीन दुकान खोली। इस प्रकार व्यापार को किस्तृत करके और उसमें सफलता प्राप्त करके आपने निवृत्तिमय जीवन विताने की इच्छा की । लौकिक सफलताएँ प्राप्त करके विवेकशील व्यक्ति उनमें फंसा नहीं रहता। वह वर्तमान को ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) सब कुछ समझकर अनन्त भविष्य को विस्मरण नहीं कर देता। तदनुसार सेठ रावतमलजी ने व्यापार से निवृत्ति ले ली और देशनोक में आकर निवृत्तिमय धार्मिक जीवन यापन करने लगे। अन्ततः सं. १६६६ में आपका स्वर्गवास हुआ। श्रीप्रेमसुखजी आपके उत्तराधिकारी हैं। उल्लिखित दोनों दुकानों के अतिरिक्त प्रेमनगर चाय का बगीचा चारों भाइयों की भागीदारी में है। दोनों दुकानों पर 'रावतमल प्रेमसुख' नाम से व्यापार चलता है और अब सिलचर में भी इसी नाम से एक ब्रांच खोली है। आपके दो पुत्र हैं, जिनका नाम पांचीलालजी और फतहचन्द्रजी हैं। सेठ मोतीलालजी ने भी खूब प्रतिष्ठा प्राप्त की है। आप श्रीमंगल-म्युनिसिपैलिटी की जनता द्वारा चुने हुए सदस्य हैं। आपकी व्यापारिक प्रामाणिकता से प्रसन्न होकर वायसराय और आसामगवर्नर के द्वारा छठे जार्ज के सिंहासनारोहण के अवसर पर आपको पदक और प्रमाणपत्र प्रदान किये गये हैं। श्रीमंगल और सिलचर में आपका कारवार 'पीरदान रावतमल' के नाम से ही चालू है। आपके आनन्दमलजी, मानमल जी, मगनमलजी, हनुमानमलजी एवं डालचन्दजी नामक पांच पुत्र हैं। श्रीनेमिचन्दजी सोहनलालजी का कारवार साथ ही है। आपके श्रीमंगल में 'पीरदान सोहनलाल' भानुगाछ में पीरदान नेमीचन्द' तथा शमशेरनगर में 'नेमचन्द सोहनलाल' के नाम से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ ) व्यापार चल रहा है । श्रीनेमचन्दजी के, छगनलालजी, भीखम - चन्दजी, रामचन्दजी और शान्तिलालजी नामक चार पुत्र हैं। श्री सोहनलालजी के सम्पतलालजी, ईश्वरचन्दजी और भोमराजजी नामक तीन पुत्र हैं । देशनोक के गुलगुलिया परिवार का यह संक्षिप्त परिचय है । यह परिवार जहाँ-जहाँ अपना कारबार कर रहा है वहाँ-वहाँ और देशनोक में भी अत्यन्त उच्चश्र ेणी की प्रतिष्ठा प्राप्त परिवार माना जाता है । ऐसे प्रतिष्ठित और प्रामाणिक परिवार हमारे समाज की शोभा है। आन्तरिक कामना है कि इस परिवार की प्रतिष्ठा संपत्ति और धर्मभावना दिनोंदिन बढ़ती रहे ! 1 - चम्पालाल बांठिया T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन साधुमार्गी समाज के अद्वितीय प्रतिभाशाली और तेजस्वी संत जैनाचार्य पूज्य श्रीजवाहरलालजी महाराज के व्याख्यान - साहित्य के संबन्ध में अब कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं रह गई है । उनका साहित्य विपुल मात्रा में प्रकट हो चुका है । उसकी उपादेयता और गंभीरता से विवेकशील व्यक्ति सुपरिचित हो गये हैं । हर्ष है कि आज 'बीकानेर के व्याख्यान' नामक नवीन किरण पाठकों के कर-कमलों में पहुँचा रहे हैं। आशा है धर्मप्रेमी पाठक इसमें प्रदर्शित विचारों और आदर्शों पर चलकर अपना जीवन सफल बनाएँगे ! प्रस्तुत किरण श्रीमान् सेठ पीरदानजी रावतमलजी देशनोक (बीकानेर) के द्रव्य से लागत मूल्य में प्रकाशित हो रही है । पूज्य श्री की वाणी के प्रसार में आपने जो योग दिया है, उसके लिए हम आपके आभारी हैं। आपका परिचय अलग दिया जा रहा है । श्रीहितेच्छु श्रावक मण्डल रतलाम द्वारा संगृहीत व्याख्यानों के आधार पर श्री पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने इसका सम्पादन किया है। पण्डितजी की सम्पादन - लेखन शैली के विषय में क्या कहा जाय ! पाठक उनसे भी सुपरिचित हैं। इन सब के प्रति मैं आभार प्रदर्शित करता हूं ! : निवेदक:चम्पालाल बांठिया, मंत्री, श्री जवाहर विद्यापीठ, भीनासर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ . . क्रम विषय पृष्ट : क्रम विषय । भगवान् शान्तिनाथ ६ भक्तामर-व्याख्यान २ मंगल-पर्व (१) २१३ ३ प्रात्मवत् सर्वभूतेषु (२) २३२ मात्मोद्धार १११ ५ लक्ष्यभ्रष्ट न होमो : १२२ ६ ज्ञान और गरित्र (२) ... २७४.. ७ प्रारमा-दुधारी तलवार . १६७ ८ चार भावनाएं, १८...... . . (५) ३०१ (८) ३१६:३६.१ ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् शान्तिनाथ । ----::():---- विश्व के असंख्य प्राणी निरन्तर प्रवृत्ति में रत रहते हैं। अगर सामान्य रूप से उनकी प्रवृत्तियों के मूल उद्देश्य को ग्वोजा जाय तो इसी परिणाम पर पहुँचना होगा कि सभी प्राणी शांति प्राप्त करने के एक मात्र ध्येय की पूर्ति करने के लिए उद्योग में लगे हैं। जिसके पास धन नहीं है या कम है वह धनप्राप्ति के लिए आकाश-पाताल एक करता है। जिसे मकान की आवश्यकता है वह मकान खड़ा करने के लिए नाना प्रयत्न करता है । जिसके हृदय में सत्ता की भूख जागी है वह सत्ता हथियाने की चेष्टा कर रहा है। इस प्रकार प्राणियों के उद्योग चाहे भिन्न-भिन्न हों पर उन सबका एक मात्र उद्देश्य शांति प्राप्त करना ही है। यह बात दूसरी है कि अधिकांश प्राणी वास्तविक सान न होने के कारण ऐसे प्रयत्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ जवाहरकिरणावली करते हैं कि उन्हें अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप शांति के बदले उलटी अशांति ही प्राप्त होती है, लेकिन श्रशांति कोई चाहता नहीं चाहते हैं सभी शांति । शांति के लिए प्रयत्न करने पर भी अधिकांश प्राणियों को शांति क्यों प्राप्त होती है, इसका कारण यही है कि उन्होंने शांति के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझा है। वास्तविक शांति क्या है ? कहाँ है ? उसे प्राप्त करने का साधन क्या है ? इन बातों को ठीक-ठीक न जानने के कारण ही प्रायः शांति के बदले अशांति पल्ले पड़ती है । अतएव यह आवश्यक है कि भगवान् शांतिनाथ की शरण लेकर शांति का सच्चा स्वरूप समझ लिया जाय और फिर शांति प्राप्त करने के लिए उद्योग किया जाय । भगवान् शांतिनाथ का स्वरूप समझ लेना ही शांति के स्वरूप को समझ लेना है । गणधरों ने भगवान् शांतिनाथ के स्वरूप को ऊंचा बतलाया है । उस स्वरूप में चित्त को एकाग्र करके लगा दिया जाय तो कभी शांति न हो। मित्रो ! आओ, श्राज हम लोग मिलकर भगवान् के स्वरूप का विचार करें और सच्ची शांति प्राप्त करने का मार्ग खोजें । भगवान् शांतिनाथ के संबंध में शास्त्र का कथन हैचहत्ता भारहं यासं चक्कत्रट्टी महठियो । सन्ती सन्ति करे लो !, पत्तो गद्दभणुत्तरं । यहाँ भगवान् के विषय में कहा गया है - 'संती संतीकरे www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] लोए ।' अर्थात् शांतिनाथ भगवान् लोक में शांति करने वाले हैं। वाक्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है । यह छोटा-सा वाक्य इतना पूर्ण है कि मानों सब ज्ञान इसी में समाप्त हो जाता है। शांति क्या है और वह किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है, इस विषय पर में कई बार कह चुका हूँ और आज फिर इमी विषय में कह रहा हूँ: क्योंकि शांति प्राप्त करना ही जगत् के प्राणियों का एकमात्र ध्येय है। __कई लोग विषमभाव-में पक्षपात में शांति देखते हैं। लेकिन जहाँ विषमभाव है वहाँ वास्तविक शांति नहीं रह सकती। वास्तविक शांति तो समभाव के साथ ही रहती है । वहुत-से लोग अपनी कुशल के आगे दूसरे की कुशल की कोई कीमत ही नहीं समझते । वे दूसरों की कुशल की उपेक्षा ही नहीं करते वरन् अपनी कुशल के लिए दूसरों की घोर अकुशल भी कर डालते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि शांति प्राप्त करने का मार्ग यह नहीं है । यह तो शांति के घात करने का ही तरीका है। सच्ची शांति तो भगवान् शांतिनाथ को पहिचानने से ही प्राप्त की जा सकती है ! जिस शांति में से अशांति का अंकुर न फूटे जो सदा के लिए अशांति का अन्त कर दे वही सच्ची शांति है। सञ्चो शांति प्राप्त करने के लिए 'सर्वभूतहिने रतः' अर्थात् प्रागी मात्र के कल्याण में रत होना पड़ता है। कुछ लोग दुर्गापाट आदि करके, होम करके यहाँ तक कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली जीवों का बलिदान तक करके शांति प्राप्त करना चाहते हैं। दुःश्वविपाक सूत्र देखने से पता चलता है कि कुछ लोग तो अपने लड़के का होम करके भी शांति प्राप्त करना चाहते थे। कुछ लोग आज भी पशुबलि, यहाँ तक कि नरबलि में शांति बतलाते हैं । इस प्रकार शांति के नाम पर न जाने कितनी उपाधियाँ खड़ी कर दी गई हैं । लेकिन गणधरों ने एक ही वाक्य में वास्तविक शांति का सच्चा चित्र अंकित कर दिया है संती संतिकरे लोए । नरमेध करने वालों ने नरमेध में ही शांति मान रक्खी है। लेकिन नरमेध से क्या कभी संसार में शांति हो सकती है ? मारने वाला और मरने वाला-दोनों ही मनुष्य हैं। मारने वाला शक्ति चाहता है तो क्या मरने वाले को शांति की अभिलाषा नहीं है ? फिर उसे अशांति पहुँचा कर शांति की आशा करना कितनी मूर्खतापूर्ण बात है ! नरमेध करने वाले से पूछा जाय कि तू ईश्वर के नाम पर दूसरे मनुष्य का बध करता है तो क्या ईश्वर तेरा ही है ? ईश्वर मरने वाला का नहीं है ? अगर मरने वाले से पूछा जाय कि हम ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तेरा बलिदान करना चाहते हैं तो वह क्या उत्तर देगा ? क्या वह बलि चढ़ना पसंद करेगा? क्या वह स्वीकार करेगा कि जो इस प्रकार की बलि लेकर प्रसन्न होता है वह ईश्वर है ? और इस बलि का विधान जिसमें किया गया है वह क्या शास्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] है ? वह तो यही कहेगा कि ऐसी बलि की प्राज्ञा देने वाला ईश्वर नहीं हो सकता, कोई हिंसालोलुप अनार्य हो सकता है और ऐसा शास्त्र भी किसी अनार्य का ही कहा हुआ है। किसी ज़माने में नरमेध भी किया जाता था और पशुमेध तो साधारण बात हो गई थी । नरमेध में मनुष्य की और पशुमेध में पशुओं की बलि दी जाती थी ! नरमेध की बात जाने दीजिए । वह तो घृणित है ही, पर पशुमेध भी कम घृणित नहीं है। निर्दयता के साथ पशुओं को आग में झोंक ऐना शांति प्राप्त करने का कैसा ढोंग है, यह वात एक आख्यान द्वारा समझना ठीक होगा। ___ एक राजा पशु का यज्ञ करने लगा। राजा का मन्त्री न्यायशील. दयालु और पक्षपातरहित था । उसने विचार कियाशांति के नाम पर बध करना कौन-सी शांति है ? क्या दूसरों को घोर अशांति पहुँचाना ही शांति प्राप्त करना है ? अपनी शांति की प्राशा से दूसरों के प्राण लेना जघन्यतम स्वार्थ है। क्या इसी निकृष्ट स्वार्थ में शांति विराजमान रहती है ? शांति देवी की सौम्य मूर्ति इस विकराल और अधम कृत्य में नहीं रह सकती । उसने यज्ञ कराने वाले पुरोहित से पूछा-आप इन मूक पशुओं को अशांति पहुँचाकर शांति किस प्रकार चाहते हैं ? पुरोहित ने कहा-इन बकरों का परमात्मा के नाम पर बलिदान किया जायगा । इस बलिदान के प्रताप से सबको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली शांति मिलेगी। मन्त्री-ईश्वर अगर सब का स्वामी है तो इन बकरों का भी स्वामी है या नहीं ? और जैसे सब लोग शांति चाहते हैं उसी प्रकार ये शांति चाहते हैं या नहीं ? ? अगर यह भी शांति चाहते हैं तो इन्हें क्यों मारा जा रहा है ? पुरोहित, मन्त्री के प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं दे सका। अतएव उसने क्रोध में आकर कर्कश स्वर में कहा-श्राप नास्तिक मालूम होते हैं । यहाँ से दूर चले जाइए, अन्यथा यज्ञ अपवित्र हो जायगा। मन्त्री-मैं नास्तिक नहीं, आस्तिक हूँ। परन्तु यह जानना चाहता हूँ कि जिन जीवों के लिए तुम शांति चाह रहे हो, उनमें यह बकरे भी हैं या नहीं? सम्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिउं । अर्थात्-सभी जीव जीवित रहना पसंद करते हैं । मरना कोई नहीं चाहता। जब सभी जीव जीना चाहते हैं और मरना नहीं चाहते तो इन्हें अशांति पहुँचा कर, मारकर, शांति चाहना कहाँ का न्याय है ? तुम भी शांति चाहते हो, यह बकरे भी शांति चाहते हैं, फिर इन्हें क्यों मारते हो? पुरोहित के पास इस सरल प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। वह ऊटपटांग बात करके मन्त्री को टालने का उपाय करने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ सन्त्री ने विचार किया कि यह यज्ञ राजा की आज्ञा से हो रहा है । पुरोहित लोग यों कहने से नहीं मानेंगे। अतएव उसने प्रधान पुरोहित से कहा- मैं लौटकर आता हूँ तब तक इन पशुओं को मारने का काम बन्द रक्खा जाय । यह मेरी अधिकृत आज्ञा है ? मन्त्री सीधा राजा के पास पहुँचा । उसने राजा से कहामहाराज ! नगर में बड़ा अत्याचार हो रहा है । राजा - तो आप किस काम के लिए हैं ? अत्याचार को रोकते क्यों नहीं ? मन्त्री-अत्याचार करने वाले तो स्वयं राजगुरु हैं । उनके संबंध में जब तक आप विशेष आज्ञा न दें, मैं क्या कर सकता हूँ ? राजा - राजगुरु क्या अत्याचार कर रहे हैं ? मन्त्री - लोगों के बच्चों को जबर्दस्ती मुँड़कर साधु बना रहे हैं । सब बच्चे और उनके माँ-बाप रो रहे हैं। आप जैसी श्राज्ञा दें वैसा ही किया जाय । राजा की राजगुरु की जबर्दस्ती अच्छी नहीं लगी । उसने मंत्री से कहा - इस अत्याचार को जल्दी रोको । न मानें तो कानून के अनुसार उचित कार्रवाई करे।। राजा की आज्ञा प्राप्त कर मंत्री फिर यज्ञस्थल पर आया । उसने यज्ञ करने वाले पुरोहितों से कहा - इन पशुओं को छोड़ दो। इनका हवन नहीं किया जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =] [ जवाहर - किरणावली प्र० पुरोहित – क्यों ? मंत्री - इनकी आत्मा नहीं चाहती । प्र०पुरोहित - आप शास्त्र की बात नहीं समझते। हम लोग इन पशुओं की कुछ भी हानि नहीं कर रहे हैं। हम तो इन्हें सीधे स्वर्ग भेज रहे हैं। स्वर्ग में पहुँच कर इन्हें दिव्य सुख प्राप्त होगा । न आप यह बात जानते हैं और न बकरे ही जानते हैं । हम ज्ञानी हैं । हमने शास्त्र पढ़े हैं। अतएव इन बकरों की भलाई में बाधा मत डालिए | मंत्री - आपका ज्ञान तो आपके कामों से और आपकी बातों से प्रकट ही है । परन्तु जब यह पशु स्वर्ग चाहते हों, तब तो इन्हें स्वर्ग भेजना उचित भी कह सकते थे । मगर यह स्वर्ग नहीं चाहते। जबर्दस्ती करके क्यों भेज रहे हो ? आखिर बकरे बचा लिये गये । पुरेहित घबराया | उसकी दुकानदारी जो उठ रही थी ! फिर उन्हें पूछता ही कौन ! वे भी राजा के पास पहुँचे । कहने लगे- अन्नदाता ! शांति के लिए यज्ञ प्रारंभ किया गया था । पन्तु यज्ञ में बलि दिये जाने वाले बकरों को मंत्री ने छुड़ा लिया और यज्ञ रोक दिया । राजा असमंजस में पड़ गया। सोचने लगा - मामला क्या है ! आखिर उसने मंत्री को बुलवाया । बकरे छुड़वाने के विषय में प्रश्न करने पर मंत्री ने उत्तर दिया- महाराज : मैंने आपकी आज्ञा से पशुओं को मरने से बचाया है । राजा - मैंने यह आज्ञा कब दी है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] मंत्री-आपने आज्ञा दी थी कि जबर्दस्ती साधु न बनाया जाय । राजा-वह तो साधु बनाने के विषय में थी । बकरों के विषय में तो कोई अाशा नहीं दी गई। ___ मंत्री-जैसे दूसरे लोग कहते हैं कि हम साधु बनाकर स्वर्ग भेजते हैं, उसी प्रकार इनका कहना है कि हम बकरों को मार कर स्वर्ग भेजते हैं । जब जबर्दस्ती माधु नहीं बनाने दिया जाता तो फिर जबर्दस्ती बकरों को कैसे स्वर्ग भेजा जा सकता है ? राजा विवेकवान था । उसने मंत्री की बात पर विचार किया। विचार करने पर उसे ऊंचा कि मंत्री की बात सही है। गाजा ने फिर पुरोहित को बुलवाया पुरोहितों के आने पर राजा ने पूछा-उनपशुओं को मारने का उद्देश्य क्या है ? उन्हें अमर क्यों न रक्खा जाय ? उन्हें अमर रखने से क्या ईश्वर प्रसन्न नहीं होगा? प्रधान पुरोहित ने कहा-महाराज, आप भी भ्रम में पड़ गये हैं। हम पशुओं को मारते नहीं, स्वर्ग भेजते हैं । ___ मंत्री ने कहा-महराज, में पशुओं की ओर से कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। उन पशुओं ने बड़ी ही दीनता के साथ प्रार्थना की है। वह प्रार्थना यह है कहे पशु दीन सुन यज्ञ के करैया मोहि, होमल हुतासन में कौन सी बनाई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [ जवाहर - किरणावली स्वर्गसुख में न चहूँ देहु मुझे यों न कहूँ, घास खाय रहूँ मेरे दिल यही भाई हैं । जो तू यह जानत हैं वेद यों बखानत है, यज्ञ-जरौं जीव पावे स्वर्ग-सुखदाई है । डारो क्यों न वीर ! या में अपने कुटुम्ब ही को, मोहिं जिन जाएँ जगदीस की दुहाई हैं || पशुओं की यह प्रार्थना है । वे दीन से दीन स्वर में यज्ञ करने वाले से कहते हैं- क्या तुम ईश्वर के भक्त हो ? जिस वेद के नाम पर तुम हमें है। मते हो उसमें कहे हुए अहिंसा धर्म को छिपा कर हमें होमने में तुम्हारी कौन-सी बड़ाई है ? मैं स्वर्ग का सुख नहीं चाहता । मैं तो घास खाकर जीवित रहना चाहता हूँ । हे याज्ञिक ! अगर तू सच्चे दिल से समझता है कि यज्ञ में होमा हुआ जीवधारी स्वर्ग में जाता है तो अपने कुटुम्ब को ही स्वर्ग भेजने के लिए क्यों नहीं होम देता ? हम मूक पशुओं से क्यों रूठा है ! एक आदमी अपने हाथ में हरी-हरी घास लेकर खड़ा हो और दूसरा स्वर्ग में भेजने के लिए तलवार लिए खड़ा हो तो इन दोनों में से पशु किसे पसंद करेगा ? वह किसकी ओर मुँह लपकाएगा ? 'घास वाले की ओर " इससे प्रकट है कि पशु स्वर्ग जाने के लिए भरना नहीं चाहता और घास खाकर जीवित रहना चाहता है । मंत्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] कहता है-अगर यज्ञ करने वाले कहते हैं कि पशुओं को अज्ञान है और हम ज्ञानी हैं. इसी लिए उन्हें स्वर्ग भेजते हैं: तो इसके उत्तर में पशुओं का कहना है कि हमें तो इस बात पर विश्वास है नहीं, अगर इन्हें विश्वास नो ये लोग अपने कुटुम्ब को स्वर्ग भेजें । अगर इन्होंने अपने बेटे को इस प्रकार मार कर स्वर्ग भेजा हाता तो हमें विश्वास हो जाता कि ये दिल से ऐसा मानते हैं । मगर जब यज्ञ करने वाले अपने माता पिता और पुत्र प्रादि का स्वर्गसुख से वंचित रखकर हमें स्वर्ग भेजने की बात कहते हैं तो हमें इनकी बात पर विश्वास नहीं होता। इसलिए हमें मारने वाले को परमात्मा की दुहाई है। ___ मंत्री कहता है-उन पशुओं की तरफ से यह फरियाद है और वे इसका उत्तर माँगते हैं। __राजा ने यज्ञ करने वाले पुरोहितों से पूछा-क्या आप लोग अपने परिवार को यज्ञ में होम सकते हैं ! पुरोहित-शास्त्र में पशुओं को होमने का विधान है, कुटुम्ब को होमने का कहीं विधान नहीं है। राजा-तब तो कहना पड़ेगा कि आपका शास्त्र भी पक्षपात से भरा है । बस, अब रहने दीजिये । क्षमा कीजिये, में ऐसी शांति नहीं चाहता। मेरा उद्देश्य किसी को अशांति पहुँचाकर शांति प्राप्त करना नहीं है । मेरा कर्त्तव्य मुझे सब को शांति पहुँचाने के लिए प्रेरित करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [ जवाहर - किरणावली मतलब यह है कि किसी भी जीव का हवन करने से शांति प्राप्त नहीं हो सकती । किसी भी प्राणी को दुःख न पहुँचाने से ही वास्तविक शांति प्राप्त हो सकती हैं ! आज तो जैनपरम्परा के अनुयायी भी नाना प्रकार से प्रारंभ समारंभ करते हैं और होम आदि करते हैं मगर उसमें वास्तविक शांति नहीं है । लोगों ने शांति प्राप्त करने के उपायों को गलत समझ लिया है और इसी कारण शांति प्राप्त करने के लिए यज्ञ, होम आदि करने पर भी सच्ची शांति प्राप्त नहीं होती । सच्ची शांति प्राणीमात्र की कल्याण साधना में हैं । किसी का कल्याण करने में शांति नहीं है । भगवान् शांतिनाथ के नाम पर जो शांति - दीपक जलाया जाना है, क्या उसमें अग्नि नहीं होती ! इस प्रकार अग्नि से लगाया हुआ दीपक शांतिदीपक नहीं है । शांतिदीपक वह है जिसमें ज्ञान से उजाला किया जाता हो । ऐसी श्रारति करो मन मेरा, जन्म मरण मिट जाय दुख तेरा । ज्ञानदीपक का कर उजियाला, शान्ति स्वरूप निहारो तुम्हारा || ऐसी. ।। मित्रो ! शांतिनाथ भगवान् की आराधना करने का अव-सर वार-वार नहीं मिलता। इसलिए शांतिनाथ भगवान् की आराधना करो। अग्नि से दीपक जलाकर 'शांति - शांति' भले करते रहे। पर इस उपाय से शांतिनाथ को नहीं पा सकते । ज्ञान का दीपक जलाकर उजेला करोगे तो शांतिनाथ भगवान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] .-- --. . .-.--.. - - - - - -- .- - - - - - - :... -- का स्वरूप स्पष्ट रूप से देख सकोगे। इस बात पर मनन करो और इसे हृदय में उतार लो तो शांतिनाथ हृदय में ही प्रकट हो जाएँगे। प्राचीन ऋषियों ने कहा है देहो देवालयः प्रोक्तो जीवो देवः सनातनः । त्यदेजज्ञाननिर्माल्न, सोऽहं भावेन पूजयेत् ।। यह देह देवालय है। इसमें अाज का नहीं सनातन का, कृत्रिम नहीं अकृत्रिम, जीव परमेश्वर है। तुम्हारी देह अगर मन्दिर है तो दूसरे जीवों की देह भी भन्दिर है या नहीं? यदि केवल अपनी ही देह को मन्दिर माना, दूसरे की देह को मन्दिर नहीं माना तो तुम पक्षपात में पड़े होने के कारण ईश्वर को नहीं जान सकते । ईश्वर ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी और सब की शन्ति चाहने वाला है। अगर आप भी सब की शान्ति चाहते हैं, सब की देह को देवालय मानते हैं तो आपकी देह भी देवालय है: अन्यथा नहीं। जिस मकान को देवालय मान लिया. उस मकान के इंट पत्थर कोई विवेकी ग्वोदना चाहेगा ? 'नहीं !" अगर कोई खोदता है तो कहा जायगा कि इसने देवालय की प्रासातना की । लेकिन जब सभी जीवों के शरीर को देवालय मान लिया तो फिर किसी के शरीर को तोड़ना-फोड़ना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [जवाहर-किरणावली क्या देवालय को तोड़ना-झाड़ना नहीं कहलाएगा? मित्रो ! परमात्मा से शान्ति चाहने के लिए दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाना. उनका घात करना कहाँ तक उचित है ? देवालय के पत्थर निकाल कर कोई आसपास दीवाल बनावे और कहे कि हम देवालय की रक्षा करते हैं तो क्या यह रक्षा करना कहलाएगा ? इसी प्रकार शान्ति के लिए जीवों का घात करना क्या शान्ति प्राप्त करना है ? शांति तो उसी समय प्राप्त होगी जब ज्ञान--दीपक से उजेला करके आत्मा को वैर--विकार से रहित बताओगे। सर्वदेशीय शांति ही वास्तविक शांति है। शांतिनाथ भगवान् की प्रार्थना में वहा गया है श्री शान्ति जिनेश्वर सायब सोलवा, जनमत शान्ति करी गिज देश में । मिरगी मार निवार हो सुभागी ॥ तन मन वचना शुध करि ध्यावता, पुरे सगली हाम हो सुभागी ।।श्री०।। उन शांतिनाथ भगवान को पहिचानो, जिन्होंने माता के उदर में आते ही संसार में शांति का प्रसार कर दिया था। उस समय की शांति, सूर्योदय से पहले होने वाली उषा के समान थी। उषा प्रातःकाल लालिमा फैलने और उजेला होने को कहते हैं । भगवान् शांतिनाथ का जन्मकाल शांतिप्रसार का उपाकाल था । इस उषाकाल के दर्शन कब और कैसे हुए, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] इत्यादि बातें समझाने के लिए शांतिनाथ भगवान का जन्मचरित संक्षेप में बतला देना आवश्यक है । जिस प्रकार मर्योदय की उषा से सूर्य का संबंध है. उसी प्रकार भगवान् शांतिनाथ के उषाकाल से उनका संबंध है । अतएव उसे जान लेना आवश्यक है। हस्तिनापुर में महाराज अश्वन और महारानी अचला का अखंड राज्य था। हस्तिनापुर नगर अधिकतर राजधानी रहा है। प्राचीन काल में उसकी बहुत प्रसिद्धि थी। ठाजकल हस्तिनापुर का स्थान देहली ने ले लिया है। भगवान शांतिनाथ सर्वार्थसिद्ध विमान ले च्युत होकर महारानी अचला के गर्भ में आये । गर्भ में प्राते समय महारानी अचला ने जो दिव्य स्वप्न देखे, वे सब उस उषा काल की सूचना देने वाले थे । मानो स्वप्न में दिखाई देने वाले पदार्थों में कोई भी स्वार्थी नहीं है। हाथी, वृषभ, सिंह और पुष्पमाला कहते हैं कि आप हमें अपने में स्थान दीजिए । चन्द्रमा और सूर्य निवेदन कर रहे हैं कि हमारी शांति और लेज. हे प्रभो ! तेरे में ही है। उग्गए विमले भार हे प्रभो ! हमारे प्रकाश से अंधकार नहीं मिटता है, अतएब आप ही प्रकाश कीजिए। * हस्तिनापुर के परिचय के लिए देखिए, किरण १७. ( पांडवचरिक) ० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली ... ..... ... ... .. ... ..... - - - - _____उधर फहराती हुई ध्वजा कहती है—में तीन लोक की विजयपताका हूँ। मुझे अपनाइए । मंगलकलश कहता हैमेरा नाम तभी सार्थक है जब आप मुझे ग्रहण करलें । मानसरोवर कहता है यह मंगल कलश मेरे से ही बना है । में और किसके पास जाऊँ ? मैं संसार के मानस का प्रतिनिधि होकर आया हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि तू सब के मानस में प्रवेश कर और उसे उज्ज्वल बना । क्षीरसागर कहता हैयह सरोवर तो छोटा-सा है। लेकिन अगर श्राप मुझे न धारण करेंगे तो में कहाँ रहूँगा ? प्रभो ! इस संसार को अमृतमय कर दो । संसार मुझ से अतृप्त है, अतः आप उसे तृप्न कीजिए। इस प्रकार उषा काल की सूचना देकर भगवान् शांतिनाथ सर्वार्थसिद्ध विमान से महारानी अचला के गर्भ में पाये । मव देवी-देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की-प्रभो सब लोग अपने-अपने पक्ष में पड़े हुए हैं। आप संसार का उद्धार कीजिये । हमारे सिर पर भी आशीर्वाद का हाथ फेरिये । लोकोत्तर स्वप्नों ने मानों अचला महारानी को बधाई दी। उसके बाद अचला महारानी के गर्भ में भगवान् का आगमन हुश्रा । क्रमशः गर्भ की वृद्धि होने लगी। __ जिन दिनों भगवान् शान्तिनाथ गर्भ में थे, उन्हीं दिनों महाराज अश्वसेन के राज्य में महामारी का रोग फैल गया । प्रश्न हो सकता है कि जब भगवान् गर्भ में प्राये तो रोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१७ - - -- - - - क्यों फैला? मगर वह रोग नहीं, उषाकाल की महिमा को प्रकट करने वाला अंधकार था । जैसे उषाकाल से पहले रात्रि होती है और उस रात्रि से ही उषाकाल की महिमा जानी जाती है. उसी प्रकार वह महामारी भगवान् शांतिनाथ के उषाकाल के पहले की रात्रि थी। उसका निवारण करने के कारण ही भगवान् 'शांतिनाथ' पद को प्राप्त हुए। यद्यपि भगवान् गर्भ में आ चुके थे और उस समय रोग फैलना नहीं चाहिए था, फिर भी रोग के फैलने के बाद भगवान् के निमित्त से उसकी शांति होने के कारण भगवान् की महिमा का प्रकाश हुश्रा । इससे भगवान् के आने की सूचना और भगवान् के प्रताप का परिचय उनके माता-पिता को मिल गया। राज्य में मरी रोग फैलने की सूचना महाराज अश्वसेन को मिली । महाराज ने यह जानकर कि मरी रोग के कारण लोग मर रहे हैं, रोग की उपशांति के अनेक उपाय किये। मगर शांति न मिली। ___ यह मरी लोगों की कसौटी थी। इसी से पता चलता था कि लोग मार्ग पर हैं या मार्ग भूले हुए हैं। यह मरी शांति से पहले होने वाली क्रांति थी। ___ उपाय करने पर भी शांति न होने के कारण महाराज बड़े दुःखी हुए। वह सोचने लगे-'जिस प्रजा का मैंने पुत्र के समान पालन किया है, जिसे मैंने अज्ञान से सज्ञान, निर्धन से धनवान् और निरुद्योगी से उद्योगवान् बनाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [ जवाहर - किरणावली है, वह मेरी प्रजा असमय में ही मर रही है ! मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो रहा है ! मेरे राजा रहते प्रजा को कष्ट होना मेरे पाप का कारण है ।' पहले के राजा, राज्य में दुष्काल पड़ना, रोग फैलना, प्रजा का दुःखी होना आदि अपने पाप का ही फल समझते थे । रामायण में लिखा है कि एक ब्राह्मण का लड़का बचपन में ही मर गया । ब्राह्मण उस लड़के को लेकर रामचन्द्रजी के पास गया और बोला- आपने क्या पाप किया है कि मेरा लड़का मर गया ? इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि पहले के राजा प्रजा के कष्ट का कारण अपना ही पाप समझते थे । इसी भावना के अनुसार महाराज अश्वसेन मरी फैलने का अपना ही दोष मान कर दुःखी हुए । उन्होंने एकान्त में जाकर निश्चय किया कि जब तक प्रजा का दुःख दूर न होगा, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा । सुदृढ़ निश्चय में बड़ा बल होता है। भक्त तुकाराम ने कहा है निश्चयाचा बल तुका म्हणे तो च फल | निश्चय के विना फल की प्राप्ति नहीं होती । इस प्रकार निश्चय करके महाराज अश्वसेन ध्यान लगा कर बैठ गये । भोजन का समय होने पर महारानी अचला ने दासी को भेजा कि वह महाराज को भोजन करने के लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १६ बुला लावे । दासी गई, किन्तु महाराज को ध्यानमुद्रा में बैठा देखकर वह सहम गई । भला उसका साहस कैसे हो सकता था कि वह महाराज के ध्यान के भङ्ग करने का प्रयत्न करे ! वह धीमे-धीमे स्वर से पुकार कर लौट गई । उसके बाद दूसरी दासी आई, फिर तीसरी आई, मगर ध्यान भंग करने का किसी को साहस न हुआ । महारानी अचला बार-बार दासियों को भेजने के अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करके कहने लगीं - स्वामी को बुलाने के लिए दासियों का भेजना उचित नहीं था, स्वयं मुझे जाना चाहिए था यद्यपि मैंने पति से पहले भोजन करने की भूल नहीं की है, लेकिन स्वयं उन्हें बुलाने न जाकर दासियों को भेजने की भूल अवश्य की है । । समय अधिक हो जाने के कारण भोजन ठण्डा हो गया था । इस कारण दासियों का दूसरा भोजन बनाने की आशा देकर महारानी अचला स्वयं महाराज अश्वसेन के समीप गई । महारानी सोच रही थीं-पत्नी, पति की अर्धांगिनी है । उसे पति की चिन्ता का भी भाग बँटाना चाहिए । जो स्त्री पति की प्रसन्नता में भाग लेना चाहती है और चिन्ता में भाग नहीं लेना चाहती, वह आदर्श पत्नी नहीं हो सकती । ऐसी स्त्री पापिनी है । अचला देवी ने जो विचार किया, क्या वह स्त्री का धर्म नहीं है ? अवश्य । किन्तु आजकल तो बचपन में ही लड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [जवाहर-किरणावली - - ---- .-..-.. .- -.- - - -- कियों को उलटी शिक्षा दी जाती है। कन्या को ऐसा विनयशील होना आवश्यक है, जिससे गृहस्थावस्था में वह अपने परिवार को शांति दे सके, स्वयं शांति प्राप्त कर सके और कुटुम्बजीवन पूरी तरह आनन्दमय हो सके। बीकानेर में लड़कियों को लड़के के भेष में रखने की प्रथा देखी जाती है। मेरी समझ में ही नहीं आता कि ऐसा करने से क्या लाभ है ? पुरुष की पोशाक पहिनने से कोई स्त्री पुरुष तो हो ही नहीं सकती ! संभव है, कन्या के माता-पिता उसे लड़के की पोशाक पहना कर सोचते हों-लड़के की पोशाक पहिनकर हम कन्या की लड़का होने की भावना पूरी कर रहे हैं ! मगर ऐसा करने से क्या हानि होती है, इस बात पर उन्होंने विचार नहीं किया। लड़की को लड़का बनाने का विचार करना प्रकृति से युद्ध करना है। प्रकृति से युद्ध करके कोई विजय नहीं पा सकता। फल यह होता है कि ऐसा करने से लड़की के संस्कार बिगड़ जाते हैं। कोई-कोई बचपन के मूल्य को नहीं समझते । वे बाल्यावस्था को निरर्थक ही मानते हैं। पर बाल्यावस्था में ग्रहण किये हुए संस्कारों के आधार पर ही बालक के सम्पूर्ण जीवन का निर्माण होता है। जिसका बालकपन बिगड़ गया उसका सारा जीवन बिगड़ गया और जिसका बालकपन सुधर गया उसका सारा जीवन सुधर गया । किसी कवि ने कहा है यसवे भाजने नग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२१ कच्चे घड़े पर बेलबँटे बना दिये जाते हैं वे घड़ के पकने पर भी नहीं मिटते । लेकिन पके घड़े पर बनाये हुए बेलबूटे कायम नहीं रहते । यही बात बाल्यावस्था के विषय में है । अतएव जीवननिर्माण की दृष्टि से बाल्यावस्था का मूल्य बहुत अधिक है। माता-पिता को यह बात दिल में बिठा लेना चाहिए कि बालक के संस्कार, चाहे वे भले हों या बुरे हों, जीवन भर जाने वाले नहीं हैं । अतएव उन्हें बुरे संस्कारों से बचकर अच्छे संस्कारों से सुसंस्कृत करना चाहिए । अगर बालकों को प्रारम्भ से ही खराब बोलचाल और खानपान से बचाते रहो तो आगे चलकर वे इतने उत्तम बनेंगे कि आपका गृहस्थजीवन सुखमय शांतिमय और संतोषमय बन आयगा । कविसम्राट् स्वीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबन्ध में लिखा है कि पाँच वर्ष तक के बालक को सिला हुआ कपड़ा पहनाना उसकी वृद्धि में बाधा डालना है । खुले शरीर में जो कांति आ सकती है, वह सिले कपड़ों से बन्द किये हुए शरीर में नहीं आ सकती । चुस्त कपड़ों से बालक के शरीर का विकास भी रुक जाता है । ऐसी स्थिति में यह समझना कठिन नहीं है कि गहनों से भी बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है । जो बालक 'सोना' शब्द का उच्चारण भी नहीं कर सकता, न सोने को पहिचानता ही है, उसे सोना पहि नाने से क्या लाभ है ? सोना बालक से प्राणों का ग्राहक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [जवाहर-किरणावली भले ही बन सकता है, लाभ तो उससे कुछ भी दिखाई नहीं देता। बालक को जब सिला कपड़ा पहिनाया जाता है तो वह रोने लगता है। वह रोकर मानो कहता है कि मुझे इस बन्धन में मत डालो। मगर कौन बालकों की पुकार सुनता है! जरा विचार कीजिए कि आप लोग अपने बालकों को नाना प्रकार के आभूषण और गोटा-किनारी के कपड़े पहिनाये बिना संतोष नहीं मानते, मगर अंगरेजों के कितने लड़कों को आपने गहने पहिने देखा है ? आप बालकों को बचपन ले ही ऐसी विकारयुक्त रुचि का बना देते हैं कि आगे चलकर उनकी रुचि का सुधरना कठिन हो जाता है । बड़े होने पर कदाचित् उन्हें गहने न मिले तो वे दुःख का अनुभव करते हैं । उनकी दृष्टि ही विकृत हो जाती है। उनका जीवन दुःखमय बन जाता है। माता-पिता को तो चाहिए कि वे बालक को सादगी और स्वच्छता का सबक सिखावें, जिससे उनका अगला जीवन सुख और संतोष के साथ व्यतीत हो सके। बहुत से लोग लड़कों पर अच्छा भाव रखते हैं परन्तु लड़कियाँ उन्हें आफत की पुड़ियाँ मालूम होती हैं। लड़का उत्पन्न होने पर वे प्रसन्न होते हैं और लड़की के जन्म पर मातम-सा मनाने लगते हैं-उदास हो जाते हैं । फिर उसके पालन-पोषण में भी ऐसी लापरवाही की जाती है कि लड़की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [ २३ अपने भाग्य से ही बड़ी हो पाती है । लड़की बड़ी हो जाती है तो उसके शिक्षण का वैसा प्रबंध नहीं किया जाता जैसा लड़के का ! लेकिन उसे लड़के के वेष में रक्खा जाता है, जिससे उसका नम्रता का गुण कम हो जाता है । जहाँ इस प्रकार का पक्षपात हो. समझना चाहिए कि वहाँ भगवान् शांतिनाथ के समझने का प्रयत्न ही नहीं किया गया है । इसलिए मैं कहता हूँ कि पक्षपात को दूर करो। यह पक्षपात गृहस्थजीवन का घोर अभिशाप है । लड़कियों के विरुद्ध किया जाने वाला ऐसा पक्षपात अत्यन्त भयंकर परिणाम पैदा करने वाला है। किसी नवयुवती कन्या को बूढ़े के साथ व्याह देना क्या कम अत्याचार है ? पैसे के लोभ में आकर अपनी कन्या के साथ ऐसा निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने वाले लोग किस प्रकार भगवान शांतिनाथ की उपासना कर सकते हैं ? अपनी ही संतान को जो लोग अशांति की आग में झोंकते नहीं हिचकते उन्हें किस प्रकार शान्ति मिल सकती है ? अगर आप सच्ची शांति चाहते हैं तो अपने समग्र जीवनक्रम का विचार करें और उसमें अशांति पैदा करने वाले जितने अंश हैं, उन्हें हटा दें। इससे आप, आपका परिवार, समाज और देश शांति प्राप्त करेगा । ऐसा करने पर ही भगवान् शांतिनाथ की आराधना हो सकेगी । कन्या के बदले पैसे लेने वाले का कभी भला नहीं होता । मैं अपनी आँखों देखी बात कहता हूँ । एक आदमी के पाँच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [ जवाहर - किरणावली लड़कियाँ थीं और एक लड़का था । लड़कियों के उसने मनचाहे रुपये लिये । यही नहीं वरन् किसी-किसी लड़की की सगाई एक जगह करके छोड़ दी और फिर दूसरी जगह की । इतना करने पर भी उसकी दरिद्रता दूर नहीं हुई और न उसके लड़के का ही विवाह हुआ । उसके वंश का नाश हो गया । मतलब यह है कि प्रकृति के नियमों को तोड़कर रुपये के लोभ में पड़कर नवयुवती कन्या को बूढ़े के हवाले कर देना या अयोग्य धनवान् को लड़की देकर योग्य धनहीन को बंचित रखना योग्य नहीं है । भगवान् ने तो दासी बेचने को भी बड़ा पाप कहा है, फिर कन्या को बेच देना कितना बड़ा पाप न होगा ! महारानी अचला को बाल्यास्था से ही सुन्दर संस्कार मिले थे । वह अपने पत्नीधर्म को भलीभाँति समझती थीं । इस कारण वह भोजन किये विना ही महाराज अश्वसेन के समीप पहुँचीं। वहाँ जाकर देखा कि महाराज अश्वसेन गंभीर मुद्रा धारण करके ध्यान में लीन हैं। महारानी ने हाथ जोड़कर धीमे और मधुर किन्तु गंभीर स्वर में महाराज का ध्यान भंग करने का प्रयत्न किया । महारानी का गंभीर स्वर सुनकर महाराज का ध्यान टूटा । उन्होंने आँख खोलकर देखा तो सामने महारानी हाथ जोड़ खड़ी नज़र आई। महाराज ने इस प्रकार खड़ी रहने और ध्यान भंग करने का कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • बीकानेर के व्याख्यान ] [२५. पूछा । महारानी ने कहा-आप आज अभी तक भोजन करने नहीं पधारे । इसका क्या कारण है ? महाराज सोचने लगे-जिस उपद्रव को में दूर नहीं कर सकता, उसे महारानी स्त्री होकर कैसे दूर कर सकती हैं ? फिर अपनी चिन्ता का कारण कह कर इन्हें दुखी करने से क्या लाभ है ? इस प्रकार विचार कर वह चुप ही रहे । कुछ न वोले। ___पति को मौन देख महारानी ने कहा-जान पड़ता है, आप किसी ऐसी चिन्ता में डूबे हैं, जिसे सुनने के लिए मैं अयोग्य हूँ। संभवतः इसी कारण आप बात छिपा रहे हैं। यदि मेरा अनुमान सत्य है तो आज्ञा दीजिए कि मैं यहाँ से टल जाऊँ : ऐसा न हो तो कृपया अपनी चिन्ता का कारण बतलाइए। आपकी पत्नी होने के कारण आपके हर्ष-शोक में समान रूप से भाग लेना मेरा कर्तव्य है। महाराज अश्वसेन ने कहा-मेरे पास कोई चीज़ नहीं है जो तुम से छिपाने योग्य हो । मैं ऐसा पति नहीं कि अपनी पन्नी से किसी प्रकार का दुराव रकव । मगर मैं सोचता हूँ कि मेरी चिन्ता का कारण सुन लेने से मेरी चिन्ता तो दूर होगी नहीं तुम्हें भी चिन्ता हो जायगी । इससे लाभ क्या होगा? महारानी---अगर वात कहने से दुःख नहीं मिटेगा तो उदास होने से भी नहीं मिटेगा । इस समय सारा दुःख आप उठा रहे हैं, लेकिन जब आप, अपनी इस अर्धांगिनी से दुःख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [जवाहर-किरणावली का कारण कह देंगे तो आपका अाधा दुःख कम हो जायगा। महार:ज-तुम्हारी इच्छा है तो सुन लो । इस समय सारी प्रजा महामारी की बीमारी से पीड़ित है । मुझसे ही कोई अपराध बन गया है, जिसके कारण प्रजा को कष्ट भुगतना पड़ रहा है । ऐसा न होता तो मेरे सामने प्रजा क्यों दुखी होती? __ महारानी-जिस पाप के कारण प्रजा दुःख पा रही है, वह आपका ही नहीं है, मेरा भी है। महारानी की यह बात सुनकर महाराज को आश्चर्य हुआ। फिर उन्होंने कुछ सोचकर कहा-ठीक है । आप प्रजा की माता हैं । आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मगर विचारणीय. बात तो यह है कि यह दुःख किस प्रकार दूर किया जाय ? महारानी-पहले आप भोजन कर लीजिए । कोई न कोई उपाय निकलेगा ही। महाराज-मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि जब तक प्रजा का दुःख दूर न होगा, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। महारानी-जिस नरेश में इतनी दृढ़ता है, जो प्रजाहित के लिए प्रात्मबलिदान करने को उद्यत है, उसकी प्रजा कदापि दुखी नहीं रह सकती। लेकिन जब तक आप भोजन नहीं कर लेते, मैं भी भोजन नहीं कर सकती। महाराज-तुम अगर स्वतंत्र होती और भोजन न करतीं, तय तो कोई बात ही नहीं थी। लेकिन तुम गर्भवती हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] तुम्हारे भूखे रहने से गर्भ को भी भूखा रहना होगा और यह अत्यन्त ही अनुचित होगा। गर्भ की याद आते ही अचला महारानी ने कहा-नाथ ! यब मैं महामारी के मिटाने का उपाय समझ गई । यह महामारी उषा के पूर्व का अंधकार है । मैं इसे मिटाने का उपाय करती हूँ। .महारानी अचला महल के उपर चढ़ गई और अमृतदृष्टि से चारों ओर देखकर कहने लगी-प्रभो ! यदि यह महामारी शान्त न हुई तो पति जीवित नहीं रहेंगे । पति के जीवित न रहने पर मैं भी जीविन नहीं रह सकूँगी और इस प्रकार यह गर्भ भी नष्ट हो जायगा । इसलिए हे महामारी | मेरे पति के लिए, मेरे लिए और इस गर्भ के लिए इस राज्य को शीघ्र छोड़ दे। उषा के आगे अंधकार कैसे ठहर सकता है ? महारानी के चारों ओर देखते ही महामारी हट गई । उसके बाद महाराज अश्वसेन को सूचना मिली कि राज्य में शान्ति हो गई है। महाराज आश्चर्यचकित रह गए। वे महारानी के महल में आये। मालूम हुआ कि वे महल के ऊपर हैं। महाराज वहीं पहुँचे । उन्हेंोंने देखा कि अचला महारानी अचल ध्यान में खड़ी हैं । चारों ओर अपनी दिव्य दृष्टि फिराती हैं, किन्तु मन को नहीं फिरने देती। महाराज अश्वसेन ने थोड़ी देर यह दृश्य देखा । उसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली वाद स्नेह की गंभीरता के साथ कहा-'देवी, शान्त होओ! - पति को प्राया जान महारानी ने उनका सत्कार किया। महाराज ने अतिशय संतोष और प्रेम के साथ कहा-समझ में नहीं आया कि तुम रानी हो या देवी ? तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। तुम्हारे होने से ही मेरा बड़प्पन है । तुम्हारी मौजूदगी से ही मेरा कल्याण--मंगल हुआ। तुमने देश में शांति का प्रसार करके प्रजा के और मेरे प्राणों की रक्षा की है। पति के मुख से अपनी अलंकारमय प्रशंसा सुनकर रानी कुछ लजित हुई । फिर रानी ने कहा-नाथ ! यह अलंकार मुझे शोभा नहीं देते । ये इतने भारी हैं कि मैं इनका बोझ नहीं उठा सकती। मुझमें इतनी शक्ति है कहाँ है, जितनी आप कह रहे हैं ? थोड़ी-सी शक्ति ही भी तो वह आपकी ही शक्ति है। काच की हंडी में दीपक रखने पर जो प्रकाश होता है वह काच की हंडी का नहीं, दीपक का ही है। इस लिए आपने प्रशंसा के जो अलंकार मुझे प्रदान किये हैं , उन्हें आभार के साथ मैं आपको ही समर्पित करती हूँ। आप ही इनके योग्य हैं । आप ही इन्हें धारण कीजिए । महाराज-रानी, यह भी तुम्हारा एक गुण है कि तुम्हें अपनी शक्ति की खबर ही नहीं! वास्तव में जो अपनी शक्ति का घमंड नहीं करता वही शक्तिमान होता है। जो शक्ति का अभिमान करता है उसमें शक्ति रहती ही नहीं ! बड़े-बड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २६ ज्ञानी, ध्यानी और वीरों की यही आदत होती है कि वे अपनी शक्ति की खबर भी नहीं रखते। मैंने तुम्हें जो अलंकार दिये हैं उन्हें तुम मेरे लिए लौटा रही हो किन्तु पुरुष होने के कारण मैं उन्हें पहिन नहीं सकता । साथ ही मुझे खयाल अता है कि वह शक्ति न तुम्हारी है, न हमारी है । हमारी और तुम्हारी भावना पूरी करने वाले त्रिलोकीनाथ का ही यह प्रताप है । वह नाथ, जन्म धारण करके सारे संसार को सनाथ करेगा । आज के इस चमत्कार को देखते हुए, इन अलंकारों को गर्भस्थ प्रभु के लिए सुरक्षित रहने दो। जन्म होने पर इनका शांतिनाथ' नाम रक्खेंगे । 'शांतिनाथ' नाम एक सिद्ध मन्त्र होगा, जिसे सारा संसार जपेगा और शांतिलाभ करेगा । देवी, तुम कृतार्थ हो कि संसार को शांति देने वाले शांतिनाथ तुम्हारे पुत्र होंगे । रानी -- नाथ, आपने यथार्थ कहा । वास्तव में बात यही है । यह अपनी शक्ति नहीं, उसी की शक्ति है ! उसी का प्रताप है, जिसे मैंने गर्भ में धारण किया है । प्रार्थना में कहा गया है अश्वसेन नृप अचला पट गनी, तल सुत कुल सिंगार हो सुभागी । जन्मत शांति थई निज देश में, मिरगी मार निवार हो सुभागी ॥ इस प्रकार शांतिनाथ भगवान् रूपी सूर्य के जन्म धारण www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.] [जवाहर-किरणावली करने से पहले होने वाली उषा का चमत्कार आपने देग्व लिया ! अब शांतिनाथ-सूर्य के उदय होने का वृतान्त कहना है। मगर समय कम होने के कारण थोड़े ही शब्दों में कहता हूँ। शांतिनाथ भगवान् को गर्भ में रहने या जन्म धारण करने के कारण आप वंदना नहीं करते हैं। वे इस कारण वन्दनीय हैं कि उन्होंने दीक्षा धारण करके, केवल शान प्राप्त किया और अन्त में मुक्ति प्राप्त की। भगवान् शांतिनाथ ने लम्बे काल तक संसार में रहकर अद्वितीय काम कर दिखाया। उन्होंने स्वयं राज्य करके राज्य करने का आदर्श जनता के समक्ष उपस्थित किया। गज्य करके उन्होंने अहंकार नहीं सिखलाया। उनमें ऐसी-ऐसी अलौकिक शक्तियों थीं कि जिनकी कल्पना भी हमारे हृदय में आश्चर्य उत्पन्न करती है। लेकिन उन्होंने ऐसी शक्तियों का कभी प्रयोग नहीं किया। माता अपने बालक को कामधेनु का दूध पिलाकर तृप्त कर सकती हो तो भी उसे अपना दूध पिलाने में जिस सुख का अनुभव होता है, कामधेनु का दूध पिलाने में वह सुख कहाँ ? इसी प्रकार शांतिनाथ शक्ति का प्रयोग कर सकते थे परन्तु उन्हें शांति और प्रेम से काम लेने में ही आनन्द प्राता था। शांतिनाथ भगवान् ने संसार को क्या-क्या सिखाया और किस प्रकार महारंभ से निकाल कर अल्पारंम में लाये, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३१ -. - ...-- - - - - - - यह कथा लम्बी है। अतएव इतनी सूचना करके ही संतोप करता हूँ। प्रभो ! आप जन्म, जरा और मरण, इन तीन बानों में ही उलझे रहते तो आप शांतिनाथ न बनते ! लेकिन आप तो संसार को शांति पहुँचाने वाले और शांति का अनुभव पाठ पढ़ाने वाले हुए, इस कारण हम आपको भक्तिपूर्वक वन्दना करते हैं । आपने कौनसी शांति सिखलाई है, इस सम्बन्ध में कहा है चइत्ता भारह वासं चक्कवही महिड्ढिो । चक्रवर्ती की विशाल समृद्धि प्राप्त करके भी अापने विचार किया कि संसारं को शांति किस प्रकार पहुंचाई जा सकती है ? इस प्रकार विचार कर आपने शांति का मार्ग खोजा और संसार को दिखलाया । जैसे माता कामधेनु का नहीं वरन् अपना ही दूध बालक को पिलाती है, उसी प्रकार आपने शांति के लिए यंत्र-मंत्र-तंत्र आदि का उपयोग नहीं किया किन्तु स्वयं शांतिस्वरूप बनकर संसार के समक्ष शांति का अादर्श प्रस्तुत किया। आपके आदर्श से संसार ने सीखा कि त्याग के बिना शांति नहीं प्राप्त की जा सकती ! यापने संसार को अपने ही उदाहरण से बतलाया है कि सच्ची शांति भोग में नहीं, त्याग में है और मनुष्य सच्चे हृदय से ज्यों-ज्यों त्याग की ओर बढ़ता जायगा त्यों-त्यों शांति उसके समीप प्राती जाएगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [ जवाहर-किरणावली -. - - -...-.. .- . .--. . त्याग का अर्थ यदि आप संसार छोड़कर साधु बनना समझें तो वह गलत अर्थ नहीं होगा ! परन्तु यहाँ इतना समझ लेना आवश्यक है कि कस्तूरी किसी के घर हजार मन हो और किसी के घर एक कन हो तो चिन्ता नहीं, पर चाहिए सच्ची कस्तूरी । एक तोला रेडियम धातु का मूल्य साढ़े चार करोड़ रुपया सुना जाता है । उसके एक कण से भी बहुत-सा काम निकल सकता है, पर शर्त यही है कि वह नकली नहीं, असली हो । इसी प्रकार पूर्ण शांति प्राप्त करने के लिए आप पूर्ण त्याग कर सकें तो अच्छा ही है। अगर पूर्ण त्याग करने की आपस में शक्ति नहीं है तो आंशिक त्याग तो करना ही चाहिए । मगर ध्यान रखना कि जो त्याग करो, वह सच्चा त्याग होना चाहिए । लोक-दिखावे का द्रव्यत्याग आत्मा के उत्थान में सहायक नहीं होगा । आत्मा के अन्तरतर से उद्भूत हे।ने वाली त्यागभावना ही आत्मा को ऊँचा उठाती है । त्याग भले ही शक्ति के अनुसार थोड़ा हो परन्तु असली है। और शुद्ध हो जो कि भगवान् शांतिनाथ को चढ़ सकता हो। जिन देवों ने त्याग करके शांति नहीं प्राप्त की उन्होंने संसार को शांति नहीं सिखाई । महापुरुषों ने स्वयं त्याग करके फिर त्याग का उपदेश दिया है और सच्ची शांति सिखाई है। महापुरुष त्याग के इस अद्भुत रेडियम को यथा शनि ग्रहण करने के लिए उपदेश देते हैं । अतएव अाप भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- -- - - बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३३ - - - पापों का भी त्याग करो। जिस समय कोई आप पर क्रोध की ज्वालाएँ फेंके उस समय आप शांति के सागर बन जाइए । शांतिनाथ भगवान् का नाम लीजिए । फिर आप देखेंगे कि क्रोध करने वाला किस प्रकार परास्त हो जाता है। भगवान् शांतिनाथ का जाप तो लोग आज भी करते हैं, परन्तु उसका प्रयोजन दूसरा होता है। कोई मुक़दमा जीत लेने के लिए शांतिनाथ को जपते हैं तो कोई किसी दूसरी झूठी बात को सच्ची सिद्ध करने के लिए । इस प्रकार अशांति के लिए शांतिनाथ को जपने से कोई लाभ नहीं होगा। कोई भी अशांति उत्पन्न करने वाली चीज़ भगवान् शांतिनाथ को स्वीकृत नहीं हो सकती। प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विवाह आदि के अवसर पर भगवान् शांतिनाथ का स्मरण नहीं करना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि स्मरण तो करना चाहिए लेकिन यह समझ कर कि विवाह बंधन की चीज़ है, इसलिए हे प्रभो! तू ऐसी शक्ति मुझे प्रदान कर कि मैं इस बंधन में ही न रहूँ। गृहस्थावस्था में विवाह से फलित होने वाले चतुर्थ अणुव्रत का पालन कर सकूँ और शक्ति पाने पर भोग को निस्सार समझ कर पूर्ण ब्रह्मचर्य को धारण कर सकूँ । इस प्रकार की धर्मभावना के साथ भगवान् का नाम जपने से आपका कल्याण ही होगा। व्यापार के निमित्त बाहर जाते समय आप मांगलिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [जवाहरकिरणावली -- -- -.-.. सुनते हैं और मुनि सुनाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि व्यापार में खूब धन कमाने के लिए आप सुने और मुनि सुनावें । व्यापार करते समय आप धन के चक्कर में पड़कर धर्म को न भूल जाएँ। आपको धन ही शरणभूत, मंगलमय और उत्तम न दिखाई दे वरन् धर्म को उस समय भी आप मंगलमय माने । इसी भावना से मुनि आपको मंगलपाठ सुनाते हैं और आपको भी इसी भावना से उसे सुनना चाहिए। भोजन करते समय भी आप भगवान् शान्तिाथ को स्मरण रक्खो और विचार करो कि-'प्रभो! मुझे भत्य-अभक्ष्य का विचार रहे ।' मगर अाज ऐसा कौन करता है ? लोग बेभान होकर अभक्ष्य भक्षण करते हैं और लूंस-ठूस कर आवश्यकता से अधिक खा लेते हैं । वे सोचते हैं-अजीर्ण होगा तो औषधों की क्या कमी है ! मगर औषद्य के भरोसे न रह कर भगवान् शांतिनाथ को याद करो और सोचो कि मैं शरीर का ढाँचा रखने के लिए ही खाऊं और खाने में बेभान न हो जाऊँ। _____एक प्रोफेसर का कहना है कि मैं जब उपवास करता हूँ तो मेरी एकाग्रता बढ़ जाती है और मैं अवधान कर सकता हूँ। अगर उपवास न करूँ तेो अवधान नहीं कर सकता। अगर आप अधिक उपवास न कर सकें तो महीने में चार उपवास ते किग करें । चार उपवास करने से भी औषध लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अगर प्रसन्नता और सद्-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३५ भावना से उपवास करोगे तो धर्म का भी लाभ होगा। अगर आपने स्वेच्छा से उपवास न किये तो प्रकृति दूसरी तरह से उपवास करने के लिए आपको बाध्य करेगी । ज्वर आदि होने पर भोजन त्यागना पड़ेगा। भगवान शान्तिनाथ ने छह खंड का राज्य त्याग कर संसार को सिखाया है कि त्याग कैसे किया जाता है और त्याग में कितनी निराकुलता तथा शान्ति है । मगर तुम से और कुछ नहीं बन पड़ता तो शान्तिनाथ भगवान के नाम पर क्रोध करने का ही त्याग कर दो । जहाँ क्रोध का अभाव है वहाँ ईश्वरीय शान्ति उपस्थित रहती है। पाप शान्ति चाहते हैं तो उसे पाने का कुछ उपाय भी करो । एक भक्त कहते हैं कठिन कर्म लेहि जाहिं मोहि जहाँ तहाँ-तहाँ जन छन............ प्रभो ! क्रूर कर्म न जाने कहाँ-कहाँ मुझे घसीट कर ले जाते हैं । इसलिए हे देव ! मैं आपसे यह याचना करता हूँ कि जब कर्म मुझे परायी स्त्री और पराये धन आदि की ओर ले जावें तब मैं आपको भूल न जाऊँ । आपकी दृष्टि मुझ पर उसी प्रकार बनी रहे जिस प्रकार मगर या कछुई की दृष्टि अपने अंडों पर उन्हें पालने के लिए बनी रहती है । गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरी माता जैनधर्मी सन्त की भक्त थी। विलायत जाते समय मेरी माता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [ जवाहर - किरणावली मुझे उन संत के पास ले गई। वहाँ उसने कहा- मेरा यह लड़का दारू, मांस और परस्त्री का त्याग करे तब तो मैं इसे विलायत जाने दे सकती हूँ, अन्यथा नहीं जाने दूँगी । गांधी जी माता की आज्ञा को पर्वत से भी उच्च मानते थे । इसलिए उन्होंने महात्मा के सामने मदिरा, मांस और परस्त्री का त्याग किया | गांधीजी लिखते हैं कि उस त्याग के प्रभाव से वे कई बार भ्रष्ट है।ने से बचे । एक बार जब वे जहाज से सफ़र कर रहे थे, अपनी इस प्रतिज्ञा के कारण ही बच सके । गांधीजी जहाज से उतरे थे, कि उन्हें उनके एक मित्र मिल गए । उन मित्र ने दो-एक स्त्रियाँ रख छोड़ी थीं, जिन्हें जहाज से उतरने वाले लोगों के पास भेजकर उन्हें भ्रष्ट कराते और इस प्रकार अपनी आजीविका चलाते थे । उन मित्र ने पैसे कमाने के उद्देश्य से तो नहीं पर मेरा आतिथ्य करने के लिए एक स्त्री को मेरे यहाँ भी भेजा । वह स्त्री मेरे कमरे में आकर खड़ी रही । मैं उस समय ऐसा पागल सा हो गया, मानों मुझे बचाने के साक्षात् परत्मामा आा गये हों। वह कुछ देर खड़ी रही और फिर निराश होकर लौट गई। उसने मेरे मित्र को उलहना भी दिया कि तुमने मुझे किस पागल के पास भेज दिया ! उस बाई के चले जाने पर जब मेरा पागलपन दूर हुआ तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ और परत्मामा को धन्य-वाद देने लगा कि - प्रभो ! तुम धन्य हो । तुम्हारी कृपा से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान.] [ ३७ मैं बच गया। भक्त लोग कहते हैं-नाथ, तू इसी प्रकार मुझ पर दृष्टि रखकर मेरी रक्षा कर । गांधीजी ने एक घटना और लिखी है । वे जिस घर में रहते थे उस घर की स्त्री का पाचरण वेश्या सरीखा था । एक मित्र का उसके साथ अनुचित संबंध था। उन मित्र के प्राग्रह से में उस स्त्री के साथ ताश खेलने बैठा। खेलते खेलते नीयत बिगड़ने लगी । पर उन मित्र के मन में पाया कि मैं तो भ्रष्ट हूँ ही इन्हें क्यों भ्रष्ट होने दूं! इन्हेंोंने अपनी माता के सामने जो प्रतिज्ञा की है वह भंग हो जायगी । अाखिर उन्हेंोंने गांधीजी को वहाँ से उठा लिया । उस समय मुझे बुरा तो अवश्य लगा लेकिन विचार करने पर बाद में बहुत अानन्द हुआ। मित्रो ! अपने त्याग की दृढ़ता के कारण ही गांधीजी दुष्कर्मों से बचे रहे और इसी कारण आज सारे संसार में उनकी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा है । उन्होंने गुरु से त्याग की बानगी ही ली थी । उसका यह फल निकाला तो पूरे त्याग का कितना फल न होगा ? ग्राप पूरा त्याग कर सकें तो कीजिए । न कर सके तो त्याग की बानगी ही लीजिए । और फिर देखिए कि जीवन कितना पवित्र और प्रानन्दमय बनता है ! गांधीजी लिखते हैं कि मुझ पर आये हुए संकट टल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली जाने से मुझे मालूम हुआ कि परमात्मा की सत्ता अवश्य है। अगर आप लोग भी शांतिनाथ भगवान् को याद रक्खें तो आपको भी परमात्मा के साक्षात् दर्शन होंगे। भाइयो और बहिनो ! कुकर्म ज़हर से बढ़कर हैं । जब इनकी ओर आपका चित्त खिचने लगे तब श्राप भगवान् शांतिनाथ का स्मरण किया करो । ऐसा करने से आपका चित्त स्वस्थ होगा, विकार हट जाएगा और पवित्र भावना उत्पन्न होगी । आप कुकर्म से बच सकेंगे और आपका जीवन पवित्र रहेगा । भगवान् शांतिनाथ का नाम पापों से बचने का महामंत्र है। शांतिनाथ भगवान् ने केवल ज्ञान प्राप्त करके पश्चीस हजार वर्ष तक सब जीवों को शांति प्रदान की । आप भी अपनी योग्यता के अनुसार दूसरों को शांति पहुँचाएँ । कोई काम ऐसा मत कीजिए जिससे किसी को अशांति पहुँचाती हो । आपका ज्ञान, ध्यान, पठन-पाठन प्रादि सब ऐसे होने चाहिए जो शांतिनाथ को पसंद हो । अगर आप शांतिनाथ भगवान् को हृदय में धारण करके प्राणीमात्र को शांति पहुँचाएँगे तो आपको भी लोकोत्तर शांति प्राप्त होगी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-पर्व । -::():::-- पर्युषण पर्व जैनों के लिए महाकल्याण का पवित्र पर्व है। आत्मा के असली स्वरूप को समझने के लिए, आत्मा में आई हुई विकृतियों को और उनके कारणों को हटाने के लिए और स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए पर्युषण से बढ़कर दूसरा अवसर कौन हो सकता है ? पर्युषण के दिनों में दुष्कर्मों की आहुति दी जाती है और अंतिम दिन-- संवत्सरी का दिन पूर्णाहुति का दिन है। अपने पापों को ध्यान में लेकर, ध्यानाग्नि के द्वारा पापों को जलाना ही पर्युपण पर्व का महान् संदेश है । जैनधर्म की आराधना का यह पवित्र दिन इतनी प्रभावशाली भावनाओं में व्यतीत होना चाहिए कि उन भावनाओं का असर जीवनव्यापी बन जायः कम से कम एक वर्ष तक तो उन भावनाओं का प्रभाव आत्मा पर रहना ही चाहिए। संवत्सरी का दिन आयुबंध का सर्वश्रेष्ठ अवसर है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] [ जवाहर-किरणावली अगर आज नवीन आयु का बंध हो जाय तो आत्मा निहाल हो जायगा । मित्रो! आज प्राणी मात्र के प्रति मित्रभावना कायम करे और हृदय में किसी भी प्रकार का विकार मत रहने दो । जीवनमात्र के प्रति प्रेम के ऐसे प्रबल संस्कार बाँधो कि वे टूट न सकें। अगर आपके इस संस्कार में सचाई खाभाविकता और दृढ़ता हुई तो आपके जीवन में परिवर्तन हुर बिना नहीं रहेगा और आप प्रागीमात्र के मित्र होंगे तथा प्रागीभात्र आपके मित्र होंगे। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर आप अपूर्व समता, निराकुलता और तृप्ति का अनुभव करने लगेंगे। ___ यह पवित्र दिन पुराने पापों को धोने और नये पाप न करने के दृढ़ संकल्प का दिन है। नये पाप न करने के संकल्प का अर्थ यह मत समझिये कि मैं सब को साधु बन जाने के लिए कह रहा हूँ। मेरा आशय यह है कि लोभ के कारण सांसारिक कामों में भी धर्म संबंधी जो त्रुटियाँ रहती हों, उन्हें दूर करने का संकल्प कीजिए और भविष्य में वह त्रुटियाँ मत रहने दीजिए। अपवित्रता को पूर करके आत्मा को पवित्रता के सरोवर में स्नान कराइए । बहुत-से लोगों की धारणा है कि धर्मोपदेश सुन लेने से ही आत्मा पवित्र हो जाएगा । पर इस भ्रम को आज दूर कर देना चाहिए । धर्मोपदेश के श्रवण का फल यह है कि आपके अन्तःकरण में तत्त्व का शान जागृत हो। उस तत्वज्ञान के प्रकाश में आप हिताहित का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ४१ निर्णय करें और अहित के मार्ग को त्याग कर हित के मार्ग पर चलें । विना क्रिया के श्रवण या ज्ञान पूर्ण लाभप्रद हो सकता । आप धर्म का जो उपदेश सुनते हैं से सिर्फ सुनने के लिए ही न सुनें बल्कि उसे यथाशक्ति अमल में लावें । धर्म मुख्य रूप से आचरण करने की वस्तु है । अतएव आप जो धर्मोपदेश सुनते हैं, उसका आचरण कीजिए । अन्तगडसूत्र में जो आदर्श बतलाये गये हैं, उनका पालन वीर क्षत्रिय ही कर सकते हैं । आप लोग भी क्षत्रिय ही हैं, मगर बनिया बन रहे हैं। आपको बनिया नहीं बनाया गया था, महाजन बनाया गया था । परन्तु आज आपकी वीरता और धीरता कहाँ गई ? आज आपको जब बनिया कहा जाता है तब भी आपका क्षत्रियत्व जोश नहीं खाता ? पूर्वकालीन वीरता जागृत करने के लिए आपको अन्तगडसूत्र सुनाया गया है। जिनकी कथा आपने सुनी है और मैंने सुनाई है, उन्होंने प्रवल पुरुषार्थ करके अपनी सम्पूर्ण अशुद्धता हटा दी और अनन्त मंगल प्राप्त किया । अभी आपके और हमारे कर्मों का नाश होना शेष है । हमें अपनी तमाम आत्मिक विकृतियों को दूर करना है । इस महान उद्देश्य को सफल करने के लिए हमें आदर्श महापुरुषों के पथ का अनुसरण करना चाहिए । उस पथ को समझने के लिए ही कथानों का कथन और श्रवण किया जाता है। अन्तगडसूत्र में, अन्त में दस महारानियों की जो कथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [ जवाहर-किरणावली - - है, वह अत्यन्त गंभीर है और जैनधर्म की कथाओं पर शिखर के समान है। यह दसे महारानियाँ वैभव और भोगों में डूबी हुई थीं। संसार के सर्वश्रेष्ठ भोग उन्हें सुलभ थे । कभी किसी वस्तु का अभाव उन्होंने जाना ही नहीं था । लेकिन भगवान महावीर के प्रताप से उन्हेंोंने समस्त भोगों का परित्याग कर दिया । वे साध्वियाँ हो गई और आध्यात्मिक साधना में लीन रहने लगीं । भिक्षा द्वारा अपना शरीर निर्वाह करने लगी। इनमें से भी कृष्णा महारानी के चरित का स्मरण करके तो रोमांच हो पाता है । कहाँ राजसी वैभव और कहाँ दुष्कर तप ! कहाँ उनकी फूल-सी कोमल काया और कहाँ पद-पद पर परिषहों का सहन करना ! कैसी अनोखी उत्क्रांति का संदेश है ! ____ मैं धर्मशास्त्र सुना रहा हूँ, इतिहास नहीं सुना रहा हूँ। जिसके हृदय में भक्ति है वह तो धर्मशास्त्र की कथा को ऊँची समझेगा ही, परन्तु लोकदृष्टि से देखने वाला भी इतना अवश्य कहेगा कि राजरानी साध्वी बने-स्वेच्छा से भिचुणी के जीवन को अंगीकार करे, यह कल्पना ही कितनी उच्च है ! जिस मस्तिष्क ने यह कल्पना की है वह क्या साधारण नहीं होगा ? जैनधर्म और बौद्धधर्म की कथाओं से विदित होता है कि भारतवर्ष में अनेक राजरानियाँ साध्वी बनी हैं । महाराजा अशोक की बहिन भी भिक्षुणीसंघ में प्रविष्ट हुई थी। सुना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [४३ जाता है कि उसके नाम का पीपल आज भी सीलोन में विद्यमान है। ऐसी साध्वियाँ जब संसार में घूम-घूम कर जनता को जागृत करती होंगी, तब भारत में और भारत के प्रति दुसरे देशों में किस प्रकार की भावना उत्पन्न होती होगी, यह कौन कह सकता है ! सचमुच भारतीय इतिहास का वह स्वर्णकाल अनूठा था ! एक राजरानी स्वेच्छा पूर्वक वैभव को लात मार कर भिक्षुणी बनती और घर-घर फिरती है ! जीवन के किसी अभाव ने उसे भिक्षुणी बनने को बाध्य नहीं किया था । किसी अपूर्व अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर ही उन्होंने ऐसा किया था । और ऐसा करके वे क्या दुःखी थी ? नहीं । भोगों में अतृप्ति थी, त्याग में तृप्ति थी । भोगों में असंतोष, ईर्पा और कलह के कीटाणु छिपे थे, त्याग में संतोष की शांति थी, निराकुलता का अद्भुत प्रानन्द था, आत्मरमण की स्पृहणीयता थी। इसी सुख का अनुभव करती हुई वह भिक्षुणियाँ अपने जीवन को दिव्य मानती थीं। उनका त्याग महान् था। आप कितने भाग्यशाली हैं कि यह महान आदर्श आपके सामने उपस्थित है। आप पूर्ण रूप से अगर इस आदर्श पर नहीं चल सकते तो भी उसी ओर कदम तो बढ़ा सकते हैं ! कम से कम विपरीत दिशा में तो न जाएँ ! मगर श्राप इस ओर कितना लक्ष्य देते हैं ? आपसे तो अभी तक बारीक वस्त्रों का भी मोह नहीं छूट सकता । इन वस्त्रों के लिए चाहे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] [ जवाहर-किरणावली किसी की चमड़ी जाती हो, पर आप पतले कपड़े नहीं छोड़ सकते । अगर आप इतना-सा भी त्याग नहीं कर सकते तो राजसी वैभव और राजसी भोगों का त्याग करने वाले संतों और एसी ही सतियों का चरित सुनकर क्या लाभ उठाएँगे? क्या आपको उन त्यागभूत्ति महासतियों का स्मरण भी प्राता है ? महासेन कृष्णा विदुसेन कृष्णा, राम कृष्णा शुद्धमेवजी । नित-नित बदू रे समणी, त्रिकरण-शुद्ध त्रिकालजी, कवि ने यह वंदना किस काली को की है ? और आप यह बंदना किस काली को कर रहे हैं ? भारत की इन महाशनियों को भगवान् ने किस भाव से शास्त्र में स्थान दिया है ? आप इन मतियों को किस प्रकार वंदना कर सकते हैं ? सांसारिक भोगों के प्रति हृदय में जब तक तिरस्कार की भावना उत्पन्न न हो जाय तब तक मनुष्य इन्हें वन्दना करने का सचा अधिकारी किस प्रकार हो सकता है ? हम किसी के कहने से या भावावेश में आकर उन सतियों के नाम पर चाहे मस्तक झुका लें, किन्तु वास्तव में उन्हें वन्दना करने योग्य तभी समझे जाएँगे, जब उनके त्याग को पहिचानेंगे। उनके त्याग को पहचान कर वंदना करने पर आपके पाप जलकर भस्म हो जाएँगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] सेठानियाँ. सेठानियों को तो बहिन बनाती हैं, मगर किसी दिन किमी गरीविनी को भी बहिन बनाया है ? काली और सुकाली के हृदय में अपना कल्याण करने की भावना उत्पन्न हुई। तब वे कहने लगीं-'यह राजमहल प्रात्मा के लिए कारागार हैं और यह बहुमूल आभरण हथकड़ियाँबेड़ियाँ हैं । इनके सेवन से प्रात्मा अशक्त बनता है. गुलाम बनता है। ऊपरी सजावट के फेर में पड़कर हम आन्तरिक सौन्दर्य को भूल जाते हैं। स्वाभाविकता की और अर्थात् अात्मा के असली स्वरूप की और हमारी दृष्टि ही नहीं पहुँच पाती । संसार के भोगापभोग और सुख के साधन असलियत को भुलाने वाले हैं। यह इतने सारहीन हैं कि अनादि काल से अब तक भोगने पर भी प्रात्मा इनसे तृप्त नहीं हो पाया। अनन्त काल तक भोगने पर भी भविष्य में तृप्ति होने की संभावना नहीं है । अलवत्ता, इन्हें भोगने के देड-स्वरूप नरक और नियंच गतियों के घोर कष्ट सहन करने पड़ते हैं । इन भोगविलासां के चक्कर में पड़ने वाला स्वार्थी बन जाता है। वह अपनी ही सुख-सुविधा का विचार करता है और अपने दीन-दुखी पड़ोसी की तरफ नज़र भी नहीं डालता।' रानियों कहती हैं-'जिन गरीबों की बदौलत हम राजरानी कहलाती हैं, उन्हीं गरीबों को हमने भुला रक्खा है ! यही नहीं, वरन् एक प्रकार से उनके प्रति वैर-विरोध कर रक्खा है । राजमहल में रह कर हम उन बहिनों से नहीं मिल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली सकतीं, जिन्होंने हमें महारानी बनाया है । इन चकाचौंध करने वाले गहनों और कपड़ों के कारण वे हमारे पास नहीं आ सकतीं नज़दीक आते डरती हैं ' ____ अगर कोई स्त्री फटे-पुराने कपड़े पहनकर विसी महारानी से मिलने जाना चाहे तो क्या पहरेदार उसे भीतर घुसने देंगे ? नहीं । अगर धक्के मार कर न भगा देंगे तो डाटफटकार बताये बिना भी नहीं रहेंगे। मगर रानी से पूछा जाय कि तुमने जो वस्तु और आभूषण धारण किये हैं सो वे पाये कहाँ से हैं ? वे गरीबों के पसीने से ही बने हैं या राजा की तिजोरी में उगे हैं ? रानी इस प्रश्न का क्या उत्तर देगी ? ___ यह बात सिर्फ रानी-महारानी कोही लागू नहीं होती। बढ़िया और कीमती गहने-कपड़े पहनने वाला, फिर वह कोई भी क्यों न हो, बढ़िया गहनों-कपड़ों वालों को ही चाहता है । उसे विना जेवर का गरीब प्यारा नहीं लगता । यही विकार है । बढ़िया वस्त्रों में और आभूषणों में अगर विकार न हो तो भगवान महावीर को शायद ही सादा वेष चलाने की आवश्यकता पड़ती। जिसकी मैत्री आवना विकसित हो गई है, उसी के हृदय में इस प्रकार की सद्भावनाएँ जागृत होती हैं और वही वस्त्र-आभूषण का त्याग करता है। महारांनी काली के हृदय में मित्रभावना विकसित हुई। अतएव उन्होंने विचार किया-मुझे अपनी सब बहिनों से समान रूप से मिलना चाहिए । मेरे और उनके बीच में जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [४७ - - --- बड़ी दीवाल खड़ी है. उसे में गिरा दूंगी । में सारे भारत को जगाना चाहती हूँ और भेदभाव की काल्पनिक दीवालों को धूल में मिला देना चाहती हूँ । यह विचार कर महारानी काली ने उत्तम वस्त्र उतार कर सादे वस्त्र धारण किये, इन्द्रानी सरीखा मनोहर श्रृंगार हटा दिया और जिस केशराशि को बड़े चाव से सजाया करती थी और सुगंधित तेल-फुलेल से नहलाया करती थी, उसी केशराशि कोनाँच कर फेंक दिया। उन्होंने स्वदेश की बनी सादी खादी से अपना शरीर सजा लिया। महारानी काली ने साध्वी होकर सफेद वस्त्र धारण किये। आज अगर कोई विधवा बाई भी सफेद वस्त्र धारण कर लेती है तो होहल्ला मच जाता है । काली रानी का वह तेज आज बहिनों में नहीं रहा । न जाने कब और कैसे गायब हो गया है ? आखिर काली गनी ने संसार त्याग दिया । संसारत्याग कर उन्होंने जो अवस्था अपनाई, वह वर्णनातीत है । महाकृपा काली नामक सनी ने प्रांबिल तपस्या करना प्रारंभ किया। चौदह वर्ष, तीन माम और वीस दिनों तक प्रांबिल तप करके उन्होंने अपनी कोमल और कान्त काया को झुलसा डाला । एक उपवास और उसके बाद आंबिल, फिर उपवास और दूसरे दिन फिर आंबिल, इस प्रकार उनकी तपस्या निरन्तर जारी रही। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहरकिरणावली _ 'आंबिल' प्राकृत भाषा का शब्द है। संस्कृत में इसे 'आचाम्ल' व्रत कहते हैं । इस व्रत का अनुष्ठान करने वाला सरस भोजन का त्याग करके नीरस और नमकहीन रूखासूखा भोजन करता है । पके हुए चावलों को पानी से धोकर उन्हें स्वादहीन बना कर दिन भर में एक बार खा लेना और फिर दूसरे दिन उपवास करना, यह महासती काली का तप था। मित्रो ! आपके यहाँ ऐसी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। फिर भी न मालूम क्यों आप में बल नहीं आता ! आप मेरी दी हुई मात्रा का सेवन करो। चाहे यह कटुक हो पर इससे रोग का अवश्य ही विनाश होगा, इस में संदेह नहीं । ____ काली महासती अपने समस्त स्वर्गापम सुखों को तिलांजालि देकर यह घोर तपस्या किस उद्देश्य से कर रही थीं ? 'कर्मक्षय करने के लिए !' यह उत्तर है तो ठीक, परन्तु अाप पूरी तरह नहीं कह सकते । इस कारण इतनी-सी बात कह कर समाप्त कर देते हैं। कर्म का अर्थ दुष्कर्म समझना चाहिए । काली महासती विचारती हैं-मैंने उत्तम से उत्तम भोजन खाया और इसी कारण अनेक गरीबों को दुत्कारा, मुसीबत में डाला और अधिक गरीब बनाया है। यही मेरा दुष्कर्म है । इसका बदला चुकाने में लिए ही उन्होंने बढ़िया कपड़ों का और उत्तम भोजन का त्याग करके सादे कपड़े पहने और नीरस भोजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [४६ किया। काखी महारानी सफल कियो अवतार । पायो छे भव-जल पार ॥काली०॥ कोणिक राजा की छोटी माता, श्रेणिक नृप नी नार । वीर जिणन्द की वाणी सुन ने, लीनो है संयम-भार ||काली०|| चन्दनबाला सती मिली है गुरानी। नित २ नमी चरणार, विनय कभी भणी अंग इग्यारा जारी निर्मल बुद्धि अपार ||काली०॥१॥ महासती काली कहती है कि मैंने बढ़िया भोजन खाकर और बढ़िया कपड़े पहन कर बहुत लोगों के साथ परोक्ष रूप से विरोध किया है। जिन गरीबों की कृपा से उत्तम वस्त्र और भोजन की प्राप्ति होती थी, उन गरीबों को मैंने धक्के दिलवाये, और निकम्मे मसखरे लोग पड़े-पड़े माल खाते रहे। गरीबों के घोर परिश्रम के फलस्वरूप ही हमें दूध, घी, शक्कर और चावल आदि वस्तुएँ प्राप्त होती थी, मगर जब उन्हीं, गरीबों में से कोई मुट्ठी भर आटे की आशा से मेरे पास आता था तो उसे आटे के बदले धक्के मिलते थे कि दूध, घी और चावल-शक्कर खाने वालों को नज़र न लग जाय ! मैं जब बच्चा था तब भोजन करते समय अगर भीलनी प्राजाती तो हिरवाड़ बन्द कर लिये जाते थे । इसका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] [ जवाहर-किरणावली -- - --- - -- - यह था कि भीलनी को डाकिनी समझा जाता था । तारीफ़ यह है कि अनाज उन्हीं के यहाँ से आता था । वही अनाज पैदा करते थे और उन्हीं के प्रति ऐसी दुर्भावना थी । यह दुर्भावना किसी एक घर या कुटुंब में नहीं थी वरन् व्यापक रूप से घर-घर फैली हुई थी। आज सोचता हूँ-समाज का यह कितना जबर्दस्त अन्याय है ! कितनी भीषण कृतघ्नता है ! अमीर लोग गरीबों को दुत्कारते हैं और दूसरे अमीर के आने पर उसकी मनुहार करते हैं । अपने पाप का प्रायश्चित्त करते हुए एक महाराष्ट्रीय कवि ने कहा है उत्तम जम्मा येऊनी रामा ! गेलो मी वाया दुष्ट पातकी शरण मी आलो, सत्वर तष पाया। प्रार्जविले बहुलवण भंजने व्याया जेवाया खुधित अतिथि कदी नाही घेतला, उदार कर कधों केला नाहीं प्रेमें जेवाया पैसा एक चाया नाम फुकटचे तेहिन थालें स्वामी बदनाया ||उत्तम ||१॥ कवि कहता है-मैं ने उत्तम जन्म व्यर्थ गँवा दिया। मेरा नाम उत्तम है, जन्म उत्तम कुल में हुआ हैं, परन्तु काम मैंने अधम किये । इस कारण मैं पातकी हूँ। मित्रो ! जिसे आत्मा और परमात्मा पर विश्वास होगा, वही अपना अपराध स्वीकार करेगा, उसके लिए पश्चात्ताप करेगा और उससे बचने की भावना पाएगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [५१ कवि परमात्मा के सामने अपनी आलोचना करता हुआ कहता है-प्रभो ! मैं आपकी शरण श्रआया हूँ। मेरी रक्षा करो। मैं ने अपने सगे-संबंधियों को पाहुने बनाकर जिमाने की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की । तरह-तरह के व्यंजन और मिष्टान्न तैयार करवाए । वे जीमने बैठे । जीमते-जीमते तृप्त हो गए और कहने लगे-बस, अब मत परोसिये । अब एक कौर भी नहीं निगल सकता । लेकिन बड़प्पन के मद में छक . कर मैं नहीं माना । थोड़ा और खाने का आग्रह किया । न माने तो जबर्दस्ती करके थाल में भोजन डाल दिया । फिर मुँह में पकड़ कर खिलाया । उसी समय नुधा से पीड़ित व्यक्ति मेरे द्वार पर आया । भूख से उसकी आँखें निकल रही थीं, बिना मांस के हाड़ों का पीजरा सरीखा उसका शरीर दिखाई देता था । जिस समय सगे-संबंधी भोजन परोसने के लिए मना कर रहे थे और मैं जबर्दस्ती उन्हें परोसने में लगा था, ठीक उसी समय वह भूखा द्वार पर आया। उसने कहा-मेरे प्राण अन्न के अभाव में भूख के मारे जा रहे हैं अगर थोड़ा भोजन हो तो दे दो।' परन्तु हाय मेरी कठोरता! मैं ने टुकड़ा भी देने की भावना नहीं की और सगे-संबंधी के गले लूंसने में ही व्यस्त रहा । मित्रो ! कवि ने अपने पाप काप्रदर्शन किया है और ऐसा करके उसने अपने पाप को हल्का कर लिया है, ऐसा समझ लेना उपयुक्त नहीं होगा । कवि जनता की भावनाओं का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] [ जवाहर-किरणावली प्रतिनिधि होता है। वह समाज की स्थिति का शाब्दिक चित्रण करता है । अतएव उसके कथन को समाज का चित्र समझना चाहिए । इस दृष्टि से मराठी कवि का उपर्युक्त कथन सारे समाज का चित्रण है-सम्पूर्ण समाज के पाप का दिग्दर्शन है। आप अपने ऊपर इस कथन को घटाइए । अगर आप पर वह घटित होता हो तो आप भी अपने दुष्कर्मों की .आलोचना कीजिए और उनसे बचने का दृढ़ संकल्प कीजिए । भूख के कारण जिसके प्राण निकल रहे हैं, उसे एक टुकड़ा मिल जाय तब भी उसके लिए बहुत है । मगर लोगों को उसकी ओर ध्यान देने की फुर्सत ही कहाँ ? अाजकल के लोगों में इतनी क्षुद्र, संकीर्ग और स्वार्थमय भावना घुसी हुई है, तिस पर भी धर्म के नाम पर इसी प्रकार का उपदेश मिल जाता है। बड़े खेद की बात है कि लोगों की यह धर्म सिखलाया जा रहा है कि- . कोइ भेखधारी श्रावे द्वार जी, शर्मा शर्मी दीजे आहार जी। पछे कीजे पश्चाताप जी, तो थोड़ो लागे पाप जी ॥ खेद ! धर्म के नाम पर कैसा हलाहल विष पिलाया जा रहा है । अगर द्वार पर आये हुए को लोकलाज के कारण भोजन दिया तो घोर पाप लग जाएगा !! अलवत्ता, भोजन देकर अगर पश्चात्ताप कर लिया जाय तो पाप में कुछ कमी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] हो जाएगी ! स्वार्थपरता की हद हो गई ! धर्म के नाम पर यह जो शिक्षा दी गई है और दी जा रही है, उससे धर्म को कितना आघात पहुँच रहा है, यह समझने की चिन्ता किसे है ? इससे लोग धर्म के प्रति घृणा करने लगते हैं और कहते हैं कि धर्म अगर इतनी निर्दयता, कठोरता, स्वार्थपरायणता और अमानुषिकता की शिक्षा देता है, तो धर्म का ध्वंल हो जाना ही जगत् के लिए श्रेयस्कार है ! भाइयो, जरा उदारतापूर्वक विचार करो । धर्म के मौलिक तत्त्व को व्यापक दृष्टि से देखो। द्वेष से प्रेरित होकर हम यह नहीं कह रहे हैं, परन्तु धर्म के प्रति फैलती हुई घृणा का विचार करके और साथ ही लोगों में आई हुई अनुदारता का ख्याल करके, कह रहे हैं । यह धर्म नहीं है । धर्म के नाम पर अधर्म फैलेगा तो धर्म वदनाम होगा। अधर्म फैलाने वालों का भी हित नहीं होगा । अतएव निष्पक्ष दृष्टि से धर्म के स्वरूप पर विचार करो । धर्म ही पापों का नाश करने वाला है । अगर धर्म के ही नाम पर पाप किया जाएगा और उसी को धर्म समझ लिया जाएगा तो पापों का नाश किस प्रकार होगा ? [ ५३ आपने अपने संबंधियों को अनेक बार भोजन कराया होगा, पर याद आता है कि किसी दिन किसी गरीब को स्नेही संबंधियों की तरह जिमाया हो ? 'नहीं !' लेकिन पुराय किधर होता है ? अपनी श्रीमंताई दिखाने www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [जवाहर-किरणावली के लिए सगे को जबर्दस्ती खिलाने से पुण्य का बंध होता है या गरीब के प्राण बचाने के लिए उसे खिलाने से ? _ 'भूखे को खिलाने से !' यह जानते और मानते हुए भी अपनी प्रवृत्ति बदलते क्यों नहीं? फिर कहते हो कि हम पुण्य और पाप को जानते हैं ? बात काली महारानी की चल रही है । उनके अन्तःकरण में वह भावना उत्पन्न हुई कि मैं ने उत्तम-उत्तम भोजन किये परन्तु गरीबों को देना तो दूर रहा, उलटे उनकी नजर पड़ने से बचाव किया। अलवत्ता, मैं ने अपनी सरीखी रानियों को बड़े प्रेम से जिमाया है, पर उससे क्या हुआ? वह तो मोह था या लोकव्यवहार था; दया नहीं थी। हृदय में दया होती तो भूखे को खिलाया होता ! मैंने यह पाप किया है। मैं इस पाप को सहन नहीं करूँगी। अब मैं ऐसा भोजन करूँगी जिसे गरीब भी पसंद नहीं करते । ऐसा भोजन करके मैं संसार को दिखला दूंगी कि इस पाप का प्रायश्चित्त ऐसे होता है ! . मित्रो ! बढ़िया भोजन की अपेक्षा सादा भोजन करने से दया कितनी अधिक हो सकती है, इस बात पर विचार करो। आपके घर बाजरे की घाट बनी होगी और वह बच रहेगी तो किसी गरीब को देने की इच्छा हो जाएगी। अगर दाल का हलुआ बचा होगा तो शायद ही कोई देना चाहेगा ! उसे तो किसी संबंधी के घर मेजने की इच्छा होगी। इसलिए तो कहा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान - - . .--.-. दया धर्म मावे तो कोई पुण्यवंत पावे, जॉने दया की बात सुहावेगी। भारी कर्मा अनन्त संसारी, जॉने दया दाय नहिं श्रावे जी ।। विचार करो कि पुण्यवान कौन है ? मिष्टान्न भोजन करने वाला और अपने भोजन के लिए अनेकों को कष्ट में डालने वाला पुण्यवान् है या सादा भोजन करके दूसरों पर दया करने वाला पुण्यवान् है ? सुनते हैं भारतीयों की औसत आमदनी डेढ़ आना प्रतिदिन है। इसे देखते हुए अगर प्रत्येक आदमी डेढ़ आने में अपना निर्वाह करे तब तो सब को भोजन मिल सकता है, लेकिन आप कितने आने प्रतिदिन खर्च करते है ? आपका काम तीन आने, छह आने या बारह आने में भी चल जाता है ? __ 'नहीं!' अगर कोई चलाना चाहे तो चल क्यों नहीं सकता ? हाँ इतने व्यय में वह मौज-शौक नहीं होगी. जो अभी आप कर रहे हैं। जब प्रति मनुष्य डेढ़ आने की दैनिक आय है नो तीन पाना खर्च करने वाला एक आदमी को, छह प्राना खर्च करने वाला तीन आदमी को और बारह आना खर्च करने वाला सात आदमियों को भूखा रखता है ! इससे स्पष्ट है कि अमीर लोग ज्यों-ज्यों अधिक मौज करते हैं, त्यों-त्यों गरीब ज्यादा तादाद में भूखे मरते हैं। एक लम्बीShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली चौड़ी दरी को समेट कर उस पर एक ही आदमी बैठ जाय और दूसरे को नहीं बैठने दे तो क्या उसका बड़प्पन समझा जाएगा? बड़प्पन तो औरों को बिठलाने में है। काली रानी कहती है-'मेरे गले में वह अन्न कैसे उतरा जिसके लिए अनेक मनुष्यों को कष्ट में पड़ना पड़ा ।' इस राजसत्ता ने कैसे-कैसे अनर्थ किये हैं ! जब मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है उसे न्याय-अन्याय, धर्मअधर्म कुछ नहीं सूझता। एक हार और हाथी के लिए एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का घमासान हो गया ! लड़ाई तो अपनी मौज के लिए करें और नाम प्रजा की रक्षा का हो! महासती महासेन कृष्णा एक आंबिल एक उपवास, इस प्रकार क्रमशः आंबिल करती-करती सौ आंबिल तक चढ़ गई। चौदह वर्ष, तीन मास और बीस दिन में उन्होंने अपना शरीर सुखा डाला। काली महासती राजरानी थीं। साध्वी के वेश में जब के लोगों के घर शिक्षा के लिए जाती होंगी, तब लोगों में त्याग के प्रति कितनी स्पृहा होती होगी? लोग त्याग के प्रति कितनी आदरभावना अनुभव करते होंगे? एक राजरानी राजसी वैभव को ठुकरा कर, भोगोपभोगों से मुँह मोड़कर, वस्त्रों और प्राभूषणों को छोड़कर जब साध्वी का वेष अंगीकार करती है, तो संसार को न मालूम कितना उच्च और महान् आदर्श सिखलाती है ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ५७ एक भाई ने मेरे शरीर पर खादी देखकर कहा'पूज्यजी के शरीर पर खाड़ी !' उसे शायद यह सोचकर आश्चर्य हुआ कि इतने धनिक समाज का आचार्य होकर मैं खादी क्यों पहनें ? मगर उस भोले भाई का पता नहीं कि खादी का कितना महत्त्व है ? महावीरचरित्र के अंत में, उसके रचयिता हेमचन्द्राचार्य का जीवनचरित दिया गया है । उसमें लिखा है कि श्राचार्य हेमचन्द्र एक बार अजमेर से पुष्कर गये थे । वहाँ एक श्राविका ने अपने हाथ से सूत कात कर खादी बुनी थी । खादी तैयार हुई ही थी कि हेमचन्द्राचार्य गोचरी के लिए वहाँ पहुँचे । श्राविका ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ आचार्य से खादी लेने की प्रार्थना की । हेमचन्द्राचार्य गुजरात के प्रसिद्ध राजा कुमारपाल के गुरु थे । आपके विचार से हेमचन्द्राचार्य को खादी लेनी चाहिए थी ? पर यह स्वांग तो आप लोगों को ही सूझता है; उन्हें नहीं सूझता था । हेमचन्द्राचार्य ने बड़े प्रेम से खादी का वस्त्र स्वीकार किया । उसे पहिन कर विहार करते-करते वे सिद्धपुर पाटन गये, जहाँ राजा कुमारपाल रहता था । राजा अपने साथियों के साथ उनका स्वागत करने आया । वन्दन-नमस्कार आदि करके कुमारपाल ने कहा- 'गुरुदेव, कुमारपाल के गुरु के शरीर पर यह खादी शोभा नहीं देती ।' हेमचन्द्राचार्य - मेरे खादी पहनने से तुम्हें लजा मालूम होती है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ जवाहर किरणावली कुमारपाल - जी हाँ । हेम० - यह खादी मेरे D1 संयम को बढ़ाने वाली है । श्राविका बहिन ने बड़े प्रेम से मुझे भेट की है। ऐसी स्थिति में तुम्हें लज्जित होने की क्या आवश्यकता है ? लज्जा तो राजा को तब आनी चाहिए जब प्रजा भूखी मरती हो और राजा भोगविलास में डूबा रहता हो। उनकी दुरवस्था और अपने आमोदप्रमोद को देखकर लज्जित होना चाहिए, खादी से शर्मिंदा क्यों होता है ? 1 आचार्य हेमचन्द्र के इस कथन का राजा कुमारपाल पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने थोड़े ही दिनों में अपने राज्य में सुधार कर लिया । राजा के सुधारकार्य को देखकर श्राचार्य हेमचन्द्र ने उस श्राविका को धन्यवाद देकर कहा - यह उस बहिन के प्रेम का ही प्रताप है । उसके दिये कपड़े के निमित्त से जो सुधार हो पाया वह मेरे उपदेश से भी होना कठिन था । महारानी काली जब खादी के कपड़े पहनकर देश में घूमी होंगी तब लोगों में कितनी जागृति हुई होगी ? जनता के हृदय में कैसी भावना का उदय हुआ होगा ? अगर आप काली की - पूजा करना चाहते हैं तो उनके त्याग को हृदय में स्थान दो । काली के महान त्याग को हृदय में स्थान दोगे तो काली भी हृदय में आ जाएगी और हृदय भी पवित्र बन जाएगा ! महारानी काली को मानने वाली विधवा बहिन अपने शरीर पर गहने नहीं रखेगी। दीक्षा ले लेना दूसरी बात है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ५६ अगर पूर्ण संगम अंगीकार करने की शक्ति हो तो अंगीकार कर लेना ही उचित है । परन्तु इतनी शक्ति न होने की हालत में अगर गहने त्याग दिये तो भी दुःख तो नहीं होगा । कदाचित् कहा जाय कि घर में नंगे हाथ अच्छे नहीं लगते, ते यही कहना पड़ेगा कि ऐसा कहने वाले की दृष्टि दूषित है । गहनों में सुन्दरता देखने वाला आत्मा के सद्गुणों के सौंदर्य को देखने में अंधा हो जाता है । त्याग, संयम और सादगी में जो सुन्दरता है, पवित्रता है, सात्विकता है, वह भोगों में कहाँ ? मैं विधवा बहिनों को सम्मति देता हूँ कि वे घर वालों की ऐसी बातों की परवाह न करके गहनों को त्याग दें- अपने शरीर पर धारण न करें और सादगी के साथ रहें । बहिने ! तुम भी काली की तरह तपस्या करो। इस पर्दे ने तुम्हारे जीवन को तुच्छ बना दिया है। इसके बन्धन को दूर करके अपने कर्त्तव्य का विचार करो । भाइयों से भी मैं कहना चाहता हूँ कि अगर आप भगवान् महावीर की भक्ति करना चाहते हैं तो काली महासती की शरण लो । काली ने घोर तप करके सारे संसार को मार्ग दिखला दिया है कि सब के लिए तप का मार्ग खुला हुआ है । काली की तरह आप भी आयंबिल करें तो आपको गरीबों के भोजन का पता चले । काली महासती ने मैत्रीभावना की साधना के लिए महान् त्याग किया था | मैत्रीभावना की महिमा अगम अगोचर है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ जवाहर किरणावली जिसके अन्तःकरण में इस भावना का विकास होता है, उसे अपूर्व शांति प्राप्त होती है । मैत्रीभावना से जो अपने हृदय कोई बना लेता है उसके लिए सारा संसार नन्दन वन बन जाता है । उस नन्दन वन में फिर ऐसे-ऐसे मधुर फल लगते हैं कि उनका आस्वादन करने वाला ही उनके माधुर्य को समझ सकता है । मैत्रीभावना के संबन्ध में आपने बहुत कुछ सुना होगा लेकिन उस पावन भावना को जागृत करने का तरीका कम लोगों को ही मालूम है । अतएव यह जान लेना आवश्यक है कि मैत्रीभावना का आरंभ कहाँ से करना चाहिए ? चाहे मैत्रीभावना हो या कोई दूसरी शिक्षा हो, उसका आरंभ घर से ही करना उचित है । फिर क्रमशः उसे व्यापक बनाने की चेष्टा करना चाहिए । घर में माता का स्थान अनोखा होता है । माता ने पुत्र को जन्म दिया है। माता से ही पुत्र को शरीर मिला है । संतान पर माता और पिता का असीम ॠण है । उनके ऋण को चुकाना कठिन है। ठाणांगसूत्र में वर्णन आता है कि गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा - भगवन्, अगर पुत्र माता-पिता को नहलावे, वस्त्राभूषण पहनावे. भोजन आदि का सब प्रकार का सुख देवे और उन्हें कन्धे पर उठाकर फिरे, तो क्या वह अपने माता-पिता के ऋण से उऋण हो सकता है ? भगवान् ने उत्तर दिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [६१ नायम? सम? । अर्थात्-ऐसा होना संभव नहीं है । इतना करके भी पुत्र माता-पिता से उऋण नहीं हो सकता। इसका आशय यह है कि वास्तव में माता-पिता के उपकार का बदला इतने से नहीं चुक सकता। कल्पना कीजिए, किसी आदमी पर करोड़ रुपयों का ऋण है। ऋण माँगने वाला ऋणी के घर गया। ऋणी ने उसका आदर-सत्कार किया और हाथ जोड़कर कहा-'मैं आपका ऋणी हूँ और ऋण को अवश्य चुकाऊँगा।' अब आप कहिए कि आदरसत्कार करने और हाथ जोड़ने से ही क्या ऋणी ऋणरहित हो सकता है ? 'नहीं!' एक राजा ने बाग तैयार कराया और किसी माली को सौंप दिया । माली ने वाग में से दस-वीस फल लाकर राजा को दे दिये, तो क्या वह राजा के ऋण से मुक्त हो गया ? 'नहीं' मित्रो ! इस शरीर रूपी बगीचे को माता-पिता ने बनाया है । उनके बनाये शरीर से ही उनकी सेवा की तो क्या विशेषता हो गई ? यह शरीर तो उन्हीं का था। फिर शरीर से सेवा करके पुत्र उनके उपकार से मुक्त किस प्रकार हो सकता है ? एक माता ने अपने कलियुगी बेटे से कहा-मैंने तुझे जन्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली दिया है । पाल-पोसकर बड़ा किया है। जरा इस बात पर विचार तो कर बेटा! बेटा नयी रोशनी का था। उसने कहा-फिजूल बड़बड़ मत कर । तू जन्म देने वाली है कौन ? में नहीं था तब तू रोती थी और बांझ कहलाती थी। मैंने जन्म लिया तब तेरे यहाँ बाजे बजे और मेरी बदौलत संसार में पूछ होने लगी। नहीं तो बांझ समझकर कोई तुम्हारा मुँह भी देखना पसंद नहीं करता था। फिर मेरे इस कोमल शरीर को तुमने अपना खिलौना बनाया। इससे अपना मनोरंजन किया-लाइप्यार करके आनन्द उठाया। इस पर भी उपकार जतलाती हो ! माता ने कहा-मैं ने तुझे पेट में रक्खा सो ? बेटा-तूने जान-बूझकर मुझे पेट में थोड़े ही रक्खा था ! तुम अपने सुख के लिए प्रयत्न करती थी, बीच में हम रह गये ! इसमें तुम्हारा उपकार ही क्या है ? फिर भी अगर उपकार जतलाती हो तो पेट में रहने देने का किराया ले लो! यह आज की सभ्यता है ! भारतीय संस्कृति आज पश्चिमी सभ्यता का शिकार बनी जा रही है और भारतीय जनता अपनी पूंजी को नष्ट कर रही है। माता ने कहा-कोठरी की तरह तू मेरे पेट का भाड़ा देने को तैयार है, पर मैं ने तुझे अपना दूध भी तो पिलाया है ! बेटा-हम दूध न पीते तो तू मर जाती ! तेरे स्तन फटने लगते । अनेक बीमारियाँ हो जाती । मैं ने दृध पीकर तुझे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [६३ जिंदा रक्खा है ! माता ने सोचा-यह बिगडैल बेटा यों नहीं मानेगा। तब उसने कहा-अच्छा चल, हम लोग गुरुजी से इसका फैसला करा लें । अगर गुरुजी कहेंगे कि पुत्र पर माता-पिता का उप. कार नहीं है तो मैं अब से कुछ भी नहीं कहूँगी । मैं माता हूँ। मेरा उपकार मान या न मान. में तेरी सेवा से मुँह नहीं मोड़ सकूँगी। __माता की बात सुनकर लड़ने ने सोचा-शास्त्र वेत्ता तो कहते ही हैं कि मनुष्य कर्म से जन्म लेता है और पुण्य से पलता है। इसके अतिरिक्त गुरुजी माता-पिता की सेवा करने को एकान्त पाप भी कहते हैं । फिर चलने में हज़ ही क्या है? यह सोच कर लड़के ने गुरुजी से फैसला करवाना स्वीकार किया। वह गुरुजी के पास चला गया । परन्तु माता के गुरु दूसरे ही थे। वे उन गुरु कहलाने वालों में नहीं थे जो माता-पिता की सेवा करना एकान्त पाप बतलाते हैं। दोनों माता-पुत्र गुरुजी के पास पहुँचे । वहाँ माता ने पूछा-'महाराज. शास्त्र में कहीं माता-पिता के उपकार का भी हिसाब बतलाया है या नहीं?' गुरु ने कहा-जिसमें माता-पिता के उपकार का वर्णन न हो वह शास्त्र ही नहीं । वेद में माना - पिता के संबंध में कहा मातृदेवो भव, पितृदेवो भव । ठाणांगसूत्र में भी ऐसी ही बात कही गई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [जवाहर-किरणावली गुरु की बात सुनकर माँ ने पूछा-माता-पिता का उपकार पुत्र पर है या पुत्र का उपकार माता-पिता पर है ? गुरु ने ठाणांगसूत्र निकाल कर बतलाया और कहा-बेटा अपने माता-पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता, चाहे वह कितनी ही सेवा करे ! गुरु की बात सुनकर पुत्र अपनी माता से कहने लगादेख तो, शास्त्र में यही लिखा है न कि सेवा करके पुत्र, मातापिता के उपकार से मुक्त नहीं होता ! फिर सेवा करने से क्या लाभ है ? पुत्र ने जो निष्कर्ष निकाला, उसे सुनकर गुरु बोले-मूर्ख, माता का उपकार अनन्त है और पुत्र की सेवा परिमित है। इस कारण वह उपकार से मुक्त नहीं हो सकता । पावनेदार जब कर्जदार के घर तकाज़ा करने जावे तब उसका सत्कार करना तो शिष्टाचार मात्र है। उस सत्कार से ऋण नहीं पट सकता । इसी प्रकार माता-पिता की सेवा करना शिष्टा-- चार है । इतना करने मात्र से पुत्र उनके उपकारों से मुक्त नहीं हो सकता । पर इससे यह मतलब नहीं निकलता कि माता-पिता की सेवा ही नहीं करनी चाहिए। अपने धर्म का विचार करके पुत्र को माता-पिता की सेवा करना ही चाहिए । माता-पिता ने अपने धर्म का विचार कर तेरा पालन-पोषण किया है। नहीं तो क्या ऐसे माता-पिता नहीं मिल सकते जो अपनी संतान के प्राण ले लेते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ६५ गुरु की बात सुनकर माता को कुछ जोर अँधा । उसने कहा- अब सुन ले कि मेरा तुझ पर उपकार है या नहीं !' इसके बाद उसने गुरुजी से कहा - महाराज, यह मुझ से कहता है कि तू ने पेट में रक्खा है तो उसका भाड़ा ले ले | इस विषय में शास्त्र क्या कहता है ? · प्रश्न सुनकर गुरुजी ने शास्त्र निकाल कर बतलाया । उसमें लिखा था कि गौतम स्वामी के प्रश्न करने पर भगवान् ने उत्तर दिया कि इस शरीर में तीन अंग माता के तीन अंग पिता के और शेष अंग दोनों के हैं। मांस, रक्त और मस्तक माता के हैं, हाड़, मज्जा और रोम पिता के हैं, शेष भाग माता और पिता दोनों के सम्मिलित हैं । माता ने कहा- बेटा ! तेरे शरीर का रक्त और मांस मेरा है । हमारी चीजें हमें दे दे और इतने दिन इनसे काम लेने का भाड़ा भी साथ ही चुकता कर दे । यह सब सुन कर बेटे की आँखें खुलीं । उसे माता और पिता के उपकारों का खयाल आया तो उनके प्रति प्रबल भक्ति हुई । वह पश्चात्ताप करके कहने लगा- मैं कुचाल चल रहा था । कुसंगति के प्रभाव से मेरी बुद्धि मलीन हो गई थी । इसके बाद वह गुरुजी के चरणों में गिर पड़ा । कहने लगा - माता-पिता का उपकार तो मैं समझ गया पर उस उपकार को समझाने वाले का उपकार समझ सकना कठिन है ! आपके अनुग्रह से मैं माता-पिता का उपकार स्वमझ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली सका हूँ। शास्त्रों में प्राचार्य और सेठ का भी उपकार बतलाया गया है । सेठ का अर्थ है-सहायता देने वाला । गिरी हुई अवस्था में जो सहायता करता है वह सेठ है और मनुष्य को उसका उपकार मानना चाहिए। धर्माचार्य के उपकार के संबंध में शास्त्र में उल्लेख है कि गौतम स्वामी ने भगवान महावीर स्वामी से यह प्रश्न कियाप्रभो ! यदि धर्माचार्य के ऊपर आई हुई आपत्ति दूर कर दी जाय, उन्हें वन्दना की जाय, उनकी भोजन आदि द्वारा सहायता की जाय, तो ऐसा करने वाला धर्माचार्य के ऋण से मुक्त हो जाता है या नहीं ? तब भगवान ने उत्तर दियानहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मित्रो ! माता-पिता का संतान पर बड़ा ऋण है। इस ऋण को चुकाने के लिए धर्म के सहायक बनो। उन्होंने धर्म से तुम्हारी रक्षा की थी, इसलिए अपने धर्म का मूल्य समझकर धर्म के सहायक बनो।। कहने का आशय यह है कि अपनी मैत्रीभावना का विश्वव्यापी प्रसार करने के लिए सर्वप्रथम माता-पिता के प्रति यह भावना लाओ। माता-पिता के बाद भाई के प्रति मैत्रीभाव आता है। भाई से मैत्रीभाव रखने के लिए गम का इतिहास देखो, जिन्होंने अपने अधिकार का राजमुकुट अपने भाई प्रसपतापूर्वक सौंप दिया। यही नहीं, उन्होंने . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [६७ भाई के प्रभाव को अक्षुण्ण रखने के लिए वनवास स्वीकार किया और दशरथ को समझाया कि आप दुविधा में न पड़ कर भरत को राज्य दे दीजिए । आपके लिए राम और भरत भिन्न-भिन्न नहीं होने चाहिए । जो कुछ क्लेश है वह मेरे तेरे के मेदभाव में ही है। मैं माता कैकेयी के हृदय में घुसे हुए भेदभाव को जड़ से उखाड़ना चाहता हूँ। जैसे दाहिनी और बांई आँख में भेद नहीं किया जाता, इसी प्रकार मुझ में और भरत में भी भेद नहीं होना चाहिए। भरत का राज्य करना मेरा राज्य करना है। भरत राजा होंगे तो मैं राजा होऊंगा। और में राजा बगा नो भरत राजा होंगे। आज भाई-भाई मुकद बाज़ी में पड़कर हजारों-लाखों रुपया नष्ट कर डालते हैं। सुनते हैं, एक गोदी के मुकदमे में सत्तरह लाख रुपया पूरे हो गये हैं ! ऐसे लोग मैत्रीभावना की आराधना किस प्रकार कर सकते हैं ? जो अपने सगे बन्धु को वैरी समझता है वह विश्ववन्धुता का पाठ कैसे सीख सकता है ? भाई के बाद पुत्र, पुत्री आदि परिवार के साथ मैत्रीभावना स्थापित होती है। सारे परिवार पर समान स्नेह रखना पारिवारिक मैत्री भावना है। यह मेरा लड़का है, यह मेरे भाई का लड़का है, इस तरह का पक्षपात करना जघन्य मनोवृत्ति है। जिसकी भावना इतनी जघन्य और संकीर्ण होगी यह विश्वमैत्री के विशालतर प्रांगण में पैर नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [ जवाहर-किरणावली रख सकेगा। परिवार के प्रति मैत्रीभावना साध लेने के पश्चात् समान. धर्मी के प्रति मित्रभावना स्थापित करना चाहिए। सब समानधर्मियों को अपना भाई समझो और उन्हें अपने से अभिन्न मानो और अपने को उनसे अभिन्न समझो। सहधर्मी की सहायता करके उसे अपना-सा बना लेने के बाद ही तुम दूसरों की सहायता कर सकोगे। ___ इस प्रकार क्रमशः अपनी भावना का विकास करते चलने से एक समय आपकी भावना प्राणी मात्र के प्रति प्रात्मीयता से परिपूर्ण बन जाएगी: आपका 'अहं' जो अभी मीमित दायरे में गांठ की तरह सिमटा हुआ है, बिखर जाएगा और आपका व्यक्तित्व विराट रूप धारण कर लेगा। उस समय जगत् के सुख में आप अपना सुख समझेंगे। प्रश्न किया जा सकता है-अर्जुन* माली ने छह युवकों को मार डाला था, इस कारण वह बुरा माना जाता है और सुदर्शन सेठ की बड़ाई की जाती है। परन्तु अर्जुन माली के सामने जैसी परिस्थिति थी वैसी ही परिस्थिति अगर सुदर्शन सेठ के सामने होती अर्थात् जैसे अर्जुन माली के सामने ही उसकी पत्नी के साथ बलात्कार किया गयाथा वैसी ही परिस्थिति अगर सुदर्शन सेठ के सामने होती तो उस समय *विशेष परिचय पाने के लिए किरणावली की प्रथम किरण का वा म्याखाम देखिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] सुदर्शन का क्या कर्त्तव्य होता! ___ क्षमा तीन प्रकार की होती है तमोगुणी, रजोगुणी और सतोगुणी । तमोगुणी क्षमा वाले वे लोग हैं जो अपनी स्त्री के साथ बलात्कार करते देख हृदय में क्रोध तो करते हैं, मगर भय के मारे सामना नहीं करते। यह तमोगुणी क्षमा प्रशस्त नहीं है, यह कायरता है, घृणित है और नपुंसकता है । अर्जुन माली का कार्य संसार का नाशक नहीं, अत्याचारी को दण्ड देना है और वह दूसरे अत्याचारियों के ऐसे दुस्साहस को रोकने के लिए किया गया था। हमारा उपदेश तो ऐसी नमा के लिए है जैसी क्षमा सुदर्शन सेठ ने अर्जुन माली के प्रति धारण की थी। वह सतोगुणी क्षमा थी। जिसमें क्रोध तनिक भी उत्पन्न नहीं होता और क्षमा कर दिया जाता हैं, वही सतोगुर्णा क्षमा है। धर्म, अत्याचार-अनाचार को न रोकने की शिक्षा नहीं देता। धर्म किसी को कायर नहीं बनाता। धर्म की ओट में कोई अत्याचार का प्रतीकार न करे या कायरता को छिपाने के लिए धर्म का बहाना करे, यह अलग बात है। मगर जिसने धर्म के तत्त्व को ठीक तरह समझ लिया होगा वह अपने ऐमे कृत्यों द्वारा धर्म को बदनाम नहीं करेगा। बौद्ध ग्रंथों में एक कथा आई है। सोमदेव नामक एक ब्राह्मण की आध्यात्मिक भावना बालकपन से ही बढ़ी-चढ़ी थी। अतएव माता-पिता के मरते ही सोमदेव और उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०11 [ जवाहर-किरणावली पत्नी ने संन्यास ले लिया। स्त्री सुन्दरी थी। दम्पती वन में रहकर तप किया करते थे। एक बार दोनों नगर में आये । नगर के राजा ने स्त्री को देखा तो उसके चित्त में विकार पैदा हो गया । वह सोचने लगा-यह रमणीरत्न गलियों में क्यों पड़ा फिरना चाहिए? यह तो महल की शोभा बढ़ाने योग्य है। यह सोचकर उसने सोमदेव से कहा-यह स्त्री तेरे साथ शोभा नहीं देती। सोमदत्त ने कहा-हाँ, शाभा नहीं देती। राजा-तो इसे हम ले जाएँ ? सोमदत्त-मेरी नहीं है, भले कोई ले जाय । राजा ने स्त्री से कहा- चलो, हमारे साथ चलो। स्त्री ने सहज भाव से उत्तर दिया-चलिए, कहाँ चलना है ? आगे-आगे राजा चला और पीछे-पीछे स्त्री। महल में पहुँच कर स्त्री ध्यान लगाकर बैठ गई। उसने ऐसा ध्यान लगाया कि कई अनुकूल-प्रतिकूल सत्ताएँ हार गई, मगर उसका ध्यान न टूटा। राजा को अपना पागलपन मालूम हुआ। उसका अज्ञान हट गया। वह उस संन्यासिनी के पैरों में गिर कर क्षमा माँगने लगा। स्त्री ने, मानो कुछ हुआ ही नहीं है ऐसे, सहज भाव से उत्तर दिया-किसने और क्या अपराध किया है, वह मुझे मालूम ही नहीं है । मैं क्षमा क्या करूँ ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ७१ आखिर राजा संन्यासिनी को लेकर सोमदत्त के पास गया । सोमदत्त को उसकी स्त्री सौंपकर उसने कहा- मैंने आपकी अवज्ञा की है । मेरा यह अपराध है तो गुरुतर, फिर भी मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ । सोमदेव ने कहा- जब यह मेरी है ही नहीं, तब इसमें मेरी अवज्ञा क्या हुई ? इसे कहते हैं क्षमा ! ऐसी क्षमा के द्वारा भी अन्याय-अत्या चार का नाश किया जाता है । अन्याय-अत्याचार के समूल नाश का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। इस तरीके से अन्यायी और अत्याचारी के हृदय का परिवर्त्तन हो जाना है । परन्तु ऐसी सभावना प्राप्त करने के लिए साधना चाहिए । सुदर्शन सेठ का सामना होते ही अर्जुन माली का यक्ष भाग खड़ा हुआ । अर्जुन माली स्वस्थ हो गया। उसने सुदर्शन सेठ को धन्यवाद दिया और कहा- मैं आपका भक्त हूँ, लेकिन आप जिसके भक्त हैं वह महापुरुष कैसे होंगे ! मित्रो ! भगवान् की परीक्षा कभी-कभी भक्त से होती है । भक्त ऐसा होना चाहिए जैमा सुदर्शन मेठ था। सुदर्शन सेठ उस समय बिलकुल महादेव की प्रतिमा वन गये थे । जो आत्मा को ही परमात्मा मानकर उसमें तन्मय हो जाता है, उसकी शक्ति अद्भुत, अपूर्व और अलौकिक हो जाती है । यक्ष के श्रावेश से मुक्त होकर अर्जुन माली ने सुदर्शन से कहा- में आपके इष्ट देव का दर्शन करना चाहता हूँ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ [जवाहर-किरणावली ग्यारह सौ इकतालीस मनुष्यों की निर्मम हत्या करने वाले घोर हत्यारे को प्रेमपूर्वक गले लगाना और भगवान् के पास अपने साथ ले जाना क्या उचित था ? सुदर्शन सेठ की भावना उस समय कितनी उदार रही होगी ! उन्हें अर्जुन माली के पापों को धोना था । उसका सुधार करना अभीष्ट था। सुदर्शन को शात था कि भयानक से भयानक पापी की अन्तरात्मा में भी मंगलमूर्ति छिपी हुई है। उसकी बाह्य प्रकृति के उपशान्त होने पर वह मंगलमूर्ती प्रकट हो जाती है। जिनकी भावनाएँ बिगड़ी हुई हैं, उनमें उत्तम भावना उत्पन्न कर दो तो धर्म की कितनी सेवा होगी? आज नीच कहलाने वाले लोगों में धर्म की बड़ी आवश्यकता है। उनमें धर्म की भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न करो। उनकी सेवा करो। उन्हें सद्भावना के बंधन में बाँधा और अच्छी राह पर लाओ। वे भी ईश्वर की मूर्ति हैं। उनके मैले-कुचैले तन में और मलीन मन के भीतरी भाग में ईश्वरत्व छिपा हुआ है। उसकी पहिचान उन्हें करा दो। अर्जुन माली को साथ लेकर सुदर्शन सेठ भगवान् के पास पहुँचे । अर्जुन माली पर भगवान् के उपदेश का प्रभाव पड़ा और उसका अज्ञान दूर दो गया । अर्जुन माली ने मुनिव्रत अंगीकार किये । उसने सुदर्शन से कहा-'मैं आपका आभारी हूँ। आपकी कृपा से ही यहाँ तक पहुँच सका हूँ ।'. उत्सर में सेठ बोले-ऐसा मत कहिए। आप बड़े हैं। मैं कई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ७३ बार भगवान् के दर्शन कर चुका हूँ पर संसार का त्याग नहीं कर सका और आपने एक बार में ही संसार त्याग दिया । अर्जुन ने कहा- मुझ जैसे क्रूर हिंसक पर आपने बड़ी कृपा की है। मैं तो यही नहीं सोच पाता कि जब मुझ सरीखे अधम को आपने ही सुधार दिया तो जिसे आप नमन करते हैं वह भगवान् कैसे-कैसे पापियों को न तारते होंगे ! साधु अर्जुन माली ने वेले-वेले का पारणा करके छह महीने में ही अपने पापों को भस्म कर डाला ! उन्हेंाने अनेक कष्ट सहन किये और गहरे समभाव की साधना की । जब वह भिक्षा के लिए नगर में जाते तो लोग उन्हें तरह-तरह से लताते थे और कहते थे- हमारे अमुक संबंधी को नारने वाला यह हत्यारा अब साधु बनने का ढोंग कर रहा है ! लोगों के मारने पर भी अर्जुन मुनि मुस्किराते रहते । कभी-कभी कहतेआप लोग सचमुच बड़े दयालु हैं। मैंने आपके संबंधी की हत्या की थी पर आप मार-पीट कर ही मुझे छोड़ देते हैं । अर्जुन मुनि का ऐसा अद्भुत समभाव देखकर मारने वाले भी काँप उठे कि मारपीट से जब इसे दुःख ही नहीं होता तो मारपीट करने से लाभ हो क्या है ? ऐसा करके हम उलटे पाप में पड़ते हैं । इस प्रकार के विचार करके कई लोग प्रभावित हुए । अर्जुन माली की कथा आपने कई बार सुनी होगी । पर जरा विचार करो कि यह कथा अपनी है या अर्जुन माली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ [ जवाहर-किरणावली ...-.. - - की ? हम उस समय नहीं थे जब यह घटना घटी। हम आज हैं और आज हमारे सामने यह कथा है। अगर हमने इस कथा को अपनी ही कथा समझ ली तव तो इसे सुनकर हम अपना कल्याण कर सकते हैं; अन्यथा कथा सुनना और न सुनना बराबर है । मैं इस कथा को आध्यात्मिक रूप में घटा कर आपको बताना चाहता हूँ कि राजगृही नगरी क्या है. छैल, अर्जुन माली, उसकी स्त्री बन्धुमती, यक्ष, सुदर्शन सेठ और भगवान महावीर कौन हैं ? और यह कथा कैसे बनी ? मित्रो ! जहाँ जन्म हुआ है वही राजगृही है । किसी पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से यह शरीर-क्षेत्र मिला है। मन बहुत समय से अर्जुन माली है । मन रूपी अर्जुन की माया रूपी भार्या है। यह भार्या अर्जुन की तो बन कर रही मगर निष्टा अर्जुन पर नहीं रही । जहाँ स्वार्थ का लालच देकर किसी ने दबाया, उसी ओर यह जाने लगी। इस माया रूपी स्त्री ने अपने नखरे दिखा-दिखाकर आत्मा को फँसा रक्खा है । आत्मा ने मिथ्या देव रूपी यक्ष का इष्ट पकड़ा था, जिससे वह समय पर मेरी सहायता करे । इस शरीर में काम, क्रोध, मद, मन्सर आदि छह शत्रु हैं । इन बैलों को बल-वीर्य रूपी अधिकार मिला । यह स्वच्छन्द क्रीड़ा करने लगे और जो-जो अनर्थ किये उनका वर्णन नहीं हो सकता । इन छह शत्रुओं की वंदौलत आत्मा को कष्ट पाते-पाते अनन्त काल हो गया है। यह छह शत्रु जब-जब मस्ती पर आये तब-तब माया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] . [७५ इनके पास गई; फिर भी यह शान्त नहीं हुए। मैंने छहों शत्रुओं को मारने की तैयारी की। मैं ने यह तो समझ लिया था कि इन्हें मारना उचित है, पर मिथ्या देव की संगति के कारण यह नहीं समझ सका कि इन्हें किस प्रकार मारना चाहिए ? अतएव में ने कई बार जलसमाधि लेकर, कई बार दूसरी तरह से बालमरण से मर कर यह दिखाया कि मैं इन्हें मारता हूँ, पर वास्तव में ऐसा करके मैं स्वयं ही मरा, शत्रु नहीं मरे । जैसे अर्जुन यह समझता था कि मैं इन छह शत्रुओं को मारता हूँ, मगर उसे अपनी स्थिति का भान नहीं रहा, इसी प्रकार मैं भी समझता रहा कि मैं इन छह विकार-- शत्रुओं को मार रहा हूँ, मगर इस तरह मारने का परिणाम क्या होगा, यह मुझे मालूप ही नहीं था । परिणाम यह हुआ कि शत्रुओं को मारने के पागलपन में मैं ने न जाने कितनों पर अन्याय किया । मुझमें अज्ञान बना ही रहा । इतने में सौभाग्य से विवेक रूपी सुदर्शन सेठ की संगति मिल गई । उसने सच-झूठे देव का भान कराया, सुकृत्य-कुकृत्य का भेद समझाया, और सुगुरु-कुगुरु की पहिचान कराई। विवेक रूपी सुदर्शन ने मन रूपी अर्जुन माली के सामने ध्यान किया अर्थात् आत्मा को एकाग्र बनाया। विवेक की शक्ति के प्रताप से मन में विचार आया कि यह तो ईश्वर का दर्शन है ! इस प्रकार विवेक-देव के दर्शन होते ही मिथ्यात्व-कुदेवमोह रूपी यक्ष भाग गया। उसके भागते ही आत्मा ने विवेक का हाथ पकड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [जवाहर-किरणावली लिया और कहा-मैं तेरी शरण में हूँ ! अब तुझे नहीं छोडूंगा। श्राय गयो प्राय गयो आय गयो रे, मेरे नाथन को नाथ यहाँ प्राय गयो रे, वह तो पाके मुझे है जगाय गयो रे, मेरे नाथन को नाथ यह। प्राय गयो रे, विवेक को पाते ही अत्मा भगवान् महावीर के समीप आ गया। जो तू प्रभु प्रभु सो तू है, है त कल्पना मेटो, शुध चैनन्य आनन्द विनयचंद, परमारथ पद भैंटो । आत्मा और परमात्मा एक हैं, दो नहीं। विवेक का हाथ पकड़ लेने से आत्मा की परमात्मा से भेंट होती है और फिर आत्मा स्वयं परमात्मा के रूप में प्रकट हो जाता है। पत्थर की पुतली, कपड़े की पुन ली और शक्कर की पुतली. यह तीनों स्नान करने गई। पत्थर की पुतली पानी में डूब कर के भी वैसी ही बनी रही। कपड़े की पुतली पानी में भीगी तो सही पर धूप लगने पर फिर ज्यों की त्यों हो गई । शक्कर की पुतली पानी में डूबकर उसी में रह गई । इन तीन में से प्राप कैसे बनना चाहते हैं ? अर्जुन माली परमात्मा के दर्शन करने गया तो स्वयं परमात्मा बन गया। आत्मा और परमात्मा के एक होने की पहिचान यह है। अर्जुन माली को भगवान् महावीर में मिल जाने के पश्चात् लोगों की थप्पड़ें खाने की इच्छा हुई । वह थप्पड़ें मारने वालों के पास विशेष रूप से जाने लगा। यही आत्मा-परमात्मा के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान 1 [ ७७ एक होने का लक्षण है । जिन्हें आत्मा अब तक तुच्छ समझता था उन्हीं से प्रेम करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि आत्मा और परमात्मा एक हो गया । भगवान् महावीर में मिलकर अर्जुन माली ने अपना सारा हिसाब चुकता कर दिया। वह अपने ऊपर चढ़े हुए भारी ऋण से मुक्त हो गया । यह कथा सुनकर आप अपना खाता बराबर करेंगे या नहीं ? जीभ से हाँ कह देना तो सभ्यता मात्र है. अन्तःकरण क्या कहता है, यह देखना चाहिए। संवत्सरी के दिन वर्ष भर के पाप की आलोचना की जाती है । अन्तःकरण में जमा हुई गंदगी को हटा देने का यह पर्व है । संवत्सरी के पश्चात् हृदय निर्मल करके जीवन का नया पथ निर्मित्त होना चाहिए, जिस पर चल कर आत्मा अपने अक्षय कल्याण के परम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सके। भावना में पावनता लाने और हृदय को स्वच्छ बनाने के लिए क्षमायाचना की जाती है । यह एक परम पवित्र प्रणाली है । केवल ऊपरी रूप से इसका अनुसरण मत करो वरन् उसकी चेतना को जागृत रक्खो। उसे सजीव रूप में पालन करो । ऐसा करने से आपका जीवन ऊँची कक्षा में पहुँचेगा और धर्म की भी प्रभावना होगी । क्षमायाचना के लिए महाराज उदायी का दृष्टान्त सामने रक्खो । महाराज * विस्तृत कथा जानने के लिए देखिए - जवाहर किरणावली, किरण है, बोल १७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] [ जवाहर-किरणावली उदायी ने पराजित और बंधनबद्ध चण्डप्रयोत का राज्य संवत्सरी संबंधी क्षमायाचना के उपलक्ष्य में सहर्ष लौटा दिया था। इसे कहते हैं क्षमायाचना ! किसी के अधिकार को दबा रक्खो और फिर उससे क्षमा मांगो तो यह क्षमायाचना के महत्व को बढ़ाना नहीं, घटाना है। मित्रो ! न मालूम किस पुण्य के उदय से आपको ऐसा संस्कारपूरित वातावरण मिला है ! इस वातावरण की पवित्रता को पहचानो और सांसारिक प्रलोभनों में इतने अधिक मत फंस जाओ कि आत्मा की सुध ही न रहे । प्रत्येक कार्य को प्रारंभ करते समय उसे धर्म की तराजू पर तौल लो। धर्म इतना अनुदार नहीं है कि वह आपकी अनिवार्य प्रावश्यकताओं पर पाबंदी लगा दे। साथ ही इतना उदार भी नहीं है कि आपकी प्रत्येक प्रवृत्ति की सराहना करे । धर्म का आश्रय लेकर आप कभी दुखी नहीं होंगे। इसलिए मैं कहता हूँ कि अपने जीवन को धर्म के सांचे में ढाल लो। इससे आप कल्याण के पात्र बनेंगे। बीकानेर, । २६-८-३..) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवत् सर्वभूतेषु । --::::::-- पर्युषणपर्व के दिनों में अन्तगड (अन्तकृत) सूत्र का व्याख्या न किया जाता है । जिस उद्देश्य से गणधरों ने इसकी रचनाकी है, उसी उद्देश्य से इसका व्याख्यान किया जाता है। जिन महापुरुषों ने अपने अनादि कालीन कर्मों का अन्त किया है, जो समस्त विघ्नों का नाश करके निर्विघ्न हो गये हैं, उन महापुरुषों के चरित का इसे सूत्र में वर्णन किया गया है, अतएव इस सूत्र को 'अन्तगड' कहते हैं । इसमें दस अध्याय हैं और यह आठवाँ अंग है इस कारण इस 'दशांग' कहते हैं। इस प्रकार इस सूत्र का पूरा नाम 'अन्तकृत दशांग' है। पर्युषण पर्व का समय कल्याणकारी है, अतएव पर्युषण के पाठ दिनों में यह समझाया जाता है। यों तो इसके सम्बन्ध में कई विचार हैं, परन्तु इसे आठ दिनों में पूर्ण कर देने की परम्परा प्रसिद्ध है और व्यवहार में भी आ रही है। बड़े-बड़ महापुरुष इस परम्परा का पालन करते आये हैं और यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [जवाहर-किरणावली वा परम्परा कल्याणकर है, अतः मैं उनका अनुकरण कर रहा हूँ। वास्तविक और गम्भीर दृष्टि से देखा जाय तो इस सूत्र के वर्णन करने का उद्देश्य बड़ा मार्मिक है। उसे पूरी तरह कह सकना वाणी की शक्ति से परे है। संसार में पद बहुत हैं और वे एक-दूसरे से ऊँचे हैं । मगर अपनी आत्मा पर चढ़े हुए आवरणों को हटाकर आत्मा का स्वरूप पूर्ण रूप से शुद्ध बना लेने, विघ्नों को हटाने और आत्मा पर पूर्ण विजय प्राप्त करने से बढ़कर कोई पद नहीं है। प्रात्मा में अशुद्धता एवं विभाव परिणति उत्पन्न करने वाले कर्मों का अन्त करना मानव-जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। आपका और हमारा एक मात्र लक्ष्य यही है कि आत्मा को किसी प्रकार निर्विघ्न सुख की अवस्था में पहुँचा सकें। जब हमारा यही लक्ष्य है तो कर्मनाश के कार्य में मार्गदर्शक और कल्याण में सहायक बनने वाले जो महापुरुष हुए हैं, उनके पंथ को देखने से अपना कार्य सरल हो सकता है। लक्ष्य तो सबका यही है कि आत्मा की अशुद्धता मिटाई जाय. आत्मा का अपना विशुद्ध स्वरूप प्रकट किया जाय, मगर उपाय लोगों ने न्यारे-न्यारे बतलाए हैं। सांसारिक जीवन की विचित्र परिस्थितियों ने और काल की भिन्नता ने भी भित्र-भिन्न उपायों की उत्पत्ति में भाग लिया है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [८१ साथ ही दूसरे-दूसरे कारणों से भी आत्मशुद्धि के उपायों में अन्तर पड़ गया है। यहाँ तक कि कई लोग तो कर्मवध के उपायों को ही कर्मनाश का उपाय समझ लेते हैं । कुछ लोगों का कहना है कि पहले सब शास्त्रों का पारायण करो तभी धर्म की प्राप्ति होगी। मगर ऐसा करना शक्य नहीं है। संसार के विभिन्न धर्मों के प्रतिपादक विपुल ग्रंथसंग्रह को पढ़ लेना सरल काम नहीं है और सर्वसाधारण के लिए तो ऐसा करना असंभव है । कब तो संसार के शास्त्रों के सागर को पार किया जाय और कब, आत्मशुद्धि के लिए उद्योग किया जाय ? ऐसा करने में आत्मशोधन का मार्ग रुक जायगा-अशक्य बन जायगा। कदाचित् यह कहा जाय कि संसार के सब मतमतान्तरों का निचोड़ एक जगह करके पढ़ा जाय तो क्या हानि है ? मगर ऐसा होना भी सरल काम नहीं है। अब प्रश्न हो सकता है कि अगर यह असंभव है तो किस उपाय से कर्मों का नाश करना चाहिए? इसका उत्तर संक्षेप में यह है महाजमो येम गतः पन्थाः । अर्थात् जिस मार्ग पर महापुरुष चले हैं, जिस मार्ग का अवलंबन करके उन्होंने अपने कर्मों का क्षय किया है और प्रात्मशुद्धि की है. वही मार्ग तुम्हारे लिए भी कल्याणकारी हो सकता है। महापुरुष विना निर्णय लिये शिसी मार्ग पर पैर नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२]. [जवाहर-किरणावली धरते । अतएव उनके द्वारा निर्णीत पथ ही मंगलकारी होता है। किसी महानदी को पार करना कठिन होता है, बड़े-बड़े बलवान् तैराक भी पार नहीं कर पाते । परन्तु पुल बन जाने पर कीड़ी भी उस महानदी को पार कर जाती है । इसी प्रकार हम चाहे कितने ही अशक्त हों, कितने ही कम पढ़े-लिखे हों, अगर महापुरुषों के मार्ग रूपी पुल पर आरूढ़ हो जाएँगे तो अवश्य ही अपने लक्ष्य को-आत्मशुद्धि को-प्राप्त कर सकेंगे। महापुरुषों का मार्ग संसार-सागर पार करने के लिए पुल के समान है। उनके मार्ग पर चलने से सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अव प्रश्न होता है कि महापुरुष किसे माना जाय ? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रकार से कठिन है, फिर भी अगर हम सावधानी से विचार करें और निर्णय करने की शुद्ध बुद्धि हममें हो तो इतना कठिन भी नहीं है। आपके सामने दो प्रकार के पुरुष खड़े हैं । एक ने अपनी ऋद्धि खूब बढ़ाली है और बहुत बड़ा अमीर बन गया है। दूसरा किसी समय ऋद्धिशाली था। उसने ऋद्धि कः असारता और अशरणता समझ ली और फिर उससे विरक्त हो गया है। सारी.सम्पदा को त्याग कर भिक्षु बन गया है। अब अपने अनुभव से विचार कीजिए कि आपको कौन महापुरुष जान पड़ता है ? ... 'त्यागने वाला!' संसार में महान् ऋद्धिशाली भी बड़ा आदमी अर्थात् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ = 3 महान पुरुष कहलाता है और त्यागी भी महापुरुष कहलाता. है। मगर आप तो कर्मों का नाश करने के लिए महापुरुष की खोज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में स्वयं ही निर्णय किया जा सकता है कि उक्त दोनों में महापुरुष कौन है ? हम अपने कर्मों का नाश करना चाहते हैं, इसलिए हमें ऐसे ही महापुरुष का आदर्श ग्रहण करना है जो त्यागी हो । जो सच्चा त्यागी होगा वह निश्चय ही सत्य पथ पर चलेगा । वह मिथ्या मार्ग को स्वीकार नहीं करेगा | सारांश यह है कि त्यागी पुरुषों का मार्ग कर्मनाश करने के लिए पुल के समान है । ▾ एक प्रश्न यह भी किया जा सकता है कि किसका त्याग करने वाले को त्यागी समझा जाय ? इस प्रशन का उत्तर शास्त्र यह देते हैं कि जिसने हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और लोभ आदि अठारह पापों का त्याग कर दिया है वही त्यागी कहलाता है । जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मात्सर्य, अज्ञान आदि न हों उसी को त्यागी समझना चाहिए । ऐसा त्यागी ही महापुरुष कहलाता है । साँप ऊपर की केंचुली त्याग दे मगर विष का त्याग न करे तो उसकी भयंकरता कम नहीं होती । इसी प्रकार जो ऊपर से त्यागी होने का ढोंग करते हैं, परन्तु अंदर के राग-द्वेष आदि विकारों से ग्रस्त हैं, वे महापुरुषों की गणना में नहीं आ सकते । राग-द्वेष का क्षय हो जाने पर केवल ज्ञान की उपलब्धि होती है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] [ जवाहर-किरणावली वीतराग दशा प्राप्त होती है। जो वीतराग बन गया है वही वास्तव में महापुरुष है। ऐसे वीतराग महापुरुषों का स्मरण करके जिन्होंने अपना कल्याण किया है, उन्हीं का परिचय अन्तगडसूत्र में दिया गया है । इसके दस अध्यायों में उन महापुरुषों का वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि उन्हेंाने किस प्रकार अपने कर्मों का विनाश करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था प्राप्त की है। ऊपर जो विवेचन किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि इस अनादि कालीन संसार में महापुरुष अनंत हो चुके हैं। उनकी संख्या नहीं बतलाई जा सकती और न उनके नामों का ही उल्लेख किया जा सकता है। महापुरुष की जो परिभाषा बतलाई जा चुकी है वह जिस किसी में घट सकती है वही महापुरुष है। महापुरुष की महत्ता उसके नाम से नहीं है, गुणों से है। अतएव जो गुणों से महापुरुष है वही पूजनीय है, वही माननीय है। भक्तामरस्तोत्र में कहा है बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् , त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिवमार्गविधेर्विधानात् , व्यक्तं स्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ अर्थात्-हे प्रभो ! देवता तुम्हारे बुद्धि-वैभव की पूजा करते हैं, इसलिए तुम्हीं बुद्ध हो, तीन लोक का कल्याण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ =x करने के कारण तुम्हीं शङ्कर हो, मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने के कारण तुम्हीं विधाता हो, और स्पष्ट है कि तुम्हीं पुरुषोत्तम हो । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है यन्त्र तन्त्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यमिधया यया तथा, पीतदोष कलुषः स चेद् भवान् एक एव मगवन् ! तमोऽस्तुते || अर्थात् - किसी भी परम्परा में, किसी भी रूप में. किसी भी नाम से आप हों. अगर आप वीतराग हैं तो सभी जगह एक ही हैं । आपके। मेरा नमस्कार हो । इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि महापुरुष या वीतराग पुरुष का नाम पूज्य नहीं है । नाम उसका कुछ भी रख दिया जाय, अगर उसमें वीतरागता है तो वह पूज्य है । भगवान् महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे । आज उन्हीं का शासन चल रहा है । सुधर्मा स्वामी ने भगवान् महावीर से जो कुछ सुना, वही उन्होंने जम्बूस्वामी से कहा । उसी वाणी के द्वारा आप और हम अपना कल्याण कर सकते हैं। वीरः सर्वसुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधा संश्रिताः ! वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरातीर्थमिदं प्रवृत्तमखिलं, वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्रीधतिकान्तिकीर्तिनिश्चयः, हे वीर ! मां पालय ॥ ८ अर्थात् - वीर भगवान् सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों द्वारा www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६]. [ जवाहर-किरणावली पूजित हैं। ज्ञानी जन उनके पथ का ही अनुसरण करते हैं। उन्होंने अपने समस्त कर्मों का नाश कर डाला है। वीर भगवान् से ही इस तीर्थ की प्रवृत्ति हुई है । वीर भगवान् का तप घोर था। उनमें अद्भुत श्री, अनोखा धीरज और अनुपम कांति थी। उनकी कीर्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे श्रीवीर भगवान हमारी रक्षा करें। भगवान् जिस-जिस अवस्था में रहे, उस-उस अवस्था में इन्द्र ने उनकी पूजा की। भगवान् के गर्भकल्याणक के समय इन्द्र ने उत्सव मनाया। जन्मकल्याण के समय मेरु पर्वत पर जाकर उत्सव किया। दीक्षा लेने पर उसने दीक्षामहोत्सव किया। भगवान् ने घोर तप करके कर्मों का विनाश कर डाला। उनके तप का ही यह प्रभाव है कि भगवान् का शासन अब तक चल रहा है। धर्म के नाम पर संसार में अनेक सत्ताएँ हो चुकी हैं, जिन्होंने राजाओं का भी प्राश्रय मिला था। अर्थात् राजा भी उनकी आज्ञा में थे। राजाओं का आश्रय पाकर भी आज उन धर्मों का ह्रास हो गया है। जैनधर्म का रक्षक कोई राजा नहीं है, फिर भी वह अपने पैरों पर खड़ा है। इसका कारण भगवान् की तपस्यां ही है। उन्हीं के तप के प्रबल प्रभाव से अनेक भीषण संघर्षों में जैनधर्म ने विजय प्राप्त की है और आज भी वह विजयशील है। दुनिया जैनधर्म के सिद्धांतों के अमल में ही अपनी भलाई देख रही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ = प्राचीन काल में राजाओं के साथ उनकी रानियाँ सती होती थीं। भारतीय विचारकों ने उसका विरोध किया और अंगरेजों के शासन में वह प्रथा बंद कर दी गई । लेकिन जैनधर्म के अनुसार संधारा जैसा पहले होता था बैसे ही आज भी होता है। जैनधर्म का रक्षक कोई राजा नहीं है, फिर भी उसमें ऐसी स्वाभाविकता भरी है कि उसके किसी सिद्धांत का खण्डन नहीं किया जा सकता। यह सब भगवान् के तप का ही प्रभाव है । नौ चौमासी तप कियो । वर्धमान !! ते प्रणवों भगवान् के तप के प्रभाव से ही आज यह शासन अपने पूर्व रूप में विद्यमान । यद्यपि काल के प्रभाव से इसमें नाना सम्प्रदाय उत्पन्न हो गए हैं, फिर भी वैसी अंधाधुन्धी यहाँ नहीं है जैसी कि अन्यत्र दिखाई देती है । उदाहरणार्थ- एक पुस्तक में लिखा है कि ईसा का यह उपदेश होते हुए भी कि यदि तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड़ मारे तो तुम उसके सामने दूसरा गाल कर दो: ईसा के इस उपदेश के पीछे तप का प्रभाव न होने से ईसाइयों ने अपने धर्म में स्वयं ही बड़ी अंधाधुन्धी मचा रक्खी है । बाइबिल का शब्द पढ़ लेने पर, उसका अनुवाद करने पर या उसके उपदेश के सम्बन्ध में किसी प्रकार की शङ्का करने पर लोग जिन्दे जला दिये गये हैं । उस धर्म के ठेकेदारों ने किसी को कूट-कूट कर मारा तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [जवाहर-किरणावली -.-...-- . किसी को खण्ड-खण्ड करके मारा ! यह अंधाधुन्धी धर्म के नाम पर ही की गई थी। इस प्रकार धर्म के नाम पर हजारों नहीं लाखों मनुष्यों की हत्या की गई है। लेकिन जैनधर्म के किसी अनुयायी ने धर्म के नाम पर आज तक किसी को नहीं सताया, किसी की हत्या नहीं की। जैनधर्म के अनुयायियों ने धर्म का प्रचार करने में अनेक बाधाएँ सहन की हैं, कष्ट सहन किये हैं, मार खाई है, यहाँ तक कि बहुतों ने प्राण भी दिये हैं, मगर कभी किसी के प्राण लिए हों, ऐसा नहीं सुना गया। यह सब भगवान महावीर के तपोबल का प्रभाव है। उनका ऐसा प्रभाव था और वह इतना उत्कृष्ट और निर्मल था कि उनके धर्म के अनुयायियों ने अपना धर्म फैलाने के लिए कभी किसी को नहीं सताया। श्राज जैनधर्म के अनुयायी राजा नहीं हैं तो क्या हुआ। किसी समय सोलहसोलह देशां पर शासन करने वाले राजा इसके अनुयायी थे। वे प्रचंड शक्तिशाली और प्रतापी योद्धा थे। किन्तु धर्म का नाम लेकर उन्होंने किसी को नहीं सताया। किसी को लेश मात्र मी भय नहीं दिखलाया। __ अन्य धर्मों के इतिहास को देखने से ज्ञात होगा कि उस धर्म को फैलाने के लिए अनेक प्रकार के अत्याचार किये गये हैं। जैनधर्म का इतिहास जैनों ने भी लिखा है और दूसरों ने भी लिखा है। मगर उसमें किसी ने यह बात नहीं लिली कि कभी किसी मेन रोना ने अपने धर्म का प्रसार करने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [८६ लिए तलवार का सहारा लिया । विश्वकवि रवीद्रनाथ ठाकुर जैसे प्रसिद्ध लेखक ने भी जब भगवान महावीर के विषय में लिखने के लिए कलम उठाई तो यही लिखा कि संसार की अंधाधुंधी और मारकाट की शांति का उपदेश भारत में भगवान् महावीर ने ही सुनाया । उनके तप का प्रभाव ही ऐसा था कि धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा आप ही बंद हो गई। धर्म के नाम पर मारकाट करने वाले लोगों के धर्म में मारकाट करने की तो प्राक्षा दी नहीं गई होगी, परन्तु उस धर्म के प्रवर्तक में तप का बल नहीं था। भगवान् महावीर का तप असाधारण था। यही कारण है कि सिद्धान्त रूप से भगवान् का शासन उसी प्रकार चल रहा है, जिस प्रकार उन्होंने चलाया था। ____ अगर कोई जैनधर्म मानने वाला कुपात्र पुरुष हिंसा भी कर डाले तो भी कोई समझदार यह कहने के लिए तैयार नहीं होगा कि जैनधर्म की शिक्षा ऐसी है। मगर मुस्लिम धर्म के अनुयायियों के काम की तरफ देखिए तो मालूम होगा कि मुस्लिम धर्म के फैलाने के उद्देश्य से उन्होंने कैसेकैसे अत्याचार किये हैं। उनके शास्त्र में ही काफिरों के लिए पत्थर लिखे हैं। भगवान् महावीर ने ग्यारह वर्ष छह मास और पच्चीस दिन ना किया और नौ बार चौमासी तप किया। वे दिनShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ जवाहर - किरणावली रात में कभी पानी की एक बूंद भी नहीं लेते थे, तिस पर भी दिन का सूर्य की प्रतापना लेते और रात्रि में वीरासन से खड़े रहते थे । भगवान् ने अपने अनुयायियों को तपस्या का मार्ग सिखलाने के निमित्त इतना उग्र तप किया था । भगवान् इतना तप न करते तो ऐसे कुसमय में, नाना प्रकार की प्रतिकूल और भीषण परिस्थितियों में उनका धर्म स्थिर कैसे रहता ? श्राज न्याय की तराजू पर एक ओर जैनियों की तपस्या रक्खो और दूसरी ओर सारे संसार की तपस्या रक्खो । जैनों की संख्या कम होने पर भी देखो कि जैनियों की तपस्या की बराबरी क्या सारे संसार की तपस्या मिल कर भी कर सकती है ? भारत बीच में भूल कर अब तप की महिमा और हिंसा की शक्ति को फिर समझ रहा है । वह महावीर भगवान् के सिद्धान्तों की ओर झुक रहा है । दूसरे को कष्ट न देकर स्वयं कष्ट सह लेना, अनशन करना, यह भावना महावीर स्वामी के सिद्धान्त की है और भारत ने इस भावना का अनुसरण किया है। गांधीजी ने जैनधर्मानुयायी कवि राजन्रन्द भाई को अपना धर्मविषयक गुरुमाना है। गांधीजी कभी के ईसाई बन गये होते पर संयोगवश उन्हें राजबन्द्र भाई मिल गये । गज'चन्द्र भाई से उन्होंने कुछ प्रश्न किये । गांधीजी का संतोष ईसाई होने से बच www.umaragyanbhandar.com जनक उत्तर मित्र तथा । इस कारण वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकनेर के व्याख्यान ] [छ गये । वे ईसाई हो गये होते तो आज कौन जाने किस रूप में होते | पर जैनधर्म के प्रताप से ऐसा नहीं हुआ । गांधीजी ने अपने जीवन में जितनी तपस्या की है, उतनी शायद ही किसी दूसरे देशनेता ने की होगी। इक्कीस - इक्कीस दिन तक तो उन्होंने अनशन ही किया है और दूसरी तपस्या का अंदाज लगाना कठिन है । वे तपस्या के प्रभाव को भलीभांति जानते हैं। गीता में एक श्लोक है विषया विनित्रन्ते निराहारस्य देहिनः । इसका सीधा-सादा अर्थ तो यह है कि निराहार मनुष्य विषय-हीन हो जाता है। निराहार देह में विषय नहीं ठहरते । लेकिन वासना बाह्य तप में नहीं जाती । वासना का नाश करने के लिए परमात्मा के ध्यान की आवश्यकता है । लोकमान्य तिलक ने इस अर्थ को घुमा-फिरा कर यह आशय निकाला है कि उपवास करना ढोंग है- आत्महत्या है । तिलकजी के ऐसा अर्थ करने का कारण संभवतः यही हो सकता है कि उन्हें उपवास का अनुभव नहीं था । जिसने उपवास ही न किया हो वह उपवास के विषय में ठीक निष्कर्ष नहीं निकाल सकता | इसके विरुद्ध गांधीजी को उपवास संबंधी व्यक्तिगत अनुभव है, अतः उन्होंने उक्त श्लोक का वही अर्थ किया है, जो मैंने ऊपर बतलाया है । दोनों के अर्थ में अन्तर पढ़ने का कारण यही है कि एक ने उपवास नहीं किया और दूसरे ने उपवास करके अनुभव प्राप्त किया है । अमल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ जवाहर - किरणावली किये बिना सिद्धि प्राप्त नहीं होती, इसलिए भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा है, वह सब करके दिखाया भी है। भगवान् महावीर ने प्रभावशाली तप किया, उसी का यह परिणाम है कि आज भी साधु साध्वियाँ श्रावक श्राविकाएँ तप करते हैं । आज जैन महात्माओं में त्याग - वैराग्य की जो शक्ति है, वह सब भगवान् महावीर के तप का ही प्रताप है । भगवान् महावीर से अतुल तीर्थ निपजे हैं । उन धीर महाप्रभु की तपस्या रोमांचकारिणी और बड़ी प्रभावशालिनी थी । श्री जिनराय का ध्यान लगावे, ता घर आनन्द-मङ्गल छावे । सिद्धारथ राय के नन्द श्रनोपम, रानी त्रिशला देवी कूँख जो श्रावे । चैत सुदी तेरस की रजनी, जन्म भयो प्रभु सब सुख पावे ||श्री० || भगवतीसूत्र में कहा है तद्दारूवाणं समणाणं निग्गंथाणं । यही पाठ भगवान् के विषय में भी आया है और कहा गया है इहलोगहियाए पर लोग हियाए । तथारूप के भ्रमण निर्ग्रन्थ या अरिहन्त भगवान् के नामगोत्र का स्मरण करना - भक्ति करना - इस लोक और परShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] लोक में हित और सुख देने वाला है । मित्रो ! अगर आपको सूत्र के वचन पर श्रद्धा है तो निश्चय कर ले कि भगवान् देवाधिदेव हैं । उनका शरण छोड़कर दूसरे के शरण में जाना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है ? [ ६३ बहुत-से लोग जगन्नाथ प्रभु का शरण छोड़ कर भैरोंभवानी की शरण लेते हैं । शायद उनका खयाल है कि भगवान् तो परलोक में कल्याणकारी हैं और भैरों-भवानी इस लोक के लिए कल्याणकारी हैं । लेकिन गीता में भी कहा है कि परमात्मा को पूजने वाला परमात्मा को प्राप्त होगा और भूत प्रेतों को पूजने वाला भूतों-प्रेतों को प्राप्त है। गा । अब प्रश्न किया जा सकता है कि भगवान् का ध्यान किस प्रकार लगाया जाय ? आज पर्युषण का प्रथम दिवस है । ग्राज से लेकर आठ दिनों में भगवान् महावीर को विशेष रूप से ध्यान में लाना है और उस ध्यान में अन्तराय करने वाले विघ्नों को हटाना है। ऐसे विघ्न अनेक हैं पर मुख्य रूप से दो विघ्नों की ओर आपको ध्यान देना चाहिए | वे यह हैं - शास्त्र की बात को अन्यथा समझ लेना और लौकिक भावनाओं में मन का फँसा रहना । आत्मकल्याण का पहला उपाय शास्त्र की बात यथार्थ रूप में समझना है । शास्त्र का श्राशय कुछ और हो और आप समझ लें कुछ और ही; तो बड़ा अनर्थ होता है । कुछ का कुछ अर्थ समझ लेने का क्या 4 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली परिणाम होता है, इस बात को सरलता और स्पष्टता के साथ समझाने के उद्देश्य से एक दृष्टांत कहता हूँ____एक नामी सेठ था । खूब धनाढ्य था। उसके पाँच लड़के थे, लड़की एक भी नहीं थी । एक दिन सेट ने विचार किया'हम दूसरे के यहाँसे लड़की लाते तो हैं पर दूसरों को देते नहीं हैं । यह मेरे ऊपर ऋण है। इस प्रकार विचार करने के बाद सेठ के दिल में कन्या का पिता बनने की भावना उत्पन्न हुई । पुण्ययोग से सेठ की भावना पूर्ण हुई। उसके यहाँ एक लड़की जन्मी । सेठ का घर वैष्णव सम्प्रदाय का था। घर के सभी लोग विष्णु की भक्ति में तल्लीन रहते थे। वे अपने धनवैभव आदि को ठाकुरजी का प्रताप समझते थे। इसके अनुसार उन्होंने उस लड़की को भी ठाकुरजी का ही प्रताप समझा। पाँच लड़कों के बाद गहरी भावना होने पर लड़की का जन्म हुआ था। इसलिए बड़े ही लाड़ प्यार के साथ लड़की का पालन-पोषण किया गया। लड़की का नाम नाम फूलां बाई रक्खा गया। इस बात बात का बहुन ध्यान रखा जाता था कि लड़की को किसी भी प्रकार का कष्ट न होने पाये। लड़की जब कुछ सयानी हो गई तब भी सेठजी उसे उसी प्रकार रखते थे। लड़की कभी कुछ अपराध या भूल करती तो भी सेठजी एक शब्द न कहते और न दूसरों को कहने देते। इसी प्रकार व्यवहार चालू रहा और लड़की बड़ी होमली। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [६५ जैसा होने वाला होता है वैसे ही निमित्त भी मिल जाते हैं । तदनुसार सेठ के यहाँ एक दिन कोई पंडित आये और उन्होंने गीता का निम्नलिखित श्लोक पढ़ा सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेक शरणं बज । अहं त्वां सर्वपापेम्यो मोनयिष्यामि सा शुचः ॥६६|| फूलां बाई इसका अर्थ समझी-सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ। तुमने कितने ही पाप क्यों न किये हों, मैं उन सब से मुक्त कर दूंगा। अब उसने निश्चय कर लिया-नारायण पापों से मुक्त कर ही देते हैं, फिर किसी भी पाप से डरने की आवश्यकता ही क्या है ? पाप से डरने का अर्थ नारायण की शक्ति पर अविश्वास करना होगा । बस, केवल ईश्वर से डरना चाहिए, पापों से नहीं। . ठाकुरजी से डरने का अर्थ उसने यह समझा कि उन्हें "विधिपूर्वक नैवेद्य आदि चढ़ाकर पूजना चाहिए-किसी प्रकार की अविधि नहीं होना चाहिए। इससे ठाकुरजी प्रसन्न होंगे। फलां बाई के हृदय में यह संस्कार ऐसी दृढ़ता के साथ जम गया कि समय-समय पर वह कार्यों में भी व्यक्त होने लगा । हृदय का प्रबल संस्कार कार्य में उतर ही आता है। फुलां बाई का व्यवहार अपने नौकरों-चाकरों और पड़ोसियों के प्रति ऐसा ही बन गया। वह सब से लड़ती-झगड़ती और निरंकुश व्यवहार करती । इस प्रकार फलां वाई शूलां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [जवाहर-किरणावली बाई बन गई। पहले कहा जा चुका है कि उस घर के सभी लोग सभी बातों के लिए ठाकुरजी का ही प्रताप समझते थे। घर में जो भावना फैली होती है उसी को बालक ग्रहण करते हैं और वैसी ही भावना बन जाती है। फूलीबाई की भावना भी ऐसी ही हो चली। वह भी हर चीज़ को ठाकुरजी का प्रताप समझने लगी । सेठजी के यहाँ यह भजन गाया जाता था जो ले उसको रूठन दे, तू मत रूले मन बेटा । एक नारायण नहिं रूठे तो, सबके काट लूं चोटी पटा ।। फूलांबाई ने इस भजन का यह आशय समझ लिया कि सब लोग रूठते हैं तो परवाह नहीं। उन्हें रूठ जाने दो ! अगर.ठाकुरजी अकेले न रूठे तो सब के सिर के बाल उतरवा सकती हूँ। फूसां बाई ने सोग-दुनिया में बहुत लोग हैं । किनकिन की अलग-अलग खुशामद करती फिरूँगी ! अतएव अच्छा यही है कि अकेले नारायण को राजी कर लिया जाय । फिर चाहे जिससे चाहे जैसा व्यवहार किया जा सकता है। फूलों वाई के ऐसे व्यवहार को घर के लोग हँसी में टालते रहे, मगर फूलां बाई समझने लगी कि यह सब नारायण भगवान् का ही प्रताप है। नारायण मददगार हो तो कोई क्या कर सकता है ? इस प्रकार फलां बाई सबके. साथ शूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] का सा व्यवहार करने लगी । फुलां बाई की सगाई एक करोड़पति सेठ के घर की गई । यह देख कर तो फूलांबाई के अभिमान का पार ही न रहा । वह सोचने लगी- मुझ पर ठाकुरजी की बड़ी कृपा है । यही कारण है कि इस घर में मैंने सभी पर अंकुश रक्खा है, फिर भी मैं करोड़पति के घर ब्याही जा रही हूँ ! जैसी धाक मैंने यहाँ जमा रक्खी है. वैसी ही सुसराल में जमा सकूँ तो ठाकुरजी की पूरी कृपा समझैं । [ ६७ विवाह हो गया । फुलांबाई सुसराल पहुँची । सुसराल पहुँचकर ससुर - सासू के पैर छूना आदि विनीत व्यवहार तो दूर रहा. उसने अपनी दासी को सासू के पास भेजकर कहला दिया- 'अभी से यह बात साफ़ कर देना ठीक जँचता है कि मैं इस घर में गुलाम या दासी बन कर नहीं आई हूँ । मैं मालकिन बनकर आई हूँ और मालकिन बनकर ही रहूँगी । अपने साथ मैं धन लेकर आई हूँ, कोरी नहीं आई हूँ । सब काम-काज मेरे कहने के अनुसार होता रहा तो ठीक, अन्यथा इस घर में तीन दिन भी मेरा निर्वाह न होगा ।' फुलांबाई सोचती थी- ठाकुरजी प्रसन्न हैं तो फिर डर किसका ? आरंभ में प्रभाव जम गया तो जम गया, नहीं तो जमना कठिन है । इसलिए पहले ही आतंक जमा लेना चाहिए | डर-भय की तो परवाह ही नहीं है ! नवागता पुत्रवधू का यह अनोखा संदेश सुनकर सासू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ जवाहर - किरणावली को अचरज भी हुआ और दुःख भी हुआ। वह सोचने लगी -- यह कैसी विचित्र बहू आई है ! इसे इतना अहंकार क्यों है ? है तो यह बड़े घर की बेटी, पर इतने घमण्ड का क्या कारण हो सकता है ? घमण्ड किसी को हो सकता है लेकिन इस प्रकार ब्याह कर आते ही तो कोई बहू ऐसा नहीं कहला सकती । देखने में सुन्दर है, बड़े घर की है, फिर भी इसकी बोली और प्रकृति ऐसी क्यों है ? जान पड़ता है इसके शरीर में कुछ न कुछ अवश्य है । फिर भी इसे अभी तो प्रसन्न ही रखना चाहिए । कुछ दिनों में ठिकाने श्रा जाएगी । ऐसा सोचकर सासू ने कहला भेजा - 'अच्छा जैसा बहू कहेगी वैसा ही होगा ।' फुलांबाई के अहंकार को और ईंधन मिल गया। वह सोचने लगी- धन्य हैं ठाकुरजी, उन्होंने यहाँ भी मेरा बेड़ा पार लगा दिया। बड़ी प्रसन्नता और उत्साह के साथ उसने ठाकुरजी की मूर्ति पधराई और कहने लगी- 'ठाकुरजी का प्रभाव मैंने प्रत्यक्ष देखा !" थोड़े ही दिनों में फूलांबाई के व्यवहार से घर के सब लोग काँप उठे । उसने सब जगह अपना एकछत्र राज्य जमाना शुरु किया । वह न किसी से प्रेम करती, न किसी का लिहाज़ रखती । सासू वगैरह समझ गई कि बहू का स्वभाव दुष्ट है । मगर घर की बात बाहर जाने से इज्ज़त चली जाएगी। इस विचार से घर के लोग कड़वे घूँट के समान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ फुलांबाई के व्यवहार को सहन करते गये और उसे क्षमा करते रहे । उनकी क्षमा का फूलांबाई ने ठाकुरजी का अपने ऊपर विशेष अनुग्रह समझा । उसका व्यवहार दिन प्रतिदिन बुरा होता चला गया । फूलों की सुसराल के किसी सम्बन्धी के घर विवाह था । उस विवाह में सपरिवार सम्मिलित होना आवश्यक था । बहू के भी साथ ले जाना जरूरी था । मगर चिन्ता यह थी कि अगर पराये घर जाकर भी इसने ऐसा व्यवहार रक्खा तो इतनी बड़ी इज्ज़त कौड़ी की हो जायगी । अन्त में बहू को घर पर ही छोड़ जाने का निश्चय किया गया । मगर फूलांबाई को छोड़ जाना भी सरल नहीं था । इसलिए उसकी सास ने एक उपाय सोच लिया । मूर्ख लोग अपनी मिथ्या प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं । उन्हें प्रसन्न करके फिर जो चाहे वही काम करा सकते हो । वे खुशी-खुशी कर देंगे। सासू ने फूलांबाई की खूब प्रशंसा की । अपनी प्रशंसा सुनकर वह फूल गई । उसके बाद सासू ने कहा - इस विवाह में जाना तो सभी को चाहिए, पर घर सूना नहीं छेड़ा जा सकता। बड़ा घर है । इसे सँभालने के लिए होशियार आदमी चाहिए। तुम बहुत होशियार हो । अगर घर रद्द कर इसे संभाले रहो तो सब ठीक हो जाएगा । फूलबाई फूलकर कुप्पा हो चुकी थी । उसने कहातुम्हारे बिना कौन-सा काम अटका है ? तुम सब पधारो । घर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [ जवाहर-किरणावली ------ --- - - - - --. ..- ...-...- -. सँभालने के लिए मैं अकेली ही काफी हूँ। घर के लोग यही चाहते थे। फूलांबाई को घर छोड़कर सब विवाह में सम्मिलित होने के लिए रवाना हो गये। उधर सब लोग विवाह के लिए गये और संयोगवश इधर सेठ की समानता रखने वाले एक सगे मेहमान सेठजी के यहाँ आ गये। मेहमान भी ईश्वर में निष्ठा रखने वाला भक्त था । फूलांबाई को मेहमान के पाने का समाचार मिला। उसने भोजन की तैयारी करके उसे जीमने के लिए बुलाया। मेहमान जीमने बैठा और भोजन का थाल उसके सामने आया। उसने जैसे ही भोजन करना प्रारंभ किया कि उसी समय फूलां ने कड़क कर कहा--कभी पहले भी ऐसे टुकड़े मिले हैं या नहीं ? एकदम भुखमरों की तरह भोजन पर टूट पड़े ! कुछ विचार भी नहीं किया और पेट में भरने लगे। कै दिन के भूखे आये हो ? ऐसे समय में क्रोध आना स्वाभाविक था। भोजन करने के अवसर पर यह शब्द कह कर फूलांबाई ने भोजन को ज़हर बना दिया था। पर मेहमान ने सोचा-मैं भक्त हूँ। इसने भोजन को ज़हर बना दिया है, उसका मैं अमृत न बना सका तो फिर मैं भक्त ही कैसा ? इसमें और मुझमें फिर अन्तर ही क्या रहेगा ? मैं तो आज आया हूँ और आज ही चला भी जाऊँगा, मगर इसके घर के लोग कितने दयाशील और सहिष्णु होंगे जो रोज़-रोज़ इसके ऐसे बर्ताव को सहन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१०१ करते होंगे ! मेरा इसके साथ परिचय नहीं है, फिर भी इसने पत्थर-सा मारा है। यह घर वालों के साथ कैसा सलूक करती होगी? सचमुच वे लोग धन्य हैं जो इसके इस दुष्टतापूर्ण व्यवहार को शांति के साथ सहन करते हैं ! अगर मैं इसके स्वभाव को और भड़का हूँ तो इसमें मेरी विशेषता क्या है ? मैं इसका मेहमान बना हूँ। किसी उपाय से अगर इसका सुधार कर सकूँ तो मेरा आना सार्थक हो सकता है। मन ही मन इस प्रकार विचार कर उसने फूलांबाई से कहा-आपने क्या ही अच्छी बात कही है ! यह भोजन की तैयारी और उसपर आपका यह बोलना मैंने आज ही देखा है। आप ऐसी हैं तभी तो यह तैयारी कर सकी हैं। फुलांबाई मन ही मन कहती है-ठाकुरजी का प्रताप धन्य है कि उन्होंने इसे भी मेरे सामने गाय बना दिया है ! प्रकट में वह बोली-अच्छी बात है, अब आप जीम लीजिए। दो-चार दिन ठहरोगे न ? ऐसा भोजन दूसरी जगह मिलना कठिन है। मेहमान-आप ठीक कहती हैं। ऐसा भोजन दूसरी जगह कदापि नहीं मिल सकता। मैं अवश्य दो-चार दिन रहूँगा । आपकी कृपा है तो क्यों नहीं रहूँगा ? उसने सोचा-इस भोजन को अमृत बना लेना ही काफी नहीं है। इस बाई को भी मैं अमृत बना लूँ तो मेरा कर्तव्य परा होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [जवाहर-किरणावली वास्तव में सुधार का काम बड़ा टेढ़ा होता है। तलवार की धार प: चलने के समान कठिन है। सुधारक को बड़ी विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों में भी जो दृढ़ रहता है और अपने उद्देश्य की प्रशस्तता का खयाल रखकर विकट से विकट संकटों को खुशी के साथ सहन कर लेता है, वह अपने उद्देश्य में सफल होता है। मेहमान जीम कर चला गया। पूछताछ करके उसने पता चलाया कि फूलांबाई का स्वभाव ही ऐसा है । यह केवल ठाकुरजी की भक्ति करती है और सबकी कम्बख्ती करती है। मेहमान ने सोचा-चलो यह ठीक है कि वह ठाकुरजी की भक्ति करती है। नास्तिक को समझाना कठिन है, जिसे थोड़ी-बहुत भी श्रद्धा है, उसे समझाना इतना कठिन नहीं है। __ मेहमान ने एक-दो दिन रहकर फूलांबाई के वाग्बाणों को खूब सहन किया और उसकी प्रकृति का भलीभाँति अध्ययन कर लिया। उसने समझ लिया कि यह ठाकुरजी के सामने सरको तुच्छ समझती है और इसने धर्म का स्वरूप उलटा समझ लिया है। उधर फूलांबाई सोचने लगी-कैसा बेशर्म है यह आदमी, जो हँसता हुआ मेरी सभी बातों को सहन करता जाता है। जो लोग मेरे आश्रित हैं, वे भी मेरे व्यवहार को देखकर अगर मुँह से कुछ नहीं कहते तो भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान [१०३ ----- ------ - - ---- .. आँखें लाल तो कर ही लेते हैं। मगर इसके नेत्रों में जरा भी विकार नहीं दिखाई देता। चेहरा ज्यों का त्यों प्रसन्न बना रहता है। इसे मेरी परवाह नहीं है, फिर भी इतना शांत रहता है । यह मनुष्य कुछ निराला है। ____दो-तीन दिन बाद, आधी रात के समय, मेहमान कृलांबाई के कमरे के पास गया और उसे आवाज़ दी। फूलांबाई ने पूछा-कौन है ? उसने अपना नाम बता दिया। आधी रात के समय आने के लिए फूलांबाई उसे धिक्कारने लगी। तब उसने कहा-मैं किवाड़ खोलने के लिए नहीं कहता। अापके हिताहित से सम्बन्ध रखने वाली बात सुनाने आया हूँ। न सुनना चाहो तो मैं जाता हूँ। सुनना हो तो किवाड़ की आड़ में से सुन लो । हिताहित की बात सुनने के लिए फूलांबाई किवाड़ के पास खड़ी हो गई । उसने कहा-क्या कहना है, कह डालो। ___ मेहमान-कहूँ या न कहूँ, इसी दुविधा में पड़ा हूँ। कुछ निर्णय नहीं कर पाया हूँ। फुलांवाई-जो कहना चाहते हो कह डालो। विचारने की बात ही क्या है ? डरो मत । मेहमान-आपका भी प्राग्रह है तो कह देता हूँ। अभी मैं सो रहा था । स्वप्न में ठाकुरजी ने दर्शन दिये थे। ___फूलां-ठाकुरजी ! तुम्हारे भाग्य बड़े हैं जो ठाकुरजी ने दर्शन दिये ! उन्होंने तुमसे क्या कहा है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] [ जवाहर - किरणावली मेहमान - उन्होंने कहा कि भगत! चल । अब मैं इस घर में नहीं रहूँगा, तेरे साथ चलूँगा। मैंने ठाकुरजी से कहामैंने इस घर का नमक खाया है । आप मेरे साथ चलेंगे तो मेरी बदनामी होगी । 'फूलां - ठाकुरजी मेरे घर से रूठे क्यों हैं ? किस कारण जाना चाहते हैं ? मेहमान - मैंने यह भी पूछा था कि आप इस घर से क्यों रूठ गये हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि मैं इस घर से ऊब गया हूँ । अब इस घर की सत्ता मुझसे नहीं सही जाती । मैं धीरज रख रहा था कि अब सुधरे, अब सुधरे, मगर अभी तक कुछ सुधार नहीं हुआ । उन्होंने यह भी कह दिया कि मैं तेरे हृदय में बसूँगा । तू भक्त है । मैंने ठाकुरजी से पूछा- क्या कपड़ों की या नैवेद्य की कुछ कमी रही ? फूलबाई ने चट किवाड़ खोल दिये और कहने लगीमैं ठाकुरजी के लिए किसी चीज़ की कमी नहीं होने देती । फिर वे नाराज़ क्यों हो गये ? मेहमान - मैंने भी तो उनसे यही प्रश्न किया था। उन्होंने उत्तर दिया- तू भी मूर्ख मालूम होता है । मैं क्या उसके कपड़े-लत्ते के लिए नङ्गा-भूखा बैठा हूँ ! मैं अपनी सत्ता से संसार का ईश्वर हुआ हूँ। वह क्या चीज़ है जो मुझे कपड़ेलत्ते और नैबेद्य देगी ? मुझे उसकी परवाह ही कब है ? फूलां - मैं जानती थी कि ठाकुरजी इन्हीं चीज़ों से प्रसन्न www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१०४ होते हैं। फिर मुझ से क्या अपराध हुआ है जो ठाकुरजी जाने की सोच रहे हैं ? मेहमान-ठाकुरजी ने मुझे एक बात कही है और उसका उत्तर तुम से माँगने की भी आज्ञा दी है। उन्होंने पुछवाया हैइस बाई के एक सुकुमार लड़का हो । कोई मनुष्य उस लड़के को मारे या अपमान करे। फिर उन्हीं हाथों से एक थाल में पकवान भर कर वह आदमी फलांबाई को देने आवे तो बाई लेगी या नहीं? ___फूला-जो मेरे बेटे को दुःख देगा, उसके पकवान लेना तो दूर रहा. मैं उसका मुँह भी नहीं देखना चाहूँगी। ___ मेहमान तुम्हारी तरफ से यही उत्तर मैंने ठाकुरजी को दिया था। परन्तु ठाकुरजी कहने लगे-उस बाई के तो एक ही बेटा होगा, किन्तु मेरे तो संसार के सब जीव बेटे हैं। अपने मुँह के विष से जो मेरे बेटों को दुःख देती है, उससे त्राहि-त्राहि कहलवाती है. उस पापिनी के घर में मैं नहीं रह सकता। इस प्रकार ठाकुरजी अब तुम्हारे घर नहीं रहेंगे। वह सारे संसार के पिता हैं और तुम सब से वैर रखती हो। ठाकुरजी बेचारे रहें भी तो कैसे ? ___ फूलों का चेहरा उतर गया। वह कहने लगी-मेरी तकदीर खोटी है जो ठाकुरजी जाते हैं। अब मैं किसके सहारे रहूँगी? मेरी नाव डूबती है, आप किसी तरह इसे किनारे लगाए । मापकी बड़ी कृपा होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [जवाहर--किरणावली ------------- --------------- मेहमान-घबराओ मत । मुझे तो पहले से तुम्हारी चिन्ता थी। इसलिए मैंने अपनी शक्ति भर तुम्हारे लिए सब कुछ किया है। मैंने ठाकुरजी से विनय की-आप दीनदयाल हैं। बाई के अपराध को क्षमा करके यहीं रहिए । अन्यथा मेरी बहुत बदनामी होगी। तब ठाकुरजी बोले-मैं अब तक के अपराधों को क्षमा कर सकता हूँ, पर इससे लाभ क्या होगा? जो अपराध आगे भी करते रहना है, उसके जिए क्षमा मांगने से क्या लाभ है ?. जिस अपराध के लिए क्षमा मांगनी है, वही अपराध आगे न किया जाय, तभी क्षमा मांगना सार्थक होता है। अगर वह बाई भविष्य में सब के प्रति आत्मभाव रक्खे, दूसरे की मार खाकर भी बदले में न मारे, गाली सुनकर भी गाली न दे और शांत बनी रहे, सब के प्रति नम्र हो, सब की प्रिय बने, तो मैं रह सकता हूँ, अन्यथा नहीं । अब आप बतलाइए कि आपकी इच्छा क्या है ? आप ठाकुरजी की शर्त पूरी करके उन्हें रखना चाहती हैं या नहीं? फुलां-बलहारी है आपकी ! मैं अब आपकी शरण में हूँ। आपको तो ठाकुरजी स्वप्न में ही मिले और स्वप्न में ही आपने उनसे बातचीत की, परन्तु मुझे तो आप साक्षात् ठाकुरजी मिले हैं । आपने मेरी आंखें खोल दीं। वास्तव में मेरी क्रूरता के कारण सब त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। मैं भक्त नहीं नागिन हूँ। मैंने सदा ही अपने मुँह से विष उगला है। आप पर भी मैंने जहर बरसाया पर आपकी आंखों से अमृत ही निकला। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१०७ आपने मुझे सच्ची शिक्षा दी है। सब से पहले आप ही मेरा अपराध क्षमा कीजिए । अपराध रहने से ठाकुरजी न रहेंगे तो मैं अपराध रहने ही नहीं दूंगी। फिर ठाकुरजी कैसे जा सकेंगे? ___ मेहमान-आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उससे मुझे दुःख नहीं हुआ। परन्तु जो अशक्त हैं और धर्म को नहीं जानते हैं. उनसे क्षमा मांगो । इसी में आपका कल्याण है। में तो आपके क्षमा मांगने से पहले ही क्षमा कर चुका हूँ। __प्रातःकाल होते ही फूलांबाई ने सब से क्षमा मांगी। पड़ौसियों, नौकरों-चाकरों से बड़े प्रेम के साथ वह मिली और अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप करने लगी। उसने कहाआप सब लोग अब तक मुझ से दुखी हुए हैं। आपने मेरे कठोर-व्यवहार को शान्ति के साथ सहन किया है । एक बार और क्षमा कर दीजिए। ___ अगर फूलांबाई का मेहमान उसकी बातें सुनकर क्रोधित हो जाता तो फूलांबाई का सुधार हो सकताथा? नहीं। वास्तव में क्षमा बड़ा गुण है । क्षमा के द्वारा सब का सुधार किया जा सकता है। विवाहकार्य से निवृत्त होकर फूलां के घर के लोग जब लौटे तो फूलां प्रांखों से जल बरसाती हुई सब के पैरों में पड़ी और अपने अनेक अपराधों के लिए क्षमा मांगने लगी ! वह कहने लगी-आप मुझे क्षमा कर देंगे तभी ठाकुरजी रहेंगे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat mi Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [ जवाहर-किरणावली नहीं तो चले जाएँगे। ____ सब लोग फूलांबाई के इस आकस्मिक परिवर्तन को देख कर चकित रह गए। किसी ने कहा-अब तुमने अपना नाम सार्थक किया ! पर यह तो कहो कि इस परिवर्तन का कारण क्या है ? फूलां-अपने घर एक भक्त आये हैं। यह परिवर्तन उन्हीं के प्रताप से हुआ है। सारा वृत्तान्त जानकर सब परिवार के लोगों ने उन मेहमान की प्रशंसा की। उनका बड़ा उपकार माना और देवता की तरह सत्कार किया। सेठ ने कहा-सच्चे भक्त से ही ऐसा काम हो सकता है ! आपने हमारा घर पावन कर दिया। जिस घर में सदा आग लगी रहती थी उसमें आपने अमृत का स्रोत प्रवाहित कर दिया। ____ फूलां ने भक्त मेहमान से कहा- भगतजी ! अच्छा, इस पद का अर्थ बतलाइए: जो रूठे उसको रूठन दे, तू मत रूठे मन बेटा । एक नारायण नहिं रूठे तो सब के काट लू चोटी पटा॥ भगत ने कहा-पहले तुमने जो अर्थ समझा है, वह बतलाओ। फिर मैं कहूँगा। फूलां-मैंने यह अर्थ समझा था कि एक ईश्वर को खुश रखना और सब के चोटी-पट्टे काट लेना। भगत यही तो भूल है। इसी भूल ने तुम्हें चक्कर में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १०९ - -- -- - डाल दिया था। इस पद का सही अर्थ यह है कि-दूसरा रूठता है तो रूठने दें । हे मन ! तू मत रूठ । अर्थात् दूसरा अगर मारता और गाली देता है तो तू क्रोध मत कर । 'एक नारायण नहिं रूठे तो काट लूँ सब के चोटी पटा' इसका अर्थ स्पष्ट है । अगर मैं तुम्हारी बातों पर क्रोध करता तो क्या तुम मेरे पैरों में पड़तीं ? मैंने अपने मन को नहीं रूठने दिया तो तुम मेरे पैरों में गिरी ! यही तो चोटी-पट्टा काटना कहलाता है। फूलां-बहुत ठीक, अब मैं समझ गई। पर एक श्लोक का अर्थ और समझा दीजिए । भगत-कौन-सा श्लोक ? फूलां सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं स्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥८॥ भगत-इसका अर्थ यह है कि तुझ में काम, क्रोध, आदि जितने पाप हैं, मेरी शरण में आने पर वे सब छूट जाएँगे। तात्पर्य यह है कि जहाँ पाप है वहाँ ईश्वर की शरण नहीं है और जहाँ ईश्वर की शरण है वहाँ पाप नहीं है। ___ फूला-मैं आपकी कृतज्ञ हूँ। आपने मेरा भ्रम दूर कर दिया। आज मेरे नेत्र खुल गये। में कुछ का कुछ समझ बैठी थी। इस कथा से स्पष्ट है कि शास्त्र के अभिप्राय को विपरीत समझ लेने से बड़ी गड़बड़ी हो जाती है। अतएव अन्यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [ जवाहर-किरणावली --- ---- समझ लेना ध्यान का एक विघ्न है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि सच्चे धार्मिक या परमात्मान्के आराधक को अन्य प्राणियों के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ! अगर आपको भगवान् के वचन पर श्रद्धा है तो जगत् के सब जीवों को अपना ही मानो। ऐसा करोगे तो भगवान् आपके हैं, अन्यथा भगवान् रूठ जाएँगे। ____ 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' और 'सव्वभूअप्पभूअस्स' अर्थात् समस्त प्राणियों को अपना समझो। अपनी आत्मीयता की सीमा क्षुद्र मत रहने दो । तत्त्वदृष्टि से देखोगे तो पता चलेगा कि अन्य जीवों में और आपके अपने माने हुए लोगों में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार परिपूर्ण मैत्रीभावना को हृदय में स्थापित करके अगर प्रभु का ध्यान करेंगे तो आपका परम कल्याण होगा। बीकानेर २१-८-३० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आत्मोद्धार :::():::: गंभीरतापूर्वक सत्य का विचार न करने वाले लोगों का कहना है कि साधु बनना एक प्रकार की अकर्मण्यता धारण करना है । किन्तु कोई समझदार और विवेकशील पुरुष ऐसी बात नहीं कह सकता | गृहस्थ मुख्य रूप से अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करता है और गौण रूप से धार्मिक कर्त्तव्यों का। उसे दुनियां की भंझटें ऐसी फँसाए रहती हैं कि वह आध्यात्मिक कर्त्तव्य को प्रधान रूप नहीं दे पाता । गृहस्थ का सांसारिक कार्य इसी जन्म में लाभदायक हो सकता है, आगामी जन्मों में नहीं । किन्तु वर्त्तमान जन्म अल्पकाल तक ही रह सकता है और भविष्य अनन्त है । उस अनन्त भविष्य को मङ्गलमय बनाने के लिए गृहस्थी की भंझटों से दूर हट जाना आवश्यक होता है । यद्यपि गृहस्थ भी अपनी मर्यादा के अनुसार धर्म और अध्यात्म की आराधना कर सकता है फिर भी निवृत्ति जीवन में जैसी आराधना की जा सकती है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवाहर-किरणावली) • वैती गृहस्थजीवन में नहीं। इस कारण निवृत्तिमय जीवन अंगीकार किया जाता है। निवृत्तिमय जीवन का अर्थ यह नहीं है कि कोई साधु बनकर निठल्ला बैठा रहे और किसी कर्तव्य का पालन ही न करे। साधुअवस्था की निवृत्ति का अर्थ यह है कि वह गृहस्थी के कामों में नहीं पड़ता। धन कमाना, मकान बनवाना, बाल-बच्चों का विवाह करना आदि कार्यों से साधु मुक्त हो जाता है। इनकार्यों से निवृत्त होकर साधु अपनी प्रवृत्तियों का क्षेत्र नया बनाता है। वह अपनी आत्मा के शाश्वत श्रेय को लक्ष्य बनाकर महान् कर्तव्यों को स्वीकार करता है। साधु की प्रवृत्ति आध्यात्मिक साधना के उद्देश्य से होती है। अतएव वह ऊँचे दर्जे की प्रवृत्ति करता है और जगत् के हित का भी कारण बनता है। ___ साधु होना आत्मा को स्वतंत्र बनाना है। अतएव साधु बनकर अपनी आत्मा को उच्च बनाना उचित है । इसके विपरीत जो लोग साधु होकर भी आत्मा को नीचे गिराते हैं, वे अपना ऐसा अहित करते हैं जैसा सिर काटने वाला वैरी भी नहीं कर सकता। ऐसे दुरात्मा को कंठ छेदने वाले वैरी से भी अधिक वैरी समझो। कहा जा सकता है कि सिर काटने वाला वैरी तो प्रत्यक्ष में शरीर का विनाश करता है किन्तु दुरात्मा ऐसा कुछ नहीं करता। फिर दुरात्मा को कंठ छेदने वाले वैरी से भी अधिक क्यों कहा गया है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान:] [ ११३ जिन नास्तिकों ने शरीर के साथ ही आत्मा का नाश मान रक्खा है, उन नास्तिकों के लिए यह उपदेश नहीं है। यह उपदेश आस्तिकों के लिए है। आस्तिक तो इस शरीर को वस्त्र के समान समझते हैं । वस्त्र के बदल जाने से जैसे पुरुष नहीं बदल जाता, उसी प्रकार शरीर के बदलने पर आत्मा नहीं बदलता । सिर काटने वाला वैरी अनित्य शरीर का ही नाश करता है, नित्य आत्मा का नहीं। सिर काटने वाले वैरी से अगर द्वेष न किया जाय तो वह कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकता। यही नहीं, बल्कि यह आत्मा की मुक्ति में उसी प्रकार सहायक बन जाता है जैसे गजसुकुमार मुनि के लिए सोमल ब्राह्मण सहायक बना था । अतएव तात्त्विक दृष्टि से (निश्चयनय से ) विचार किया जाय तो दूसर। कोई भी हमारा सिर नहीं काट सकता । हमारा सिर हम स्वयं ही काट सकते हैं। हमने बुरे कर्म किये होंगे तो इसी कारण कोई हमारा सिर काट सकता है। बुरे कर्म न किये हों तो लाख प्रयत्न करने पर भी कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । ज्ञानस्वरूप आत्मा सिंह के समान पूर्ण अधिकारी है और शानविकल आत्मा कुत्ते के समान है। कुत्ते को कोई ईंट या पत्थर मारता है तो कुत्ता उस पत्थर या इंट को काटने के लिए झपटता है । वह समझता है कि यह पत्थर या ईट ही मुझे मारने वाला है। किन्तु सिंह ऐसा नहीं करता । सिंह को गोली मातीर लगता है तो वह मारने वाले की तरफ दौड़ता है। वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ जवाहर - किरणावली समझता है कि तीर या गोली का दोष नहीं है वरन् मारने वाज्ञा का दोष है । मार डालना पशुबल है, आत्मबल नहीं । जैसे सिंह समझता है कि तीर या गोली मुझे नहीं मार रही है किन्तु उसका प्रयोग करने वाला मार रहा है, उसी प्रकार जिसमें आत्मबल है, जो विज्ञानघन है, वह समझता है कि हमारा सिर यह वैरी नहीं काट रहा है बल्कि मेरी आत्मा आप ही अपना सिर काट रही है । वैरी तो निमित्त मात्र है। यह हमारे कर्मों का वैसा ही हथियार बन गया है जैसा हथियार सिंह के लिए तीर या गोली बनी थी। इस मारने वाले का कोई दोष नहीं है | मारने वाला तो हमारे ही भीतर बैठा है । I जिसे यह ज्ञान हो जाएगा यह किसी दूसरे से लड़ाई नहीं करेगा, वह तो अपनी ही आत्मा के साथ जूझेगा । वह कहेगा-हे आत्मन् । तू अब विज्ञानघन है। जा । तू अपने विज्ञानघन स्वभाव को न समझने के कारण दुखी हो रहा है । ... अपना सिर काटने वाले को तो छोड़िए, कई पीढ़ी के पूर्वज का सिर काटने वाले से भी लोग बोलना पसंद नहीं करते । आप लोग जब एक पूर्वज का सिर काटने वाले से भी मेल नहीं रखना चाहते और दुश्मनी रखते हैं तो ज्ञानी जन कहते "हैं कि अपने दुरात्मा से वैर क्यों नहीं रखते ? इस दुरात्मा ने विषय, कषाय, दुराचरण और भोग के वश होकर एकएक योनि में अनन्त अनन्त बार चक्कर लगाये हैं। इसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ]. [११५ .- -- -. - --. - - - - - . - ... --- -- - - - - - - अपने को दुस्सह दुःखों का पात्र बनाया है। फिर इससे ज्यादा हानि करने वाला दूसरा कौन है ? हमारी आत्मा एक तरह से हमारा मित्र भी है और दूसरी तरह से शत्रु भी है। ऐसी स्थिति में हमारा कर्तव्य है कि हम मित्र-आत्मा के साथ भेंट करें और शत्रु आत्मा से वैर करें। शत्रु आत्मा हमें अनादि काल से ऐसे घोर कष्टों में डाले हुए है कि जिसका वर्णन कर सकना भी असंभव है। इस दुरात्मा ने हमारा जितना अहित किया है उतना अहित किसी भी दूसरे वैरी ने नहीं किया। इस दुरात्मा ने ही दूसरे बैरी पैदा किये हैं। अगर मैंने इसे दूर कर दिया तो फिर कोई वैरी ही नहीं रह जाएगा। यह शिक्षा सभीमतों के शास्त्रों में मौजूद है। गीता भी कहती है उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसीदयेत् । अपनी आत्मा से प्रात्मा का उद्धार करो। आत्मा से ही श्रात्मा का उद्धार होगा । जब तक तुम स्वयं तैयार न होओगे, कोई भी तुम्हें नहीं तार सकता; क्योंकि डरपोक या काय। को न तो किसी की सहायता मिली है और न मिलेगी ही । श्रीप्राचारांगसूत्र में भी कहा है पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त किं वहिया मिचिमिच्छासि । अर्थात्-अरे'नर ! तेरा असली मित्र तू स्वयं है । बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करता है ? भारतीयों ने आध्यात्मिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] . [जवाहर-किरणावली उन्नति खूब की थी लेकिन उलटी समझ के कारण उससे हानि भी खूब उठाई । बहुतों ने समझ लिया कि धर्म के लिए हमें मिहनत भी न करनी पड़े और ईश्वर हमें सीधा मोक्ष भी भेज दे । यह गलत समझ हानि का कारण बनी । मिहनत से बचने वालों ने धर्म और ईश्वर को समझा ही नहीं है। अगर ईश्वर विना परिश्रम किये ही तारता होता तो वह दयालु होने के कारण किसी के कहने की राह ही न देखता। अगर वह स्वयं ही सब का उद्धार करता है तो किसी जीव को दुखी क्यों रहने देता है ? क्या वह भी आलसी है ? वास्तव में ईश्वर तारनहार तो है पर जब तुम तरने के लिए तैयार होगे तभी वह सहायता करेगा। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं स्व तारको जिन ! कथं भविनां त एव, स्वामुद्वहन्ति दृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा हतिस्तरति यजलमेष नून-- मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ।। -कल्याणमन्दिर । तू जगत् का उद्धार करने वाला नहीं है। अगरतू उद्धार करने वाला होता तो संसार दुखी ही न रहता और न मुझे संसार के दुख भोगने पड़ते । अतएव सिवाय इसके कि तू तारक नहीं है, और क्या कहूँ ? मगर एक हिसाब से तू तारक भी है। जब कोई तुझे हृदय में धारण करता है तो तू उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान [११७ - --- -- --- -- --- - तार देता है । इस प्रकार तू तारक है भी और नहीं भी है। मशक में हवा भर कर उसका मुँह बाँध दिया जाय भार उसका आश्रय लेकर तेरा जाय तो वह तार देती है। लेकिन अगर उसमें हवा न भरी जाय या हवा के बदले पत्थर भरे जाएँ तो वह नहीं तिरा सकती। वैसे वायु तो सभी जगह है लेकिन जो उसे अपमा कर भर लेता है उसी को वह तिराती है। प्राचार्य कहते हैं-हे प्रभु ! तू वायु के समान है और मैं मशक के समान । अगर मैं तुझे हृदय में धारण कर लूँ तो तु विना तारे नहीं रहेगा। अगर तुझे हृदय में धारण न करूँ और तेरे बदले विषय-कषाय आदि पत्थर भर लूँ तो तू कैसे तारेगा? फिर तेरा क्या दोष है ? वायु मशक को तिराने वाली है लेकिन वह कहती है कि मुझे अपने भीतर भरो तो मैं तुझे तारूँगी। अन्यथा मेरे भरोसे मत रहना। इसी तरह परमात्मा कहता है-मुझे हृदय में धारण कर लो तो मैं संसार-सागर के जल में तुम्हें नहीं डूबने दूंगा। अगर ऐसा न किया तो मैं क्या कर सकता हूँ! मैं अभी कह चुका हूँ कि आत्मा से आत्मा का उद्धार करो। आत्मा से आत्मा का उद्धार किस प्रकार करना चाहिए, यही बात मैं थोड़े में कहता हूँ। अगर आपको अपना उद्धार करना है तो ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो। अपना उद्Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] [ जवाहर - किरणावली धार कर शुरू कर दो। मैं जो मार्ग बतला रहा हूँ उस मार्ग पर बड़े से बड़ा विद्वान् भी चल सकता है और बालक भी चल सकता है । पण्डित और बालक दोनों के लिए यह मार्ग सुगम है । इस मार्ग का अवलम्बन लोगे तो आपका काम सिद्ध हो जाएगा । वह मार्ग यह है तो सुमरण त्रिन आणि कलियुग में, न कोइ श्रधागे । श्रवर मैं वारी जाऊँ तो सुमरण पर, दिन-दिन प्रीति वधारी । पदमप्रभु पावन नाम तिहारो, पतित उधारनहारो ॥ पदम० ॥ धरम को मरम महारस, सो तुम नाम उचारो | मन्त्र नहीं कोउ दूजो, त्रिभुवन मोहनगारो ॥ पदम० ॥ इस प्रकार का अभ्यास करो और इस आत्मा को समझा लो कि हे आत्मा ! तू इस सर्वव्यापक परमात्मा को छोड़कर दुरात्मा मत बन । तू उस परमात्मा का ध्यान उठते-बैठते कर और आठों पहर उसका जप चलने दे । उसके जप में आठों पहर रहने से तेरे पास पाप फटकेगा ही नहीं । परम या purgatiom सम मैं संतों, सतियों, श्रावकों और श्राविकाओं से कहता हूँ कि जो काम परमात्मा की श्राशा में हैं उनके लिए तो कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ११६ ---- - - - -- ---- -..- -.----. . .. . -. कहना ही नहीं है, लेकिन आज्ञा-बाहर के काम जैसे ही तुम्हारे सामने आवे वैसे ही तुम परमात्मा की शरण में जाओ। वैरी के सामने आते ही शस्त्र छोड़ देना कायरता है। काम क्रोध आदि ही तुम्हारे असली वैरी हैं । यह जब तुम्हारे पास आवे तब तुम परमात्मा से प्रार्थना करो-'प्रभो! इनसे हमें बचा। ऐसा करने से वे वैरी तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे। मगर कठिनाई यह है कि ऐसे विकट प्रसंग पर लोग परमात्मा को भूल जाते हैं और इसी कारण परमात्मा उनकी रक्षा नहीं कर सकता। शत्रु का हमला कभी न कभी होता ही है। हरला न हो तो परीक्षा कैसे हो? मगर हमला होने पर जो परमात्मा की शरण जाता है उसे क्षण-क्षण में सहायता मिले वेना नहीं रहती । जो मन और वाणी के भी अगोचर है, जिसकी शक्ति के सामने तलवार, आग, ज़हर और देवताओं की शक्ति भी तुच्छ है, उस महाशक्ति के सामने सारा संसार तुच्छ है। जो ले उसको रूठन दे, पर तू मत रूठे मन बेटा । एक नारायण नहीं रूठे तो सब के काट लू चोटी-पटा।।* इस उक्ति का अर्थ पलट दिया जाय तो बात दूसरी है। नहीं तो यह समझ लो कि जो रूठता है उसे रूठने दो, लेकिन तू मत रूठ । जिस मशक ने वायु को अपने भीतर भलीभाँति भर लिया है, उस मशक को कोई भी तूफ़ान नहीं डुबा *इसकी व्याख्या इसी पुस्तक में अन्यत्र पा चुकी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] [जवाहर-किरणावली सकता। इसी प्रकार हे आत्मा ! काम क्रोध आदि का कैसा ही तूफान श्रावे तू ईश्वर की शरण मत छोड़। मित्रो ! आत्मा को अमृतमयी बनाओ। यह मत समझो कि माला हाथ में ले लेने से ईश्वर का भजन हो जायगा। ई वर को अपने हृदय में विराजमान करो। जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक जैसे निरन्तर श्वास चलता रहता है, उसी प्रकार परमात्मा का ध्यान भी चलता रहना चाहिए । ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपथ्य और तामसिक भोजन तथा खोटी संगति को त्यागकर शुद्ध अन्तःकरण से उसका भजन करोगे तो उसे प्राप्त करने की सिद्धि भी अवश्य मिलेगी। बाइयो! यह समय अपूर्व है । जो अवसर मिला है वह बार-बार नहीं मिलेगा और प्रतिक्षण चला जा रहा है। इसे परमात्मा के ध्यान में लगाओ। परमात्मा के ध्यान से तुम्हें सन्मति प्राप्त होगी । तुम्हारे कुकर्म छूट जाएँगे और तुम्हारे लौकिक-व्यवहार में कोई बाधा नहीं आवेगी। कुछ लोग कहा करते हैं कि परमात्मा का भजन करने पर भी हमारा अमुक काम सिद्ध नहीं हुआ। मगर वे यह नहीं सोचने कि उन्होंने ऐसा भजन किया है जो परमात्मा को पसंद नहीं है। यों तो रावण भी भक्त था । लेकिन मंदादरी ने उससे कहा सुनहु नाथ ! सीता विन दीन्हें । हित न तुम्हार शंभु बज कीन्हें ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१२१ तुलसीदासजी ने शंभु और ब्रह्मा की बात कही है और हम लोग कह सकते हैं कि सीता को दिये बिना अर्हन्त भी हित न करेंगे। रावण अगर सीता को लौटा देता तो उसे भजन से आनन्द मिलता। लेकिन उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया । इसी प्रकार आपने जो भक्ति की होगी उसमें कोई कारण ऐसा होगा जो परमात्मा को पसंद नहीं होगा। इसलिए शुद्ध अन्तःकरण से, दूसरे के हिताहित का ध्यान रखते हुए परमात्मा का ध्यान करो। ऐसा करने से अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। THADUR INDI.NITI MAHRUITHTHAmt AIIMILAImyanKTImeanimalll FAS ATHI Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्यभ्रष्ट न होओ --:::()::-- भगवान् अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक से कहा-राजन् ! कई लोग नाथ होने के लिए उद्यत होकर भी इंद्रियों के या कषाय के वश होकर सांसारिक पदार्थों में गृद्ध हो जाते हैं और परिणाम यह होता है कि वे फिर अनाथ हो जाते हैं। उनकी साधु बनने की रुचि निरर्थक हो जाती है, क्ष्योंकि उसका मुख्य प्रयोजन नष्ट हो जाता है। जो साधु के प्राचारविचार से विरुद्ध चलता है फिर भी साधु का वेष धारण किये रहता है, वह प्राणी पामर है। ऐसा मनुष्य इस लोक के सुखों से भी वञ्चित रहता है और परलोक के सुखों से भी कोरा रह जाता है। वह इस लोक के सुखों से वंचित यों रह जाता है कि लोकलज्जा के मारे उसे केशलोंच करना पड़ता है, मंगे पैर पैदल चलना पड़ता है और भिक्षाटन प्रादि बाह्य क्रियाएँ साधुओं की ही तरह करनी पड़ती हैं। मतलब यह है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १२३ साधु जिन कष्टों को सहन करते हैं, उन्हें उसे भी सहन करना पड़ता है । फिर भी उसका कष्ट सहना उत्तम अर्थ में नहीं लगता । वह जो कुछ करता है, जो कष्ट सहता है सो सिर्फ इसलिए कि लोग उसे साधु समझें । वह आडम्बर करता है और असलियत की उपेक्षा करता है। इस प्रकार वह ऐहलौकिक सुखों से भी वंचित रहता है और पारलौकिक सुखों से तो वंचित है ही । वह न इधर का रहता है न उधर का रहता है । 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' की कहावत उस पर पूरी तरह घटती है । ऐसे व्यक्ति का इस लोक में भी कोई आदर नहीं करता और परलोक में तो उसे पूछेगा ही कौन ? वह जो कष्ट सहन करता है सो समभाव से नहीं करता । ऐसा मनुष्य अनाथ का अनाथ ही बना रह जाता है ।. कोई भी मनुष्य हो, यह जिस उद्देश्य के लिए घर से निकलता है उसके विषय में सावधानी न रक्खे तो सांसारिक कामों के लिए जैसे गृहस्थ उलाहना देते हैं, उसी तरह पारलोकिक कार्य के लिए शास्त्र उलाहन देते हैं। अपने ध्येय को भूल जाने वाले ऐसे मनुष्य की क्या दशा होती है, यह सब लोग समझ सकते हैं। इस संबंध में मैं अपने स्वानुभव की बात कहता हूँ । 1 गृहस्थ लोग संवत्सरी के दूसरे दिन जमाई को बुलाकर कोई भेट देते हैं और उससे खमतखामणा करते है । जब मैं बालक था तो मेरे संसारी मामाजी ने रिश्ते के एक जमाई को i Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ [जवाहर-किरणावली बुला लाने के लिए मुझ से कहा । मैं घर से चला। रास्ते में कुछ बालक कौड़ियों और पैसों का खेल खेल रहे थे । मैं वहाँ खड़ा हो गया और खेल देखने लगा। मैं किसलिए' घर से निकला हूँ, यह बात बिलकुल भूल गया। पारणा करके घर से निकला था। खाने पीने की चिन्ता नहीं थी। खेल में मेरा मन इतना उलझ गया कि मध्याह्न हो गया और धीरे-धीरे करीब दो बजे का समय हो गया। खेल खत्म हुआ तवं मामाजी की बात याद आई। मामाजी स्वभाव के बड़े क्रोधी थे। अतएव मुझे बहुत भय हुआ कि न जाने कैसी बीतेगी। सारांश यह है कि जो जिस काम के लिए उठा है, उसे अगर पूरी तरह नहीं करता है तो स्थिति विषम हो जाती है। वह लक्ष्यभ्रष्ट होकर कष्ट ही पाता है। इसलिए ऐ साधुओ, तुम सावधान होश्रो। तुमने जिस महान् ध्येय को प्राप्त करने के लिए संसार के सुखों का परित्याग किया है, जिस सिद्धि के लिए तुम अनगार, अकिंचन और भिक्षु हुए हो, उस ध्येय को क्षण भर भी मत भूलो। उसकी पूर्ति के लिए निरन्तर उद्योगशील रहो । तुम्हारा प्रत्येक कार्य उसी लक्ष्य की सिद्धि में सहायक होना चाहिए। ___ जो मनुष्य अपने लक्ष्य को भूल जाता है उसका सारा कष्ट सहन निरर्थक हो जाता है और उसका कहनाभी असत्य हो जाता है कि मैं अमुक कार्य के लिए उठी हूँ। कोई प्रादमी धन कमाने के लिए उठा और अपनी लापरवाही के कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १२५ छूटे, परदेश जो स्व गांठ की पूँजी गँवा बैठा तो यही कहा जाएगा कि उसने अपने लक्ष्य से विपरीत काम किया। इस धन कमाने के लिए उठने वाले का और धन न कमाने वाले को कष्ट तो वही हुए जो कमाने वाले को होते हैं । स्त्री, माता, पिता श्रादि जाना पड़ा, सफर की दिक्कतें भोगनी पड़ीं. घर तंत्रता थी वह बाहर नहीं रही । यह सब कष्ट सहने पर भी काम उलटा किया । जिस उद्देश्य को लेकर घर से निकला था यह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ । इस प्रकार वह न इधर का रहा, न उधर का रहा । पूँजी गँवाकर घर लौटने वाले को संकोच और लज्जा का भी अनुभव होता है । कदाचित् लौट भी आता है तो घर के लोग उससे घृणा करते हैं, उसे फटकारते हैं और खुद भी दुखी होते हैं । कष्ट भी व्यावहारिक नतीजा कुछ न निकला । । यह . लौकिक बात है । पारलौकिक बात भी इसी तरह समझना चाहिए । साधु बनने के लिए उठने वाले को घरबार छोड़ना ही पड़ा । साधु अवस्था के लज्जा के कारण सहने पड़े और यही नहीं वरन् उलटी हानि हुई केशलोंच, भिक्षा, विहार आदि, जो साधु को करने पड़ते हैं, वह सब तो लोकलख्खा के कारण करने ही पंड़े परन्तु उनमें श्रद्धा न होने से वे फलदायक नहीं हुए, क्योंकि वे सिर्फ लोकदिखावे के लिए ही किये गये । जब तक कोई देखता रहता है, तब तक वह नियमों का पालन करता है, और जब कोई नहीं देखता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [ जवाहर - किरणावली तब उन्हें भंग कर देता है । साधुपन ऊपर से पालने की वस्तु नहीं है । वह अन्तरात्मा से पाला जाता है । श्रतएव जब तक आत्मा शान्त नहीं हुआ है और उसे शान्त करने का प्रयत्न भी नहीं किया जाता है तब तक साधुपन का दिखाना व्यर्थ है । ऐसा मनुष्य दोनों लोकों से भ्रष्ट हुआ है। ऐसे साधुवेषी की संयम की रुचि विपरीत हो गई है । इसलिए वह इस लोक के भी सुखों से वंचित है और परलोक के सुखों से भी वंचित है । यह कथन सभी के लिए लागू होता है । चाहे कोई साधु हो या श्रावक हो, ऊपर से साधु या धावक होने का दिखावा करना और भीतर पोल चलाना उचित नहीं है । आत्मा के वैरी मत बनो । श्रात्मा को मत ठगेो । तुम्हारा आत्मा ही मित्र है और ग्रात्मा ही शत्रु है । अपनी श्रात्मा से पूछो कि तू जो कर रहा है से किस विचार से कर रहा है ? जो आदमी जिस काम को अन्तरात्मा से करेगा उसे उस काम में कष्ट का अनुभव नहीं होगा। यही नहीं, उसके मनोयोग की शक्ति, जो कार्य को सम्पन्न करने में महत्वपूर्ण भाग लेती है और कार्य को साध्य बनाती है, उसके साथ होगी । उसे कार्य करते समय और कार्य करने के पश्चात् भी आह्लाद का अनुभव होगा । इसके विपरीत जो मनुष्य क्रिसी काम को बोझ समझेगा और ऊपरी मन से करेगा, वह उसे कष्ट रूप मोगा । उसे अपने कार्य से संतोष और सुख नहीं मिलेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १२७ और अच्छे से अच्छे कार्य का भी उत्तम फल वह प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति साधुपन पर श्रद्धा नहीं रखता है लेकिन ऊपर से साधु बना हुआ है, उसके लिए वह संयम भी दुःखदायी हो जाता है । जो व्यक्ति श्रद्धा और उत्साह के साथ संयम का पालन करता है, उसे संयम के कष्ट का अनुभव ही नहीं होता । वह कष्टों का भी आनन्द के रूप में पलट लेता है । यह इतनी सरल और सीधी बात है कि प्रत्येक आदमी अपने ही अनुभव से इसे समझ सकता है । संसार-व्यवहार की बातों को ही लीजिए। आपको कहीं हजार रुपये मिलने की आशा होगी तो आप उसी समय दौड़े जाएँगे। उस समय आपको इतनी स्फूर्ति और इतना उत्साह मालूम होगा कि सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि का कष्ट मालूम ही नहीं पड़ेगा । यों किसी का मुँह काला कर दिया जाय या धूल फेंकी जाय तो वह आग बबूला हो जायगा । लेकिन फागुन के महीने में ऐसा उन्माद छा जाता है कि काला मुँह करने पर पर और धूल फेंकने पर आनन्द माना जाता है । जब फागुन के महीने में मिथ्या उन्माद के कारण ऐसा करने पर भी दुःख नहीं होता तो जिसे ज्ञान का उन्माद हो गया है उसे क्यों दुःख होगा ? और पुत्री के विवाह में माता रात दिन एक कर भी उसका मन आनन्द ही पाता है; क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com पुत्र देती है, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] , [जवाहर-किरणाक्ली उसके हृदय में उत्साह होता है। जब उत्साह के कारण संसार-व्यवहार के कठिन कार्यों में दुःख का अनुभव नहीं होता तब जन्म-जन्मान्तर के कष्ट मिटाने वाले संयम को पालने में क्यों कष्ट मालूम होगा? लेकिन जिन्होंने कपटपूर्ण संयम लिया है, उन्हें बोलने, चलने, खाने, पीने आदि में पद-पद पर खेद मालूम होता है। भगवान् ने कहा है कि जिस साधु के संकल्प-विकल्प न मिटे उसे साधुपन में पद-पद पर कष्ट होते हैं। इसलिए साधु में संकल्प-विकल्प रहना अनाथता के लक्षण हैं। सारांश यह है कि अन्तरात्मा में पूरी सद्भावना स्थापित करके साधुपन पालने वाला ही सनाथ बनता है। ऊपरऊपर के भाव से काम करने वाला सनाथ नहीं, अनाथ ही है। . दुकान में मुनीम भी काम करता है और सेठ का लड़का भी काम करता है। मुनीम तनख्वाह लेता है. और सेठ का लड़का कुछ भी नहीं लेता। लेकिन पैसे के लिए काम करने वाले में और घर का काम समझ कर करने वाले में कितना अन्तर होता है ? . जो अपना कार्य समझ कर कार्य करता है वह.मालिक बन कर करता है, गुलाम बन कर नहीं। मालिका औरगुलाम भोजि अन्तर है वही प्रान्तरिक उतार और समाज के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के ग्याल्यान] [१२९. ----------- ---- . . ... ... .... साथ संयम पालने वाले और विना मन लोकदिखावे के लिए संयम पलने वाले साधु में है। जो भावना के साथ संयम पालता है वह मालिक के समान है और जो दिखावे के लिए संयम का पालन करता है वह गुलाम के समान है। आप लोग श्रावक हैं। आप केवल मुनिपन की दृष्टि से प्रमाथ हैं, श्रावकपन की दृष्टि से सनाथ हैं । इस दृष्टि से आप आप इन्द्र से भी बड़े हैं । इन्द्र श्रावकपन की दृष्टि से भी अनाथ है। अतएव अाप अपने गौरव को समझें । अपने पद की उञ्चता को समझ कर उसका पूरी तरह निर्वाह करें । अतीन काल में भगवान् के शासन में अनेक श्रावक हो चुके हैं। आपका पद उन्हीं की कोटि का है। आप उनके उत्तराधिकारी हैं । ऐसा कोई काम न करें जिससे आपकी और आपके द्वारा उनकी भी कीर्ति में धब्बा लगने की संभावना हो। इसके अतिरिक्त आप जो कुछ भी करें, दीनता और पराधीनता स्याग कर करें। आपको यह समझना उचित है कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ वह अपना काम कर रहा हूँ। मैं गुलामी का काम नहीं कर रहा हूँ। __ कल्पना कीजिए, दो गुमाश्ता हैं । उनमें एक श्रावक है और दूसरा अश्रावक है। इन दोनों के कार्य में कुछ अन्तर तो होना ही चाहिए । अगर कुछ भी अन्तर नहीं है तो दोनों के धर्म का अन्तर सर्वसाधारण की समझ में कैसे पाएगा? साधारण जनता तो धर्म के अनुयायी व्यक्तियों के आचरण से ही उनके धर्म की परीक्षा करती है। वह तात्विक विवेचना की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] [ जवाहर-किरणावली गंभीरता में नहीं उतरती। सच्चा श्रावक कभी नहीं सोचेगा कि मैं गुलामी का कार्य करता हूँ। वह तो यही समझेगा कि मैं जो कुछ करता हूँ, अपने धर्म की साक्षी से करता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि मेरे किसी कार्य से मेरे व्रत में दोष लग जाय और मेरे व्यवहार से मेरे धर्म की प्रतिष्ठा में कमी हो जाय । मैं नौकर हूँ, लेकिन सत्य का । शास्त्र की कथाओं में उल्लेख है कि ऐसा समझने वालों को अनेक प्रलोभन दिये गये, यहाँ तक कि प्राण जाने का भी अवसर आ पहुँचा, फिर भी वे अपने सत्य धर्म से विचलित नहीं हुए। मतलब यह है कि चाहे कोई मुनीमी करे या मजदूरी करे, अगर वह सच्चा श्रावक है तो यही विचारेगा कि मैं पैसे के लिए ही नौकरी नहीं करता हूँ। मुझे अपने धर्म का भी पालन करना है। जो ऐसा विचार करके प्रामाणिकता के साथ व्यवहार करेगा वही सच्चा श्रावक होगा। जो पैसे का ही गुलाम है वह धर्म का पालन नहीं कर सकता। सच्चा श्रावक अपने मालिक के बताये हुए भी अन्यायपूर्ण काम को करना स्वीकार नहीं करेगा। पूज्यश्री श्रीलालजी महाराज एक बात कहा करते थे । वह इस प्रकार है: किसी सेठ के यहाँ एक प्रामाणिक मुनीम था। अपने सेठ का काम ,वह धर्मनिष्ठा के साथ किया करता था। एक बार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१३१ सेठ ने मुनीम की सलाह नहीं मानी और इस कारण उसका काम कच्चा रह गया। सेठ ने कुछ दिनों तक तो अपना प्राडम्बर कायम रक्खा मगर पूंजी के विना कोरा अाडम्बर कब तक चल सकता था ? जब न चल सका नो एक दिन सेठ ने बड़े दुःख के साथ मुनीम से अपने लिए दूसरी पाजीविका खोज लेने को कह दिया । उसने लाचारी दिखलाते हुए अपनी स्थिति का भी हाल बतला दिया, यद्यपि मुनीम से कोई बात छिपी हुई नहीं थी। मुनीम ने कहा-अपना संसार-व्यवहार चलाने के लिए मुझे कोई धन्धा तो करना ही पड़ेगा, लेकिन आप यह न •समझे कि मैं पराया हूँ। जब कभी मेरे योग्य काम आ पड़े श्राप निस्संकोच होकर मुझे आज्ञा दें। अधिक तो क्या, मैं प्राण देने के लिए भी तैयार हूँ। इस प्रकार बड़े दुःख के साथ सेठ ने मुनीम को विदा किया और मुनीम भी बड़े दुःख के साथ विदा हुआ। मुनीमजी घर बैठे रहे। नगर में बात फैल गई कि अमुक मुनीमजी आजकल खाली हैं। उसी नगर में एक वृद्ध सेठ रहता था। वह खूब धनवान् था। उसके बच्चे छोटे थे । वह चाहता था कि मैं व्यापार और बालकों का भार किसी विश्वस्त आदमी को सौंपकर कुछ धर्म-कर्म करने में लगें। मगर उसे अपने नौकरों में ऐसा कोई नहीं दिखता था जो उसका कामकाज संभालकर ईमानदारी से काम कर सके। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ जवाहर - किरणावली आज के लोग तो अपनी आयु संसारकार्य में ही पूरी कर देते हैं, परन्तु पहले के लोग चौथी अवस्था में या तो साधु हो जाते थे या साधु न होने की अवस्था में धर्मध्यान में लग जाते थे। इससे आगे वालों के सामने एक अच्छा आदर्श खड़ा हो जाता था और वह अपना कल्याण कर लेता था । सेठजी को उन मुनीमजी के खाली होने की खबर लगी । वह मुनीम को जानते थे । अपना काम-काज संभालने के लिए सेठजी ने उन्हें उपयुक्त समझा और एक दिन बुलाकर कहामैं आपकी चतुराई से परिचित हूँ। आप हमारी दुकान का काम-काज संभाल लें। मुनीम आजीविका की तलाश में था ही । उसने सेठजी की दुकान पर रहना स्वीकार कर लिया । सेठजी ने उसे सब नौकरों का अध्यक्ष बनाकर सब काम उसके सुपुर्द कर दिया । · थोड़े दिन बाद सेठ ने मुनीम से कहा - अमुक बही के अमुक पाने का खाता निकालिए । मुनीम ने खाता निकाला । खाता उसी सेठ का था, जिसके यहाँ मुनीम पहले नौकर था और जिसकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी । खाते में कुछ रुपया बकाया था । सेठ ने कहा- यह रकम वसूल कीजिए । मुनीम बही लेकर उस सेठ के यहाँ पहुँचे । सेठ ने प्रेम के साथ आदर-सत्कार करके बिठलाया । मुनीम संकोच के कारण मुँह से तकाजा न कर सका। उसने खाता खोलकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १३३ सेठ के सामने रख दिया । सेठ समझ गया । उसने सू भरकर कहा - मुनीमजी, रुपया तो देना है, लेकिन इस घर की दशा आपसे छिपी नहीं है। मैं क्या कहूँ ? मुनीम ने कहा- आप दुखी न हों। मैं स्थिति से परिचित हूँ। अगर मैं ने अपने नये सेठजी को वहीं उत्तर दे दिया होता तो ठीक न रहता। इसी विचार से मैं यहाँ तक आया हूँ । बहीखाता लेकर मुनीमजी लौट आये। सेठ के पूछने पर उन्होंने कहा- खाते में रकम ज्यादा वकाया है । अभी चुकता कर देने की उनकी शक्ति नहीं है । कभी उनके दिन पलटेंगे तो चुका देंगे । वे हज़म करने वाले आसामी नहीं है । कारण आप उनकी उनका रुख रखना सेठ बोला- पहले के सेठ होने के खुशामद करते हैं । हमारे नौकर होकर उचित नहीं है । इतना बड़ा घर था । विगड़ जाने पर भी गहने- वर्तन आदि तो होंगे ही। अगर सीधी तरह नहीं देना चाहते तो दावा करके वसूल करो । मुनीम - मैं जानता हूँ कि उनकी आमदनी ऐसी नहीं है । किसी प्रकार अपना निर्वाह कर रहे हैं और इज्ज़त लेकर बैठे हैं। उनकी आबरू विगाड़ना मेरा काम नहीं है। मैं तो आपकी और उनकी इज्ज़त बराबर समझता हूँ । कुछ कठोर पड़ कर सेठ ने कहा- जिसे रोटी की गरज़ होगी उसे किसी की आबरू भी विगाड़नी पड़ेगी । मुनीम ने यह बात सुनी तो चाबियों का गुच्छा सेठजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [जवाहर-किरणावली के सामने रख दिया और कहा-सेठ साहब, मुझे विदाई दीजिए। सेठ-अच्छी तरह सोच-विचार लीजिए। मैंने आपको रोज़गार ले लगाया है । सब कर्मचारियों का प्रधान बनाया है और श्राप मेरे साथ ऐसा सलूक करते हैं ? मुनीम-जो अपनी इज्ज़त के महत्त्व को नहीं समझता वही दूसरे की इज्ज़त बिगाड़ता है। एक दिन वे भी मेरे मालिक थे। आज उनकी स्थिति ऐसी नहीं है, तो क्या में उनकी इज्ज़त बिगाड़ने लगूं? मैंने उनका नमक खाया है और वह मेरे सारे शरीर में व्यापा हुआ है। मैं उनकी प्रतिष्ठा नष्ट नहीं करूँगा। फिर भी अगर अाप रकम वसूल करना ही चाहेंगे तो मैं अपनी जायदाद से चुकाऊँगा। मैं सिर्फ पैसे का गुलाम नहीं हूँ। मैं धर्म से काम करने वाला हूँ। मुनीम की बात सुनकर सेठ को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उसने धन्यवाद देते हुए कहा- मुनीमजी, मैं आपकी कसौटी करना चाहता था। मेरी अाज तक की चिन्ता दूर हो गई। यह चाबियाँ संभालिये। अब आप जानें और दुकान जाने । अब यह घर और बाल-बच्चे मेरे नहीं, आपके हैं । मेरे सिर का भार अापके ऊपर है। मित्रो! यदि मुनीम पैसे के प्रलोभन में पड़कर, भाजीविका रखने की चिन्ता से धर्म को भूल जाता तो क्या परिणाम निकलता? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१३५ ----- - -- ---. -. . -.-..- - - - - - -- --- - -... .-... .-- .. - - . - ".".- - आज के लोग श्रावक कहलाते हुए भी स्वतंत्र रहने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । ___ भगवान् अनाथी मुनि ने यही कहा था कि नाथ बनकर किसी काम को करना एक बात है और गुलाम बन कर करना दूसरी बात है। नाथ बनकर साधुधर्म का पालन करना और बात है और गुलाम बनकर सिर्फ दिखाने के लिए पालन करने का ढोंग करना और बात है। सेठ और मुनीम का जो उदाहरण दिया गया है वह भाई-भाई और पिता-पुत्र आदि के लिए भी लागू होता है। धर्मात्मा पुरुष किसी के साथ दगा नहीं करता। वह प्राण देने को तैयार हो जाता है पर अपना धर्म नहीं छोड़ता। धर्म को वह प्राणां से ज्यादा प्यारा समझता है। धर्म उसके लिए परम कल्याणमय होता है। वह समझता है कि मैं नास्तिक नहीं, आस्तिक हूँ। अात्मा अमर है। मैं अनन्त काल तक रहने वाला हूँ। इसलिए थोड़े समय तक रहने वाली तुच्छ चीज़ के लोभ में पड़कर में धर्म का परित्याग नहीं कर सकता। इस प्रकार विचार करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है। राम और लक्ष्पण भाई-भाई थे तो क्या राम अकेले वन चले जाते और लक्ष्मण घर बेठे मौज करते रहते ? सीता, राम की पत्नी होकर भी क्या राजमहल के सुख भोगती रहती ? धर्म की कमोदी संकट के समय ही होती है। बल्कि संकट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] को ही धर्म की कसौटी समझना चाहिए । यह बात पहले तो मुनियों और सतियों को सोचनी चाहिए। उन्होंने माता-पिता का त्याग कर दिया है लेकिन क्या संसार के जीव अनन्त - अनन्त बार माँ-बाप न हो चुके होंगे ? वह मुनीम अपने पुराने सेठ की आबरू नहीं विग - ड़ना चाहता । तो क्या अपने पुराने माँ-बाप की आबरू बिगाड़ना उचित है ? लेकिन जब आत्मा का पतन होता है तो छह काय की दया उठ जाती है । मगर जो मनुष्य यह विचार करता है कि विश्व के समस्त प्राणी मेरे पुराने मित्र हैं, संबंधी हैं, सेठ हैं, वह प्राणी मात्र पर दया और प्रेम की भावना रखता है । वह त्रिकाल में कभी अनाथ नहीं होगा । [ जवाहर - किरणावली X X X X एक बार गृहस्थी का त्याग करके, साधु होकर फिर अनाथ अर्थात् इन्द्रियों का गुलाम बन जाता है, वह निरर्थक कष्ट मोल लेता है । इतना ही नहीं, वह अपनी श्रात्मा को नीचे गिराता है, अपने संघ की उज्ज्वल कीर्ति को कलंकित करता है और अपने धर्म को बदनाम करता है । सुना है, बन्दर को पकड़ने बाले लोग उसे पकड़ने के लिए जंगल में किसी लोहे के या लकड़ी के पात्र में, जिसका मुँह लकड़ा होता है, चने भर देते हैं। बन्दर उस पात्र में चने लेने के लिए हाथ डालता है और चनों से मुट्ठी भर लेता है। पात्र का मुँह इतना संकड़ा होता है कि उसमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेरके व्याख्यान ] [१३७ खाली हाथ तो आ जा सकता है, मगर मुट्ठी बँधा हाथ न घुस सकता है और न निकल सकता है । बन्दर मुट्ठी में चने लेकर हाथ निकालना चाहता है किन्तु हाथ निकलता नहीं। अगर बन्दर चनों का प्रलेाभन त्याग दे तो हाथ छुड़ा सकता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार बन्दर चनों के लोभ में पड़कर अपने लिए बंधन का निर्माण कर लेता है। वह चना छोड़ना नहीं चाहता और इसी कारण वंधन से मुक्त भी नहीं हो सकता। वह तड़फड़ाता रहता है और पकड़ने वाले उसे पकड़ लेते हैं। इसी प्रकार संसारी जीव स्वयं ही सांसारिक सुख-साधनों के प्रलोभन में पड़कर अपने लिए बंधन तैयार करते हैं । इसी तरह साधुवेषधारी असाधुओं में भोगविलास की लालसा विद्यमान रहती है। जैसे बन्दर चनों का त्याग नहीं कर सकता उसी प्रकार वे साधुवेषधारी असाधु भोगलालसा का त्याग नहीं कर सकते । मगर जैसे बन्दर पात्र से छुटकारा चाहता है उसी प्रकार वे भी आत्मा का कल्याण चाहते हैं। लेकिन जैसे बन्दर चनों का लोभ छोड़े विना छुटकारा नहीं पा सकता, उसी प्रकार साधु हो जाने पर भी संसार की भोगलालसा का त्याग किये बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। बड़े-बड़े ग्रंथकार कह गये हैं कि इस विषम काल में महापुरुषों के पन्थ पर चलना ही कल्याणकारी है। तोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विमिया को मुनियस्व व प्रमाणम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ जवाहर - किरणावली 1 धर्मस्य तस्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ अर्थात् - तर्क अस्थिर है। गेंद की तरह वादी प्रतिवादी के वचनों की ठोकर खाकर वह इधर-उधर लुढ़कता फिरत ( है। श्रुति स्मृति आदि के निर्माताओं की मति भिन्न-भिन्न होने से श्रुति स्मृति का कथन भी भिन्न-भिन्न है । इस भिन्न-भिन्न · कथन की गड़बड़ में लोग पड़ गये हैं और इस कारण धर्म का तत्त्व इतना दूर चला गया है मानों गुफा में छिप गया है । लोग विचार करते हैं कि इस काल में हम क्या करें ? सब मतों का अध्ययन करके अगर उनका निचोड़ निकालना चाहें तो यह संभव नहीं । संसार में इतने अधिक मत और पन्थ हैं और इतने अधिक ग्रन्थ एवं शास्त्र हैं कि सारी उम्र व्यतीत हो जाने पर भी उनके अध्ययन का अन्त नहीं सकता । ऐसी विकट परिस्थिति में आत्मा का कल्याण किस प्रकार किया जाय ? दुनिया की इस स्थिति में ग्रंथकार कहते हैं - घबराओ मत । जिस मार्ग पर महापुरुष चले हैं उसी मार्ग पर चलो और चलते ही रहो। उसी मार्ग पर चलने में कल्याण है । उस पर चलने से अकल्याण नहीं हो सकता । तत्र प्रश्न खड़ा होता है कि महापुरुष कौन ? प्रत्येक मत और पन्थ वाले अपने-अपने मत और पन्थ को महापुरुष का मत और पन्थ कहते हैं और वे परस्पर में विरोधी हैं। ऐसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [१३६ --- ---- स्थिति में महापुरुष का मार्ग कौन-सा समझा जाय ? किस पर चले ? जैनसिद्धान्त इस प्रश्न का जो उत्तर देता है, वह इतना व्यापक है कि उसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। जैनसिद्धान्त कहता है कि महापुरुष वह है जिसमें राग और द्वेष न हो । अर्थात् जिसने गग आदि आत्मिक दोषों को पूर्ण रूप से जीत लिया हो और दोषों को जीतने के फलस्वरूप जिसमें पूर्ण ज्ञान उत्पन्न हो गया हो वही महापुरुष है। प्रश्न का अन्त फिर भी नहीं होता। अब यह आशंका उठ सकती है कि निर्दोष और पूर्ण ज्ञानी कौन है ? लेकिन आत्मा में ऐसी शक्ति विद्यमान है कि वह महापुरुष को फौरन पहचान सकती है। आप लोग महापुरुष की खोज इसलिए करना चाहते हैं । कि आपके दोष महापुरुष का उपदेश मिलने से नष्ट हो जाएँ । तो इन दोषों के सहारे ही महापुरुष का पता लगाया जा सकता है। आपमें काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष हैं । इन दोषों का नाश करने के लिए ही आप महापुरुष की खोज करते हैं तो समझा जा सकता है कि जिसमें यह दोष न हो वही महापुरुष है। जिसमें राग-द्वेष होंगे उसके वचन सदोष होंगे और जो राग-द्वेष से मुक्त है उसके वचन मी निर्दोष हैं । उन वचनों को ग्रहण करने से हमारा कल्याण होगा? कहा जा सकता है कि क्या सभी साधु वीतराग हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] जवाहर - किरणावली अगर साधु ऐसा समझलें या कहें तो समझना चाहिए कि वे दंभ और अहंकार से घिरे हैं। उन्हें विचारना चाहिए कि हम महापुरुष के ग्रन्थ पर जा रहे हैं और दूसरों से भी वे यही कहें कि हम महापुरुष के पंथ पर चल रहे हैं । तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी इसी पन्थ पर श्री जाओ । यह पन्थ हमारा नहीं है, महापुरुषों का है। महापुरुष इसी पन्थ पर चले हैं और जगत् के जीवों को इसी पर चलने की प्रेरणा कर गये हैं। साधु अगर ऐसा समझें और प्रकट करें तो समझना चाहिए कि वे सच्चे साधक हैं । 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान और चारित्र -~-::::::::-- संसार की समस्त शिक्षाओं का सार ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति करना है। चारित्र को आचरण भी कहते हैं, मगर सूक्ष्य दृष्टि से विचार करने पर दोनों में थोड़ा सा अन्तर भी दृष्टिगोचर होता है । चारित्ररूप गुणों की आराधना करने की जो विधि बतलाई गई है उस विधि के अनुसार चारित्र को पालन करना आचरण कहलाता है। विधिपूर्वक चारित्र का पालन न करने से काम नहीं चलता। विधिपूर्वक चारित्र के पालन करने का अर्थ यह है कि चारित्र का पालन ज्ञानपूर्वक ही होना चाहिए । ज्ञान के साथ पाला जाने वाला भाचार ही उत्तम आचार है। वही आचार सफल होता है। ज्ञानहीन प्राचरण और आचरणहीन शान से उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। कल्याण को अगर रथ मान लिया जाय तो शान और चारित्र उसके दो पहिये हैं। दोनों की किस प्रकार आवश्यकता है, यह बात एक दृष्टान्त द्वारा समझना ठीक होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [ जवाहर - किरणावली किसी वृक्ष के नीचे एक अन्धा और एक पंगु मनुष्य बैठा है । वृक्ष में फल लगे हैं। दोनों फलों के इच्छुक हैं ! लेकिन अन्धे को फल दिखाई नहीं देते और पंगु फलों को देखता हुआ भी वृक्ष पर चढ़ने की शक्ति से रहित है । यह दोनों जब तक अलग-अलग विचार कर रहे हैं तब तक फलों की अभिलाषा रखते हुए भी फलों से वंचित ही रहते हैं । लेकिन पंगु ने अन्धे से कहा- भाई, तेरे पैरों में शक्ति है । अगर तु मुझे अपने कंधे पर बिठला ले तो मैं ऊँचा हो जाऊँगा और फल तोड़ लूँगा । ऐसा करने से मेरी और तेरी दोनों की तृप्ति हो जायगी । -- इन दोनों का संयोग ही इनके लिए कल्याणकारी हो सकता है। अगर अंधा, पंगु को ऊँचा उठाने से इन्कार कर दे और पंगु, अंधे को फल देना अस्वीकार कर दे तो दोनों को भूखे मरना पड़ेगा । शास्त्र में चारित्र की बड़ी महिमा प्रकट की गई है । लेकिन कोई अगर कोरी क्रिया को ही पकड़ कर बैठ जाय और वह क्रिया ज्ञानयुक्त न हो तो जैसे अंधे और पंगु के सहयोग के बिना फल की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान के संयोग के बिना की जाने वाली क्रिया से भी फल की प्राप्ति नहीं होती। निरे चारित्र का मार्ग अंधा है । ज्ञान के अभाव में उसे मुक्ति रूपी फल नहीं सूझता । दशबैकालिक सूत्र में कहा हैःप्राणी किं काही किं वा माईहि ऐथपावकं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकनेर के व्याख्यान [१४३ ___...- ------ अर्थात्-बेचारा अज्ञानी जीव क्या कर सकता है ? वह अपने कल्याण और अकल्याण को कैसे समझ सकता है ? इसलिए उक्त सूत्र में आगे कहा गया है __ पढमं नाणं तो दया एवं चिटुइ सन्वसंजए । अर्थात् -पहले ज्ञान की आराधना करनी चाहिए और उसके बाद चारित्र की अाराधना हो सकती है। सभी संय - मवान् महापुरुष ऐसा ही करते हैं। वे बिना शान के चारित्र की आराधना करना संभव नहीं मानते। इस प्रकार चारित्र की आराधना करने से पहले ज्ञान की आराधना करना अावश्यक बतलाया गया है । वास्तव में ज्ञान के बिना सम्य-- चारित्र की आराधना हो ही नहीं सकती। इसी प्रकार चारित्र से रहित अकेला शान पंगु है । चारित्र की सहायता के बिना उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि अगर कोई सिर्फ क्रिया को ले बैठे और ज्ञानगुण की अवहेलना कर दे तो वह अंधे की तरह भटका-मटका फिरेगा और उसे उस फल की प्राप्ति नहीं हो सकती जिसे वह प्राप्त करना चाहता है। इसी तरह अगर किसी ने शान पाकर चारित्र की अवहेलना कर दी तो वह भी सिद्धि से वंचित रहेगा। शास्त्र में कहा है भयंता, अकरिता य बंधमोक्खपइणिणो। वायावीरियमित्तणं समासासेन्ति अप्पर्य ॥ अर्थात्-शान से ही बन्ध और मोक्ष मानने वाले लोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] [ जवाहर - किरणावली कहते तो हैं पर करते नहीं हैं। वे अपनी वाणी की वीरता मात्र से अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं । तात्पर्य यह है कि जिन्होंने ज्ञान तो प्राप्त कर लिया है किन्तु जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करते और जो ज्ञान से ही बन्ध-मोक्ष मानकर तसल्ली कर लेते हैं वे अपनी आत्मा को धोखा देते हैं और दूसरों को भी धोखा देते हैं । इसीलिए शास्त्रकार आगे चलकर कहते हैं न चित्ता तायए भासा, कुचो विज्जाणुलासचं । अर्थात् - अपनी पंडिताई का अभिमान करने वाले चारित्रहीन व्यक्ति नाना प्रकार की भाषाएँ भले ही जानते हों मगर वे भाषाएँ दुःख से उनकी रक्षा नहीं कर सकतीं। इसी प्रकार विद्य। एँ और व्याकरण आदि शास्त्र भी उनकी रक्षा कैसे कर सकते हैं ? इस प्रकार न तो ज्ञानविकल पुरुष सिद्धि पाता है और न क्रियाविकल पुरुष सिद्धि पाता है । जब ज्ञान और क्रिया का संयोग होता है तभी मुक्ति मिलती है। जो लोग ज्ञानहीन हैं और थोथी क्रिया को ही लिए बैठे हैं उन्हें ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । ज्ञान के अभाव में वे भ्रष्ट हुए विना नहीं बच सकते । और जो लोग अकेले ज्ञान को ही लेकर बैठे हैं और क्रिया को निरर्थक मानते हैं उन्हें क्रिया का भी आश्रय लेना चाहिए । क्रिया के विना वे भी भ्रष्ट हुए विना नहीं रहेंगे । यहाँ तक जो कुछ कहा गया है वह आत्मिक कल्याण की दृष्टि से ही कहा गया है। मगर चात्मिक कल्याण के लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१४५ संसार पर भी दृष्टि देना आवश्यक है। संसार पर दृष्टि दिये विना आत्मिक कल्याण नज़र नहीं आता। आज संसार में एक मनोभावना सर्वत्र दिखाई देती है और वह यह है कि लोम फल तो चाहते हैं लेकिन क्रिया करना नहीं चाहते। पंगु को दया से प्रेरित होकर अगर कोई फल दे भी दे तो भी रहेगा वह पंगु ही। अंधे का सहाग लेकर फल तोड़ लेने में पंगु को जो आनन्द मिल सकता है वह आनन्द दूसरे के फल देने से नहीं मिल सकता । जिस दिन उसे दूसरा फल नहीं देगा उसी दिन वह दुःख फिर पंगु के सामने आ खड़ा होगा। आप लोग पगड़ी बाँधते हैं और धोती पहनते हैं। इस क्रिया का फल आप यही समझते हैं कि आप संसार-व्यवहार में अच्छे दिखलाई दें। ठीक दीखने के लिए आप जो धोती और पगड़ी पहनते हैं, उसे अगर अपने हाथ से पहन सकें तब तो ठीक है: कदाचित् दूसरे के हाथ से पहना करें तो क्या ठीक होगा? आज आपको सभी प्रकार की सुविधा प्राप्त है तो दूसरे के हाथ से आप पोशाक पहन सकते हैं। कल अगर ऐसी सुविधा नहीं हुई तो क्या होगा? क्या उस समय आपमें दीमता की भावना जागृत नहीं होमी ? प्राप विषाद में नहीं डूब जाएँगे? इस बात पर गहराई के साथ विचार करने पर श्रापको मालूम होगा कि खतंत्रता का मूल्य क्या है ? अगर आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [ जवाहर - किरणावली • सावधान होकर देखें तो आपको पता चलेगा कि आपके सब काम पराधीन हैं। भोजन खाना तो आपमें से सभी को श्राता है, लेकिन भोजन बनाना कितनों को आता है ? आप नौकर के सहारे ही भोजन खाना जानते हैं। कदाचित् रसोइया ने अचानक जबाब दे दिया तो क्या होगा ? कहा जा सकता है कि ऐसी दशा में पत्नी भोजन बना देगी । परन्तु विदेश में, जहाँ पत्नी न हो, क्या करेंगे ? अथवा कल्पना करे। कि घर में पति-पत्नी दो ही हैं और पत्नी बीमार हो गई तब क्या होगा ? ऐसे समय में भोजन बनाकर कौन देगा ? मगर लोग तो इस भ्रम के शिकार हो रहे हैं कि हाथ से काम नहीं करेंगे तो पाप से बच जाएँगे ! मगर क्या यह पाप से छूटने का रास्ता है ? इस प्रकार की परतंत्रता से किसी बात में सिद्धि नहीं मिलती । सिद्धि प्राप्त करने का या पाप से छुटकारा पाने का मार्ग निराला है । भोजन के विषय में आपकी जैसी स्थिति है वैसी ही अन्न, वस्त्र आदि के विषय में भी है । ग्राप चाहते सभी कुछ हैं मगर स्वाधीन किसी भी चीज़ के लिए नहीं हैं । जैसे पंगु पड़े-पड़े भीख माँगा करने हैं, उसी प्रकार आप इन सब वस्तुओं की इच्छा रखते हैं। पंगु और अन्धे को माँगने पर कभी-कभी कोई दे भी देता है मगर उस देने से क्या उनमें स्वाधीनता श्रा जाती है ? 'नहीं !' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१४७ इसी प्रकार दूसरों की सहायता से आपको भोजन, वस्त्र, अन्न आदि मिल जाय तो भी आप स्वतन्त्र नहीं हो सकते । बल्कि इस परतंत्रता के कारण आपको इन चीज़ों की क्रिया से घृणा हो गई है। आप भोजन और वस्त्र बनाने वाले को नीची निगाह से देखते हैं और उनका उपयोग करने वालों का आदर करते हैं ! आपके खयाल से कपड़ा बनाना नीच का काम है और पहनना ऊँच का काम है। मित्रो ! क्या यही समदृष्टि का लक्षण है ? आप जिस वस्तु का उपयोग करते हैं, उस वस्तु को बनाने आदि की क्रिया न जानने से अर्थात् स्वतन्त्रता को भूल जाने से आज धर्म में भी गुलामी हो रही है। आपमें से बहुतों को धर्म भी वही रुचिकर होगा जिसके सुनने पर क्रिया न करनी पड़े। मगर विचार करना चाहिए कि क्या यह उचित है ? मित्रो ! आपको स्वाधीनता का महत्त्व समझना चाहिए । कोरी बाते बनाकर संसार पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयत्न करना सचे शान का फल नहीं है। ज्ञानी वह है जो प्रत्येक बात पर गहराई से, तात्विक दृष्टि से विचार करता है । जैनशास्त्र में ऐसा एक भी बड़े आदमी का उदाहरण नहीं मिलेगा, जिसने दूसरों पर हुक्म चलाया हो और आप निरुयोगी होकर बैठा रहा हो। राजकुमार मेघ के उदाहरण को लीजिए । उसने जीवनोपयोगी बहत्तर कलाओं का अध्य. यन किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [जवाहर-किरणावली चन्द्रमा की बड़ाई कला से ही है। अमावस्या के दिन चंद्रमा कहीं दूसरे लोक में नहीं चला जाता। सिर्फ उसमें कला नहीं रहती। इसलिए आपको सोचना चाहिए कि जिसमें कला न होगी वह अमावस्या के चन्द्रमा के समान होगा अथवा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान होगा? मेघकुमार ने बहत्तर कलाएँ सीखकर स्वतंत्र जीवन का बोध प्राप्त कर लिया था। उन्हें भोजन बनाना, वस्त्र, बनाना, घर बनाना, आभरण बनाना आदि प्रत्येक जीवनोपयोगी कला का भलीभांति ज्ञान था। __ मेघकुमार घर बनाना आदि समस्त कलाओं में पारंगत थे तो बने रहते । शास्त्र में इन सब बातों का उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी ? इसका उत्तर यही है कि शास्त्र में यह चरित देकर बतलाया गया है कि इस प्रकार का जीवन कभी परतंत्र नहीं हो सकता। मगर आपमें से अधिकांश लोग ऐसे निकलेंगे जो ऐसी एक भी क्रिया शायद न जानते होंगे जो जीवन की स्वतंत्रता के लिए उपयोगी हो । अलबत्ता कपट क्रिया करके पैसा कमाना लोग जानते हैं । लेकिन ऐसी क्रिया से पैसा इकट्ठा करने वाले के पास जब किसी कारण से पैसा श्राना बन्द हो जाता है, तब उसे हाय हाय करने के सिवाय और क्या चारा रह जाता है? आज जो हाय हाय मची हुई है, उसका प्रधान कारण यही है कि आज के लोगों का व्यापार भी स्वतंत्र नहीं है । जोपर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ami Gyanbhandar-Umara, Surat Www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १४६ तंत्र जीवन में ही जीवन का आनन्द मानते हैं, उन्हें क्रिया का महत्व कैसे मालूम हो सकता है ? लेकिन विना क्रिया के स्वतंत्रता नहीं है और स्वतंत्रता न होने के कारण हाय-हाय मची है । अगर आप पराधीनता और परावलम्बन का त्याग नहीं कर सकते तो कम से कम पराधीनता पर गर्व करना तो त्याग सकते हैं ! आप उत्तम स्वादिष्ट भोजन करके गर्व करते हैं, लेकिन समझ नहीं आता कि आपके गर्व का आधार क्या है ? आपने दूसरे का दिया खाया है, फिर गर्व क्यों ? गर्व हो तो भोजन बनाने वाली बाई को है। सकता है । वह सोच सकती हैं कि मैंने बढ़िया भोजन बनाकर दूसरों का पेट भरा है ! आप किस बात पर अहंकार कर सकते हैं ? और असल में उस बाई को भी गर्व करने का अधिकार नहीं है; क्योंकि उसने अन्न पैदा नहीं किया है । अन्न किसान पैदा करता है । कदाचित् किसान का गर्व समझ में आ सकता है। आप अपनी असमर्थता पर, पराधीनता पर और परावलम्बन पर गर्व करें तो आपकी मर्ज़ी ! मित्रो ! आपका ज्ञान, क्रिया को छोड़कर खाने-पीने में ही कल्याण समझ बैठा है और इसी कारण आप अहंकार करते हैं । अहंकार के बदले आत्मनिन्दा करो और तत्त्व की गहराई में जाकर विचार करो तो आपका अहंकार बिलीन हो जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] [ जवाहर-किरणावली आज मैं आपका अात्मसाक्षी बनकर आपकी ओर से अापकी निदा करता हूँ। मैं पूछता हूँ कि आप जिन आलीशान हवेलियों का गर्व करते हैं, उन्हें आपने बनाया है ? अगर उनका एक भी पत्थर खिसक जाय तो उसे भी आप नहीं जमा सकते । फिर गर्व का आधार क्या है ? इस तरह दूसरों के बनाये नकान में रहना परतंत्रता है-गुलामी है। इसमें स्वतन्त्रता कहाँ है ? बहिनें बँगड़ियाँ पहन कर हाथ कड़ा रखती होंगी, लेकिन मैं पूछता हूँ कि बँगड़ी में से एक भी मोगरा निकल जाय तो क्या वे उसे बना कर जड़ सकती हैं ? अगर नहीं जड़ सकतीं तो गर्व किस विरते पर ! यों तो गौरैया (गौरगौरी) पुतली को भी गहने पहनाये जाते हैं, लेकिन वह क्या गर्व कर सकती है? वह गर्व कैसे करे ? उसे तो दूसरों ने गहने पहनाये हैं। इसी प्रकार जो बहिनें दूसरों के दिये कपड़े पहनती हैं वे भी कैसे गर्व कर सकती हैं । बहिनो! आप अपनी आत्मा को ऐसी शिक्षा दीजिए कि वह पुकार उठे-'हे आत्मा ! तुझे धिक्कार है, जो तू दूसरों की दी हुई वस्तुओंपर गर्व करती है !' . ___ कपड़ा बनाने वाला दूसरा, सिलाई करने वाला दूसरा और धोने वाला दूसरा है। ऐसी दशा में पहनने वाला गर्व क्यों करता है ! अगर तुम्हारे लिए काम करने वाले लोग अपना-अपना काम बन्द कर दें तो कैसी बीतेगी ? जब तुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १५१ उनकी कल नहीं जानते तो उनके काम बन्द कर देने पर रोना स्वाभाविक हैं । बहिनें जो कपड़ा पहनती हैं उनमें क्या एक भी ऐसा है जो उनका खुद का बनाया हो ? 'नहीं !' पहले की रानियाँ चौंसठ कलाओं में निपुण होती थीं । वें शस्त्र बाँधकर लड़ने नहीं जाती थीं लेकिन किसी ऐसी चीज़ का उपयोग भी नहीं करती थीं. जिसे बनाना उन्हें न आता हो । वे नये-नये कला कौशल निकाल कर अपने वस्त्राभूषण सजाया करती थीं। आज की स्त्रियाँ यह सब कहाँ करती हैं ? दर्जी मशीन से बेलवूटे निकाल देता है और ये पहनकर अभिमान करती हैं कि ऐसी चीज़ उसके पास नहीं है, मेरे पास है ! लेकिन बहिनो ! जरा विचार करे। कि तुम्हारा क्या है जिस पर तुम गर्व करती हों ! भाइयो! आप मुझे अपना धर्मगुरु मानते हैं । इसलिए मैं कहता हूँ आप अभिमान का त्याग करें। मैं आपको निरभिमान देखना चाहता हूँ। चक्रवर्ती भी, जो स्वयं कपड़ा बनाने की कला में कुशल होते थे, कपड़ों का अभिमान नहीं करते थे; तो आप जो कपड़ा बनाना ही नहीं जानते, कैसे श्रभिमान कर सकते हैं ! प्रत्येक वस्तु का उपयोग करते समय यह विचार कर लो कि यह वस्तु मैंने बनाई है या नहीं । और साथ ही यह सोच लो कि जब मैंने नहीं बनाई है तो फिर अभिमान कैसा ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] [जवाहर-किरणावली अगर आप खाने का अभिमान करते तो तो कीड़े-मकोड़े क्या आपसे अधिक अभिमान नहीं कर सकते ? मिष्टान्न में पड़ने वाले कीड़ अापको बुरे क्यों लगते हैं ? इसलिए कि मिष्टान्न उन्होंने बनाया नहीं और पा कैसे गये? लेकिन यही बात आप अपने विषय में भी सोचिये। आप स्वयं कीड़ों के समान बन रहे हैं या नहीं ? भाइयो और वहिनो ! आज की मेरी इस बात को याद रक्खो कि ज्ञानयुक्त क्रिया के विना और क्रियायुक्त ज्ञान के दिना धर्म और संसार को नहीं जान सकते । अतएव जो भी क्रिया सामने आवे उस पर विचार करो कि यह क्रिया मैंने की है या नहीं ? अगर नहीं की है तो उस पर में अमिमान कैसे कर सकता हूँ ! इस प्रकार विचार कर उस क्रिया का बदला देने की भी चिन्ता रक्खो। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो सिर पर ऋण चढ़ा रहेगा। जिस प्रकार होटल में भोजन करने पर कीमत चुकानी पड़ती है, उसी प्रकार क्रिया का बदला देना भी उचित है। श्राज श्राप सीधा खाते हैं तो यह मत समझिए कि यह अापको यों ही मिल गया है। आप को जो प्राप्त होता है वह आपकी किसी क्रिया का फल है। इसे खाकर अगर आपने संसार और धर्म की सेवा न की तो समझ लीजिए कि आपने अपनी संचित पूंजी गँवा दी है। कोई भी विचारवान् व्यक्ति दीवालिया बनना पसंद नहीं करता। लेकिन पुण्य के विषय में यह बात क्यों लाती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १५३ पुण्य रूपी पूंजी को भोगने वाले उसे घटने नहीं देने का विचार क्यों नहीं रखते ? आप पाखाने में शौच जाते हैं या नहीं ? 'जी हाँ !" कभी पाखाने को साफ भी करते हैं ? 'नहीं !' अगर एक दिन भी पाखाने की सफाई न की जाय तो क्या होगा ? ऐसे पाखाने को आप साफ नहीं करते और जो साफ करता है उसे आप क्या समझते हैं ? 'नीच !' फिर भी लोग दावा करते हैं कि हम ज्ञान और क्रिया को समझते हैं ! जो पाखाने को स्वच्छ बनाता है वह तो ऊँचा है और जो स्वच्छ करता है नीच है ! क्या यही ज्ञान और क्रिया का समझना कहलाता है ? ऐसी समझ को क्या कहा जाय ! कदाचित् आपका यह खयाल हो कि आप पुण्यवान् हैं और भंगी पुण्यहीन है। तो आप जब बालक थे तब आपकी माता ने क्या आपकी अशुचि न उठाई होगी ? क्या इस कारण आपकी माता पुण्यहीन हो गई ? और श्राप पुण्यवान् हुए ? मित्रो ! आपकी स्वतंत्रता लुट गई है, फिर भी अगर आप निरभिमानी बनें तो किसी न किसी रूप में दुनिया की सेवा में आ सकते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] . [ जवाहर - किरणावली संसार में सब से बड़ा काम भंगी का है। भंगी चाहें तो एक ही दिन में आपकी हवेली नरक की याद दिलाने लगे, . नगर नरक बन जाय और आप घबरन उठे । जो लोग स्वतंत्र हैं और जंगल में टट्टी जाते हैं वे ते। कदाचित् न भी घब रावें, मगर बड़े कहलाने वाले लोग सब से पहले घबरा जाएँगे । तात्पर्य यह है कि समाज के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य को करके शांति कायम करने वालों के प्रति आपको कृतज्ञ होना चाहिए । अगर आपमें कृतज्ञता नहीं है तो कम से कम उन्हें घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से तो मत देखिए । लोग अंधेरे में पड़े हुए हैं; इसलिए उन्हें उजेले में लाने के लिए मैं कहता हूँ कि जिस तरह मैं सब संतों से प्रेम करता हूँ. उसी तरह आप भी ऊँच-नीच का भेद छोड़ कर सब से प्रेम करो और उन्हें अपना सहायक समझे । आप हमेशा पढ़ते हैं मित्ती मे सम्बभूएसु, बेरं मज्म न केणई । अर्थात् समस्त प्राणियों पर मेरा मैत्रीभाव है । मेरा किसी के प्रति वैरभाव नहीं है । इस पाठ के अनुसार नरक में पड़े हुए जीव क्या आपके मिंत्र नहीं हैं ? मगर ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि पास के जीवों को भूल जाओ और जो नरक में पड़े हैं, सिर्फ उन्हीं को मित्र मानने लगा । अगर रोटी बना कर देने वाले पास के मनुष्य को आप नीच मानेंगे तो नरक के जीवों को किस प्रकार मित्र समझ सकेंगे १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१५५ मित्रो ! समय को देखो। युगंधर्म को पहचानो। अपनी बुद्धि को विवेक के मार्ग पर चलायो । ज्ञान के द्वारा निर्धारित किये हुए काम को करने वाले ही विजयी हो सकते हैं । ज्ञान से निर्णय किये बिना ही काम करने वाले बिजय नहीं प्राप्त कर सकते । अतएव ज्ञान की बड़ी महिमा है। ज्ञान के बाद ही सम्यक क्रिया पाती है। शास्त्रकारों ने ज्ञान को पहले स्थान दिया है और उसके बाद क्रिया को। आप लोग आज ज्ञान को भूल रहे हैं, ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं समझते और कद्र भी नहीं करते, लेकिन ज्ञान से उत्तम कोई वस्तु नहीं है। गीता में भी कहा है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । इस संसार में ज्ञान के समान और कोई पवित्र वस्तु नहीं है। ज्ञान सर्वोत्कृष्ट वस्तु है और अखिल कर्म की समाप्ति शुद्ध ज्ञान में ही हो जाती है। जैनसिद्धान्त के अनुसार विचार किया जाय तो इस बात में और ही तत्त्व निकलता है। स्याद्वाद सिद्धान्त का उपयोग किये विना किसी भी बात का मर्म पूरी तरह समझ में नहीं श्रा सकता। जैनसिद्धान्त के अनुसार तेरहवें गुणस्थान को छोड़कर चौदहवें गुणस्थान में जाने पर क्रिया का नाश हो जाता है.। उस समय क्रिया नहीं रहती। साथ जाने वाली चीज़ शाम के सिवाय और नहीं है। भगवती सूत्र में एक प्रश्नोत्तर पाता है। गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न कियाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [ जवाहर-किरणावली 'भगवन् ! ज्ञान इसी भव में साथ रहता है या परभव में भी?' भगगन ने उत्तर दिया-'इस भव में भी साथ रहता है और परभव में भी साथ रहता है।' मतलब यह है कि क्रिया की समाप्ति ज्ञान में हो जाती है। अतएव ज्ञान के समान अन्य कोई भी वस्तु नहीं है। मगर यह मत भूल जाना कि ज्ञान की पवित्रता को जान लेने मात्र से ही ज्ञान नहीं होता। ज्ञानी पुरुषों का चारित्र तो उनके अंतिम शरीर के साथ समाप्त हो गया है, परन्तु उस चारित्र का ज्ञान अभी तक मौजूद है। आप ज्ञान से ही भगवान् महावीर को पहिचानते हैं। लेकिन आज हँसी-मज़ाक में ज्ञान का नाश हो रहा है। आज बालकों और युवकों के दिमाग में ज़हर भरने वाले, कुवासनाओं को उत्तेजित करने वाले उपन्यासों के ढेर लग रहे हैं। इन्हें शान या ज्ञान का साधन समझ लेना विष को पीयूष समझ लेता है। यह पुस्तकें भुलावे में डालने वाली हैं । इनसे भारतवर्ष की पवित्र संस्कृति का सत्तानाश हो रहा है । जिसके प्रताप से कार्य की सिद्धि हो जाने पर कर्म मात्र का परित्याग हो जाय वही सच्चा झान है। गीता का एक श्लोक है ___ यत्र योगेश्वरः कृष्णो यन्त्र पार्थो धनुर्धरः। . अर्यात्-योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन जिस ओर हैं, उसी ओर विजयश्री, ध्रुव नीति आदि हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकनेर के व्याख्यान [१५७ ___ गांधीजी ने धनुर्धर अर्जुन का अर्थ 'क्रिया' किया है और योगेश्वर कृष्ण का अर्थ 'ज्ञान' किया है। योगेश्वर कृष्ण के आदेश से अर्थात् ज्ञान के आदेश से क्रिया जहाँ की जायगी वहीं सफलता प्राप्त हो सकेगी। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत भारपूर्वक लिखा है कि आज हम लोग योगाध्याय से निकलकर गड़वड़ाध्याय में पड़ गये हैं। आज हमारे लिए पुस्तकें पढ़कर समझना कठिन हो गया है कि वास्तविक ज्ञान क्या है ? इस ज़माने में भी बहुत लोग हैं जो कहते हैं कि पढ़ेलिखे आदमी ज्यादा खराब होते हैं, इसलिए पढ़ाना बुरा हैं। स्त्रियों को तो मूर्ख रहना ही अच्छा है। उन्हें ज्ञान सिखाने से हानि होती है। ___मैं पूछता हूँ कि यह अक्षरविद्या पुरुषों से तो निकली नहीं है, स्त्रियों से ही निकली है, फिर अक्षरज्ञान को पैदा करने वाली स्त्रियां ही अक्षरशान न पढ़ें, इस विधान का कारण क्या है ? भगवान् ऋषभदेव की दो कन्याएँ थीं। एक का नाम ब्राह्मी और दूसरी का नाम सुन्दरी था । भगवान् ने सर्वप्रथम दोनों पुत्रियों को अक्षरमान सिखलाया था । इन दोनों के नाम से ब्राह्मी लिपि और सुन्दरी गणित नाम प्रचलित हुआ। आप लोग आज स्त्रियों को पढ़ाना हानिकारक समझते हैं तो क्या आप लोगों में भगवान् ऋषभदेव से अधिक बुद्धि है ? ब्राह्मीलिपि के बावन अक्षरों का ही यह प्रताप है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] [ जवाहर - किरणावली I कि आप हजारों लाखों वर्ष पूर्व की बात जान रहे हैं। एक अंगरेज विद्वान् ने ब्राह्मीलिपि के बावन अक्षरे की तुलना जहाज के साथ करते हुए लिखा था कि ये बावन अक्षर जहाज हैं । जैसे जहाज एक द्वीप का माल दूसरे द्वीप में पहुँचाता है उसी प्रकार यह बावन अक्षर पूर्वकालीन पुरुषों की बातें हमारे पास पहुँचाते हैं । इन बावन अक्षरों की ही महिमा है कि हम अपने पूर्वजों के चरित और ज्ञान-विज्ञान को आज जान सकते हैं । मित्रो! जिसे शास्त्र रूपी चतु प्राप्त नहीं है वह अंधा है । हजारों वर्ष पहले की बातें शास्त्र द्वारा ही जानी जा सकती हैं । दूर से दूर की बातें भी शास्त्र ही बतलाता है । भगवान् ऋषभदेव आदि का चरित आपने कैसे जाना ? सिद्धशिला, नरक और स्वर्ग का वृत्तान्त आपको कैसे विदित हुआ ? इन सब वस्तुओं को इस भव में आँखों द्वारा नहीं देखा है। शास्त्रों से ही इनका ज्ञान हुआ है । अगर बावन अक्षरों का शास्त्र हमारे आपके सामने न होता तो क्या दशा होती ? हम लोग न जाने किस बीहड़ अंधकार में भटक रहे होते । मगर ब्राह्मी लिपि का ही यह प्रताप है कि हमें उस अंधकार में नहीं भटकना पड़ रहा है और हमें ज्ञान का आलोक प्राप्त है । ब्राह्मी कन्या थी, पुरुष नहीं थी । फिर आज की कन्याएँ पढ़ने-लिखने से किस प्रकार बिगड़ जाएँगी ? श्रापको जो बात सूझ रही है वह क्या भगवान् ऋषभ देव को नहीं सूझी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १५६ थी? अगर भगवान् आपसे अधिक ज्ञानी थे तो उन्होंने ब्राह्मी को लिपिज्ञान क्यों दिया ? __ एक सम्प्रदाय वालों का कहना है कि साधुओं के सिवाय औरों को खाने को देकर शस्त्र तीखा मत करो। भोजन देने से शस्त्र तीखा हो जाता है और भूखों मारने से मोटा (मोंथरा) हो जाता है। किन्तु यह कथन अज्ञानपूर्ण है। इनके कथनानुसार अगर एक महिला यह विचार करती है कि मेरी लड़की के आँखें होंगी तो वह पुरुषों को देखेगी। देखने पर नीयत बिगड़ जाना भी संभव है। इस प्रकार आँखें रहने से शस्त्र तीखा होगा। ऐसा विचार करके वह महिला अपनी लड़की की आँखें फोड़ डाले तो आप उसे क्या कहेंगे? 'पापिनी!' जो महिलाएँ अपनी लड़की की आंखों को अच्छी रखने के लिए लड़की की आंखों में काजल आंजती हैं, वे बहिनें उसकी मां हैं या शत्रु ? 'मां!' मगर खाने को देने से शस्त्र तीखा होता है, ऐसा कहने वालों की श्रद्धा के अनुसार तो वह बहिन लड़की की आंखों में काजल लगाकर शस्त्र तीखा कर रही है ! इसलिए न लड़की को खिलाना चाहिए और न आंखों में अंजन ही प्रांजना चाहिए। फिर तो उसे ले जा कर कहीं समाधि करा देना ही ठीक होगा ! कैसा अनोखा विचार है ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] [जवाहर-किरणावली लड़की की माता को पहले ही ब्रह्मचारिणी रहना उचित था। तब मोह होने का प्रश्न ही उपस्थित न होता। लेकिन जब मोहवश होकर सन्तान उत्पन्न की है तो लालन-पालन करके उल मोह का कर्ज भी चुकाना है। इसी कारण शास्त्र में मातापिता और सहायता करने वाले को उपकारी बतलाया है। भगवान् ने कहा है कि सन्तान का लालन-पालन करना अनुकम्पा है। .. सारांश यह है कि जो माता अपनी कन्या की आंखें फोड़ दे उसे आप माता नहीं वैरिन कहेंगे। लेकिन हृदय की आंखें फोड़ने वाले को आप क्या कहेंगे ? कन्याशिक्षा का विरोध करना. वैसा ही है जैसे अपनी संतति की खांखें फोड़ देने में कल्याण मानना । जो कन्याओं की शिक्षा का विरोध करते हैं वे उनकी शक्ति का घात करते हैं। किसी की शक्ति का घात करने का किसी को अधिकार नहीं है। हाँ, शिक्षा के साथ सत्संस्कारों का भी ध्यान रखना आवश्यक है। कन्याओं की शिक्षा की योजना करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि कन्याएँ शिक्षिता होने के साथ सुसंस्कारों से भी सम्पन्न बनें और पूर्वकालीन सतियों के चरित्र पढ़कर उनके पथ पर अग्र-, सर होने में ही अपना कल्याण मानें । यह बात तो बालकों की शिक्षा के संबंध में भी आवश्यक है। ऐसी दशा में कन्याओं की शिक्षा का विरोध करना उनके विकास में बाधा डालना और उनकी शक्ति का नाश करना है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१६१ लोग कहते हैं कि लड़की को क्या हुँडियां लिखनी हैं जो वह पढ़ाई करे ! परन्तु ब्राह्मी को क्या हुंडियां लिखनी थीं जो वह पढ़ी? ब्राह्मी तो ब्रह्मचारिणी ही रही थी। भगवान् को चिन्ता हुई कि मैं ऐसी दिव्य कन्या को दूसरे को सौंपूँगा और वह इसका नाथ बनेगा? ब्राह्मी अपने पिता की चिन्ता को समझ गई। उसने कहा-पिताजी, आप चिन्ता क्यों करते हैं ? हमारे रोम-रोम में शील बसा हुआ है । हमें सुसराल का नाम लेने में ही लज्जा मालूम होती है। ब्राह्मी अगर विद्या न पढ़ी होती तो क्या ऐसा कह सकती थी? 'नहीं!' बहुत से लोगों की धारणा है कि लिखने-पढ़ने से लड़कोंलड़कियों का बिगाड़ होता है। लेकिन विना पढ़े-लिखे लोग क्या बिगड़ते नहीं हैं ? नुकसान क्या पढे-लिखे ही करते हैं और विना पढ़-लिखे नहीं करते? ग्रंथकारों का कथन है कि झानी के द्वारा कोई भूल हो जाय तो वह जल्दी समझ जाता है । मगर मूर्ख तो नुकसान करके भी प्रायः नहीं समझता। भगवान् ने कहा है कि अगीतार्थ साधु चाहे सौ वर्ष का हो, फिर भी उसे गीतार्थ साधु की नेशाय में ही रहना चाहिए। पञ्चीस साधुओं में एक ही साधु अगर आचारांग और निशीथमूत्र का जानकार हो और वह शरीर त्याग दे, तो भादौं का महीना ही क्यों न हो, शेष चौवीस को विहार करके प्राचारांग और निशीथसूत्र के ज्ञाता मुनि की देखरेख में चले जाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [जवाहर-किरणापली चाहिए। अगर उनमें दूसरा कोई साधु आचारांग निशीथ का ज्ञाता हो तो उसे अपना मुखिया स्थापित करना चाहिए । मतलब यह है कि शिक्षा के साथ उच्च क्रिया लाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए मगर मूर्ख रहना किसी के लिए भी उचित नहीं है। विद्वान् और मूख के बुरे और अच्छे कामों में भी कैसा अन्तर होता है, इस विषय में ग्रंथकारों ने एक दृष्टान्त इस प्रकार दिया है: एक विद्वान् को जुआ खेलने का व्यसन लग गया था। जुश्रा के फंदे में फँसकर उसने गांठ की सारी पूँजी गँवा दी और अपनी पत्नी के आभूषण भी बेच डाले। उसकी दशा बड़ी हीन हो गई। लोग उस की बात पर विश्वास नहीं करते थे और घर के लोग मी उसे दुत्कारते थे। __धन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए उस विद्वान् को चोरी करने के सिवाय और कोई मार्ग दिखाई न दिया। अन्त में लाचार होकर उसने यही करने का निश्चय कर लिया। वह सोचने लगा-चोरी किसके घर करनी चाहिए ? अगर किपी सेठ के घर चोरी करूँगा तो वह चोरी में गये धन को भी हिसाब में लिखेगा । सेठ लोग पाई-पाई का हिसाब रखते हैं । और जब-जब वह हिसाब देखेगा तब तक गालियाँ देगा। अगर किसी साधारण आदमी के घर चोरी कसँगा तो वह रोएगा। उस बेचारे के पास पूँजी ही कितनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • बीकानेर के व्याख्यान ] होती है ! इस प्रकार विद्वान् ने सब का विचार कर देखा । अन्त में उसने निश्चय किया कि औरों के घरचोरी करना तो उचित नहीं है; राजा के यहाँ चोरी करनी चाहिए । इस प्रकार निश्चय करके वह राजा के यहाँ चोरी करने गया । [ १६३ राजा ने एक बन्दर पाल रक्खा था । बन्दर राजा को बड़ा प्रिय था । वह उसे अपने साथ ही खिलाता और साथ ही रखता था। रात के समय जब राजा सोता तो बन्दर नंगी तलवार लेकर पहरा दिया करता था । राजा बन्दर को अपना बड़ा प्रिय मित्र समझता था । राजा सो रहा था । बन्दर नंगी तलवार लिये पहरा दे रहा था। इसी समय विद्वान् चोरी करने के लिए पहुँचा । बन्दर राजा का मित्र है, लेकिन वह विद्वान् चोरी करने आया है इस कारण शत्रु है। फिर भी देखना चाहिए कि विद्वान् शत्रु में और मूर्ख मित्र में कितना अन्तर है ? और दोनों में कौन अधिक हितकर या अहितकर है ? राजा गाढ़ निद्रा में लीन था । उसी समय मकान की छत पर एक साँप आया । साँप की छाया राजा पर पड़ी । बन्दर ने साँप की छाया को साँप ही समझ लिया और विचार किया कि यह साँप राजा को काट खाएगा ! वह चपल और मूर्ख तो था ही, आगे-पीछे की क्यों सोचने लगा ? उसे विचार ही नहीं आया कि छाया पर तलवार चलाने से साँप तो मरेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली नहीं, राजा ही मर जायगा। वह तलवार सँभालकर छाया-- रूपी साँप को मारने के लिये तैयार हुआ। ___ मूर्ख मित्र की बदौलत राजा के प्राणपखेरू उड़ने में देरी नहीं थी। विद्वान् खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था । उसने सोचा-'इस मूर्ख मित्र के कारण वृथा ही राजा की जान जा रही है। चाहे में पकड़ा जाऊँ और मारा जाऊँ मगर राजा को बचाना ही चाहिए। अपनी आँखों के आगे राजा का वध मैं नहीं होने दूंगा!" यह सोचकर विद्वान् एकदम झपट पड़ा और उसने बन्दर की तलवार पकड़ ली । बन्दर और विद्वान् में झगड़ा होने लगा। इतने में राजा की नींद खुल गई । वह हड़बड़ा कर उठा और बन्दर तथा विद्वान् की खींचतान देखकर और भी विस्मित हुआ। राजा के पूछने पर विद्वान् ने कहा-यह बन्दर आपके प्राण ले रहा था पर मुझसे यह नहीं देखा गया। इसी कारण झपट कर मैंने तलवार पकड़ ली है।' राजा-तू कौन है ? विद्वान्-मैं ? मैं चोर हूँ ! राजा-बन्दर मुझे कैसे मार रहा था ? विद्वान्-आप सो रहे थे और मैं चोरी करने की ताक में आया था। छत पर साँप पाया। उसकी छाया आपके शरीर पर पड़ी। छाया को साँप समझ कर यह बन्दर तलवार चलाने को उद्यत हुआ। मुझसे यह नहीं देखा गया। मैंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान 1 झपट कर तलवार पकड़ ली । विद्वान् की बात सुनकर राजा सोचने लगा - प्रजा को अशिक्षित रखकर बन्दर के समान मूर्ख बनाए रखने से क्या हानि होती है, यह बात आज मेरी समझ में आई । मगर राजा ने पण्डित से पूछा- तुम पण्डित होकर चोरी करने आये हो ? [ १६५ पण्डित - मैं जुआ खेलने के व्यसन में पड़ गया था । एक दुर्व्यसन भी मनुष्य के जीवन को किस प्रकार पतित कर देता है, किस प्रकार विवेक को विनष्ट कर देता है, इसके लिए मैं उदाहरण हूँ। जुआ के दुर्व्यसन ने मेरी पण्डिताई पर पानी फेर दिया है । मेरी विद्वत्ता जुए से कलंकित हो रही है । मैं आपके सामने उपस्थित हूँ । जो चाहें, करें । मतलब यह है कि नादान दोस्त की अपेक्षा ज्ञानवान् शत्रु भी अधिक हितकारी होता है । ज्ञानवान् अपने कल्याणअकल्याण का शीघ्र समझ जाता है । ज्ञान का प्रकाश मनुष्य को शीघ्र ही सन्मार्ग पर ले जाता है । पथभ्रष्ट मनुष्य भी, अगर उसके हृदय में ज्ञान विद्यमान है तो, एक दिन सत्पथ पर आये विना नहीं रहेगा । अतएव प्रत्येक दशा में ज्ञान जीवन को उन्नत बनाने में सहायक होता है । अगर आप लोग ज्ञान का सच्चा महत्त्व समझते हैं तो अर्हन्त भगवान् के ज्ञान का प्रचार कीजिए। आप स्वयं ऐसे काम कीजिए जिससे ज्ञान का प्रचार हो । अर्हन्त के ज्ञान का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [ जवाहर - किरणावली प्रचार अक्षरज्ञान के बिना नहीं हो सकता । यह विचार कर ही भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी को लिपिज्ञान दिया था । भगवान् के आशय को आप समझिए और अपनी संतति को मूर्ख मत रहने दीजिए। ज्ञान का प्रचार करने का उद्योग कीजिए । ज्ञान की वृद्धि उन्नति का मूल मंत्र है । आपके पास जो भी शक्ति हो, ज्ञान के प्रचार में लगाइए। इतना भी न कर सकें तो कम से कम ज्ञान और ज्ञान - प्रचार का विरोध तो मत कीजिए । ज्ञान की शिक्षा की निन्दा करना, उसमें रोड़े अटकाना और जो लोग ज्ञान का प्रचार कर रहे हैं उनका विरोध करना बुरी बात है। ज्ञान का प्रचार शासन की प्रभावना का प्रधान अङ्ग है। सच्चे ज्ञान का प्रचार होने पर ही चारित्र के विकास की संभावना की जा सकती है । आप लोग ज्ञान और चारित्र की आराधना करके आत्मकल्याण में लगें, यही मेरी आंतरिक कामना है । · суа Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ आत्मा:- दुधारी तलवार -:::: ( ):::: जिन्होंने वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध प्राप्त नहीं किया है और जो बहिर्दृष्टि बने हुए हैं, वे अपने सुख-दुःख का कारण सही रूप में नहीं समझ पाते । वे निमित्त कारण को ही देखते हैं और उपादान कारण का विचार ही नहीं करते। मिर्च के तीखेपन को और मिश्री की मिठास को वे जानते हैं, मगर उन्हें यह मालूम नहीं होता कि उस तीखेपन का या मिठास का अनुभव होता किसे है ? अगर नीम में ही कटुकता है और हमारी संवेदना कोई काम नहीं करती तो ऊँट का मीठा लगने वाला नीम हमें कटुक क्यों प्रतीत होता है ? क्या नीम ऊँट के लिए और मनुष्य के लिए अपना स्वाद बदल लेता है ? नहीं | नीम अपना स्वभाव नहीं बदलता । लेकिन जीव की संवेदना शक्ति ही नाना रूप धारण करके वस्तु को नाना रूप में ग्रहण करती है । दही किसी को रुचिकर और किसी के रुचिकर क्यों प्रतीत होता है ? आत्मा की संवेदना शक्ति का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [ जवाहर - किरणावली ही यह सब खिलवाड़ है । यही बात सुख और दुःख के विषय में समझी जा सकती है । एक आदमी जिसे दुःख मानता है, दूसरे के लिए वह दुःख नहीं है । यही नहीं बल्कि उसके लिए वह सुख है । और दूसरे का माना हुआ सुख एक के लिए दुःख प्रतीत होता है । यह बात हम लोकव्यवहार में सदा देखते रहते हैं । पर इसका कारण क्या है ? 1 मिर्च तीखी प्रतीत होती है मगर वह अपने तीखेपन के नहीं जानती । मिश्री की मिठास मिश्री को मालूम नहीं है । मिर्च का तीखापन और मिश्री की मिठास आत्मा ही जानती है । मगर लोग श्रात्मा को भूल जाते हैं और स्थूल पदार्थों को पकड़ बैठते हैं और मानते हैं कि मिठास मिश्री में ही है और तीखापन मिच में ही है । एक लकड़ी या पत्थर की पुतली के मुँह में मिश्री या मिर्च डाली जाय तो क्या उसे मिठास या तीखास का अनुभव होगा ? 'नहीं !" तो फिर मानना चाहिए कि मिठास और तीखास का अनुभव करने वाला आत्मा ही है । आत्मा ही कर्त्ता है और आत्मा ही विधायक है। इसी प्रकार संसार की समस्त वस्तुओं पर विचार किया जाय तो यही सर्वत्र यही चमत्कार दिखाई देगा । ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत-से पोधों की आवश्यकता नहीं होती । ज्ञान तो एक छोटी-सी घटना और थोड़ी-सी बात • से भी हो सकता है । और ज्ञान होने पर अज्ञान उसी प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१६६ नष्ट हो जाता है जैसे प्रकाश होने पर अंधकार । ऋषि मुनि कहते आये हैं कि-हे मानव ! तू बाहरी वैभव में क्यों उलझा है ? स्थूल और निर्जीव पदार्थों के फेर में क्यों पड़ा है ? उन्हें सुख-दुःख का विधाता क्यों समझ रहा है? सुख दुख के मूल स्त्रोत की खोज कर । देख कि यह कहाँ से और कैसे उत्पन्न होते हैं ? अपने मन को स्थिर करके, अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाकर विचार करेगा तो स्पष्ट दिखाई देगा कि तेरा आत्मा ही तेरे सुख और दुःख आदि का विधाता है। उसीने इनकी सृष्टि की है और वही इनका विनाश करता है । इस तथ्य को समझ जाने पर तेरी बुद्धि शुद्ध और स्थिर हो जायगी और तू बाह्य पदार्थों पर राग द्वेष करना छोड़ देगा। उस अवस्था में तुझे समता का ऐसा अमृत प्राप्त होगा जो तेरे समस्त दुःखों का, समस्त व्यथाओं का और समस्त अभावों का अन्त कर देगा। तृ अपने बंधन का निर्माता आप ही है और मुक्ति का विधाता भी आप ही है। तू स्वयं दुःख का निर्माण करता है और फिर हाय-हाय करता है, लेकिन निर्माण करना नहीं छोड़ता। मिथ्याज्ञान के कारण जीव दुखों का विनाश करने के लिए जो प्रयत्न करता है, उसी प्रयत्न में से अनेक दुःख फूट पड़ते हैं । इस प्रकार दुःखों की दीर्घ परम्परा चल रही है। इस परम्परा को समाप्त करने का उपाय सम्यग्ज्ञान ही है। सम्यग्ज्ञान के अपूर्व प्रकाश में दुःखों के आद्य स्रोत को देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [जवाहर-किरणावली कर उसे बंद कर देने से ही दुखों का अन्त आता है। दुःखां का आद्य स्त्रोत आत्मा का विकारमय भाव है। इस प्रकार आत्मा ही दुःखां का कर्ता और संहर्ता है। तोता पकड़ने वालों के विषय में सुना जाता है कि वे जंगल में एक गिरी लगाते हैं। तोता आकर उस पर बैठ जाता है । तोते के बैठने पर गिरीं घूमने लगती है। तोता यह समझ कर कि यदि मैं गिरी को छोड़ दूंगा तो गिर जाऊँगा, गिरी को और मज़बूती के साथ पकड़ता जाता है । ज्यों-ज्यों वह मज़बूती के साथ गिरी को पकड़ता है, गिरी अधिकअधिक तेजी के साथ घूमती जाती है । अगर तोता अपने पंखों के बल को याद करके गिरी को छोड़ दे तो वह उड़ जाय और गिरी का घूमना भी बंद हो जाय । मगर वह अपने पंखों का बल भूल जाता है और गिरी पर बैठा हाय-हाय करता रहता है। परिणाम यह होता है कि उसे बन्धन में पड़ना पड़ता है। गिरी की तरह ही यह संसार घूम रहा है । इस घूमते हुए संसार को पकड़ कर इसके साथ ही प्रात्मा भी चक्कर खा रहा है। आत्मा संसार को दोष देता है मगर यह क्यों नहीं सोचता कि संसार को पकड़ किसने रक्खा है ? आत्मा ने ही संसार को पकड़ रक्खा है, इसी कारण वह संसार के साथ घूम रहा है। जिस दिन वह संसार का आसरा छोड़ देगा उसी दिन उसे आनन्द का लाभ होगा और विग्रह शांत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१७१ - --- - - - - - -- - हो जायगा। मगर ज्या-ज्या संसार घूमता है, त्यों-त्यों आत्मा इसे ज्यादा मज़बूती से पकड़ता है और समझता है कि अगर मैंने संसार को छोड़ दिया तो गिर जाऊँगा। तोते की तरह आत्मा इसी भ्रान्ति में पड़ा है। अगर आत्मा समझ ले कि मेरे घूमने से ही संसार घूमता है तो उसके सब चक्कर मिट जाएँ। मित्रो ! अगर आप वास्तविक कल्याण चाहते हैं तो इस भूल पर विचार करो । इस प्रकार सुख और दुःख का कर्ता प्रात्मा ही है। शास्त्र भी यहीं कहते हैं अप्पा मित्तममित्त च । अर्थात्-आत्मा स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मित्र किसे कहते हैं ? मिठाई और चूरमा खाने वाले मित्र तो बहुत मिलेंगे, मगर संकट के समय साथ देने वाले मित्र विरले ही होते हैं । सम्पत्ति के समय मिठाई-चूरमा खाने वाले और मीठी-मीठी बातें बनाने वाले किन्तु संकट के समय किनारा काट जाने वाले लोग मित्र नहीं छिपे शत्रु हैं । सच्चा मित्र वह है जो घोर से घोर संकट आने पर भी अपने मित्र का साथ देता है और अपने मित्र को संकर से बचाने के लिए अपने प्राणों को भी संकट में डाल सकता है। सच्चे मित्र की कसौटी ऐसे अवसर पर ही होती है। श्री जम्बू स्वामी ने अपनी पत्नियों के सामने मित्रता का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] [जवाहर-किरणावली एक दृष्टान्त देकर कहा-तुम प्रेम दिखलाती हो, मगर सच्ची मित्रता यह नहीं है। ऊपरी सांसारिक व्यवहार को देखकर ही यह नहीं समझा जा सकता कि सच्चा मित्र कौन है ? इस विषय में एक दृष्टान्त सुनो । एक राजा का प्रधान था। राजा उसका खूब अादरसत्कार करता था। प्रधान विवेकवान् था। उसने विचार किया राजा जोगी अगनि जल, इनकी उलटी रीति । बचते रहियो परसराम, थोड़ी पाले प्रीति ॥ अतएव सिर्फ राजा के प्रेम पर निर्भर रहकर किसी दूसरे को भी अपना मित्र बनाये रखना उचित है। मित्र होगा तो समय पर काम पायगा। इस प्रकार विचार कर प्रधान ने एक नित्य मित्र बनाया। प्रधान अपने इस मित्र के साथ ही खाता, पीता और रहता था । वह समझता था कि नित्य मित्र भी मेरा आत्मा है । इस प्रकार प्रधान अपने मित्र को बड़े प्रेम से रखने लगा। _____एक मित्र पर्याप्त नहीं है, यह विचार कर प्रधान ने दूसरा मित्र भी बनाया। यह मित्र पर्व मित्र था। किसी पर्व या त्यौहार के दिन प्रधान उसे बुलाता, खिलाता-पिलाता और गपशप करता था। प्रधान ने एक तीसरा मित्र और बनाया जो सैन-जुहारी मित्र था । जब कभी अचानक मिल गया तो जुहार उससे कर लिया करता था । इस प्रकार प्रधान ने तीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १७३ मित्र बनाये। ___समय ने पलटाखाया । राजा, प्रधान पर कुपित हो गया। कुछ चुगलखोरों ने राजा के कान भर दिये कि प्रधान ने अपना घर भर लिया है, राज्य को अमुक हानि पहुँचाई है, यह गया है, वह किया है, आदि आदि । राजा कान के कच्चे होते हैं । रसने एक दिन पुलिस को हुक्म दे दिया कि प्रधान के घर पहरा लगा दो और प्रातःकाल होते ही उसे दरबार में हाजिर करो। प्रारंभ में राज्यव्यवस्था प्रजा की रक्षा के उद्देश्य से की गई थी। लोगों ने अपनी रक्षा के लोभ से राजा की शरण ली थी। मगर धीरे-धीरे राजा लोग स्वार्थी बन गये। पहले राजा और प्रजा के स्वार्थों में विरोध नहीं था। राजाओं का हित प्रजा का और प्रजा का हित राजा का हित था। मगर राजाओं की विलासिता और स्वार्थभावना ने प्रवेश किया । तब प्रजा के हित का घात करके भी राजा अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगे। तभी से राजा और प्रजा के बीच संघर्ष का सूत्रपात हुआ। आज वह संघर्ष अपनी चरम सीमा को पहुँच गया है और राजा के हाथों से शासन-सूत्र हट रहा है। राजतंत्र मरणासन्न हो रहा है और प्रजातंत्र का उदय हो रहा है। चुगलखोरों ने झूठे-झूठे गवाह पेश करके सिद्ध कर दिया कि प्रधान दुष्ट है । राजा ने प्रधान को गिरफ्तार करने की आशा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [ जवाहर - किरणावली दे दी । इधर राजा ने आज्ञा दी और उधर प्रधान के किसी हितैषी ने प्रधान को राजाज्ञा संबंधी सूचना देकर कहा'गिरफ़्तारी में देर नहीं है । इज्ज़त बचाना हो तो निकल भागो ।' प्रधान अपनी आबरू बचाने के उद्देश्य से घर से बाहर तो निकल पड़ा मगर सोच-विचार में पड़ गया कि अब कहाँ जाऊँ ? और किसकी शरण लूँ ? अन्त में उसने सोचा- मेरे तीन मित्र हैं। तीन में से कोई तो शरण देगा ही । मगर मेरा पहला अधिकार नित्य मित्र पर है । पहले उसके पास ही जाना योग्य है । प्रधान आधी रात और अंधेरी रात में नित्य मित्र के घर पहुँचा । किवाड़ खटखटाए । मित्र ने पूछा- कौन है ? प्रधान ने दबी आवाज़ में कहा - धीरे बोलो धीरे ! मैं तुम्हारा मित्र हूँ ! मित्र - मैं कौन ? प्रधान - तुम तो मुझे स्वर से ही पहचान लेते थे । क्या इतनी जल्दी भूल गये ? मैं तुम्हारा मित्र हूँ । मित्र - नाम बताओ ? प्रधान - अरे ! नाम भी भूल गये ! मैं प्रधान हूँ । मित्र ने किवाड़ खोलकर आधी रात के समय आने का कारण पूछा । प्रधान ने राजा के कोप की कथा कहकर कहायद्यपि मैं निरपराध हूँ; मगर इस समय मेरी कौन सुनेगा ? इसीलिए मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। आगे जो होगा, देखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १७५ जायगा । मित्र - राजा के अपराधी को मेरे घर में शरण ! मैं बालबच्चे वाला आदमी हूँ । आपको मेरे हानि-लाभ का भी विचार करना चाहिए ! राजा को पता चल गया तो मेरी मट्टी पलीद होगी ! अगर आप मेरे मित्र हैं तो मेरे घर से आपको अभीअभी चला जाना चाहिए । प्रधान - मित्र, क्या मित्रता ऐसे ही वक्त के लिए नहीं होती ? इतने दिन साथ रहे, साथ खाया-पिया और मौज की ! आज संकट के समय धोखा दोगे ? क्या आज इसी उत्तर के लिए मित्रता वांधी थी ? · मित्र - आप मेरे मित्र हैं, इसी कारण तो राज को खबर नहीं दे रहा हूँ । अन्यथा फौरन गिरफ्तार न करवा देता ? लेकिन अगर आप जल्दी रवाना नहीं होते तों फिर लाचार होकर यही करना पड़ेगा । प्रधान - निर्लज ! मैंने तुझे अपनी आत्मा की तरह स्नेह किया और तू इतना स्वार्थी निकला ! विपदा का समय चला जायगा, मगर तेरी करतूत सदा याद रहेगी । बाहर रात्रि का घोर अंधकार था और प्रधान के हृदय में उससे भी घनतर निराशा का अंधकार छाया था । उसे अपने पर्व मित्र की याद आई। मगर दूसरे ही क्षण खयाल आया - जब नित्यमित्र ने यह उत्तर दिया है तो पर्वमित्र से क्या आशा की जा सकती है ? मगर चलकर देखना तो चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ जवाहर - किरणावली इस प्रकार विचार कर वह पर्वमित्र के घर पहुँचा । सारी घटना सुनने के बाद मित्र ने हाथ जोड़कर कहा- मेरी इतनी शक्ति नहीं कि राजा के विरोधी को शरण दे सकूँ ! आप भूखे हो तो भोजन कर लीजिए । वस्त्र या धन की आवश्यकता हो तो मैं दे सकता हूँ। मगर आपको स्थान देने में असमर्थ हूँ । प्रधान - मैं नङ्गा या भिखारी नहीं हूँ । मेरे घर धन की कमी नहीं है । मैं तो इस संकट के समय शरण चाहता हूँ । जो संकट के समय सहायता न करे वह मित्र कैसा ? 1 जे न मित्र - दुख होहिं दुखारी । तिनहिं त्रिलोकत पातक भारी || जो अपने मित्र के दुःख से दुखित नहीं होते, उन्हें देखने में भी पाप लगता है । मित्र - मैं यह नीति जानता हूँ, मगर राजविरोधी को अपने यहाँ श्राश्रय देने की शक्ति मुझमें नहीं है । प्रधान ने सोचा - हठ करना वृथा है । नित्य मित्र जहाँ गिरफ्तार कराने को तैयार था वहाँ यह नम्रतापूर्वक तो उत्तर दे रहा है ! यह विपत्ति मित्रों की कसौटी है । निराश होकर प्रधान सेनजुहारी मित्र की ओर रवाना हुआ । उसने सोचा- इस मित्र पर अपना कोई अधिकार तो है नहीं, मगर कसौटी करने में क्या हर्ज है ? यह सोचकर वह अपने तीसरे मित्र के घर पहुँचा । राजा के कोप की कहानी सुनाकर आश्रय देने की प्रार्थना की। मित्र ने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१७७ दृढ़ता के साथ कहा-खर, यह तो राजा का ही कोप है, अगर इन्द्र का कोप होता और मैं सहायता न देता तो आपका मित्र ही कैसा ? आप ऊपर चलिए और निश्चिन्त होकर रहिये । यह घर आपका ही है। प्रधान की प्रसन्नता का पार न रहा। मन ही मन कहाइसे कहते हैं मित्रता!समय पर ही मित्रता की पहिचान होती है। प्रधान अपने मित्र के साथ भीतर गया। मित्र ने उसका सत्कार करके कहा-अगर आपकी कोई आवश्यकता हो तो विना संकोच कह दीजिए । प्रधान के मना करने पर उसने कहा-मनुष्य मात्र भूल का पात्र है। अगर कोई भूल हो गई हो तो आप मुझसे छिपाइए नहीं। सच-सच कह दीजिए । रोग का ठीक तरह से पता लगने पर ही सही इलाज़ हो सकता है। प्रधान सोचने लगा-अपनी बात ऐसे मित्र से नहीं कहूँगा तो किससे कहूँगा? और प्रधान ने उसके सामने अपना दिल खोलकर रख दिया । मित्र ने उसे आश्वासन दिया। प्रातःकाल प्रधान के घर की तलाशी ली गई। तभी पता चला कि प्रधान घर में नहीं है। चुगलखोरों की बन आई। कहा-प्रधान अपराधी न होता तो भागता ही क्यों ? भागना ही उसके अपराधी होने का सबसे बड़ा सबूत है। गजा के दिल में बात उस गई। उसने कहा-ठीक है। पर भागकर जायगा कहाँ ? जहाँ भी होगा पकड़वा कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [ जवाहर-किरणावली मँगवा लिया जायगा। प्रधान का आश्रयदाता मित्र प्रातःकाल ही राजा के दरबार में जा पहुँचा था । वह चुपचाप सारी बातें सुनता रहा। सारे शहर में हलचल मची थी। ___ सब बातें सुन चुकने के बाद मौका देखकर प्रधान के मित्र ने मुज़रा किया। राजा ने कहा-सेठ, तुम कभी आते नहीं। आज आने का क्या कारण है ? सेठ-पृथ्वीनाथ कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। राजा-कहो । सेठ-एकान्त में निवेदन करूँगा। राजा और सेठ एकान्त में चले गये । वहाँ राजा ने पूछने पर सेठ ने कहा-महाराज, प्रधानजी ने क्या अपराध किया है ? क्या मैं यह जान सकता हूँ? __राजा ने कई-एक अपराध गिना दिये, जिनके विषय में कोई प्रमाण नहीं था। सेठ-आपके कथन को मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? मगर प्रधान के विना तो काम चलेगा नहीं। आपने इस विषय में क्या सोचा है ? राजा-दूसरा प्रधान बुलाएँगे। सेठ-कदाचित् वह भी ऐसा ही निकला तो क्या होगा ? राजा-उसकी परीक्षा कर लेंगे। सेठ-नये प्रधान की जिस प्रकार जांच करेंगे, उसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१७६ प्रकार अगर पुराने प्रधान की ही जांच की जाय तो क्या ठीक न होगा? वह नया आयगा तो पहले अपना घर बनायगा । उपद्रव मचा देगा। शायद आपको फिर पश्चात्ताप करना पड़े। पुराने प्रधान से अभियोगों के विषय में आप स्वयं पूछते और संतोजनक उत्तर न मिलने पर यहीं कैद कर लेते तो क्या हानि थी? मगर आपने उस खानदानी प्रधान के पीछे पुलिस लगा दी। यह कहाँ तक उचित है, आप सोचें । सेठ की बात राजा को ठीक मालूम हुई। उसने कहासेठ, तुम राज्य के हितचिन्तक हो। इसी कारण तुम्हें राजा और प्रजा के बीच का पुरुष नियत किया है और सेठ की उपाधि दी गई है। मगर प्रधान न मालूम कहाँ चला गया है ! वह होता तो मैं उससे सब बात पूछता। सेठ-प्रधानजी मेरे आत्मीय मित्र हैं। मुझे उनकी सब बातों का पता है। उनके अभियोगों के विषय में मुझसे पूछे तो संभव है, मैं समाधान कर सकूँ। राजा-प्रधान तुम्हारे मित्र हैं ? सेठ-मैंने न तो कभी छदाम दी है, न ली है। आपके प्रधान होने के नाते और मनुष्यता के नाते उनसे मेरी मित्रता है। मित्रता भी ऐसी है कि उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं लिपाई। राजा-अच्छा, देखो, प्रधान ने इतना हज़म कर लिया है। सेठ-ऐसा कहने वालों ने गलती की है। फलां वही मँगवा कर देखिए तो समाधान हो जायगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] [ जवाहर-किरणावली बही मँगवाकर देखी गई। राजा ने पाया कि वास्तष में अभियोग निराधार है। इसी प्रकार और दो-चार बातों की जाँच की गई। सब ठीक पाया गया। सेठजी बीच-बीच में कह देते थे-हाँ, इतनी भूल प्रधानजी से अवश्य हुई है और वे इसके लिए मेरे सामने पश्चात्ताप भी करते थे। आपसे भी कहना चाहते थे मगर शायद लिहाज़ के कारण नहीं कह सके। राजा-प्रधान ने पश्चात्ताप भी किया था ? मगर इतने बड़े काम में भूल हो जाना संभव है। वास्तव में मैंने प्रधान के साथ अनुचित व्यवहार किया है। किन्तु अब तो उसका मिलना कठिन है ? कौन जाने कहाँ चला गया होगा? सेठ-अगर आप उनके सम्मान का वचन दें तो मैं ला सकता हूँ। . राजा-क्या प्रधान तुम्हारी जानकारी में हैं ? सेठ-जी हां । मगर विना अपराध सिर कटाने के लिए मैं उन्हें नहीं ला सकता। श्राप न्याय करने का वचन दें तो हाजिर कर सकता हूँ। राजा-मैं वचन देता हूँ कि प्रधान के गौरव की रक्षा की नायगी। यही नहीं वरन् चुगलखोरों का मुँह काला किया जायगा। सेठ-महाराज, अपराध क्षमा करें । प्रधानजी मेरे घर पर हैं। राजा-सारे नगर में उनकी बदनामी हो गई है । उसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान [१८१ परिमार्जन करने के लिए उनका सत्कार करना चाहिए । मैं स्वयं उन्हें लिवाने चलूँगा और आदर के साथ हाथी पर बिठाकर ले आऊँगा । जिसने अपमान किया है, वही मान करे तो अपमान मिट जाता है। ____ हाथी सजाकर राजा, सेठ के घर की तरफ रवाना हुआ। सेठ ने जाकर प्रधान से कहा-प्रधानजी, आपको दरबार में पधारना होगा! प्रधान-क्या गिरफ्तार कराओगे ? सेठ-क्या मैं पापी हूँ? महराज द्वार पर आ पहुँचे हैं और आदर के साथ आपको ले जाएंगे। ___ सेठ के साथ बाहर आकर प्रधान ने राजा को मुज़रा किया। राज ने हाथी पर बैठने का हुक्म दिया। प्रधान शर्मिन्दा हुश्रा । तब राजा ने कहा-जो होना था, हो चुका । शर्माने की कोई बात नहीं है। मूखों की बातों में आकर मैंने तुम्हारा अपमान किया है। मगर अब किसी प्रकार की शंकामत रक्खा। दरबार में पहुँच कर प्रधान ने निवेदन किया-मेरे विरुद्ध जो भी आरोप हैं, उनकी कृपा कर जांच कर लीजिए । इससे मेरी निर्दोषिता सिद्ध होगी और चुगलखोरों का मुँह आप ही काला हो जायगा। जम्बूकुमार अपनी पत्नियों से कह रहे हैं-कहो, मित्र कैसा होना चाहिए ? उनकी पत्नियों ने कहा-पहला मित्र तो मुँह देखने योग्य भी नहीं है । दूसरे ने हृदय को नहीं पहShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [जवाहर-किरणावली ----------- चाना और अनावश्यक वस्तुएँ पेश की। तीसरे मित्र ने हृदय को पहचाना और उसी के अनुसार उपाय किया। इसलिए मित्र हो तो तीसरे मित्र के समान ही होना चाहिए । जम्बूकुमार कहने लगे-प्रधान के समान मेरे भी तीन मित्र हैं। नित्य मित्र यह शरीर है। इसे प्रतिदिन नहलाता धुलाता हूँ, खिलाता-पिलाता हूँ और सजाता है। परन्तु कष्ट का प्रसंग आने पर, जरा या रोग के आने पर सब से पहले शरीर ही धोखा देता है। इतना सत्कार सन्मान करने पर भी यह शरीर प्रात्मा के बंधन नहीं तोड़ सका। अतएव आत्मा से शरीर को भिन्न और अंत में साथ न देने वाला समझकर उस पर ममता रखना उचित नहीं है। माता, पिता, पत्नी आदि कुटुम्बी जन पर्व मित्र के समान हैं। पत्नी, पति पर प्रीति रखती है किन्तु जब कर्म रूपी राजा का प्रकोप होता है तब वह अपने पति को छुड़ा नहीं सकती। जा दिन चेतन से कर्म शत्रुता करे ता दिन कुटुम्ब से कोउ गर्जन सरे जिस दिन कर्म चेतना के साथ शत्रुता का व्यवहार करता है, उस दिन कुटुम्बी जन क्या कर सकते हैं ? वह व्याकुल भले ही हो जाएँ और सहानुभूति भले प्रकट करें किन्तु कष्ट से छुड़ाने में समर्थ नहीं होते । जम्बूकुमार अपनी पत्नी से कहते हैं-मेरे तीसरे मित्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१८३ सुधर्मा स्वामी हैं। उन्होंने आत्मा और कर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके उसी प्रकार समझाया है, जैसे सेठ ने राजा को समझाया था। इस तीसरे मित्र की बदौलत ही आत्मा दुःख से मुक्त होता है और अपने परम पद पर प्रतिष्ठित होता है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । हे आत्मा ! अगर तू चाहे तो दुःख क्षण भर भी नहीं ठहर सकता। मगर तू धन की कुंजी भी अपने हाथ में रखना चाहता है और स्वर्ग की कुंजी भी अपने हाथ में रखना चाहता है। यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। वस्तुतः सचा मित्र वही है तो उपकार करता है, संकट से बचाता है और जो सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करता है। मित्र का यह स्वरूप आध्यात्मिक दृष्टि से ही समझने योग्य नहीं है किन्तु व्यावहारिक और नैतिक दृष्टि से भी समझने योग्य है। प्राचारांगसूत्र में कहा है पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त किं बहिया मित्त मिच्छसि । अर्थात्-हे पुरुष ! तू अपना मित्र आप ही है। दूसरे मित्र की अभिलाषा क्यों करता है ? इसलिए मैं कहता हूँ-मित्रो! शास्त्र के इस बचन को याद रक्खो। संसार-सागर में अगर नौका का आश्रय लेना हो तो शास्त्र की इन सूक्तियों को मत भूलो। अगर आपने इस तथ्य को कि हम स्वयं ही अपने सुख-दुःख के विधाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [जवाहर-किरणावली हैं, समझ लिया तो दुःख आपके पास फटक ही नहीं सकेगा। बल्कि इससे आत्मा को अपूर्व लाभ होगा। वास्तव में दुःख और सुख का कर्ता-हर्ता आत्मा ही है। लेकिन हम सुख और दुःख दोनों के आने पर गफ़लत में पड़ जाते हैं । सुख के समय आत्मा अहंकार में डूब जाता है और जब दुःख होता है तो बिलबिलाने लगता है। प्रात्मा जब सुख को पुत्र, पत्नी, परिवार आदि का दिया हुआ मानता है ते अहंकार के साथ उसमें एक जहरीली भावना उत्पन्न होती हैं । मैं श्रेष्ठ हूँ और दूसरे मुझसे हीन हैं, यह भावना विषैली भावना है । सुख को दूसरे का दिया हुआ मानकर इस विषमय भावना को स्थान देने से आत्मा अमृत को विष और दूध को शराब बना लेता है। इसके विपरीत जब दुःख पा पड़ता है तो दुःख के निमित्त कारण पर निरन्तर मलीन विचार करता रहता है। फिर अपने ही पैदा किये हुए दुःख से दुखी होकर अपने को अनाथ मान बैठता है और अपनी रक्षा की इच्छा से दूसरों को नाथ बनाता फिरता है। वह सोचता है कि भैरों, भवानी, भोपा आदि की शरण लेने से मेरे दुःख का अन्त आ जायगा और मैं सुखी हो जाऊँगा। इस प्रकार तत्त्व का बोध न होने के कारण प्रात्मा सुख में अहंकार करता है और दुःख में दीन बन जाता है। इस प्रकार सारा संसार अपनी मिथ्या धारणा के कारण परेशान हो रहा है। सौभाग्य से जब कभी कोई शानधन मिलता है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१८५ --------- ----- - -- -- -..--..-- -- ---- - - - उसके मिलने पर आत्मा अपने संबंध में विचार करता है, तब उसके नेत्र खुल जाते हैं। उस समय उसकी समझ में प्राता है अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण व । अरे मानव ! तू भ्रम में क्यों पड़ा है ? अपने अन्तरतर की ओर देख । वहीं तो वह बड़ा कारखाना चल रहा है जहाँ सुख और दुःख तेरी भावनाओं के साँचे में ढल रहे हैं ! और तू बाहर की ओर देखता है ? कस्तूरीमृग कस्तूरी की खोज के लिए इधर-उधर भागता फिरता है। उसे नहीं मालूम कि कस्तूरी बाहर नहीं, उसी के भीतर है। यही दशा तेरी है। तू महात्माओं की वाणी सुन । वीतराग के कथन पर श्रद्धा कर और समझ ले कि अपने सुख-दुःख का दाता तू आप ही है। तुझे सुख या दुःख देने का सामर्थ्य दूसरे में नहीं है। अगर सोने-चांदी में सुख होता तो सब से पहले सोने-चांदी वालों की ही गर्दन क्यों काटी जाती ? स्त्री से सुख होता तो ज़हर क्यों दिया जाता? इन सब वाह्य वस्तुओं से सुख होने का भ्रम दूर कर दे । निश्चय समझ ले कि सुख तेरी शान्ति, समता, संतोष और स्वस्थता में समाया है। तेरी भावनाएँ ही सुख को उत्पन्न करती हैं। स्त्री, पुत्र और धनवैभव का अहंकार छोड़ दे। दुःख के विषय में भी यही बात है। समस्त संसार की शक्तियाँ संगठित होकर भी तुझे दुखी नहीं बना सकतीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [जवाहर-किरणावली अपने दुःख का निर्माण तो तू स्वयं करता है। सिर पर अंगारे जल रहे हैं और कोल्हू में पिल रहे हैं, तब भी तत्त्वज्ञानी क्या कभी अनाथ भावना उत्पन्न होने देते हैं ? नहीं। ऐसे समय में वे जरा भी दुःख का विचार करते तो नाथ न रहते । मगर उन्होंने ऐसा विचार ही नहीं किया । वे इस विचार पर दृढ़ थे कि हम अपनी ही आत्मा की शरण लेंगे; स्वयं सनाथ बनेंगे। दूसरे को नाथ नहीं बनाएँगे। जो परिस्थिति उत्पन्न हुई है वह हमारे ही प्रयत्नों का फल है। हमारे ही प्रयत्न से उसका अन्त होगा। दीन बनकर दूसरे का आश्रय लेने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यही नहीं, ऐसा करने से दुःख बढ़ सकता है, घट नहीं सकता। दीनता स्वयं एक व्याधि है। उसका आश्रय लेने से व्याधि कैसे मिट सकती है ? ___ मतलब यह है कि सुख, दुख, कामधेनु, बैतरणी, कल्पवृक्ष और कृट शाल्मलि आदि सब वस्तुएँ आत्मा से ही उत्पन्न होती हैं । अब यह भी देखना चाहिए कि आत्मा इन सब को किस प्रकार बनाता है ? हे आत्मा ! तू अन्तर्मुख होकर विचार कर । स्वरूप की ओर देख । तू किस प्रकार सुख बनाना है और किस प्रकार दुःख का निर्माण करता है, इस बात को भलीभाँति समझ। कब समझा जाय कि तू अपने के लिए वैतरणी बना रहा है और कब समझा जाय कि तूने नन्दन वन और कामधेनु का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१८७ - - - - - निर्माण किया है ?.इस बात पर विचार कर । ___ मान लो कि आपके पास एक वस्तु ऐसी है जो दाहिने हाथ में लेने पर रत्न बन जाती है और बायें हाथ में लेने पर कोयला हो जाती है । आप उस वस्तु को किस हाथ में लेना पसंद करेंगे? 'दाहिने हाथ में !' एक वस्तु दाहिने हाथ में लेने पर फूल की छड़ी हो जाती है और बायें हाथ में लेने पर काली नागिन बन जाती है । आप उसे किस हाथ में लेंगे? 'दाहिने में !' प्रत्येक आत्मा में ऐसी शक्ति विद्यमान है कि वह श्रेष्ठ से श्रेष्ट वस्तु को कनिष्ठ वना सकती है और कनिष्ठ से कनिष्ठ वस्तु को श्रेष्ठ बना सकती है। अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कायदुहा धेणू , अप्पा मे वंदणं वणं ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिो | -उत्तरा० अ० २०१ अर्थात् मेरी आत्मा वैतरणी नदी है, आत्मा ही कूटशाल्मलि वृक्ष है, अात्मा ही कामधेनु है और प्रात्मा ही नन्दन वन है । सुखों और दुःखों का कर्ता और हर्ता भी आत्मा ही है। सन्मार्गगामी आत्मा ही मित्र है और कुमार्गगामी आत्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] ही शत्रु है । श्री श्राचारांग सूत्र में भी यही कहा है कि- 'हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है, बाहर के मित्र की तरफ़ क्यों ताकता है!' इसी वाक्य को पलट कर कहा जा सकता है कि- 'हे पुरुष ! तू ही मेरा शत्रु है तू दूसरे को क्यों शत्रु समझता है ?' [ जवाहर किरणावली मित्रो जब एक ही वस्तु फूल की छड़ी बन सकती है और नागिन भी बन सकती है और उसका बनाना भी तुम्हारे ही अधीन है तो उसे नागिन क्यों बनाते हो ? फूल की छड़ी क्यों नहीं बनाते ? आत्मा कब फूल की छड़ी बनती है और कब नागिन वनती है, इसके लिए कहा गया है दुप्पट्ट सुपट्टि । आत्मा जब दुष्कर्म में लगती है तो आप ही अपना शत्रु बन जाती है । दुष्कर्म में संलग्न आत्मा अपने आपका बैरी है । इसी प्रकार सत्कर्म में लगी हुई आत्मा अपना मित्र है। दुष्कर्म में लगने का फल दुःख के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? आत्मा दुष्कर्म में किस प्रकार प्रवृत्त होती है और सत्कर्म में किस प्रकार लगती है, इस बात को जरा स्पष्ट रूप से समझ लीजिए । पहले कानों को ही लीजिए। इन कानें से धर्मोपदेश सुना या वीतराग भगवान् की वाणी सुनी तो आत्मा ने अपने आपके मित्र बनाया। इसका फल क्या हुआ ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१८६ - - --- -- --- तं महप्फललं खलु एगस्स वि प्रायरिस्स, धम्मियस्स सुबयण स्स सवणयाए । अर्थात्-तथा रूप के श्रमण निन्थ के प्रवचन का एक भी वाक्य सुन ले तो उसके फल का पार नहीं रहता। इसके विपरीत कानों को अगर वेश्या का गान सुनने में लगाया या विकथा सुनने में लगा दिया तो आत्मा दुःप्रतिष्ठित हो गया। अतएव मनुष्य को विचार करना चाहिए कि-इन कानों की बड़ी महिमा है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की अवस्था में अनन्त काल तक आत्मा रहा है और उस अवस्था में उले कानों की प्राप्ति नहीं हो सकी। किसी प्रकार अनन्त पुण्य का उदय होने पर पंचेन्द्रिय दशा प्राप्त हुई और तब कानों की प्राप्ति हुई है। प्रबल पुण्य का व्यय करके आत्मा ने कानइन्द्रिय प्राप्त की है सो क्या इसलिए कि उसे पाप के उपार्जन में लगा दिया जाय ? नहीं ! इनसे परमात्मा की वाणी सुनना चाहिए । यही कानों का सदुपयोग है। कहा जा सकता है कि दिन भर तो धर्मोपदेश होता नहीं है: फिर दिन भर इनका क्या उपयोग किया जाय ? इसका उत्तर यह है कि जब धर्मोपदेश सुनने का अवसर न हो तो आत्मा का नाद सुनो। भगवान् के स्मरण का नाद आत्मा में चलने दो और इसी अन्तर्नाद की बोर कान लगाये रहो। इतना भी न कर सको तो परमात्मा का भजन सुनो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] [ जवाहर-किरणावली um. अगर आगने इस तरफ सावधानी रक्खी तो थोड़े ही दिनों में आप देखेंगे कि आपका कितना विकास होता है ! राते रोज विचारो आज कमाया शु अहीं रे । सूता मन महीं रे ॥ राते० ।। खावा पीवा प्रभुए दीधु', ते माठे तें शु शु कीधु; ए खातो सरभर कीधो छे के नहीं रे ।। राते० ॥ पाप रूपि सों करज थयो छे, ते साटे शु पुण्य कर्यो छे ? बधू घट के सुधार्या शुं तो महीं रे ।। राते० ॥ गुजर ती कवि कहता है--आप प्रतिदिन रोजनामचा लिखते हैं । जमा-खर्च, पोते बाकी, लेना देना और जमा पूँजी आदि देखते हैं। संसार में कहावत है कि जिसका हिसाब बराबर हो, उसे कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। जो आय-व्यय का हिसाब नहीं रखता, उसे आय कम और व्यय ज्यादा हो तो उसकी दुकान कितने दिन चलेगी? मित्रो ! आप व्यापारी हैं और आय-व्यय के हिसाब के महत्त्व को भलीभाँति समझाते हैं। आय रुपये-पैसे का . हिसाब रखते भी हैं मगर संसार से आगे की भी बात कभी सोचते हैं ? उसका हिसाब रखते हैं ? अनन्त पुण्य की पूँजी लगाकर आपने यह मानव भव पाया है और दूसरी सामग्री पाई है। अब इस सामग्री से आप क्या कमाई कर रहे हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१६१ सोने के समय रुपयों के आय-व्यय का हिसाब कर लेते हो, लेकिन कभी यह भी देखते हो कि मैंने अनन्त पुर। के बदले में नवीन कमाई क्या की है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मूल पूंजी ही आप समाप्त कर रहे हों ? ___खान-पान की सामग्री शुभ कर्म के उदय से मिलती है और शुभ कर्म, क्रिया से उपार्जित किये जाते हैं। श्रमण के नाम और गोत्र के श्रवण से भी पुण्य की प्राप्ति होती है। इसका अर्थ यह निकला कि-'हे प्रभो ! मैं तुम्हारा ही दिया खाता हूँ। इस प्रकार की भावना से अहंकार का त्याग होता है। अब यह विचार करना उचित है कि मैं भगवान के घर का खाता तो हूँ परन्तु बदला क्या चुकाता हूँ? मैंने कल उपवास किया था। आज दूध पीने लगा तो वह दूध बहुत स्वादिष्ट लगा। उस समय में विचारने लगा कि इस एक-एक बूंट दृध की कीमत क्या है ? यह कैसे पैदा हुआ ? साधु होने के कारण हम इसे माँग लाये, अन्यथा हमें इसके माँगने का क्या अधिकार है ? गृहस्थों ने गाय पाल रक्खी है । वे उसे खिलाते-पिलाते हैं और बदले में दूध लेते हैं । परन्तु हमने क्या गाय पाल रक्खी है ? मगर तप और संयम के लिए इस शरीर की रक्षा करना है, इसलिए माँग लाये । तप-संयम के नाम पर लाये हुए दूध को पीकर अगर पारमाता संया में लगा, तव तो उचित है, अन्यथा एक छूट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [ जवाहर-किरणावली -.- -.-.-.-- - -- का बदला चुकाना भी कठिन हो जायगा । लोगों ने यह दूध हमें तप-संयम पालने के लिए दिया है, विकारों का पोषण करने के लिए नहीं दिया है। धन्ना मुनि वेले-वेले का तप करते हुए पारणे में ऐसा आहार लेते थे जिसे भिखारी भी पसंद न करे । ऐसा आहार करते हुए भी वे तप करते थे । हे आत्मन् ! विचार कर कि वे तो नीरस और रूखा-सूखा आहार करके भी तप करते थे और तू कैसा आहार करना है और उसके बदले में क्या करता है ? इस प्रकार का विचार करने वाला अपनी जीभ पर अंकुश रख सकेगा और उसकी धारणा बन जायगी कि भोजन जीभ को संतुष्ट करने के लिए नहीं है, वरन तप और संयम की वृद्धि के लिये है । भोजन करके जो तप और संयम का पालन करता है, उसका भोजन करना सार्थक है। जो ऐसा नहीं करता वह अपने माथे पर कज़ चढ़ा रहा है। दिन और रात्रि संबंधी प्रतिक्रमण का अर्थ क्या है ? इनकी नियमितता पर शास्त्र में जो जोर दिया गया है, उस का रहस्य क्या है ? जो गृहस्थ या साधु प्रतिक्रमण के असली रहस्य और उद्देश्य को समझकर भावपूर्वक प्रतिक्रमण करेगा, उसके जीवन में उत्क्रान्ति हुए बिना नहीं रह सकती। जो ज्यादा बढ़िया खाना खाता है और बढ़िया कपड़ा पहनता है, उसे समझना चाहिए कि मुझे इसका ज्यादा बदला देभपड़ेगा। होटल में जाकर एक आदमी चने चबाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [१६३ --- ---- - - - -- 4 "-' - -- -- है और दूसरा पिश्ते की बर्फी खाता है। इन दोनों में से किसे अधिक दाम देते होंगे? 'पिश्ते की चक्की वाले को !' __ इसी प्रकार खाना मात्र पराया है । अतएव खाना खाकर अपने कर्तव्य को भूल न जाओ। माथे पर जो ऋण • ले रहे हो, उसे चुकाने की भी चिन्ता रक्खो और यथाशक्ति चुकाते चलो। अगर तुम साधु हो तो वास्तविक साधुता प्राप्त करो और अगर श्रावक हो तो सच्चे श्रावक के गुण प्राप्त . करो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भोजन करने की भावना रक्खो और अडबंड खाना छोड़ो। श्रावक मांस और मदिरा का सेवन नहीं करता। क्यों? इसीलिए कि इन वस्तुओं के खान-पान से प्रकृति सात्विक नहीं रहेगी और खाता इतना भारी हो जायगा कि उसका चुकता करना कठिन हो जायगा। __ साधु तो दूसरों के घर से आहार लाते हैं पर श्रावक अपने घर का खाते हैं। वह सोच सकते हैं कि हम अपनी कमाई खाते हैं । पराई कमाई नहीं खाते । मगर उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनकी कमाई क्या है ? ज़रा अपनी कमाई का विचार तो करो! तुम ऐसी कौन-सी चीज़ अपने हाथ से उत्पन्न करते हो, जिससे तुम्हारी या दूसरों की जीवन संबंधी आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति होती हो ? - किसान को ऐसा कहने का अधिकार हो सकता है, क्योंकि वह मिट्टी में से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [जवाहर-किरणावली अनाज़ निकालता है। आप किस विरते पर ऐसा अभिमान कर सकते हो ? पैसा कमा लेना अपनी कमाई का खाना नहीं कहलाता। मित्रो ! मेरे कहने पर विचार करो। मैं प्रतिदिन कहता हूँ, इस कारण इस कथन के प्रति उपेक्षा मत करो। आपके जीवन का उत्कर्ष ऐसी बातों पर गहराई के साथ, एकान्त में । विचार करने से और अपने उन विचारों को अमल में लाने से ही होगा। निस्संदेह आप पुण्यशाली हैं । इसी कारण आपको बुद्धि मिली है । पुण्य से मिली बुद्धि को दूसरों को अपने फंदे में फँसाने के काम में मत लगाओ। बुद्धि के दो काम हैं । प्रथम यह कि किसी को न फंसाया जाय और दूसरा यह है कि फँसे हुए को निकाला जाय। अगर फँसाने वाला ही बुद्धिमान् समझा जाय तो मच्छीमार को सब से बड़ा बुद्धिमान् कहना पड़ेगा। दूसरे लोग कभी-कभी किसी को फँसाते हैं किन्तु मच्छीमार का प्रधान धन्धा ही मछलियों को फँसाना है। मच्छीमार ऐसी चतुराई से जाल बनाता है कि मकलियाँ उसमें फँस तो जाती हैं मगर निकल नहीं सकतीं। फिर भी शानपूर्वक विचार करने से प्रतीत होगा कि फँसाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । फंसे हुए को निकालने में ही बुद्धिमत्ता है । इस तथ्य पर विचार करने से आप अपनी बुद्धि का सदुपयोग करना सीखेंगे। ___ आप जो खाते-पीते हैं, उसका कुछ तो बदला दीजिये। माफल तो नहीं हाँका सकते, परन्तु समभात मकर संसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१६५ - - - - - - - को शांति तो दे सकते हैं ? प्रत्येक श्वासोच्छ्वास में पाप लगता है। इसका बदला श्राप किस प्रकार चुकाते हैं ? मतलब यह है कि आपको जो इंद्रियाँ प्राप्त हैं उनका आप जैसा चाहें वैसा उपयोग कर सकते हैं। प्रत्येक इंद्रिय का बुरा उपयोग भी हो सकता है और अच्छा उपयोग भी हो सकता है। आप अपने कानों से उत्तम पुरुषों के वचन भी सुन सकते हैं, अपना अन्तर्नाद भी सुन सकते हैं। इससे आपकी आत्मा सुप्रतिष्ठित होगी। यदि ऐसा न करके दूसरों की निन्दा और विकथा सुनने में कानों का उपयोग किया तो आपकी आत्मा दुःप्रतिष्ठित हो जायगी । जिनके कान सामायिक के समय भी ठिकाने नहीं रहते, समझना चाहिए कि उन्होंने आध्यात्मिक स्थिति नहीं पाई है। इस प्रकार जब आप फूल की छड़ी बना सकते हैं तो नागिन क्यों बनाते हैं ? आपकी आत्मा में जो शक्ति है वह अनन्त पुण्य का निर्माण कर सकती है, फिर उसे अाप घोर, पाप के निर्माण में क्यों लगा रहे हैं ? इन्हीं आँखों से संत-महात्माओं को देख सकते हो और इन्हीं से वेश्या का शृङ्गार भी देख सकते हो। सोचो कि किसके देखने में तुम्हारा हित है ? और किसके देखने से प्रात्मा का पतन होता है ? मित्रो ! आत्मा को वैतरणी मत बनाओ, कामधेनु बनाओ। हां, अगर वेश्या को देखकर हृदय में यह विचार आता हो कि यह भी मेरी माता है तो बात दूसरी है । ऐसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [ जवाहर-किरणावली स्थिति में उसके देखने से आत्मा का पतन नहीं होगा। महाभारत में एक कथा है । अर्जुन तप कर रहे थे। उन्हें डिगाने के लिए एक अप्सरा आई । उसने विकारजनक हावभाव दिखाने में जरा भी कसर नहीं रक्खी । लेकिन अर्जुन ने उसके रंगरूप की प्रशंसा करते हुए कहा-अगर मैं इस पेट से जन्मा होता तो मेरा रूप भी ऐसा ही होता! इस विचार के कारण अर्जुन को जो सिद्धि बहुत दिनों में प्राप्त होने वाली श्री वह उसी क्षण प्राप्त हो गई। बुरे काम से बचने के लिए कइयों ने अपनी आंखें ही फोड़ ली हैं । सूरदास के विषय में यह बात प्रसिद्ध है। भक्त तुकाराम कहते हैं पापाची वासना नको दाउ डोला। त्यातुन बांधला बराच मी ॥ वह कहते हैं-प्रभो ! मुझ पर अगर तेरी कृपा है तो तू इतना कर कि मेरी आंखों में पाप की भावना न आने पावे । अगर तू इतना नहीं कर सकता तो मुझे अंधा तो बना दे ! मैं अन्धा होना अच्छा समझता हूँ मगर विकारयुक्त आंखों से पराई स्त्री को देखना पसंद नहीं करता। ___ इस प्रकार एक-एक इंद्रिय के संबंध में विचार करो और चौकसी करते रहो कि वह कहाँ-कहाँ जाती है और क्या-क्या करती है ? ऐसा करके .अगर आपने इंद्रियों को अच्छे काम में लगा दिया तो प्रात्मा कल्पवृक्ष बन जायगा। इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ १९७ प्रकार तुम्हारे दोनों हाथों में से एक में नरक की और दूसरे में स्वर्ग की चाबी है। जिसका द्वार खोलना चाहो, खोल सकते हो। अपनी एक आंख से कूटशाल्मलि वृक्ष बना सकते हो और दूसरी को नन्दन वन बना सकते हो। दोनों का बनाना तुम्हारे अधीन है। जो चाहो, बना लो। आपकी शक्ति स्वर्ग और अपवर्ग की ओर भी ले जा सकती है । और नरक एवं निगोद में भी घसीट सकती है जिस ओर जाना चाहो, जा सकते हो । अगर अपनी शक्ति का उपयोग करोगे तो कल्याण के भागी होओगे और अपने मानवभव को सफल बना सकोगे । GUYANE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IJ चार भावनाएँ -::::()::::-- भारतवर्ष के विभिन्न सम्प्रदायों एवं पन्थों में तत्त्वज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई है। किसी पन्थ के शास्त्र को उठाकर देखिये, उसमें तत्त्वज्ञान का महत्त्व अवश्य बतलाया गया होगा। कई - एक दर्शनशास्त्र तो यहां तक आगे बढ़ गये हैं कि उन्होंने सिर्फ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति से मुक्ति होने का विधान किया है । यह ठीक है कि चारित्र की परिपूर्णता के अभाव में निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती, मंगर चारित्र का प्रादुर्भाव तत्त्वज्ञान से ही होता है । अब तक दृष्टि मिथ्या है और मनुष्य मिथ्याज्ञान से घिरा हुआ हैं तब तक उसमें जागृति नहीं श्राती । कर्म के बंधन जब कभी ढीले पड़ते हैं और तत्त्वज्ञान का प्रादुर्भाव हो जाता है तो मनुष्य के नेत्र खुल जाते हैं। वह जिन वस्तुओं को पहले जानता था उन्हीं को बाद में भी. जानता है, लेकिन उसके जानने में आकाश-पाताल का अन्तर हो जाता है। अक्षरज्ञान से शून्य बालक भी पुस्तक के अक्षर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [१६६ देखता है और अक्षरज्ञान वाला भी देखता है। पर दोनों के देखने में कितना अन्तर है ? यही अन्तर मिथ्याज्ञानी और तत्त्वज्ञानी के जानने में होता है। तत्व का निर्णय करना बुद्धि का काम है। तत्त्व क्या है और अतत्व क्या है, इस बात को जाने विना अात्मा जड़ के समान है। तत्त्व-अतत्त्व का निर्णय किये विना बुद्धि का पाना और न पाना समान है और ऐसा पुरुष पशु से बढ़कर नहीं कहा जा सकता। __ प्रश्न हो सकता है कि तत्त्वज्ञान कहाँ से निकलता है और उसके प्राप्त होने पर आत्मा को क्या लाभ होता है ? तत्त्वशान का प्रादुर्भाव होने पर आत्मा में क्या विशिष्ट परिवर्तन हो जाता है ? क्या कोई ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जो पहले प्राप्त न हुई हो ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्र कहता है कि आत्मतत्त्व के जान लेने पर इससे भी बड़ी बात होती है। मगर मुंह से कह देने मात्र से कुछ नहीं होता। असलियत का पता तो अनुभव करने से चलता है। ज्ञान को जब क्रिया के रूप में परिणत किया जाता है तभी सिद्धि मिलती है। अगर क्रिया हुई और ज्ञान नहीं हुआ तो अंधाधुंधी चलेगी। अतएव यह आवश्यक है कि शान और क्रिया का समन्वय करके सिद्धि प्राप्त की बाय । अनन्त बार नरक की दुस्सह वेदना भोगने पर भी दुःखों का अन्त नहीं पाया। अब कब का दुःख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [जवाहर-किरणावली भुगतते रहने की ठानी है ? कहाँ तक संसार में और नरक में चक्कर खाया करोगे? मित्रो ! आत्मा को संसार रूपी गड़हे में मत डाले रहो। किस प्रकार आत्मा गड़हे में से निकल सकता है, यह बात अन्यत्र कही जा चुकी है। 'अप्पा मित्तमित्तं च ।' अर्थात् आत्मा स्वयं अपना मित्र और स्वयं अपना शत्रु है। अब तक तुमने बहुतों पर दोषारोपण किया है, मगर अब इस निश्चय पर आ जाओ कि यह आत्मा ही दुःखों का सृष्टा है। जब आत्मा ही अपने दुःखों और कष्टों का कर्ता है तो वही उन्हें मिटा भी सकता है। कर्म तुम्हारे किये हुए हैं तो तुम्हीं उन्हें मिटा भी सकते हो। हथकड़ियाँ और बेड़ियां तुमने अपने हाथ से अपने हाथों-पैरों में डाल रक्खी हैं उन्हें तुम्हीं तोड़ सकते हो। मगर यह सब होगा तभी जब आत्मशान का तेज अपने में आने दोगे। जो कर्म किये जा चुके हैं, उन्हें किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान आत्मा की शक्ति को पहचान लेने पर अनायास ही हो जाता है। ____एक वेश्या सिंगार करके पुरुषों को मोह में डालने के लिए चल रही है । उसे देखकर अगर किसी के चित्त में विचार पैदा होता है तो वह आप ही कर्म का बंधन बाँधता है या नहीं? 'बाँधता है !' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २०१ तो जिसमें कर्म बांधने की शक्ति है, वह ज्ञान प्राप्त करके देखे और अपने मन को पलट कर उस वेश्या को बुरी दृष्टि से देखने के बदले मातृभाव से देखे या कल्याणभाव से देखे तो वह क्या अपने कर्म का आप ही नाश नहीं कर सकता ? 'अवश्य कर सकता है !' वेश्या निमित्त रूप से कर्म का बंध करा सकती है और कर्म का नाश भी करा सकती है । वह सुप्रतिष्ठित भी करा सकती है और दुष्प्रतिष्ठित भी करा सकती है। आपको ज्ञानधन बनना चाहिए । संसार तो यही समझता रहेगा कि वेश्या नरक का द्वार है, खराब प्रवृत्ति में डालने वाली है, घोर मोह में डुबाने वाली है, लेकिन ज्ञानधन वेश्या को भी अपने कर्मनाश का कारण बना लेगा । इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है -- सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदम्, क्लिष्ट षु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममारमा विदधातु देव ! हे देव ! अगर तू मुझपर प्रसन्न है तो मैं और कुछ नहीं चाहता, केवल यही चाहता हूँ कि प्राणीमात्र के प्रति मेरे अन्तःकरण में मित्रता का भाव बना रहे । आप कह सकते हैं कि वेश्या से मैत्री किस प्रकार की जन्म ? किन्तु वेश्या क्या प्राणी नहीं है ? क्या वेश्या में आत्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] [ जवाहर-किरणावली नहीं है ? उसमें आत्मा ही न होती तो उसकी संगति कौन करता? अत्मा होने से ही वह बुरी या भली है। इस प्रकार जब उसमें आत्मा है तो उससे मित्रता करना ही उचित है। धूल को बाजीगर यदि धूल ही बतलाए तो उसकी विशेषता क्या है ? उसकी विशेषता तो इस बात में है कि वह धूल को रुपया के रूप में दिखला दे ! ऐसा करने पर ही आप उसे कुशल बाजीगर समझेंगे । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान की कुशलता इस बात में है कि वह वेश्या को ज्ञान-प्राप्ति का साधन बना ले । वेश्या को देखकर विचार करना चाहिए कि इसने कैसा सुन्दर शरीर पाया है, फिर भी खेद की बात है कि यह पैसे के लोभ में फंसकर अपना शरीर नीच से नीच पुरुष को भी समर्पित कर देती है ! हाय ! पैसे का लोभ कितना बुरा है ! मनुष्य को कितने घोर पतन की ओर ले जाता हैं ! संसार के अधिकांश पाप पैसे के लिए या पैसे की बदौलत ही होते हैं। पैसे के संग्रह की लालसा ही संसार को विपत्ति में डाल रही है । पैसे के लिए वेश्या कोढ़ी, रोगी और नीच पुरुष का सत्कार करती है। पैसे के पाश में फंसकर ही वह अपनी प्रात्मा की हत्या कर रही है ! जिसके पास खड़ा होने को भी मन नहीं चाहता, उसे भी वह आदर देती है । यह बुराई इस बाई की नहीं, पैसे की है। हे पात्मन् ! यह वेश्या तुझे उपदेश दे रही है कि 'मैं तो पैसे के लोभ में पड़कर बिगड़ी सो बिगड़ी, पर तू मत बिगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २८३ ड़ना । मैं पैसे के लिए ही नीच काम करती हूँ !' तुम विचार करो कि पैसा कितना नीच है कि तूने मेरी इस बहिन के जीवन को बर्बाद कर दिया ! मैं तेरे चक्कर में नहीं आऊँगा । इस प्रकार विचार करने से वेश्या भी मित्र बन सकती है या नहीं ? जिसे सत्संग का लाभ प्राप्त है और जिसमें ज्ञान है, उसी के लिए वह मित्र है, अन्यथा शत्रु तो है ही । जो पैसे के लोभ में पड़कर नीच काम करता है, वह वेश्या के ही समान है । झूठ बोलना, बाप-बेटे में झगड़ा होना, भाई-भाई में लड़ाई उनना, यह सब किस कारण से होता है ? इन सब अनर्थों का प्रधान कारण पैसा ही है। पैसा घोर से घोर अर्थ करा डालता है । वेश्या तो पैसे के लोभ में पड़कर नीच की संगति ही करती है मगर क्या आपने नहीं सुना कि पैसे के लोभ ने बाप के द्वारा अपने बेटे की हत्या तक करवाई है ? इसी लोभ के चंगुल में पड़कर पत्नी ने क्या पति को नहीं मार डाला ? जिसके हृदय में वेश्या को देखकर इस प्रकार की विचारधारा बहने लगती है, समझना चाहिए कि वही ज्ञानी है । जब वेश्या रूप निमित्त को पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है तो वेश्या भी मित्र - हितकारिणी हुई । ज्ञानी पुरुष को जैसी शिक्षा सती सीता के उज्ज्वल चरित्र से मिल सकती है वैसी ही शिक्षा मलीन आचरण वाली वेश्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [जवाहर-किरणावली के चरित्र से भी मिलती है। ज्ञानी पुरुष विचार करता है आत्मा तो इस वेश्या का भी वैसा ही है, परन्तु दुर्गुणों के के कारण उसमें मलीनता आ गई है। दुर्गुण आत्मा को पतित कर देते हैं, इस सचाई का प्रत्यक्ष उदाहरण वेश्या है । अतएव हे आत्मन् ! तू दुर्गुणों दूर रहना ! वेश्या के दुर्गुणों को और पतन को देखकर तु सावधान हो जा। सीता सत्कर्म में प्रवृत्त करने के कारण हितकारिणी है और वेश्या (ज्ञानी के लिए ) दुष्कर्म से से बचाने का निमित्त होने से हितकारिणी है। ज्ञानियों ने नरक के जीवों का हाल बताया है या नहीं ? . 'बताया है !' मृगापुत्र ने कहा है: सातों नरका हूँ गयो ने अनन्त अनन्ती बार, छेदन भेदन मैं सह्याजी सही अनन्ती बार । रे जननी ! अनुमति दो म्हारी मांय ॥ मृगापुत्र अपनी माता से आज्ञा मांग रहे हैं। आप भी कभी ऐसी आज्ञा मांगते हैं ? 'हिम्मत नहीं !' हिम्मत तो हम देते हैं मगर आपकी इच्छा कहाँ है ? आपके अन्तर में भी एक मां है। उससे प्राक्षा मांगकर कहो कि मैं नरक के जीवों का मित्र बनता हूँ। अगर नरक के जीवों की घोर यातना जानकर आप नरक से बचने का प्रयत्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] करते हैं तो नरक के जीव आपके मित्र हुए या नहीं ? लोग सुखी को मित्र मानते हैं, दुःखी को मित्र नहीं बनाना चाहते । लेकिन भगवान् गौतम, महाप्रभु महावीर से आशा प्राप्त करके प्रत्यक्ष नरक देखने गये थे ! मृगालोढ़ा का दुःख देखकर गौतम स्वामी के हृदय में अपूर्व विचार उत्पन्न हुआ । उन्होंने मृगालोढ़ा को अपना मित्र बनाया। क्या आप भी किसी ऐसे को अपना मित्र बनाते हैं ? लोग मंदिरों, स्थानकों और गिर्जाघरों में जाते हैं। मगर कितने ऐसे हैं जो कत्लखाना देखने जाते हैं ? गौतम स्वामी को वहां जाने में घृणा नहीं हुई जहां मृगालोढ़ा प्रत्यक्ष नरक भोग रहा था, फिर आपको कत्लखाने में जाने मात्र से क्यों घृणा होती है ? मृगालोढ़ा राजकुमार होते हुए भी नरक भोग रहा था । गौतम स्वामी कहते हैं कि मैंने नरक का वर्णन सुना ही था; नरक देखा नहीं. था । परन्तु अब साक्षात् देख रहा हूँ । मृगा लोढ़ा को देखकर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि – 'प्रभो ! मृगा लोढ़ा नरक क्यों भुगत रहा है ?' इस चर्चा का नाम भी शास्त्र रक्खा गया है ! जब उसका शास्त्र बना है तो उससे कुछ लाभ तो लेना चाहिए ! कुछ लाभ न होता तो शास्त्र में इस चर्चा को स्थान ही क्यों मिलता ? [ २०५ सोक्रेटीज़ ( सुकरात ) एक बड़ा आत्मवादी विद्वान् हो गया है । उसके जीवनचरित में लिखा है- सुकरात के हृदय में कत्लखाने से जैसी जागृति हुई वैसी किसी दूसरी चीज़ से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ जवाहर - किरणावली नहीं हुई । वह कत्लखाने में जाता और वहाँ कत्ल के लिए लाई हुई गाय, भैंस आदि को देखता । वह दृश्य कितना करुणा होता होगा ! उसे देखकर हृदय हिल जाता होगा। श्राप लोग मौज-मज़े में पड़कर ऐसी बातों को नहीं देखते, परन्तु प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं । अमर ज्ञानपूर्वक देखा जाय तो विदित होगा कि कसाईखाने में मारे जाने वाले पशु भी हमारे मित्र हैं । कसाईखाने में जाकर पशु किस प्रकार काटे जाते हैं, कटते समय पशुओं की चेष्टा कैसी होती है, इत्यादि बातों को सुकरात देखा करता था । वह मन ही मन सोचतादूर खड़े होकर मैं इस दृश्य को देखता हूँ, फिर भी मेरे रोएँ खड़े हो जाते हैं। मगर इन मारने वालों के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता । इसका कारण क्या है क्या फौलाद का बना है ? मगर मनुष्य मात्र की मूल स्थिति तो एक ही सरीखी है । जान पड़ता है, इस निर्दयता का कारण लोभ है। लोभ के कारण इन्हें मारने पर भी दया नहीं आती और मुझे देखने मात्र से दया आती है । । इनका दिल मतलब यह है कि दया नहीं उत्पन्न होगी जहाँ स्वार्थ न होगा । सुकरात ने विचार किया प्रभो ! तेरी अनन्त दया है कि जिस तृष्णा के वश होकर यह लोग पशुओं को मार रहे हैं और इन्हें दया नहीं आती, मैं उस तृष्णा से बचा हुआ हूँ । आप तो किसी पर छुरी नहीं फेरते ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] ' नहीं ' आपमें धर्म और जाति संबंधी कुछ ऐसे संस्क र परम्परा से चले आये हुए मौजूद हैं कि आप ऐसे प्रत्यक्ष पाप से बचे हैं । मगर विचार करो कि रूपान्तर से तो छुरी नहीं फेरते ? कसाई तो कसाई ही कहलाता है । उसे छुरी फेरते समय दया नहीं आती, लेकिन कलम फिरा कर आप तो किसी की गर्दन नहीं काटते ? अगर कलम चलाते समय आपका अन्तःकरण दयाहीन हो जाता है तो उसका प्रधान कारण लोभ ही है । प्राणी मात्र को अपना मित्र मान कर विचार करो कि- अरे आत्मा ! तेरे में इतनी तृष्णा क्यों है ? तू दूसरे के पाप देखता है पर अपने पाप क्यों नहीं देखता ? जब तक तृणा से हृदय परिपूर्ण है तब तक कसाई को दया कैसे श्रा सकती है ! तृष्णा के होने पर दया उड़ जाती है और केवल स्वार्थ साधने की ही बुद्धि रहती है । [ २०७ सम्पूर्ण तृष्णा तो उच्च अवस्था प्राप्त होने पर ही जीती जा सकती है, मगर अनुचित तृष्णा पर तो इस अवस्था में भी विजय प्राप्त की जानी चाहिए। पैसे की आवश्यकता होने से कसाई पशु को मारता है, लेकिन वह चाहे तो खेती करके भी अपनी आवश्यकता पूरी कर सकता है । मगर वह विवेकहीन और मर्यादाहीन तृष्णा में पड़ गया है । सुना है कि देहली में एक मेम तांगे में बैठकर शराब की दुकान पर शव लेने गई । पिकैटिंग करने वालों ने विनम्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [ जवाहर-किरणावली ------ - -- -- ........... - .. ..-... -.. तापूर्वक शराब न खरीदने का अनुरोध किया। मेम नहीं मानी। पिकैटिंग करने वाला स्वयंसेवक तांगे के आगे सो गया। उसने कहा-मेरे ऊपर से तांगा हाँक ले जाओ। स्वयंसेवक अपने विचार में जैसा पक्का था, मेम भी अपने विचार में वैसी ही पक्की थी ! मेम ने अपना तांगा स्वयंसेवक के ऊपर चलवा दिया और तांगे का पहिया उसकी गर्दन पर फिर गया। इतने पर भी स्वयंसेवक ने परवाह नहीं की और वह यही कहता रहा कि शराब मत खरीदो। ____एक आदमी शराब पीने वालों को रोकने के लिए जान देने को तत्पर होता है और दूसरा शराब पीने के लिए दूसरे की जान लेने को तत्पर होता है। अब देखना यह है कि इस अन्तर का कारण क्या है ? मूल की तरफ देखें तो प्रतीत होगा कि एक को ज्ञान है और दूसरे को अज्ञान है। एक तृष्णा के कारण आत्मविस्मृत है और दूसरा अपने प्राण देकर भी उसकी तृष्णा को रोकना उचित समझता है। इस प्राण देने वाले को कौन बुरा कह सकता है ? 'मूर्ख !' बहुत-से ऐसे लोग भी मिलेंगे जो प्राण देने वाले को ही मूर्ख कहेंगे । गीता में कहा है या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्या जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ भानी लेग जिसे मूर्ख कहते है, उसे प्रशानी बुद्धिमान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २०६ कहते हैं और ज्ञानी जिसे बुद्धिमान् कहते हैं उसे अज्ञानी मूर्ख कहते हैं । 1 जिसके हृदय में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भावना उत्पन्न हो जाती है, वह स्वयं कष्ट सहन करके भी दूसरों की भलाई करता है । मैत्री भावना वाला पुरुष अपने स्वार्थ में फँसकर दूसरों के हित का घात नहीं करता अतएव मैत्री भावना धारण करो और जगत् के हित में अपना हित मानो । ऐसा मानने से निश्चय ही आपका हित होगा । अब प्रमोद भावना का विचार करें। जिस वेश्या के प्रति मैत्री भाव रखना है, उस पर प्रमोदभाव भी रक्खा जा सकता है । वेश्या को देखने पर गुणी जनों की याद आएगी । प्रमोदभावना वाला पुरुष विचार करेगा - एक तो यह सुन्दर शरीर वाली है और दूसरी सती भी सुन्दरं शरीर वाली है । लेकिन यह अपने सौन्दर्य से लोगों को नरक की ओर ले जाती है और सती नरक से निकालती है । सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाएँ तो भी वह अनाचार में प्रवृत्त नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि अँधकार देखने पर ही प्रकाश की याद आती है। ईश्वर को भी लोग तभी याद करते हैं जब दुःख होता है । इस प्रकार वेश्या के प्रति भी प्रमोदभावना धारण की जा सकती है । कष्ट में पड़े हुए, विपदा के सताये हुए जीव पर दया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [जवाहर-किरणाचली आती है, लेकिन ज्ञानी जन वेश्या जैसे पतित समझे जाने वाले जीव पर भी दया का भाव रखते हैं । अब मध्यस्थभावना की बात आती है। संसार में काला तिलक कोई नहीं निकालना चाहता! जो दुराचारी है, वह भी दुराचारी नहीं कहलाना चाहता। ऐसा होते हुए भी वेश्या अपने को वेश्या क्यों कहती है ? इस प्रकार का विचार करके मध्यस्थभावना धारण करो। मध्यस्थभावना धारण करने से श्रात्मा की उन्नति बड़े वेग के साथ होती है। राग-द्वेष न होना मध्यस्थभाव कहलाता है। और जब राग-द्वेष नहीं होता तो आत्मा में समता की सुधा प्रवाहित होने लगती है। उस सुधा में ऐसी मधुरता होती है कि उसका आस्वादन करके मनुष्य निहाल हो जाता है। प्रात्मा को सुखी और शांत बनाने के लिए यह भावना अत्यन्त उपयोगी है। यह चार भावनाएँ अगर आपने प्राप्त कर ली तो आपको सर्वत्र शांति मिलेगी। इनसे आपका परम कल्याण होगा और जीवन धन्य बन जायगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भक्तामर - व्याख्यान ——::::()::::—— भक्तामग्प्रणतमौलिमणिप्रभाणाम्-उद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पचतां जनानाम् ||१|| Cy Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [ जवाहर - किरणावली अर्थ - भक्तियुक्त देवों के झुके हुए मुकुटों में लगी हुई मणियों की प्रभा को चमकाने वाले, पाप रूपी अंधकार के पटल का नाश करने वाले और इस कर्मयुग की आदि में, भव- जल में डूबने वाले मनुष्यों को सहारा देने वाले, जिनेन्द्र भगवान् के चरण-युगल को प्रणाम करके— यः संस्तुतः सकलवाङ्मय उद्भूतबुद्धिपटुभिः बोधात् । सुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्रैः : जगत्त्रितयचित्तहरै रुदारैः । स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ अर्थ- समस्त आगम के तत्त्वज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि से कुशल इन्द्रों द्वारा, तीन लोक के चित्त को हरने वाले स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति की गई है, उन जिनेन्द्र भगवान् की मैं भी स्तुति करूँगा । बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ | स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥ बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुम् ||३|| अर्थ - प्रभो ! आपका सिंहासन देवों द्वारा पूजा गया है। मैं बुद्धिहीन, निर्लज्ज होकर आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ। जल में प्रतिबिंबित होने वाले चन्द्रमा को, बालक के सिवाय और कौन पकड़ने की इच्छा करता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए आचार्य मानतुंग कहते हैं-जिनकी स्तुति इन्द्र ने ऐसे मनोहर स्तोत्र द्वारा की है कि जिस पर तीनों लोकों के जीव मुग्ध हो जावें. उन भगवान् की स्तुति में भी करूँगा। उन भगवान् के चरणों पर इंद्र ने अपना मुकुट नमाया है और उसके मुकुट की मणियां भगवान् के चरणों के प्रकाश से प्रकाशित हो उठी हैं। प्रश्न हो सकता है-इन जड़ वस्तुओं को तो सूर्य भी प्रकाशित कर सकता है। सूर्य के सामने मणि चमक भी उठती है। ऐसी स्थिति में भगवान के चरणों की प्रभा से अगर मणि प्रकाशित हो उठी तो इसमें कौन-सी बड़ी बात हो गई ! ___ स्तुति में इस प्रश्न का समाधान कर दिया गया है। प्राचार्य कहते हैं-भगवान् के चरण 'दलितपापतमोवितानम् हैं। अर्थात् भय एवं अज्ञान आदि रूपी मोह-अंधकार भी भगवान के चरणों के प्रकाश से नष्ट हो जाता है। जो भव्य पुरुष भावपूर्वक भगवान् के चरणों में प्रणाम करता है, उसके अन्तःकरण में मोह का अंधकार नहीं ठहर सकता। चारित्र, आचरण, संयम और सदाचार-इन चारों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ जवाहर - किरणावली 'चरण' कहते हैं । भगवान् का चारित्र, आचरण, संयम और सदाचार इतना वीतर। गतापूर्ण है कि उनके चरणों में झुकते ही संसार के जीवों को अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है और उनके भीतर छाया हुआ मोह का अंधकार तत्काल नष्ट हो जाता है । यह भगवान् के चरणों की विशेषता है । इसके अतिरिक्त भगवान् के चरण 'श्रालम्बनं भवजले पतताम् जनानाम्' हैं । अर्थात् भव रूपी समुद्र में गिरते हुए मनुष्यों के लिए श्रालम्बन हैं। जिस प्रकार ऊपर चढ़ता हुआ मनुष्य अगर नीचे गिरने लगे और उसे रस्सी का सहारा मिल जाय तो वह गिरने से बच जाता है, उसी प्रकार इस भव-समुद्र में गिरते हुए जीवों को बचाने के लिए भगवान् के चरण अवलम्बन हैं । इतना ही नहीं, बल्कि जैसे कोई पुरुष कुए में गिर पड़ा हो और वह रस्सी का सहारा लेकर बाहर श्रा जाता है, उसी प्रकार इस भव-समुद्र में पड़े हुए को बाहर निकालने के लिए भी भगवान् के चरण अवलम्बन हैं । कुए में पड़ा मनुष्य विना सहारे के नहीं निकल सकता, उसी प्रकार इस भवकूप में पड़ा हुआ मनुष्य भी विना सहारा पाये नहीं निकल सकता । अर्थात् उसका उद्धार नहीं हो सकता । श्राचार्य कहते हैं- भगवान् ऋषभदेव के चरण इस भव रूप कूप से निकालने के लिए अवलम्बन हैं। यह भी भगवान् के चरण की विशिष्टता है । इन विशेषताओं के कारण भगवान् के खरण सूर्य से भी विशिष्ट हैं । सूर्य द्रव्य प्रकाश तो देता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२१५ मगर भावप्रकाश नहीं दे सकता। भगवान् के चरण भावप्रकाश देते हैं और उस प्रकाश की लोकोत्तर आभा में प्रान्तरिक तम-मोह विलीन हो जाता है । प्रभु के पदयुगल संसारसागर से पार उतारने वाली नौका हैं । ___ यहां एक प्रश्न और हो सकता है। भगवान के चरण भव-कूप से निकलने के लिए पालम्बन हैं । भगवान् त्रिलोकीनाथ हैं, वीतराग हैं और सभी भगवान् को मानते हैं। वीतराग होने के कारण उन्हें किसी से प्रार्थना, अनुनय या आजीज़ी कराने की भी आवश्यकता नहीं है। उनका सर्वत्र समभाव है। फिर भी भगवान् की चरण-नौका सब जीवों का उद्धार क्यों नहीं करती ? संसार के जीवों को दुःख में पड़ा देखकर तो यही जान पड़ता है कि इन दुखिया प्राणियों को तारने वाला कोई नहीं है ! अगर कोई तारने वाला होता तो यह बेचारे नाना प्रकार के कष्टों से क्यों पीड़ित होते ? । इस प्रश्न का उत्तर यह है। मान लीजिए, एक मनुष्य कृप में गिर पड़ा है। उसमें रस्सी लटकी हुई है । उसे आधाज़ दी जा रही है कि-इस रस्सी को पकड़ ले तो हम तुझे बाहर खींच लेंगे। इतना होते हुए भी अगर गिरा हुआ मनुष्य लटकती हुई रस्सी को न पकड़े तो किसका दोष समझा जाय ? "गिरे हुए का ही !' मधु-विन्दु के लोभ का उदाहरण प्रसिद्ध है । मधु के बूंदों के लाम में फंसे हुए एक मनुष्य को विमान में बैठने के लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] [ जवाहर - किरणावली बुलाया जाय । उससे कहा जाय - 'भाई, आ जा । तेरा जीवन चारों ओर से खतरे में है । तू शीघ्र ही नीचे गिरने वाला है और नीचे गिरते ही भयानक विषधर तुझे डॅस लेगा । इसलिए तू इस विमान में बैठ जा । विमान में बैठकर तू सकुशल अपने स्थान पर पहुँच जायगा ।' मगर वह मधु का लोभी मधु के बूँदों पर इतना अधिक मोहित हो गया है कि अपने भविष्य की चिन्ता नहीं करता। बूँदों का लाभ नहीं छोड़ सकता। ऐसी दशा में तारक क्या करे ? विमान का अवलम्बन देने के लिए जो तैयार है, उसका क्या अपराध है ? यही बात भगवान् के विषय में है । भगवान् वीतराग हैं । सब के तारनहार हैं । सब पर समभाव होने से किसी की प्रार्थना की भी अपेक्षा नहीं रखते । परन्तु जब तिरने वाले की इच्छा ही न हो तो वे तारें कैसे ? वीतराग होने के कारण भगवान् का न किसी पर राग है, न द्वेष है । उनके चरणकमल सब के लिए समान हैं। विना किसी भेदभाव के प्राणी मात्र प्रभु के चरणों का सहारा ले सकते हैं । जो सहारा लेता है वह तर जाता है और जो सहारा लेगा, तर जायगा । मगर मोह की प्रबलता के कारण जो मनुष्य सहारा ही नहीं लेता, बल्कि लेना ही नहीं चाहता, वह कैसे तरेगा ? ऐसी हालत में अगर वह तर नहीं सकता और दुःखों का पात्र बना ही रहता है तो अपराध उन चरणों का नहीं है । भगवान् के चरणों का श्राश्रय लेकर तो असंख्य मनुष्य तरे हैं। बड़े-बड़े पापियों 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२१७ को भी भगवान् की चरण-नौका ने तार दिया है। प्रश्न हो सकता है जिस समय भगवान् सशरीर विद्यमान थे उस समय उनके चरणों का दर्शन हो सकता था और चरण पकड़े भी जा सकते थे। मगर आज क्या किया जाय ? आज भगवान् मौजूद नहीं हैं और उनके चरण पकड़े बिना संसार-सागर से तर नहीं सकते । तो क्या अब अनन्त भवसागर में ही गोते लगाते रहना पड़ेगा ? इस प्रश्न के संबंध में पहले ही कहा जा चुका है कि सम्यग्ज्ञान के साथ पालन किया जाने वाला सम्यक् चारित्र ही असल में चरण है। दया रूप मोक्षमार्ग ही भगवान् का चरण है। और उस मोक्षमार्ग को ग्रहण करना ही भगवान के चरण ग्रहण करना है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को ग्रहण न किया जाय तो भगवान् के साक्षात् मिल जाने पर भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। प्रयोजन की सिद्धि तो इस रत्नमय की प्राप्ति से ही हो सकती है। जो मनुष्य संसार-सागर से तिरने की इच्छा रक्खेगा वह कभी नहीं कहेगा कि भगवान् नहीं हैं या उनके चरण नहीं हैं। जब भगवान् के बतलाये सम्यग्ज्ञान, चारित्र मौजूद हैं तो समझना चाहिए कि भगवान के चरण ही मौजूद हैं। .. जो जीव भगवान के चरणों का प्राथय लेना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे प्रारंभ और परिग्रह की लहरों से बचकर भगवान के चरणों का प्राश्रय लें। जिन्होंने प्रभु के परम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [जवाहर-किरणावली ----- - -- - पावन पद-पंकज का आश्रय लिया है, संसार की कोई भी शक्ति उन्हें दुखी नहीं कर सकी । हाँ, एक बात ध्यान में रखनी होगी। एक साथ दो घोड़ों पर सवार होने की चेष्टा करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती । ऐसा करने वाला सफलता नहीं पा सकता। इसी प्रकार धन का भी अवलम्बन चाहने से और भगवान् का भी अवलम्बन चाहने से काम नहीं चलेगा। जो भगवान् के चरणों का आधार चाहता है उसे धन का आधार त्यागना पड़ेगा। जो धन के आधार पर निर्भर है उसे भगवान के चरणों का आधार नहीं मिलेगा। ठाणांगसूत्र में कहा है दुवे ठाणे पाया केवलीपरणतं धम्मं नो बभेजा सबणियाए। अर्थात् दो बातों को बुरी समझे विना और उनके प्रति राग का त्याग किये विना सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं होता। वे दो बातें हैं-प्रारम्भ और परिग्रह । जब तक इन दोनों की ओर से प्रात्मा विमुख न हो जाय तब तक अरिहन्त भगवान् के शरण में नहीं पहुँचता। प्रश्न किया जा सकता है क्या धर्म और ईश्वर का दायरा इतना संकीर्ण है ? केवलि द्वारा प्ररूपित धर्म को अगर प्रारंभ और परिग्रह का त्याग किये बिना कोई सुन भी नहीं सकता तो उसका आचरण कैसे कर सकेगा ? ऐसी दशा में केवली का धर्म सिर्फ साधुओं के लिए ही है, गृहस्थों के लिए नहीं ? इस प्रश्न का उत्सर यह है कि केवलि-कथित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२१९ धर्म उसी को प्यारा लगेगा जिससे प्रारंभ-परिग्रह का त्याग होगा, यह कथन सत्य ही है। मगर यह आवश्यक नहीं कि सभी लोग एकदम ही सम्पूर्ण प्रारंभ-परिग्रह त्याग दें । जैसे किसी ऊँचे महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ होती हैं और सर्वसाधारण क्रमशः सीढ़ियों पर चढ़ते हैं, उसी प्रकार प्रारंभ-परिग्रह त्यागता चलता है वही केवलि-कथित धर्म की ओर उतना ही अग्रसर होता जाता है और उतने ही अंशों में भगवान के चरणों पर निर्भर बनता जाता है। ___ महाराजा उदायी सोलह देशों पर राज्य करते थे, फिर भी वह श्रावक थे । श्रावक भी वह सिर्फ धर्म का श्रवण करने वाले नहीं वरन् आराधन करने वाले थे। उदायी के सिवाय और भी अनेक राजा-महाराजा हुए हैं जिन्होंने परमात्मा की शरण ली है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि पूर्णतः प्रारंभ-परिग्रह का त्याग किये विना परमात्मा नहीं मिल सकता ? आनन्द श्रावक के पास बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ थीं। चार करोड़ पृथ्वी में गड़ी थीं, चार करोड़ की ऊपरी सम्पत्ति थी और चार करोड़ व्यापार में लगी थीं। यह सम्पत्ति आनन्द श्रावक के पास, भगवान महावीर के समक्ष व्रत धारण करने से पहले से ही थी। व्रत धारण कर लेने पर उसने सम्पत्ति बढ़ाने का त्याग कर दिया था। अब आपको केबलि-कथित धर्म का श्रवण करने पर धन सम्बन्धी ममता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [जवाहर-किरणावली - - - - - घटाना चाहिए या बढ़ाना चाहिए ? आनन्द श्रावक चार करोड़ स्वर्ण-मोहरों की पूँजी से व्यापार करता था; मगर सम्पत्ति बढ़ाने का उसने त्याग कर दिया था। इतना विशाल व्यापार करते हुए भी वह सम्पत्ति नहीं बढ़ने देता था। अब आप विचार कीजिए कि अानन्द ने किस उद्देश्य से और किस प्रकार व्यापार किया होगा ? गहराई से विचार करो तो आपको विदित होगा कि अानन्द का व्यापार कैसा था और आज का व्यापार कैसा चल रहा है ! आज व्यापार के नाम पर गरीबों का किस प्रकार गला घोंटा जारहा है, यह बात उसकी समझ में आ सकती है, जिसके दिल में दया का वास हो। आज के व्यापारियों ने व्यापार को व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि का साधन समझ रक्खा है, जब कि वह सामाजिक लाभ का द्वार होना चाहिए । व्यापार भी वही आदर्श समझा जा सकता है, जिसकी छाप दुनिया पर उत्तम पड़े और जिससे न्याय-नीति का प्रकाश हो। आज लोभ में पड़ी दुनिया व्यापार करती है, परन्तु दूसरे का गला घोंटने के लिए ही। कदाचित् कहीं ऐसी दुकान हो जहाँ नफा न लिया जाता हो और जो गरीबों का विश्रान्तिस्थल हो तो कितनी अच्छी बात हो! कहा जा सकता है कि व्यापार में नफा लेकर धर्म कर देने-दान दे देने में क्या हानि है ? इसका उत्तर यह है कि पहले कीचड़ से हाथ भरे जाएँ और फिर धोए जाएँ; ऐसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . - - - - - - - . .-----.- .. - -- - - -. --. -.-.. -.. बीकानेर के व्याख्यान [२२६ ------ --- करने से क्या लाभ है? पहले ही नफा न लेकर वस्तु दी जाए तो कितना सुन्दर आदर्श हो ! नीतिकार भी कहते हैं प्रदालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं घरम् । अर्थात्-पहले कीचड़ लगाकर फिर धोने की अपेक्षा तो कीचड़ से दूर रहमा ही भला है। आज मुनाफ़ा न लेने वाली या मर्यादित मुनाफ़ा लेने वाली दुकान कहीं हो तो उससे जनता को बड़ी जबर्दस्त । शिक्षा मिल सकती है। कहा जा सकता है कि आज इस प्रकार का व्यापार करने से दिवाला निकल जाने में क्या देर लगेगी ? आज इतनी तेजी-मंदी चलती है कि न पूछिए बात। यह ठीक है, मगर आज का व्यापार, व्यापार नहीं, कानून द्वारा सम्मत लूट है। अमेरिका की किसी राजनैतिक घटना का प्रभाव भारत के व्यापार पर पड़े और वह भी अचानक बिजली की तरह पड़े, भला यह भी कोई व्यापार है? इसके अतिरिक्त अाज सट्टे के व्यापार की ही सर्वत्र प्रधानता देखी जाती है। सट्टा देश का दिवाला निकालने का साधन है। प्रतापगढ़ में पन्नालालजी मोगरा नामक एक सजन थे। वह श्री राजमल जी महाराज के बड़े भक्त थे। एक दिन उन्होंने मुनिजी से कहा-महाराज, अाजकल व्यापार नहीं चलता, इसलिए धर्मकार्य करने में भी मन नहीं लगता। मुनिजी ने उत्तर दिया-तुम श्रावक होकर दुःख मानते हो, यह आश्चर्य की बात है। लोभ में पड़कर दुगने-डयोढ़े करना चाहते हो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ जवाहर-किरणावली इसी कारण तुम्हें लगता है कि व्यापार नहीं चलता ! पन्नालालजी के मन में मुनिजी की बात बैठ गई। उसी समय उन्होंने एक आना प्रति रुपया से अधिक नफा न लेने की मर्यादा कर ली। वह कपड़े की दुकान करते थे। उन्होंने सब कपड़ों पर अंक चढ़ा कर कीमत निश्चित कर दी । प्रारंभ में तो उन्हें कुछ असुविधाओं का सामना करना पड़ा परन्तु कुछ दिनों बाद ऐसा विश्वास जमा कि लोग उन्हीं की दुकान से खरीद करने लगे। भील भी उन्हीं के ग्राहक बन गये । पन्नालालजी की ऐसी प्रतिष्ठा जमी कि लाखों रुपया खर्च करने पर भी वैसी न जमती । इस प्रकार उनका व्यापार भी खूब चमक उठा और प्रतिष्ठा भी चमक उठी। लोगों में यह बात फैल गई कि पन्नालालजी झूठ नहीं बोलते ! प्रानन्द श्रावक की सम्पत्ति मर्यादित थी। व्रत ग्रहण करने के पश्चात् उसने अपना धन नहीं बढ़ाया। इसके अतिरिक्त आनन्द का धन उसी के भोग-विलास के लिए नहीं था, वरन् दूसरे को आपत्ति के समय सहायता पहुँचाने के लिए था। एक व्यक्ति वह है जो अपने दीपक से दूसरों के दीपक को प्रज्वलित करता है और दूसरा वह है जो दूसरों के दीपकों का तेल अपने दीपक में उड़ेल लेता है। इन दोनों व्यक्तियों में जो अन्तर है वही प्रायः प्रानन्द के और माधुनिक व्यापारियों के व्यापार में अन्तर है। कहने का प्राशय यह है कि आरंभ और परिग्रह का स्याग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२२३ किये विना केवलि द्वारा प्ररूपित धर्म नहीं सुहाता । यह पीली और सफेद मिट्टी (अर्थात् सोना और चांदी) ही धर्म का प्राचरण करने में बाधक नहीं है वरन् लोगों की बढ़ी हुई तृष्णा भी बाधक है। ज्ञानी जन कहते हैं कि सर्वश भगवान् के कथित धर्म का श्रवण करने से यह लालसा शान्त हो जाती है। जिसने धर्म को सुनकर उस पर मनन किया होगा वह अपनी सम्पत्ति को अपने भोग-विलास के लिए नहीं समझेगा किन्तु संसार के लाभ के लिए समझेगा। और ऐसा समझने वाला ही भगवान का सच्चा भक्त हो सकता है । इसलिए मैने कहा है कि एक साथ धन की और भगवान् की सहायता नहीं मिल सकती। सेवा करने वाला सेवक कहलाता है। जो भगवान् की सेवा करना चाहता है वह जड़ पदार्थों की सेवा नहीं कर सकता । एक प्रश्न आप अपने अन्तःकरण से पूछिए-तू धन का सेवक है या स्वामी है ? अगर आप धन के सेवक नहीं है नो भगवान् की सेवा कर सकते हैं और यदि धन के सेवक हैं तो फिर भगवान् के सेवक नहीं बन सकते। जो धन का गुलाम है उसे अन्याय और न्याय नहीं सूझता। उसे पैसा ही पैसा सूझता है । और जिसे पैसा ही पैसा सूझता है उसे भगवान् कैसे सूझेगा? वह भगवान् की सेवा नहीं कर सकता। उसके लिए पैसा ही परमेश्वर बन जाता है। काम कराने के लिए नौकर रखा जाता है। अगरनीकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ जवाहर - किरणावली की ही सेवा करनी पड़े या उसकी सेवा का उत्तरदायित्व आपके ऊपर आ पड़े तो आप यही कहेंगे कि यह नौकर क्या रक्खा हम स्वयं इसके नौकर बन गये ! आप ऐसे नौकर को रखना पसंद नहीं करेंगे और अलहदा कर देंगे । यही बात धन के संबंध में है । धन के द्वारा आपने अपनी श्रात्मा की कुछ भलाई कर ली तब तो आप उसके स्वामी हैं। अगर धन की बदौलत नरक में पहुँचाने वाले काम हुए- धन मे आपको नरक का पात्र बना दिया तो आप धन के स्वामी कैसे कहलाए ? चार थाने के लिए झूठ बोलना, कम तौलना, कम नापना, अच्छी चीज़ में बुरी मिलाकर बेचना और झूठे दस्तावेज़ बनाना धन की गुलामी करना नहीं है तो क्या है ? ऐसा धन धनी को भोगता है. धनी उसको नहीं भोगता । धन के आगे धर्म प्यारा न लगना धन की गुलामी का अर्थ है । धर्म की परवाह न करके जो अनीति और छलकपट से धन एकत्रित करने में लगा रहता है, वह वीतराग का मार्ग नहीं पा सकता। जिसे वीतराग का मार्ग पाना है उसे धन के लिए अन्याय - अनाचार करने का परित्याग करना चाहिए । जो पुरुष ऐसा करने के लिए संकल्प करके तैयार हो जायगा और तात्कालिक कठिनाइयों की परवाह न करके अपने संकल्प पर दृढ़ रहेगा, वही भगवान् के चरणों का आश्रय पा सकेगा । के चरण भव- कुप में डूबते को अवलम्बन हैं । भगान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२१५ ----- ------- ----- प्राचार्य ने कहा है कि मैं भी उम चरणों की स्तुति करूँगा। प्रश्न हो सकता है-तीन ज्ञान के धनी देवराज इन्द्र ने भगवान की प्रभावशाली स्तोत्रों द्वारा स्तुति की है। क्या आप उससे भी अधिक प्रभावशाली स्तुति कर सकते हैं ? अगर नहीं कर सकते तो फिर क्यों व्यर्थ चेष्टा करते हैं ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ ! स्तोतु समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुविम्बम अन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुम् ।। प्राचार्य कहते हैं-हे प्रभो ! मैं बुद्धिहीन हूँ। इन्द्र से मैं बुद्धि में ऊँचा नहीं हूँ कि उससे भी बढ़कर स्तुति कर सकूँगा। फिर भी मेरी बाल-लीला नहीं रुकती । हे इन्द्र द्वारा पूजित सिंहासन वाले ! जहाँ आपके चरण पड़ते हैं उस पाट को भी इन्द्र नमस्कार करता है । मुझमें ऐसी बुद्धि नहीं है कि आपके गुणों का कीर्तन कर सकूँ । फिर भी आपके गुणकीर्तन की अभिलाषा ऐसी प्रबल हो उठी है कि वह रोके नहीं रुकती। विद्वत्ता मुझमें से निकल गई है और में बालभाव में आ गया हूँ। अतएव मुझे यह शर्म नहीं रही कि मुझसे स्तुति बनेगी या नहीं बनेगी ! बालक नहीं सोचता कि मुझसे यह काम हो सकेगा या नहीं, फिर भी वह काम में जुट जाता है। ऐसी ही अवस्था मेरी है। मेरी यह स्तुति, नहीं, बालचेष्टा है । जैसे स्तुति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] [जवाहर-किरणावली बालक जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिविम्ब को पकड़ने की चेष्टा करता है-तफलता और असफलता का विचार नहीं करता, उसी प्रकार मैं भी स्तुति-चन्द्र को पकड़ना चाहता हूँ। वह स्तुति-चन्द्र भले ही पकड़ में न आवे, परन्तु इस चेष्टा से मेरा मन अवश्य ही प्रसन्न होगा। स्तुति के इस कथन का अभिप्राय हमें समझना चाहिए । • इसमें गहरा मतलब भरा है। वे कहते हैं-मुझे पंडित बनना नहीं आता तो क्या हुआ, बालक बनना तो आता ही है। भगवान् की स्तुति करने के लिए स्तोता को बालक बन जाना चाहिए। लोग बालक को बुद्धिहीन और मूर्ख समझ कर उसकी उपेक्षा करते हैं । परन्तु बालक जैसे निरहंकार होते हैं, वैसे अगर आप बन जाएँ तो आपका बेड़ा पार हो जाए । बुद्धिमत्ता का ढांग छोड़कर अगर आप अपने अन्तःकरण में बालसुलभ सरलता उत्पन्न कर लें तो कल्याण आपके सामने उपस्थित हो जाय । बालक का हृदय कितना सरल होता है, यह बात एकं दृष्टान्त से समझिए । एक मुहल्ले में आमने-सामने दो घर थे । उन दोनों घरों में देवकी और यशोदा नाम की दो लड़कियाँ थीं । देवकी और यशोदा नहीं जानती थी कि हम देवकी और यशोदा हैं, पर उनके माता-पिता ने उन्हें यही नाम दे दिये थे। फागुन का महीमा था। दोनों बालिकाओं के माँ-बापों में उन्हें अच्छे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२२७ अच्छे कपड़े पहनाये थे। बच्चों को स्वभावतः घर प्यारा नहीं लगता। वे बाहर घूमना-फिरना और खेलना बहुत पसंद करते हैं । शायद अपने शरीर का निर्माण करने के लिए उन्हें प्रकृति से यह अव्यक्त प्रेरणा मिलती है। अगर बालकों की तरह आप भी घर से उतना प्रेम न रक्खें तो आपको पता चलेगा कि इसका परिणाम कितना अच्छा होता है। देवकी और यशोदा कपड़े पहनकर अपने-अपने घर से बाहर निकलीं। वर्षा होकर बन्द हो चुकी थी किन्तु पानी गलियों में अब भी बह रहा था। देवकी और यशोदा उसी बहते पानी में खेलने लगीं। दोनों ने पानी में अपने-अपने पैर छपछपाये। पैरों के छपछपाने से कीचड़भरा पानी उछला और कपड़ों पर धब्बे पड़ गये। दोनों के कपड़ों पर धब्बे पड़ गए हैं, यह देखकर दोनों एक दूसरी को आपस में उलहना देने लगीं। उलहना देती हुई वह अपने-अपने घर लौटीं। कीचड़ से भरे कपड़े देखकर और बालिकाओं का आपस में उलहना देना सुनकर दोनों घर वाले झगड़ने लगे। यद्यपि झगड़े का कोई ठोस आधार नहीं था, और अगर दोष समझा जाय तो दोनों बालिकाओं का दोष बराबर ही था; परन्तु दोनों के माँ-बापों के दिल में पहले की कोई ऐसी बात थी कि उन्हें लड़ने का बहाना मिल गया । दोनों ओर से वाग्युद्ध हो रहा था कि इतने में एक वृद्धा वहाँ आ पहुँची। उसने दोनों घर वालों से हाथ जोड़कर कहा-आज होली का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] [ जवाहर - किरणावली त्यौहार है | आनन्द मनाने का दिन है । प्रसन्न होने का अव सर है । फिर आप लोग आपस में एक-दूसरे की होली क्यों कर रहे हैं ? आप दोनों पड़ोसी हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। दोनों लड़कियां खेल रही थीं। एक के कूदने से दूसरी के कपड़े गंदे हो गये तो कौन बड़ी बात हो गई ? इन नादान बच्चों के पीछे आप बड़े-बड़े क्यों झगड़ते हैं ? इससे आपकी ही हँसी होती है । वृद्धा के बहुत समझाने पर भी वे न माने । लड़ाई का जोश इतना तीव्र था कि बुढ़िया की बात सुनने की किसी ने परवाह न की । खूब तपे हुए तवे पर पानी के कुछ बूँद कोई असर नहीं करते । इसी प्रकार तीव्र क्रोध के उत्पन्न होने पर शांति की बात व्यर्थ हो जाती है । इधर दोनों घर वाले झगड़ रहे थे, उधर मौका देखकर दोनों लड़कियाँ फिर घर से बाहर निकल पड़ीं। वे वहाँ पहुँचीं जहाँ पानी बह रहा था। बहते पानी को रोकने के लिए दोनों ने मिलकर रेत का बाँध बनाया । पानी रुक गया । रुके पानी में दोनों लड़कियों ने घास का तिनका या लकड़ी का टुकड़ा डाला। उसे पानी में गिरते देखकर दोनों उछलने लगीं । एक ने कहा- देख, देख, मेरी नाव तैर रही है ! दूसरी ने कहा- और मेरी भी तैर रही है। देख ले न ! संयोगवश वह वृद्धा उधर से ही निकल पड़ी। उसने देखा - इन लड़कियों को लेकर उधर झगड़ा मच रहा है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२२६ --- - ---- सिरफुटौवल की नौबत आ पहुंची है, और इधर ये मस्त होकर खेल रही हैं। उसने झगड़ने वालों के पास जाकर कहा-अरे झगड़ना बन्द करके एक तमाशा देख लो ! पड़ोसी हो, चाहोगे तभी झगड़ लोगे, मगर वह तमाशा चाहे तब नहीं देख पाओगे । आओ, मेरे साथ चलो। तमाशे की बात प्यारी लगती ही है। फिर वुढ़िया के कहने का ढंग भी कुछ आकर्षक था। अतः झगड़ने वाले बुढ़िया के पीछे हो लिये और वहाँ पहुँचे जहाँ दोनों बालिकाएँ अपनी-अपनी नाव तिरा रही थीं। दोनों घर वालों को दिखाते हुए बुढ़िया ने कहा-यह तमाशा देखो,पानी में लकड़ियों के टुकड़े तैर रहे हैं। दरअसल यह नाव हैं ! ____एक झगड़ने वाले ने कहा-यह कौन-सा तमाशा हुआ ! तैराई होगी, किसी ने ! वृद्धा-और किसी ने नहीं, यशोदा और देवकी ने तैराई हैं। इतना कहकर उसने उन लड़कियों से पूछा इनमें कौन किसी की नाव है बेटियो ! जरा बताओ तो सही। दोनों ने साथ-साथ उत्तर दिया-यह मेरी है, यह मेरी है! तब मुस्किराती हुई वृद्धा ने कहा-देखो, दोनों लकड़ियां इकट्ठी हो गई हैं और जिनको लेकर तुम लड़ रहे हो वह लड़कियाँ भी मिल गई हैं। अब तुम कब मिलोगे? यह तो नादान बालक होकर भी मिल गई और तुम समझदार हो कर भी झगड़ते रहोगे? वृद्धा की समयोचित शिक्षा से दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ जवाहर किरणावली घर वाले शर्मिन्दा हो गये । उनकी लड़ाई समाप्त हो गई और मेल-मिलाप से रहने लगे । मित्रो ! बालक लड़-झगड़ कर एक हो जाते हैं, इसी प्रकार अगर आप लोग भी आपस में एकता पूर्वक रहें तो कैसा आनन्द हो ? एकता आपको इतनी शक्ति प्रदान करेगी कि आप अपने को अपूर्व शक्तिशाली समझने लगेंगे। मगर बड़े लोगों की लड़ाई भी बड़ी होती है । वे लड़कर आपस में मिलते तक नहीं है । यहाँ तक कि धर्मस्थान में अगर पासपास बैठना पड़ जाय तो भी एक दूसरे को देखकर गाल फुलाने लगते हैं ! यह कहाँ तक उचित है ? ऐसे करने वाले बड़े अच्छे या ऐसा न करने वाले नादान बालक वास्तव में ही सरलहृदय होते हैं । बालक अच्छे ? इसी कारण आचार्य कहते हैं—-जब मैं बालक हुआ तभी मुझसे स्तुति बनी। बड़ा बना बैठा रहता तो स्तुति बनती ही नहीं । इस प्रकार अपनी बुद्धिमत्ता का ढोंग छोड़ कर जो बालक के समान सरल बन जाता है, उसके क्लेशों का अंत श्रा जाता है । जब आप सच्च अन्तःकरण से अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करेंगे और उदारता के साथ अपने अपराधी को क्षमादान देंगे तो आपके हृदय का शल्य निकल जायगा और आप ऐसी शांति पाएँगे, जो अनुभव करने की चीज़ है । आपस में वैर भाव रखना और अदालत की शरण लेना धर्मप्रिय लोगों के लिए उचित नहीं है । अदालत का शरण लेने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २३१ अदावत का अन्त नहीं होता। ऐसा करने में लाखों-हजारों रुपयों का पानी हो जाता है और अन्त में अदावत कई गुनी बढ़ जाती है। अगर दूसरा धर्म छोड़ता है तो उसका अनुकरण मत करो। तुम अपना धर्म मत छोड़ो । बालक माता के पेट में से कुचालें सीखकर नहीं आते, यहाँ माँ-बाप से ही सीखते हैं । इसलिए उनके सामने शांति और प्रेम का आदर्श उपस्थित करो । धर्म और सदाचरण ही प्रभु के चरण हैं। उनकी शरण गहे। और उन्हें अपने हृदय में स्थापित करो। बालस्वभाव धारण करके सरलता, शांति और स्नेह की भावनाएँ बढ़ाओ । वैर-विरोध को पास मत फटकने दो। इससे आपका अन्त:करण हल्का होगा और अन्तःकरण हल्का होगा तो आत्मा गुरुता आएगी । में बीकानेर, ११-७-३०. 25 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) • वक्तु ं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते समः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया ॥ कल्पान्तकाल पवनोद्धृतनक्र चक्रम्, को वा तरोतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् || । अर्थ- हे गुणों के सागर । तेरे चन्द्रमा के समान निर्मल गुणों का बखान करने में, बुद्धि से वृहस्पति के समान होकर भी कौन समर्थ हो सकता है ? प्रलय काल के पवन से मगर मच्छ जिसमें उछल रहे हों, उस समुद्र को अपनी भुजाओं से कौन पार कर सकता है ? X X स्तुति करने वाले के अन्तःकरण में यह विचार होना आवश्यक है कि वह किसकी स्तुति करता है और स्तुति करने का उसका ध्येय क्या है ? इन बातों पर समुचित विचार करने के बाद की गई, स्तुति कल्याणकारक होती है । देखादेखी की जाने वाली स्तुति से भी कल्याण तो होता है, मगर मोक्ष नहीं प्राप्त होता । X आचार्य मानतुंग कहते हैं- प्रभो ! बुद्धि में साक्षात् देवगुरु वृहस्पति के समान होने पर भी तुम्हारे गुणों का कथन करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। आपके गुण चन्द्रमा की कांति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२३३ के समान निर्मल अवश्य हैं, मगर आप गुणों के सागर हैं और उनका जो बखान करना चाहेगा वह वृहस्पति के समान बुद्धिशाली होने पर भी परिमित बुद्धि वाला ही होगा ! ऐसी अवस्था में समस्त गुणों का वर्णन कर सकना किसी के लिए कैसे संभव है ? आपके गुणों का वर्णन करना इसी प्रकार असंभव है जैसे कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र, को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्यां । समुद्र में जब प्रलयकाल का तूफान चलता है तब उसमें के जीवजंतुओं में उथलपुथल मच जाती है। जब ऐसा तूफान आया हो तब किसकी शक्ति है कि वह अपनी भुजाओं के बल से समुद्र को पार कर जाय ? ऐसा करना असंभव है । इसी प्रकार आपके गुणसमुद्र को कथन द्वारा पार करना मानव की शक्ति से परे है। प्रश्न किया जा सकता है जब भगवान् की स्तुति करना इतना असंभव कार्य है तो फिर उसे आरंभ ही क्यों करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य कहते हैं- स्तुति के इस असंभव कार्य को क्यों प्रारंभ किया है, यह बात मेरा ही दिल जानता है। दूसरा कोई इसका मर्म नहीं समझ सकता। अगर कोई मनुष्य प्रलयकाल के तूफान से क्षुब्ध समुद्र में पड़ गया हो तो उसे उसी में पड़े-पड़े मर जाना चाहिए या किनारे लगने का प्रयत्न करना चाहिए ? समुद्र को पार करने का प्रयत्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] [ जवाहर - किरणावली करने वाला अपने कर्त्तव्य का पालन करता है । जो कर्त्तव्य का पालन न करके समुद्र में ही पड़ा पड़ा मर जाता है, निकलने की चेष्टा ही नहीं करता, वह मूर्ख गिना जाता है । यह संसार - समुद्र भी प्रलयकाल के तूफान से क्षुब्ध समुद्र के समान है । संसारसमुद्र में कर्म रूपी प्रलयकालीन पवन से तूफान उठ रहा है और कुटुम्ब परिवार रूपी मच्छ- कच्छ जीव हैं । इस संसार - समुद्र को भी अपनी भुजाओं से पार करना कठिन है, फिर भी कोशिश करना मेरा कर्त्तव्य है । मित्रो ! इस प्रकार हिम्मत करने वाले ही कठिन कठिन कार्यों में भी सफलता पाते हैं। जो कायर पुरुष, पहले से ही हिम्मत हारकर बैठा रहता है और कहता है कि भई, यह काम तो मुझसे नहीं हो सकेगा, वह साध्य कार्य में भी सफलता नहीं पा सकता । महाजातक की कथा पढ़ी किसी सेठ का एक लड़का जहाज़ की मुसाफिरी के लिए तैयार हुआ । उसके पिता ने उसे बहुत समझाया। कहाबेटा ! अपने घर में बहुत धन है। जहाज़ में मुसाफिरी करना खतरनाक है । तू क्यों व्यर्थ कष्ट सहन करता है ? मगर लड़का बड़ा उद्योगशील था । उसने पिता को उत्तर दियां-पिताजी, आपका कथन सत्य है, किन्तु इस धन को उपार्जन करने में आपने भी तो कष्ट सहन किये होंगे ? फिर क्या मेरे लिए यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com एक बौद्ध सम्प्रदाय के ग्रन्थ थी । उसका सार यह है Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२३५ उचित होगा कि मैं स्वयं परिश्रम किये विना ही इसका भोग करूँ! अगर मैं इस धन को, विना परिश्रम किये ही खाने लगा और गुलछरें उड़ाने लगा तो किसी दिन आप ही मुझे कपूत कहने लगेंगे। कदाचित् पितृप्रेम के कारण आप न कहेंगे तो भी दुनिया का मुँह कौन बन्द करेगा ? फिर इस धन का उपार्जन करके आपने जो ख्याति प्राप्त की है, वह ख्याति मैं कभी नहीं पा सकूँगा। विना कमाये खाने से मैं मिट्टी के पुतले के समान बन जाऊँगा। जब मैं उद्योग कर सकता हूँ तो फिर विना कमाये खाना-पहनना मुझे उचित नहीं मालूम होता। अतः आप कृपा करके प्राज्ञा दीजिए और आशीर्वाद दीजिए। __ अपने पुत्र की कार्यनिष्ठा और साहस देखकर पिता को संतोष हुआ । उसने कहा-ठीक है। सुपुत्र का यही कर्तव्य है कि वह अपने पिता के यश और वैभव में वृद्धि करे । उद्योगशील होना मनुष्य का कर्तव्य है। तुम्हारी प्रबल इच्छा है तो मैं रोकना नहीं चाहता। साहूकार के लड़के ने जहाज़ तैयार करवाया। समुद्र में जहाज़ किस प्रकार तूफान से घिर जाता है और उस समय किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसका विचार करके उसने सब आवश्यक वस्तुएँ जहाज़ में रख ली और यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया । चलते-चलते जहाज़ बीच समुद्र में पहुँचा तो अचानक तूफान घिर आया । जहाज के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] [ जवाहर-किरणावली .. --- -- - - - - --.. डूब जाने की स्थिति आ पहुँची । मल्लाहों ने तन तोड़ परिश्रम किया मगर जहाज की रक्षा करने में सफल नहीं हो सके । अन्त में वे भी हार गये। उन्होंने कह दिया-अब हमारा वश नहीं चलता। जहाज थोड़ी देर में डूब जायगा । जिसे बचने का जो उपाय करना हो करे। ऐसे विकट प्रसंग पर कायर पुरुष को रोने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता । कायर नहीं सोचता कि रोना व्यर्थ है । रोने से कोई लाभ न होगा । अगर बचाव का कोई रास्ता निकल सकता है तो सिर्फ उद्योग करने से ही।। मल्लाहों का उत्तर सुनकर साहूकार का लड़का पहले शौचादि से निवृत्त हुआ। उसने अपना पेट साफ़ किया । फिर उसने ऐसे पदार्थ खाये जो वजन में हल्के किन्तु शक्ति अधिक समय तक देने वाले थे । इसके बाद उसने अपने सारे शरीर में तेल की मालिश की, जिससे समुद्र के खारे पानी का चमड़ी पर असर न पड़े। फिर उसने शरीर से सटा हुआ चमड़े का वस्त्र पहना जिससे मच्छ-कच्छ हानि न पहुंचा सकें । इतना करने के बाद वह एक तख्ता लेकर समुद्र में कूद पड़ा । उस तख्ते के सहारे वह किनारे लगने के उद्देश्य से तैरने लगा। साहूकार के लड़के ने सोचा-ऐसे समय में जहाज बड़ा नहीं, अात्मा बड़ा है । इसलिए जहाज को छोड़ देना ही ठीक है । जहाज छोड़ देने पर भी मृत्यु का भय तो है ही, लेकिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान [२३७ उदयोग करना आवश्यक है। ___ मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे विकट संकटमय अवसर आ जाते हैं, जब उसकी बुद्धि थक जाती है। किसी प्रकार का निर्णय करना कठिन हो जाता है । एक ओर कुत्रा और दूसरी ओर खाई दिखाई देती है। ऐसे प्रसंग कर अपनी बुद्धि को ठिकाने रखना ही बुद्धिमत्ता है । 'परिच्छेदो हि पांडित्यम्' अर्थात् जो दो मार्गों में से एक मार्ग अपने लिए चुन लेता है; क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, यह निर्णय कर लेता है, वही वास्तव में पण्डित पुरुष है। जो विपत्ति के समय अपनी बुद्धि खो बैठेगा और कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय न कर सकेगा, वह विपत्ति को और अधिक बढ़ा लेगा और बुरी तरह चक्कर में पड़ जायगा। ___ यह बात केवल लोकव्यवहार के लिए ही नहीं है, वरन् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-सभी पुरुषार्थों के विषय में लागू होती है। 'संशयात्मा विनश्यति ।' संदेह में पड़े रहना और निर्णय न करना अपना नाश करना है। निर्णय किये विना सिद्धि प्राप्ति नहीं होती। साहूकार के लड़के के सामने इस समय दो बातें उपस्थित थीं। एक तो जहाज को बचाने की और दूसरी अपने आपको बचाने की । जब जहाज का बचना संभव न रहा तो उसने विना किसी दुविधा के आत्मरक्षा करने का निर्णय कर लिया। उसने विचार किया-जब जहाज में रहने पर भी मैं मर जाऊँगा तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३-] [जवाहर-किरणापली कायरों की तरह क्यों मरूँ ? मरना ही होगा तो मर्दानगी के साथ मरूँगा। यद्यपि इस विशाल समुद्र से तैर कर पार होना अशक्य है, लेकिन प्राण छूटने तक हाथ-पैर हिलाते हुए मरूँगा। कायर की मौत मरना उचित नहीं। सफलता मिले या न मिले, मैं अपना उद्योग नहीं छादूंगा। कार्य में जो सफलता की ही प्राशा रखता है, बल्कि सफ. लता की खातिरी करके ही जो कार्य करना चाहता है, वह कार्य नहीं कर सकता। भूल चूक से कार्य को आरंभ कर देता है और जब सफलता नहीं पाता तो उसके पश्चात्ताप का पार नहीं रहता। वह निराशा के गहरे कूप में गिर पड़ता है। इसीलिए कहा है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । । अर्थात्-तुझे कार्य करने का अधिकार है, फल की लालसा करने का अधिकार नहीं है । तू निष्कामभाव से अपना कर्तव्य पाल । फल तुझे खोजता फिरेगा । तू फल की आशा की भारी गठरी सिर पर लाद कर चलेगा तो चार कदम भी नहीं चल सकेगा। साहूकार का लड़का पटिया के सहारे हाथ-पैर मारता हुआ समुद्र में बह रहा था। उस समय समुद्र का देव उसके उद्योग को देखकर सोचने लगा-इससे पूछना तो चाहिए कि जब मौत सामने मुँह फाड़े खड़ी है, तब यह समुद्र को पार करने की निष्फल चेष्टा क्यों कर रहा है ? देव ने पाकर पूछाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के [ २३६ श्रो पुरुष ! निरर्थक श्रम करने वाला मूर्ख होता है । समुद्र को तैर कर पार करना संभव नहीं है और फिर तूफान के समय की तो बात ही क्या है । मृत्यु के समय अनावश्यक परिश्रम क्यों कर रहा है ? अब हाथ-पैर हिलाना छोड़ दे और इच्छा हो तो भगवान् का नाम जप | महाजातक हाथ-पैर हिला रहा था । देव की सलाह सुनकर भी वह निराश नहीं हुआ । उसने देव से पूछा- आप कौन हैं ? देव ने कहा- मैं समुद्र का देव हूँ । महाजातक - आप देव होकर भी क्या हम मनुष्यों से गयेबीते हैं ? आपका काम तो उद्योग करने के लिए उपदेश देने का है, लेकिन आप तो उद्योग छोड़कर डूब मरने का उपदेश देते हैं ! आप अपना काम करिये और किसी का भला हो सकता हो तो वह कीजिये । मुझे भुलावे में मत डालिये । मैं अपने उद्योग में लगा हूँ । रही भगवान् का नाम जपने की बात | सो मौत से बचने के लिए भगवान् का नाम जपना मैं कायरता समझता हूँ । यों अपने कल्याण के लिए और मृत्यु से दुःख न पहुँचने देने के लिए मैं परमात्मा का स्मरण अवश्य करूँगा । महाजातक ने देव से दूसरों का भला करने के लिए तो कहा; मगर अपने लिए सहायता न माँगी । महाजातक का उत्तर प्रभावित करने वाला था । उसने • सोचा- यह मनुष्य ऐसे विकट समय में भी उद्योगशील और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] [ जवाहर - किरणावली मृत्यु की ओर से निर्भय है ! इसके विचार कितने उच्च हैं ! देव ने फिर कहा- भाई, उद्योग करना तो अच्छा है, मगर उसके फल का भी तो विचार कर लेना चाहिए। फल की प्राप्ति की संभावना न हो तो उद्योग करना वृथा हैं । महाजातक - मैं फल देखकर ही उद्योग कर रहा हूँ । उद्योग का पहला फल तो यही है कि मुझे जो शक्ति मिली है, उसका उपयोग कर रहा हूँ । दूसरा फल आपका मिलना है । अगर मैं जहाज के साथ ही डूब मरता तो आपके दर्शन कैसे होते ? मैंने साहस किया, उद्योग किया तो आप मिले । ऐसी दशा में मेरा श्रम क्या वृथा है ? महाजातक का उत्तर सुनकर देव बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा- तुमने मुझसे बचा लेने की प्रार्थना क्यों नहीं की? महाज तक मैं जानता हूँ कि देवता कभी प्रार्थना करवाने की गरज़ नहीं रखते । उद्योग में लगे रहने से मेरा मन प्रसन्न है और यही देवता की प्रार्थना है । जिसका मन प्रसन्न और निर्विकार होगा उस पर देवता स्वयं प्रसन्न होंगे । इसके अतिरिक्त मेरे प्रार्थना करने पर अगर आप मुझे बच्चाएँगे तो आपके कर्त्तव्य का गौरव कम हो जायगा । विना प्रार्थना के आप मेरा उपकार करेंगे तो उस उपकार का मूल्य बढ़ जायगा । मैं आपके कर्त्तव्य की महत्ता को कम नहीं करना चाहता और न यही चाहता हूँ कि आपके उपकार का मूल्य कम हो जाय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२४१ - --- लोग कहते हैं-देवता को फूल चढ़ाओ तो वह प्रसन्न होंगे। लेकिन फूल का दूसरा नाम 'सुमन' है। 'सुमन' का अर्थ है-अच्छा मन-प्रशस्त विचार । तात्पर्य यह है कि मन को पवित्र रखने से देव प्रसन्न होते हैं। महाजातक की बात से देव अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने जहाज के साथ उसे किनारे लगा दिया। फिर महाजातक पर पुष्पवर्षा करके देव ने कहा-तुम्हारा सरीखा धीर और गंभीर दूसरा पुरुष तो क्या देव भी कहीं नहीं देखा । वास्तव में हम देवताओं की अपेक्षा मनुष्यों की शक्ति बड़ी है। देव, मनुष्य की उद्योग शक्ति के दास हैं। श्री मानतुंगाचार्य कहते हैं-परमात्मा का गुणगान करना भुजाओं से समुद्र को पार करने के समान कठिन है। फिर कोई पूछे कि इस कठिन कार्य में उन्होंने क्यों हाथ डाला, तो मैं यही कहूँगा कि इस प्रश्न का उत्तर महाजातक से पूछो। स्तुतिकार कहते हैं-जैसे सेठ के लड़के (महाजातक) ने उत्तर दिया था कि चाहे पार होऊँ, या न होऊँ, उद्योग करना मेरा काम है। उद्योग से उपरत हो जाना कायरों को शोभा देता है। इसी प्रकार में सोचता हूँ कि शब्द चाहे जैसे हों, लगाना चाहिए उन्हें परमात्मा की स्तुति में ही परमात्मा के गुण-सागर के पार पहुंचना चाहे असंभव हो, फिर भी पहुँचने का उद्योग करना तो असंभव नहीं है। अतएव जिस प्रकार महाजातक पटिया लेकर कूद पड़ा था, उसी प्रकार मैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [जवाहर-किरणावली भी कूद पड़ा हूँ। पार होना या न होना दूसरी बात है, लेकिन मेरा कर्त्तव्य यही है। मुझे यही उद्योग करना चाहिए । ___ लोग संसार-समुद्र में पड़े चक्कर लगा रहे हैं । कायरतापूर्वक रोते रोने से इस चक्कर से छुटकारा नहीं होगा। चक्कर से बाहर निकलने का उपाय उद्योग करना ही है और वह उद्योग योग्य दिशा में विवेकपूर्वक करना चाहिए। जैसे तूफ़ान के समय समुद्र को पार करने के लिए अधिक हाथ-पैर हिलाये जाते हैं, उसी प्रकार संकट के समय पुरुपार्थ न खोकर परमात्मा में चित्त को अधिक लगा देने से संकट से पार हो लकते हो। पुरुषार्थ करने से तो कुछ न कुछ फल निकल सकता है, मगर रोना तो अपने आपको डुबाना ही है। ___अधिकांश लोग परमात्मा का नाम इसलिए लेते हैं कि उन्हें उद्योग किये बिना ही धन मिल जाय । आलस्य में पड़े रहने पर भी धन मिल जाय तो वे समझते हैं कि भगवान् बड़े दयालु हैं ! लेकिन जब उद्योग करना पड़ता है तो भगवान् को भूल जाते हैं। मगर याद रक्खो, भगवान् कायरों का साथ नहीं देते। उद्योगी ही उनकी सहायता से सिद्धि प्राप्त करते है। शास्त्र में कहा है कि श्रावक लोग देवताओं की भी सहायता नहीं लेसे और कहते हैं हम क्या देवों से कर हैं ? जिनका जहाज समुद्र में डूबा जा रहा था, में भी नहीं घबराये तो आपको घबराने की क्या आवश्यShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२४३ - ... .. - - - --------.. -- कता है? ____बहुतेरे ईर्षालु लोग है, जो दूसरों की ऋद्धि देखकर जलते हैं और सोचते हैं कि ऐसी ऋद्धि मेरे यहाँ क्यों नहीं है ? क्या ऋद्धिमान् के प्रति ईर्षा करने से आप ऋद्धिशाली हो जाएँगे? अथवा वह ऋद्धिशाली, ऋद्धिहीन हो जायगा? अगर आपकी ईर्षा इन दोनों में से कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकती तो फिर उससे लाभ कहा है ? ईर्षा करने से लाभ तो कुछ भी नहीं होता, उलटी हानि होती है। ईर्षालु पुरुष अपने आपको व्यर्थ जलाता है और अपने विवेक का विनाश करता है। वास्तव में ऋद्धि का बीज पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ करने वाले ही ऋद्धि के पात्र बनते हैं। ___ लोग सोचते हैं कि स्वर्ग के देवों को कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता और फिर भी उन्हें सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। क्या देवलोक में पालसियों का समूह इकट्ठा हुआ है ? नहीं। उन्होंने पहले ही बहुत उद्योग किया है और उसी उद्योग की बदौलत वे सुख भोग रहे हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे युवावस्था में कमाई करने के बाद कोई वृद्धावस्था में उसका फल भोगता है । कहा भी है देवलोक में अप्सरा रे, प्रत्यक्ष जोड़े हाथ । क्या करणी किस काम से रे, हुधा हमारा नाथ ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] [जवाहर-किरणावली प्रथर तू मान कहयो रे, मत कर मगरूरी भूरी जिंदगी ॥ श्राचारज की महर से रे, हुधा तुम्हारा नाथ । प्रथम न्दं हम जाय के रे, तुम चलो हमारे साथ । तू मान कहयो रे, मत कर मगरूरी झूठी जिंदगी॥ तात्पर्य यह है कि देव जब देवलोक में उत्पन्न होता है, उसी समय देवांगनाएँ हाथ जोड़कर उससे प्रश्न करती हैं'महानुभाव ! आपने कौन-सा पुरुषार्थ किया था, जिससे आप हमारे नाथ हुए हैं ?' इस प्रश्न से यही नतीजा निकलता है कि देवत्व की प्राप्ति पुरुषार्थ का ही फल है। सच्चा पुरुषार्थी कभी हार नहीं मानता । वह अगर अस-- फल भी होता है तो उसकी असफलता ही उसे सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा करती है । इसी प्रकार पुरुषार्थी मनुष्य न तो अपनी असमर्थता का रोना रोता है और न कार्य की असंभावनीयता का ही विचार करता है । वह अपनी थोड़ी सी शक्ति को भी समग्रता के साथ प्रयुक्त करता है और कार्य की सिद्धि कर लेता है। यह ठीक है कि भगवान के गुण अनन्त है और उनकी पूरी तरह स्तुति नहीं की जा सकती । परन्तु इसी कारण अपनी शक्ति के अनुसार स्तुति न करना उचित नहीं कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २४५ जा सकता । सम्पूर्ण आकाश के लांघना किसी के लिए संभव नहीं है, फिर भी लोग आवश्यकता पर यथाशक्ति लांघते ही हैं । मुक्ति का मार्ग लम्बा है और कठिन भी है, यह सोचकर उस ओर पैर ही न बढ़ाना एक प्रकार की कायरता है । मार्ग कितना ही लम्बा क्यों न हो, अगर धीरे-धीरे भी उसी दिशा में चला जायगा तो एक दिन वह तय हो ही जायगा, क्योंकि काल भी अनन्त है और आत्मा की शक्ति भी अनन्त है । इस दृढ़ श्रद्धा के साथ जो भगवान् के मार्ग पर चलेगा और निराश न होकर चलता ही जाएगा, उसे अवश्य ही अक्षय कल्याण की प्राप्ति होगी । वीकानेर, ७-८ ३० LEVERDIVA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश ! कतु स्तवं विगतशक्रिपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी (गो) मृगेन्द्रम, नाभ्येति किं निजशिशोः, परिपालनार्थम् ॥ ५॥ अर्थ हे मुनियों में श्रेष्ट ! मैं आपकी भक्ति के वश होकर अशक्त होने पर भी आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ। क्या मृगी (मृग) अपनी शक्ति का विचार न करके, अपने बच्चे की रक्षा करने के निमित्त सिंह का सामना नहीं करती ? जिस प्रकार समुद्र को तैर कर पार करना और जल में पड़ते हुए चन्द्रमा के प्रतिविम्ब को पकड़ना अशक्य है, इसी प्रकार प्रभो ! तेरे गुणों का वर्णन करना मेरे लिए अशक्य कार्य है। मैं अपनी इस कमज़ोरी को जानता हूँ। फिर भी तेरा गुणगान करने के लिए मैं तैयार हुआ हूँ। इसका कारण यह है कि तेरी भक्ति मुझे विवश कर रही है। भक्तिभाव की तीव्रता के कारण मुझमें यह विचार ही नहीं रह गया है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२४७ - - - - मैं अपना योग्यता-अयोग्यता अथवा शक्ति-अशक्ति का खयाल कीं। बस, इसी हेतु मैं आपका स्तोत्र करने में प्रवृत्त हो गया हूँ और अपने हृदय के उद्गार प्रकट कर रहा हूँ। प्रश्न हो सकता है-क्या भक्ति के वश होने पर मनुष्य को अपनी शक्ति-अशक्ति का भी विचार नहीं रहता? क्या वह अपनी अयोग्यता को भी भूल जाता है ? इसका उत्तर यह है कि परमात्मा की भक्ति का तो कहना ही क्या है, सन्तान प्रेम से भी मनुष्य ऐसा विवश हो जाता है कि जिस काम को करने की उसमें शक्ति नहीं होती, उस काम को भी करने में प्रवृत्त हो जाता है ! तात्पर्य यह है कि मनुष्य के हृदय में जब तक किसी भावना की प्रबलता नहीं होती तब तक तो उसमें संकल्प-विकल्प बना रहता है, मगर जब एक भावना उत्कट रूप धारण कर लेती है तो उसके संबंध में सब प्रकार के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं । और न केवल मनुष्यों में ही, वरन् पशु-पक्षियों में भी भावना की यह उत्कटता पाई जाती है। पशु-पक्षी भी संतान प्रेम की उत्कटता के वश में होकर अपनी शक्ति-अशक्ति का और कार्य की शक्यता-अशक्यता का खयाल भूल जाते हैं और जिस कार्य के लिए वे समर्थ नहीं है, उसी में जुट पड़ते हैं । जिस समय सिंह हिरन के बच्चे पर हमला करने के लिए उद्यत होता है, उस समय उसके माता-पिता में यह शक्ति नहीं होती कि वे सिंह का सामना करके अपने बच्चे की रक्षा कर सकें, फिर भी संतानShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] [ जवाहर-किरणावली प्रेम की प्रबलता हिरण-हिरणी को अपनी असमर्थता का विचार करके चुपचाप नहीं बैठने देती। वे अपनी शक्ति का विचार न करके सिंह का समाना करते हैं और अपने बच्चे की. रता करने का प्रयत्न करते हैं । __ आचार्य कहते हैं-पशु भी संतानप्रेम में मतवाला होकर अपने बल अबल का ध्यान भूल जाता है, तो परमात्मा की भक्ति का लोकोत्तर प्रेम मुझे बल-अबल का ध्यान कैसे रहने देगा ? अतएव परमात्मा के गुण-समुद्र को पार करने की शक्ति न होने पर भी मैं उसकी स्तुति करने को उसी प्रकार ललचाया हूँ, जिस प्रकार मृग अपने बालक की सिंह से रक्षा करने के लिए ललचाता है। वास्तव में में स्तुति करने में असमर्थ हूँ किन्तु केवल भक्ति से विवश होकर प्रवृत्त हुआ हूँ। ___ आचार्य का यह कथन मर्म से भरा हुआ है । इसके मर्म को समझने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। आचार्य विद्वान् थे। वे स्तुति-कार्य को करने की बहुत कुछ शक्ति रखते थे। फिर भी अपने आपको अशक्त वताकर उन्होंने कहा कि मैं गुणगान के कार्य में प्रवृत्त होता हूँ। प्राचार्य का यह कथन उनके लिये है या हमारे और आपके लिए ? उनके इस कथन से स्पष्ट है कि जिसमें भक्ति है उसमें शक्ति आये विना नहीं रहेगी। जिसमें वास्तविक भक्ति होगी वह कार्य में लगेगा ही। जो कार्य में नहीं लगता, समझना चाहिए कि उसमें भक्ति ही नहीं है । मृगी अगर अपने वश्च को बचाने के लिए सिंह का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२४६ सामना न करे तो यही समझा जायगा कि उसमें पुत्रप्रेन ही नहीं है । चिड़िया अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए बाज का सामना करती है। मतलब यह है कि शक्ति अल्प होने पर भी संतानप्रेम से प्रेरित होकर पशु-पक्षी भी उस कार्य में जुट जाते हैं, जिसे करने में वे असमर्थ होते हैं । ऐसी दशा में अगर हमारे हृदय में भक्ति है तो क्या हम परमात्मा का गुणगान किये विना रहेंगे ? अतएव स्वयं अपने हृदय को टटोलो कि मुझमें भक्ति है या नहीं? मैं यह नहीं कहना चाहता कि आपमें भक्ति है ही नहीं। ऐसा होता तो आप मेरे पास आते ही क्यों और भक्ति संबंधी उपदेश सुनते ही क्यों ? मगर अपनी त्रुटि को देखो। सोचो-हमारी भक्ति-भावना में कहाँ कमी है और क्या त्रुटि है ? मैं भी अपने संबंध में विचार करता हूँ और आप भी विचार कीजिए। एक ही काम में सब तल्लीन हो जाएँगे तो अपूर्व रहस्य निकलेगा। __मैं अपने विषय में सोचता हूँ तो भीतर से उठने वाली अन्तर्ध्वनि मुझे सुन पड़ती है और वह मेरी अनेक त्रुटियाँ मुझे बतलाती है । मैं अपनी कमी का वर्णन कहाँ तक करूँ ? मैं मन ही मन सोचता हूँ-हे आत्मन् ! तूने संयम ग्रहण किया है । गृहस्थ तो कदाचित् छुटकारा पा सकते हैं लेकिन तू क्या कहकर अपना बचाव कर सकता है ? तिस पर भी तेरे ऊपर प्राचार्य पद का उत्तरदायित्व है। अगर तू भक्ति में लग जाय और उसी में तल्लीन रहे तो कोई भी त्रुटि शेष न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [जवाहर-किरणावली ---- रहे । जब तुझे किसी पर क्रोध न आवे, जब तू दूसरे के कहे हुए कटुक वचनों को अमृत मानने लगे, ऐसी अद्भुत जागृति तेरी अन्तरात्मा में आ जाय, तभी समझना चाहिए कि तुझ पर भक्ति का रस चढ़ा है। जहाँ प्रभुभक्ति है वहाँ क्रोध नहीं हो सकता । भक्त पर अगर कोई जुल्म करता है तो भक्त कहीं फरियाद करने नहीं जाता। परमात्मा ही भक्त का न्यायाधीश है और परमात्मा का दरबार ही उसका न्यायालय है । भक्त अगर किसी दूसरे के पास फरियाद करने जाता है तो समझना चाहिए कि उसने अभी तक परमात्मा को पहिचाना ही नहीं है। जैसे सांभर झील में पड़ी हुई सब वस्तुएँ नमक बन जाती हैं, उसी प्रकार भक्त के कानों में पड़ा हुआ प्रत्येक शब्द अमृत बन जाता है, चाहे दूसरों को वह वाण सरोखा तीखा या विष के समान कटुक भले प्रतीत हो । भक्त गाली सुनकर सोचता है कि गाली देने वाला मेरी सहनशीलता की परीक्षा कर रहा है। मुझे इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए। शास्त्र में शमा को मुनि का प्रधान लक्षण बतलाया गया है। भक्ति जितनी गाढ़ी होगी, क्षमाभावना उतनी ही प्रबल होगी। भक्त को क्रोध नहीं आ सकता। और विना क्षमा के भक्ति नहीं होती। वर्षा ऋतु में जब वर्षा होनी और कीचड़ की अधिकता के कारण आना-जाना रुक जाता-कोई खास काम न रहता, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२५१ तब मेरे संसारावस्था के मामाजी दुकान पर गेहूँ भेज देते। वे कहलाते-बैठे-बैठे क्या करोगे, गेहूँ बीना । लेकिन बीनना क्या था-गेहूँ या कंकर ? गेहूँ तो अच्छे ही हैं, लेकिन कंकरों पर नज़र न रही तो गेहुओं में कंकर रह जाएँगे, पिस जाएँगे, पेट में जाएँगे और फिर पथरी की बीमारी पैदा करेंगे। इसी प्रकार आत्मा के गुणों पर ध्यान न देकर दोषों पर ध्यान देना आवश्यक है । यह देखना चाहिए कि आत्मा कहाँ भूल करता है ? इस बात पर ध्यान रक्खा जाय और जैसे गेहुओं में से कंकर निकाल दिये जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा के दोषों को, त्रुटियों को, भूलों को निकाल दिया जाय तो आत्मा की शुद्धि हो सकती है। जिन लोगों पर तुम्हारा वश नहीं चलता, उन पर क्रोध न करना तुम्हारी क्षमाशीलता की कसौटी नहीं है । जो तुम्हारे अधीन हैं, तुम्हारे मुखापेक्षी है, जिनको तुम बना-बिगाड़ सकते हो. उन पर भी क्रोध न आने दो। उनके कटुक वचन को भी अमृत समझ लो । यह तुम्हारी क्षमाशीलता की कसौटी है । जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं वे धन्य हैं। बिच्छू का विष दूसरों को चढ़ता है, लेकिन मंत्रवादी कहता है कि मुझे नहीं चढ़ता। अब अगर मंत्रवादी को भी ज़हर चढ़ गया तो वह मंत्रवादी ही क्या रहा ? साँप-बिच्छू का ज़हर उतर जाना उतना कठिन नहीं है, जितना क्रोध भरे कटुक शब्द रूपी वाणों का ज़हर उतरना कठिन होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] [ जवाहर-किरणावली मगर भक्त वह है जो इस ज़हर को चढ़ने ही नहीं देता। वास्तव में जिसके हृदय में दुर्वचन सुनकर भी क्रोध नहीं होता और जिसके मन में विकार नहीं आता, वह महापुरुष कोटिकोटि धन्यवाद का पात्र होता है। भक्ति के विषय में मीरां बाई कहती है अब तो मेरो राम नाम दूसरो न कोई । मात छोड़े तात छोड़े छोड़े सगे साई ।। संतन संग बैठ बैठ लोक लाज खोई । अन्त में से तन्तु काद पीछे रही सोई ॥ राणा मेल्या विषना प्याला । पी के मस्त होई ॥ अब तो० ॥ मीरां कहती है-इस संसार में परमात्मा के सिवाय मेरा कोई नहीं है।' इसे कहते हैं भक्ति ! जब मृगी अपने बच्चे की रक्षा के लिए सिंह के सामने जाती है तब उसे संसार में बच्चे के सिवाय और कुछ नहीं दीखता । उस समय वह अपने प्राणों को भी तुच्छ समझती है। इसी प्रकार हृदय में अगर परमात्मा की सच्ची भक्ति हो तो दूसरी बात याद ही नहीं आनी चाहिए। अगर दूसरी बात याद आई तो समझ लो कि भक्ति में कमी है। मीरां कहती है-संसार में परमात्मा के सिवाय और कोई नहीं है। संसार, शरीर और शरीर से संबंध रखने वाली सब वस्तुएँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२५३ .. - .---... अनित्य हैं, केवल आत्मा नित्य है । इस संसार रूपी छाछ में से मैंने अविनाशी रूपी मक्खन निकाल लिया है। अब मुझे इस छाछ की चिन्ता नहीं रही । अनित्य में से नित्य को पाकर मैं निश्चिन्त हो गई। राणा ने मीरां के पास विष का प्याला भेजा। कहला भेजा-तुम साधुओं और भिखारियों के पास बैठ-बैठ कर मुझे लजित करती हो। तुम्हारी भक्ति मुझे पसंद नहीं है। इसलिए संसार में रहना है तो राजकुल की मर्यादा के अनुसार नियम पूर्वक राजघराने में रहो अन्यथा विष का यह प्याला पीकर संसार से विदा लो। राणा ने स्पष्ट कहला दिया था कि यह विष का प्याला है। फिर भी मीरा ने कहा-मेरे लिए यह विष नहीं, अमृत है। पहले तो इसे मेरे उन प्राणनाथ ने भेजा है, जिन्हें भक्ति में होती हुई भी मैं नहीं भूली हूँ। इसके अतिरिक्त उनसे भी बड़े पति-परमात्मा की भक्ति के लिए यह ज़हर पीना पड़ रहा है। अगर चोरी या अन्याय के अपराध के दंड में जहर पीना पड़ता तो दुःख की बात थी; मगर भक्ति के लिए और वह भी परमात्मा की भक्ति के पुरस्कार में विष का पान करना क्या बुरा है ? कहा है जिसका पर्दा दुई का दूर हुना। फिर उसमें खुदा में फरक ही नहीं ॥ न तो श्रावे हवा न प्रातिश वा। कोई मेरे सिवा तो वशर ही नहीं ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४1 [ जवाहर-किरणावली आप भी कहते हैं तू सो प्रभु प्रभु सो तू है। द्वत-कल्पना मेंटो ॥ जहाँ यह भेद मिटा और पुद्गल का भाव गया, वहाँ चिदानन्द और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता । फिर जहाँ देखो, परमात्मा ही परमात्मा है। कभी ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाय कि आपको मक्खन और चाल में से एक चीज़ को छोड़ना आवश्यक हो जाय और आप यह जानते हैं कि मक्खन सारभूत पदार्थ है, छाछ निस्सार है तो आप किसे लेना पसंद करेंगे और किसे छोड़ना चाहेंगे? 'छाछ छोड़ना चाहेंगे !' लेकिन समय आने पर आप छाछ के लालच में पड़कर मक्खन को छोड़ देते हैं । अर्थात् पुद्गल के लोभ में फंसकर आत्मा की उपेक्षा कर देते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप भक्ति की बात कहते-सुनते तो हैं मगर अभी उससे दूर हैं । जिस समय आप भक्ति के निकट पहुँच जाएँगे, उस दिन ऐसी. भूल कदापि नहीं करेंगे। ___ मीरां कहती है-'मैंने अनित्य में से नित्य को अलग कर लिया है। अब यह अनित्य रहे या न रहे, मुझे इसकी परवाह नहीं है।' __ मित्रो! आपको भी एक ज़हर पीने का अभ्यास करना चाहिए । मैं उस ज़हर को पीने के लिए नहीं कहता, जो मीरां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - - ----- - बीकानेर के व्याख्यान ] [२५५ -------- ने पिया था। मीरां को भी उसे पीने की आवश्यकता नहीं थी। वह तो मौका आ जाने के कारण पीना पड़ा था। मैं कटुक शब्द रूपी विष को पीने के लिए कहता हूँ। जब आपके कान रूपी प्याले में कटुक शब्द रूपी विष पड़े, तब आप उसे अमृत समझ कर पी जाएँ । अगर आप में इतनी शक्ति आ जाय तो समझ लीजिए कि आपके हृदय में भक्ति आगई है। धीर वीर और गंभीर पुरुष ही इस विष का पान कर सकते हैं और फिर सब ऋद्धियाँ उनकी दासी बन जाती हैं। तात्पर्य यह है कि भक्ति की आन्तरिक प्रेरणा शक्ति से परे का भी कार्य करने को विवश कर देती है । जब एक मृग जैसा पशु भी अपनी संतति के प्रेम के वश होकर अपने प्राणों की ममता छोड़कर, अपनी शक्ति का विचार न करके सिंह के मुख से अपने बालक को छुड़ाने के लिए तैयार हो जाता है तो जिस मनुष्य में परमात्मा के प्रति प्रकृष्ट प्रेम है, जिसके चित्त में भगवान् की भक्ति की लहरें उठती हैं वह क्यों विवश न होगा? सुबुकुतगीन बादशाह का वृत्तान्त इतिहास में आया है। वह अफगानिस्तान का बादशाह था। वह एक गुलाम खानदान में पैदा हुआ था और सिपाही था। एक बार वह ईरान से अफगानिस्तान की ओर घोड़े पर सवार होकर आ रहा था। मार्ग की थकावट से या किसी अन्य कारण से उसका घोड़ा मर गया। जो समान उससे उठ सका वह तो उसने उठा लिया और शेष वहीं छोड़ दिया। मगर उसे भूख इतनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जवाहर-किरणावली तेज़ लगी कि व्याकुल होने लगा। इसी समय सामने की ओर से हिरनों का एक झुण्ड आ निकला। उसने झपट कर उस झुण्ड में से एक बच्चे की टांग पकड़ ली । भुण्ड के और हिरन तो भाग गये मगर उस बच्चे की माँ वहीं ठिठक गई और अपने बच्चे को दूसरे के हाथ में पड़ा देख कर आँसू बहाने लगी। अपने बालक के लिए उसका दिल फटने लगा! ___ बच्चे को लेकर सुबुकुतगीन एक पेड़ के नीचे पहुँचा और उसे भून कर खाने का विचार करने लगा। उसने रूमाल से बच्चे की टांगें बांध दी ताकि वह भाग न जाय । इसके बाद वह कुछ दूर एक पत्थर के पास जाकर अपनी छुरी पैनी करने लगा। इतने में मुगी अपने बच्चे के पास आ पहुँची और वात्सल्य के वश होकर बच्चे को चाटने लगी, रोने लगी और अपना स्तन उसके मुंह की ओर करने लगी। बच्चा बेचारा बँधा हुआ तड़फ रहा था। वह अपनी माता से मिलने और उसका दूध पीने के लिए कितना उत्सुक था, यह कौन जान सकता है ? मगर विवश था। टांगें बँधी होने के कारण वह खड़ा भी नहीं हो सकता था। अपने बच्चे की यह दशा देखकर मृगी की क्या हालत हुई होगी, यह कल्पना करना भी कठिन है। माता काभावुक हृदय ही मृगी की अवस्था का अनुमान कर सकता है। मगर वह भी लाचार थी। वह आँसू बहा रही थी और इधर-उधर देखती जाती थी कि कोई किसी ओर से आकर मेरे बालक को बचा ले! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२५७ इसी समय छुरी पैनी करके सुबुकुतगीन लौट आया । बच्चे की मां हिरनी यहां भी उसके पास आ पहुँची है, यह देखकर उस को आश्चर्य हुआ। हर्ष और विषाद की अनुभूति हृदय में होती है मगर चेहरे पर उस अनुभूति का असर पड़े विना नहीं रहता। उसने हिरनी के चेहरे पर गहरे विषाद की परछाई देखी और नेत्रों में आंसू देखे । यह देखकर उसका हृदय भी भर आया। वह सोचने लगा-मैं इन मृगों को नाचीज़ समझता था, बेजान मानता था और सोचता था कि यह मनुष्य के खाने के लिए ही खुदा ने बनाये हैं ! मगर आज मालूम हुआ कि में भारी भ्रम में था। कौन कह सकता है कि इस हिरनी में जान नहीं है ? जो इसे बेजान कहते हैं, समझना चाहिए कि वह खुद ही बेजान हैं। अगर हिरनी में जान नहीं है तो इंसान में भी जान नहीं है। अगर इन्सान में जान है तो फिर हिरनी में भी जान है। अगर हिरनी को मनुष्य की भाषा प्राप्त होती और मैं इससे पूछता तो यह तीन लोक के राज्य से भी अपने बच्चे को बड़ा बतलाती। मेरे लिए यह बच्चा दाल-रोटी के बराबर है, मगर जिसके हृदय में इसके प्रति गहरा प्रम है, उसका हृदय इस समय कितना तड़फता होगा ? अपना खाना-पीना छोड़कर और प्राणों की परवाह न करके हिरनी यहाँ तक भागी आई है। इस बच्चे के प्रति इसके हृदय में कितना प्रर होगा? धिक्कार है मेरे खाने को ! जिससे दूसरे को घोर व्यथा पहुँचनी हो, वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] [ जवाहर - किरणावली भलेमानुस का खाना नहीं हो सकता । अगर मैं अपना पेट भरने के लिए इस बच्चे की जान ले लूँगा तो इसकी इस स्नेहमयी माता को कितनी व्यथा होगी ! अब चाहे मैं भूख का मारा मर जाऊँ, मगर इस अपनी माता के दुलारे को नहीं खाऊँगा । आखिर उसने बच्चे को छोड़ दिया । बच्चा अपनी माता से और माता अपने बच्चे से मिलकर उछलने लगे । यह स्वर्गीय दृश्य देखकर सुबुक्तगीन की प्रसन्नता का पार न रहा । इस प्रसन्नता में वह खाना-पीना भूल गया । श्राज ही उसकी समझ में आया कि प्राणी पर दया करने से कितना श्रानन्द होता है । जंगली पशुओं के डर से सुबुक्तगीन रात के समय पेड़ पर चढ़ कर सोया करता था । उस दिन भी वह पेड़ पर ही सोया था । स्वप्न में उसके पैगम्बर ने उससे कहा- 'तूने बच्चे पर दया करके बहुत अच्छा काम किया है। तू अफगानस्तान का बादशाह होगा ।' उसके पैगम्बर की भविष्यवाणी सच्ची हुई । कुछ दिनों बाद वह सचमुच ही अफगानस्तान का बादशाह बन गया । · अब आप विचार कीजिए कि बच्वे से उत्कट प्रेम होने के कारण हिरनी ने प्राण की परवाह नहीं की तो परमात्मा से प्रेम होने पर मनुष्य को कैसा होना चाहिए ? जिसके हृदय में परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति होगी वह धन-दौलत को बड़ी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ... - -- ------ बीकानेर के व्याख्यान ] [२५६ - - - - - - - - चीज़ नहीं समझेगा। उसकी बुद्धि झूठ-कपट आदि बुरे कामों की ओर कभी नहीं जाएगी । भक्त हृदय भलीभांति समझता है कि यह सब कुत्सित काम भक्ति का विनाश करने वाले हैं । जो ऐसी भक्ति तक पहुँच जाता है, उसका कल्याण ही कल्याण होता है। . पात्र के भेद से भक्ति अनेक प्रकार की है। मगर इतना विवेचन करने का समय नहीं है। साहित्यशास्त्र में अनेक रसों में से भक्तिरस भी अलग माना गया है। भक्तिरस में अपूर्व मिठास है। भक्तिरस की मधुरता हृदय में अद्भुत अाह्लाद उत्पन्न करती है। जिसके अन्तःकरण में भगवद्भक्ति का अखण्ड स्रोत वहता है वह पुरुष बड़ा भाग्यशाली है। उसके लिए तीन लोक की संपदा-निखिल विश्व का राज्य भी तुच्छ है। प्रहलाद ने, ध्रुव ने और कामदेव ने भक्तिरस के महत्त्व को समझा था और इसीलिए उन्होंने बड़े से बड़े संकट को भी तुच्छ माना था । दूसरे रस 'क्षणिक आनन्द देने वाले हैं मगर भक्तिरस शाश्वत सुख उत्पन्न करता है। जैसे मामूली वस्तु भी नदी के प्रवाह में बहती हुई समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार भक्ति के प्रवाह में बहने वाला मनुष्य ईश्वर में मिल जाता है अर्थात् स्वयं परमात्मा बन जाता है। भक्ति वह अलौकिक रसायन है जिसके द्वारा नर नारायण हो जाता है भक्ति से हृदय में अपूर्व शांति और असाधारण सुख प्राप्त होता है । भक्ति का मार्ग सरल और सुगम है । सभी मुमुच इसका अवलम्बन ले सकते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [जवाहर-किरणावली जो भक्तिमार्ग का अवलम्बन लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं, वे अनायास ही ऐसा कर सकते है । मेरी कामना है कि आप विवेक के साथ भक्तिरस का पान करें और अपना कल्याण-साधनाकरें। तथाऽस्तु । बीकानेर, १.-८-३०. | HIMSHIMMINAHILAIMIMIFIMHAMIN IIIIIIIIIMIMES INDIATIMI SCALARTAIKATHIYAN Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम । त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥ यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति । तच्चारुचूतकालिकानिकरैकहेतुः ॥६॥ अर्थ में अल्पज्ञ हूँ। शास्त्रवेत्ताओं के उपहास का पात्र हूँ, लेकिन आपकी भक्ति ही मुझे स्तुति करने के लिए जबर्दस्ती प्ररणा करती है । वसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है सो उसका कारण सुन्दर श्राम की मंजरियों का समूह ही है। ___ प्राचीन काल के प्राचार्य अपनी लघुता प्रकट करने में गुरुता समझते थे, लेकिन अाज के अधिकांश लोग अपनी लघुता बताने में लघुता समझते हैं। इन दोनों भावनाओं में बड़ा अन्तर है । जो परमात्मा नहीं बन गया है वह अपूर्ण है और जो अपूर्ण है उसमें लघुता अवश्य रहती है । जो अपनी लघुता को समझता है और उसे विना संकोच प्रकट कर देता है, समझना चाहिए कि वह अपनी लघुता को त्यागना चाहता है और पूर्णता प्राप्त करने का अमिलापी है। उसके परिणामों में इतनी सरलता होती है कि यह जैसा है वैसा ही अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ जवाहर - किरणावली को प्रकट करता है वह ढांग नहीं करना चाहता । इस कारण वह निरन्तर अपनी लघुता को कम करता रहता है, गुरुता प्राप्त करता रहता है और एक दिन वह पूर्णता भी प्राप्त कर लेगा । मगर जो वास्तव में लघु है किन्तु अपनी लघुता को समझना ही नहीं चाहता अथवा समझ कर भी छिपाना चाहता है, अपमान के भय से प्रकट नहीं करना चाहता, बल्कि अपनी गुरुता प्रकट करता है; उसका हृदय सरल नहीं है । उसके हृदय में कपट है । वह अपने ढोंग के कारण ऊपर नहीं चढ़ेगा । उसका पतन अवश्यंभावी है । उसे समझना चाहिए कि अपूर्णता होना अनोखी बात नहीं है । वह तो मनुष्य मात्र में होती है। लेकिन जो मनुष्य अपनी पूर्णता को सरल हृदय से स्वीकार करता है और उसे दूर करने की निरन्तर चेष्टा करता रहता है, वह अवश्य ही उसे दूर कर देता है । आचार्य मानतुंग ने भक्तामरस्तोत्र की रचना करते हुए अपनी जो लघुता प्रकट की है, उससे क्या उनके गौरव को क्षति पहुँची है ? नहीं । इससे उनका गौरव घटा नहीं, बढ़ा ही है । उनके लघुताप्रकाशन से उनकी सरलता, निरभिमानता और महत्ता ही प्रकट होती है और ऐसे महानुभाव जनता के आदर के पात्र बन जाते हैं । आदिनाथ ऋषभदेव की स्तुति करते हुए आचार्य कहते हैं- मैं बहुत कम जानता हूँ । इतना कम जानता हूँ कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२६३ विद्वान् पंडित मेरे शब्दों का उपहास करेंगे । अर्थात् विद्वानों के सामने मैं हँसी का पात्र बनूंगा। वे कहेंगे कि मानतुंग कुछ न जानता हुआ भी स्तुति करने को तैयार हो गया ! लेकिन उन विद्वान् पंडितों की हँसी से मेरी कुछ भी हानि नहीं है, बल्कि लाभ ही होगा। हँसने वालों को भी लाभ होगा। वे मुझे हँसी का बनाकर अगर प्रसन्न हो लेंगे तो क्या हानि है ? अगर मैं किसी को रिझाने के लिए स्तुति करने का उद्यम करता होता तो कदाचित् मेरे लिए लज्जा की बात होती। मगर मेरी यह स्तुति न किसी को रिझाने के लिए है और न किसी को बताने के लिए है। मेरे हृदय में परमात्मा के प्रति जो प्रबल प्रेरणा का उदय हुआ है, उसी का यह फल है कि मैं स्तुति कर रहा हूँ। आचार्य कहते हैं-प्रभो ! मेरी यह स्तुति किसी वासना या तृष्णा की पूर्ति के लिए नहीं है। आपकी भक्ति की प्रेरणा मेरा मुँह बन्द नहीं रहने देती। उस प्रेरणा ने मुझे वाचाल बना दिया है। अब मुझसे विना बोले नहीं रहा जाता। इस पर अगर कोई हँसता है तो हँस ले । लेकिन भक्ति तो हो ही जायगी। ___ संसार में सर्वत्र स्वार्थ का साम्राज्य है । जो बोलता है सेो या तो किसी के दबाव में आकर या किसी आशा से ही बोलता है। क्या कोई उदाहरण ऐमा मिल सकता है कि कोई विना खुशामद की भावना के सिर्फ निष्काम भक्ति से ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [जवाहर-किरणावली - --- बोलता हो ? मित्रो! जब ऋतुराज वसन्त का आगमन होता है तब आम्र के बगीचे फूल उठते हैं। आमों में मंजरियाँ आ जाती हैं । प्रकृति अनोखे सौन्दर्य से सज जाती है ! उसकी रचना है। कुछ अलबेली हो जाती है। उस समय प्रकृति के सौन्दर्य के उपासक आम्रवृक्षों पर आकर किलोल करते हैं। उनमें कोयल नामक एक पक्षी भी होता है। जब ग्राम की मंजरियों का सौरभ वायुमंडल को सुवासित करता है, तब वह कोयल अपने सुमधुर कंठ से पंचम स्वर में पालापती है। शास्त्र में पंचम स्वर का बड़ा माहात्म्य बतलाया गया है और भगवान् के शब्दों की उपमा पंचम स्वर से दी गई है। __ कोयल के उस मधुर आलाप में क्या रस है और कितनी मिठास है, यह तो कोई अनुभवी ही जान सकता है या कोई वैज्ञानिक समझ सकता है। दूसरों को उसका पता चलना कठिन है। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोयल के स्वर का मुकाबिला अन्य स्वर नहीं कर सकते। मगर देखना यह है कि कोयल उस समय जो राग आलापती है सो क्या किसी की खुशामद के लिए? कोई उसके राग को सुने या न सुने, चाहे कोई धनिक सुने या गरीब सुने, कोई निन्दा करे या प्रशंसा करे, कोई गाने को कहे या बंद करने को कहे, कोयल अपनी इच्छा के अनुसार गाती है और अपनी इच्छा के अनुसार ही गाना बंद करती है। यह किसी के कहने सुनने की या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२६५ - - - --- • -- निन्दा प्रशंसा की परवाह नहीं करती। उसके राग आलापने का और कोई हेतु नहीं है। आम्रवृक्ष के फूलने पर उसके हृदय में अनुराग उत्पन्न होता है और अनुराग में मस्त होकर वह गाने लगती है। अनुराग की वह मस्ती रोके नहीं रुकती। कोयल जब गाती है तो कौवे उसे मारने दौड़ते हैं ? विचारने की बात यह है कि कोयल ने कौवों का क्या विगाड़ा है जो वे उसे मारने दौड़ते हैं ? संभव है, अपने राग की कर्कशता के विचार से उन्हें कोयल के प्रति ईर्षा होती हो। लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि कहाँ तो गंदगी खाने वाले वे और कहाँ आम की मंजरियों का रस चूसने वाली कोयल ! ऐसी अवस्था में अगर कौवा और कोयल के स्वर में अन्तर हो तो आश्चर्य ही क्या है ? __ कौवे जब कोयल को सताने लगते हैं, तब भी कोयल 'कुहू कुहूं' करती हुई आम की एक शाखा से दूसरी शाखा पर जा बैठती है और वहाँ फिर अपना राग आलापने लगती है। मतलब यह है कि जब वह गाना चाहती है तो किसी के मारने से भी नहीं रुकती और जब नहीं गाना चाहती तो किसी के मारने पर भी नहीं गाती । वह आम की मंजरियों की सुगन्ध से प्रेरित होकर गाती है और उसी समय गाती है जब आम में मंजरियां होती हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कोयल आम की मंजरियों के प्रेम के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] [ जवाहर - किरणावली कारण ही गाती है। उसके गाने का और कोई अभिप्राय नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह स्तुति किसी की प्रेरणा से नहीं की जा रही है और न किसी की खुशामद के लिए ही की जा रही है । प्रभु-भक्ति की प्रेरणा मेरे अन्तःकरण को स्तुति करने के लिए विवश कर रही है। मित्रो ! एक भक्ति करने वाले महात्मा ने भगवान् की स्तुति का जो प्रयोजन प्रकट किया है, वह सभी के लिए मार्गदर्शक होना चाहिए । उन्होंने बतला दिया है कि भक्ति, चाहे उसे सेवा कहो, आराधना कहो, उपासना कहो, कैसी होनी चाहिए ? भक्तामर स्तोत्र की स्तुति भक्तिमार्ग को दिखलाने का साधन है । जैसे रत्न की परीक्षा जौहरी ही कर सकता है, उसी प्रकार इस स्तुति का तत्त्व ठण्डे दिमाग से विचार करने वाले को ही मालूप हो सकता है । इसके तत्त्व का वर्णन करना मेरे लिए शक्य नहीं है। फिर भी यथाशक्ति अपने भावों को प्रकट करता हूँ । आचार्य भी भक्ति कर रहे हैं और आप लोग भी भक्ति करने के लिए उत्सुक हैं, मगर भक्ति करने से पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि भक्ति किस प्रकार होती है ? - किसी का यह विचार हो कि विद्वान् लोग ही भक्ति कर सकते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २६७ हैं, तो आचार्य ने यह कह कर कि मैं अल्पक्ष हूँ- मैं कुछ नहीं जानता, यह स्पष्ट कर दिया है कि भक्ति के लिए पंडिताई की अनिवार्य आवश्यकता नहीं है । विद्वान् और अझ सभी समान रूप से भक्ति रस के अमृत का पान कर सकते हैं । जब अविद्वान् भी भक्ति कर सकता है तो विद्वान् का तो कहना ही क्या है ? विना दांत वाला भी जिस वस्तु को खा सकता है, उसे खाने में दांत वाले को क्या कठिनाई हो सकती है ? अतएव सर्वसाधारण को यह भ्रम दूर कर देना चाहिए कि विद्वान् न होने के कारण भक्ति नहीं हो सकती । दूसरा भ्रम भक्ति के उद्देश्य के सम्बन्ध में दूर होने की आवश्यकता है । यद्यपि इस बात पर पहले प्रकाश डाल दिया गया है, फिर भी स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं है कि तुम जो भक्ति करो, अपनी अन्तःप्रेरणा से करो । दूसरे के दबाव से या दूसरे को खुश करने के उद्देश्य से भक्ति मत करो। ऐसा करने में परमात्मा की भक्ति से वंचित रह जाना पड़ता है । बहुत-से लोग चक्रवर्ती की महिमा, प्रतिष्ठा और विभूति देखकर, उसे प्राप्त करने की आशा से अभव्य होते हुए भी साधु बन जाते हैं । वे मास- खमण आदि तपस्या भी खूब करते हैं । वे ऐसी अच्छी क्रिया करते हैं कि वही क्रिया अगर शुद्ध मन से की जाय तो मोक्ष पहुँचा दे ! मगर उनकी क्रिया उन्हें मोक्ष नहीं पहुँचाती । इसका कारण यही है उस क्रिया को वे स्वतंत्रभाव से, निरीह वृत्ति से नहीं करते हैं; महिमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [ जवाहर किरणावली प्रतिष्ठा आदि के लोभ से करते हैं। इस प्रकार की अशुद्ध भावना से की हुई क्रिया मनुष्य को स्वर्ग में भले ही पहुँचा दे, मगर उससे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । यह आवश्यक नहीं कि भक्ति या स्तुति के शब्द उच्च श्रेणी के हों, भाषा की दृष्टि से सुन्दर हों। ऐसा हो तो भी कोई हानि नहीं है । शब्द भले ही टूटे फूटे हों, लेकिन निन्दाप्रशंसा की परवाह न करके स्वाधीन और मिस्पृह भाव से भक्ति की जानी चाहिए । भक्ति करना ही भक्त का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए । भक्ति के लौकिक फल की ओर अगर उसकी भावना दौड़ गई तो समझ लीजिए कि भक्ति अशुद्ध हो गई । इह लोक के सुख, परलोक के चक्रवर्त्ती - इन्द्र आदि के सुख, कामभोग, जीवनमरण, इत्यादि में से किसी भी बात की इच्छा न रहे; पूर्ण निष्काम भाव से भक्ति की जाय तो महान् फल की प्राप्ति होती है। जैसे कोयल अपने गान के बदले में कुछ नहीं चाहती, उसी प्रकार आप भी भक्ति के बदले में कुछ न चाहें । लोग कहते हैं- कलकत्ता की गौहरजान नामक वेश्या का राग बहुत ऊँचा है । उसके गाने की फीस भी बहुत है । उसका गाना सुनने के लिए लोगों की भीड़ टूट पड़ती है । कई एक रईस तो उसके पीछे अपना घर बर्बाद कर चुके हैं। मित्रो ! यह कितना अज्ञान है ! कैसी भ्रष्टता है ! पैसे की लोभिनी हो और विषयों की कीड़ी हो, फिर वह कोई भी क्यों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com · Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ]. [ २६६ न हो, उसका राग अच्छा कैसे हो सकता है ? उसके राग में कल्याण का मधुर रस और निर्मलता की मिठास किस प्रकार संभव हो सकती है ? मैं कहता हूँ- उसके राग में हजारों विषयविकार के विषैले कीड़े भरे हैं ! राग तो कोयल का है जो अपने गाने के बदले कुछ भी नहीं चाहती ! न मानप्रतिष्ठा चाहती है, म धन-दौलत चाहती है, न किसी को रिझाना चाहती है, न लूटना चाहती है, न किसी के द्वारा निन्दा करने पर दुःख मानती है । मतलब यह है कि आत्मा को निस्पृह, निष्काम, निरीह बनाये विना सच्ची भक्ति नहीं होती । साधु का वेष धारण कर लेना सरल है, लेकिन हृदय के विकारों पर विजय प्राप्त कर लेना सरल नहीं है । भक्त कहता है माधव ! मोह पाश किम टूटे, बाहर कोटि उपाय करत हौं । अभ्यन्तर गांठ न छूटे || माधव० || इस भजन को सुनकर आप शायद सोचते होंगे कि मैं ऋषभदेव की स्तुति करना छोड़कर अन्यत्र चला गया । मगर ऐसी बात नहीं है । मैं भगवान् ऋषभ की ही स्तुति कर रहा हूँ । संस्कृत भाषा में 'मा' शब्द का अर्थ लक्ष्मी होता है और 'धव' पति को कहते हैं । इस प्रकार माधव का अर्थ - लक्ष्मीपति | आप कह सकते हैं कि हम लक्ष्मीपति को मानते ही कब हैं ? लेकिन आप यह देखें कि इस प्रार्थना में क्या बात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७.१ १७० । - [ जवाहर-किरणावली कही गई है ? इसमें माधव से मोहपाश तोड़ने के लिए कहा गया है। इसलिए जिसने अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञाम अनन्त चारित्र और अनन्त सुख पा लिए है वही वास्तव में माधव है। जो स्वयं स्त्री का स्वामी होगा वही मोहपाश का नाश कैसे कर सकता है ? जिसने अपने मोह के समस्त पाशों को छिन्नभिन्न करके हटा दिया है, जो पूर्वोक्त अनन्त चतुष्टय रूपी अलौकिक लक्ष्मी का स्वामी बन गया है, वही सच्चामाधव है। ___ इस भजन में कहा गया है कि बाहर के करोड़ों उपाय करने पर भी मोह की गांठ नहीं खुली है। यथाप्रवृत्तिकरण उस गांठ के पास अनन्त बार जा आया, फिर भी गांठ म न खुली । और उस गांठ के खुले विना मोक्ष मिलना तो दूर रहा, मिथ्यात्व भी नहीं हटता। कोई साधु हो गया है, इसका यह अर्थ नहीं कि उसने माह की ग्रंथि तोड़ डाली है ! मोह ग्रंथि के टूट जाने की पहिचान है-अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न न होना और निन्दा सुनकर दुखी न होना । इस कसौटी पर सभी जिज्ञासु अपनी-अपनी अन्तरात्मा को कस सकते हैं। प्रात्मा जब कोयल की भाँति निरपेक्ष बन जाय, विना किसी आशा-अभिलाषा के परमात्मा के स्वरूप में तल्लीन रहने लगे और मानसन्मान की कामना न करे, तभी समझना चाहिए कि मोह की गाँठ टूट गई है। अगर आप समाज में प्रतिष्ठा पाने के उद्देश्य से सामायिक करते हैं, कीर्ति के लिए उपवास करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२७१ - ----- - --- हैं और सन्मान पाने के लिए भक्ति करते हैं तो समझ लीजिए कि अभी मोह की ग्रंथि नहीं खुली है। अगर आप निष्काम भक्ति करेंगे तो आपके शल्य नष्ट हो जाएँगे और देवता भी अापकी पूजा करेंगे। इसलिए मित्रो ! मैं बार-बार दोहराता हूँ कि कामना का परित्याग कर दो और निष्काम भाव से भक्ति करो । कामना करने से ही क्रिया का फल तो मिल नहीं सकता, और क्रिया का फल कामना न करने पर भी मिलता है। फिर कामना करके फल को क्यों तुच्छ बनाते हैं ? हृदय में शल्य क्यों पैदा करते हैं ? मान लीजिए, एक आदमी इष्ट देव की पूजा के लिए मँजी हुई थाली में पूजा की सामग्री सजाकर, स्नान आदि करके पूजा करने चला। बीच में उसे एक भंगी मिला। वह कहने लगा-पूजा की यह सामग्री मेरे टोकरे में भी डाल दीजिए । तो क्या कोई पुजारी डाल देगा ? ___ 'नहीं!' कदाचित् दूसरे को उठाने के लिए तो दे भी सकता है, मगर भंगी के टोकरे में क्यों नहीं डालता ? इसीलिए कि टोकरे में मलीन चीज़ भरी है और देवता को चढ़ने वाली पवित्र चीज़ का स्पर्श उससे कैसे होने दिया जाय ? मित्रो! और लोग तो अपने देव को फूल-पत्ती, इत्र आदि से प्रसन्न करते हैं, मगर आपके भगवान् तो वीतराग हैं । वे इन चीजों से भी प्रसन्न नहीं हो सकते । उन्हें प्रसन्न करने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] [ जवाहर - किरणावली लिए शुद्ध अन्तःकरण की आवश्यकता है । उस अन्तःकरण में दान, शील, तप और भावना की सामग्री भरी हो मगर हो वह पवित्र ही । इन्हें अपवित्र कर देने पर परमात्मा से भेंट नहीं हो सकतीं । कल्पना कीजिए कि आपने दान किया । लेकिन दान के साथ अगर अभिमान आ गया तो समझ लीजिए कि आपकी पवित्र वस्तु को चाण्डाल का स्पर्श हो गया ! फिर वह अपवित्र वस्तु भगवान को चढ़ाने योग्य नहीं रही । इसी प्रकार अगर स्तुति के बदले कल्दार की कामना की तो वह भी अपवित्र हो गई । वह भगवान् को अर्पण करने योग्य नहीं रही । लोग मनुष्य के शरीर को अछूत मानकर उससे परहेज़ करते हैं। मगर हृदय की अपवित्र वासनाओं से उतना परहेज़ नहीं करते । वास्तव में अपावन वासनाएँ ही मनुष्य को गिराती हैं और उसकी छूत से अत्यधिक बचने की आवश्यकता है । कामना करने से वस्तु नहीं मिलती । निष्काम भावना से क्रिया करने पर ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है । सुसराल में जाकर अगर कोई पकवान माँगे तो कदाचित् एक बार मिल जाएँगे, लेकिन न माँगने पर जैसे बार-बार और श्रादर के साथ मिलते हैं वैसे माँगने पर नहीं मिलते। धैर्य के साथ परमात्मा में अपने मन को लीन कर दो। फिर स्वयं ही अपूर्व आनन्द का झरना बहने लगेगा। उस समय आपको अनिर्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२७३ चनीय तृप्ति और शांति का अनुभव होगा। कामना की आग में जलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता। अतएव एक मात्र भगवदभक्ति के प्रयोजन से परमात्मा की स्तुति करो तो आप का कल्याण अवश्य होगा। बीकानेर, । ११-८-३० । ONLY RATA MITRAWAN Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसग्निवद्धम् । पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।। अाक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु । सूर्यांशुभिन्नमिव शावरमन्धकारम् ।।७।। भवभवान्तर में बँधे हुए प्राणियों के पाप आपकी स्तुति से इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार संसार में फैला हुआ, भोरे के समान काला-काला अंधकार सूर्य की किरणों से तत्काल नष्ट हो जाता है। __ स्तुतिकार आचार्य माततुंग कहते हैं-हे नाथ ! मैं भवभव में उत्पन्न किये हुए पापों के समूह को अपने प्रात्मा के साथ बांधे हुए हूँ। एक भव के पापों का ही पार नहीं होता तो भव-भव के पापों का पार कैसे हो सकता है ? वह अपार पाप मेरी आत्मा को सता रहा है। मगर जैसे चिरकाल के रोगी को महान् कुशल वैद्य के मिल जाने पर आनन्द होता है और वह मान लेता है कि अब मेरा रोग नष्ट हो जायगा, उसी प्रकार भव-भव में कष्ट सहने के बाद अब आपका संयोग मिला है। मैं अपने पापों की गुरुता को देखकर निराश हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२७५ जाता था और विपुलता को देखकर डरता था कि इनसे किस प्रकार छुटकारा पा सकूँगा ! मगर आपकी और आपके स्तोत्र की शक्ति को देखकर मुझे बहुत श्राश्वासन मिला है। अब पापों से छुटकारा पाने की पाशा बँध मई है। इसलिए मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैंने सुना है कि आपके गुणों में तन्मय हो जाने वाले देहधारी के अनेक भवों के पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । अब मुझे उन पापों से डर नहीं लगता ____ कहा जा सकता है कि परमात्मा के गुणों में तन्मय हो जाने वाले के पाप एक क्षण में किस प्रकार नष्ट हो जाते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्राचार्य कहते हैं संसार भर को जिसने व्याप्त कर लिया है, वह रात भर का इकट्ठा हुआ अंधकार और उपायों से अगर नष्ट हुआ भी तो थोड़े-से भाग का नष्ट होता है, सारे संसार का अंधकार नष्ट नहीं होता । एक शक्ति को छोड़ कर और कोई शक्ति नहीं है जो संसार भर के अंधकार का नाश कर सकती हो । हाँ, एक शक्ति ऐसी है जो देखते-देखते उस अंधकार को समाप्त कर देती है। सूर्य की किरणों के फैलते ही अंधकार कहाँ विलीन हो जाता है, पता नहीं चलता । प्रकृति की यह घटना प्रत्यक्ष देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि जब एक सूर्य संसार भर के अंधकार को नष्ट कर डालता है तो जिसके. सामने अनन्त सूर्य भी तुच्छ हैं, ऐसे परमात्मा की स्तुति में जब मैं तल्लीन हो जाऊँगा, परमात्मा के साथ आत्मा को मिला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] [ जवाहर-किरणावली --------- ----- दूँगा, तब पाण-तिमिर किस प्रकार ठहर सकेगा ? ___ आचार्य ने यह बात किस भावना से कही है, यह तो कोई पूर्ण पुरुष ही जान सकता है । लेकिन जब पंख मिले हैं तो उड़ने का अधिकार भी मिला है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति इस विषय पर विचार कर सकता है। यहाँ विचारणीय यह है कि सूर्य से अंधकार के नाश होने की बात अनुभव से सिद्ध है । हम नित्य ऐसा देखते हैं । मगर परमात्मा की स्तुति की है लेकिन पापों का नाश अब तक भी नहीं हुआ ! अगर भगवान् अनन्त प्रकाश के अनुपम पुंज हैं और उनके लोकोत्तर प्रकाश के सामने पाप नहीं ठहर सकते तो फिर संसार का सब पाप नष्ट क्यों नहीं हो गया? इस प्रकार भगवान् की स्तुति से ही पापों का नाश हो जाता है तो साधु बनना, श्रावक के व्रत धारण करना, तपस्या करके शरीर को सुखाना, ध्यान-मौन आदि का आचरण करना वृथा है । काम, क्रोध, मोह आदि को जीतने के लिए कठोर साधना करने की भावश्यकता ही क्या है ? बस, भगवान् की स्तुति की और पाप समाप्त हो जाने चाहिए। अगर पापों का नाश नहीं होता तो फिर स्तुति के विषय में यह कहना कैसे ठीक होगा ? इस प्रकार संदेह करने वालों में कुछ लोग वे हैं जिन्हें परमात्मा पर भरोसा नहीं हैं । बहुतों को परमात्मा सम्बन्धी और प्रात्मा संबंधी आस्था ही नहीं है । वे नास्तिक हैं। कुछ आस्तिक लोग भी हैं जो ऐसा सम्देह करते हैं। जिन्हें परमात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [२७७ - ... . -.- .. - -. - - पर ही आस्था नहीं है, उन्हें परमात्मा की महिमा समझाना कठिन है । अलबत्ता जो जिज्ञासुभाव से शंका प्रकट करते हैं वे समझ सकते हैं। ___उक्त संदेह के विषय में पहली बात यह है कि सूर्य कैसे ही प्रकाशमान क्यों न हो, जिसने अपने द्वारों के किवाड़ बंद कर रक्खे हैं, सूर्य की किरणे जहाँ प्रवेश नहीं पा सकती, जहाँ सूर्य की किरणों का विरोध किया जाता है, वहाँ का अंधकार अगर नष्ट नहीं होता तो किसका दोष समझा जाय ? __ दूसरी बात भी है। कई जीव सूर्य से विरुद्ध प्रकृति वाले भी हैं । सूर्य सबको प्रकाश देता है लेकिन उल्लू चमगीदड़ आदि कई ऐसे जीव हैं जो अंधकारमयी रात्रि को ही प्रकाश मानते हैं और सूर्य के निकलने पर उनके लिए अधकार हो जाता है। अब अगर वे कहने लगे कि सूर्य किस प्रकार प्रकाश देता है, यह हमें दिखलाओ तो कैसे दिखलाया जाय ? जब तक उनकी आँखों की रोशनी न बदले तब तक उन्हें सूर्य या उस का प्रकाश कैसे दीख सकता है ? तीसरे, सूर्य का प्रकाश फैला होने पर भी जिसने अांखें मंद रक्खी हैं, उसे अांखें खोले बिना प्रकाश दिखाई दे सकता है? जिसे सूर्य के प्रकाश को देखना है, समझना है और उसके महत्त्व को जानना है उसे अपने द्वार खुले रखने होंगे, अपने नेत्र खुले रखने होंगे और अपनी विरोधी प्रकृति का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ [जवाहर-किरणावली परित्याग करना होगा। इस विषय में शास्त्रकारों का कथन है कि अगर किसी को परमात्मा का प्रकाश लेना है तो उसे अपना मन तैयार करना चाहिए। मन का डांवाडोल होना प्रकृति का उलटा कर लेना है अथवा आंखें या द्वार बंद कर लेने के समान है। जैसे आंखें और किवाड़ बंद कर लेने पर या प्रकृति विपरीत होने पर सूर्य नज़र नहीं आता, इसी प्रकार जब तक तुम्हारा मन अस्थिर है तब तक तुम्हें परमात्मा का प्रकाश नहीं मिल सकता। मतलब यह है कि तुमने अपने ज्ञानचक्षुओं पर पर्दा डाल रक्खा है और चर्मचनुओं से, जिनसे सिर्फ स्थूल भौतिक पदार्थ ही दीख सकते हैं, परमात्मा को देखना चाहते हो। यह कैसे हो सकता है ? जिन श्रांखों से जो वस्तु देखी जा सकती है, उनसे वही वस्तु देखने का प्रयत्न करना चाहिए । आध्यात्मिक वस्तु ज्ञान-चक्षु से ही दिख सकती है, चर्मचनु से नहीं। उस ज्ञानचक्षु पर तुमने पर्दा डाल रक्खा है। तब परमात्मा का प्रकाश तुम्हें कैसे मिल सकता है । शब्द की उपलब्धि आंख से नहीं हो सकती, रस का ज्ञान नाक से नहीं हो सकता, स्पर्श का ज्ञान कान से नहीं होता। यद्यपि इन सब इन्द्रियों में एक आत्मा की शक्ति ही काम करती है, फिर भी इन्द्रियां अपने योग्य विषय को ही जानती हैं। परमात्मा रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित है, इसलिए वह किसी भी इंद्रिय का विषय नहीं है। उसे जानने-पहचानने के लिए ज्ञानचक्षु चाहिए । उस पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २७६ जब तक पर्दा डाल रक्खा है तब तक परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा । प्रश्न हो सकता है - ज्ञानचक्षु पर पर्दा कैसे डाल रक्खा है ? इस प्रश्न का समाधान विचार करने पर आप ही आप हो सकता है । क्या पर्दा पड़ा है, यह बात तो स्पष्ट है, परन्तु लोगों ने अपनी उलटी समझ के कारण उसे उलटा समझ रक्खा है । स्वाभाविक जीवन जीना स्वाभाविक बात है । भगवान् ऋषभदेव ने स्वाभाविक जीवन का पता लगाकर प्रजा को समझाया है और बतलाया है कि मेरी प्रजा को किस प्रकार रहना चाहिए ? " भोगभूमि कहो या अकर्मण्यभूमि कहो या अकर्मभूमि कहो, उसका अर्थ यह है कि खाना, पीना और मौज तो करना मगर खाने पीने और मौज करने के लिए पैदा कुछ भी न करना । युगलियों को सब वस्तुओं की श्रावश्यकता होती है लेकिन वह सब कल्पवृक्षों से उन्हें मिल जाती हैं । उनके लिए उन्हें उद्यम नहीं करना पड़ता । ऐसी स्थिति में युगलियों को उद्योगी कैसे कहा जा सकता है ? वे अकर्मण्य ही कहलाते हैं। वे कल्पवृक्षों से भीख मांग-मांग कर ही अपनी जिन्दगी व्यतीत करते हैं । इस अकर्मण्य दशा में उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सकता है ? नहीं ! हां, प्रकृतिजन्य कर्म के विकार उनमें नहीं हैं, क्योंकि उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं पड़ती। कल्पवृक्षों से सब की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [जवाहर-किरणावली - - -. -- -.-.- -- सब अावश्यकताएँ अनायास ही पूरी हो जाती हैं । इस कारण वे चोरी आदि कुकर्मों से बचे रहते हैं और इसी कारण वे नरक एवं तिर्यंच गति से भी बचे रहते हैं। फिर भी उन्हें मोक्ष नहीं मिलता। अनन्त बार युगलियों के भोग भोग लेने पर भी आत्मा का प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। जुगलियों की इस अवस्था में भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ । उनके जन्म लेते ही संसार पलट गया । कल्पवृक्षों ने फल देना बन्द कर दिया जैसे पहले मांगने से सब कुछ मिल जाता था, अब मिलना बन्द हो गया। __ कोई कह सकता है कि भगवान् के जन्म से पहले आनंद था, शांति थी, मगर भगवान् के जन्म लेते ही हाय-हाय मच गई ! ऐसी हालत में भगवान् का जन्म अशान्तिकारक हो गया ! लेकिन गीता में कहा है यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहं ।। जैनधर्म के अनुसार इस श्लोक का अर्थ दूसरे प्रकार से ही हो सकता है। यहाँ इसका तात्पर्य यह है कि जब धर्म की ग्लानि और अधर्म का प्रसार बढ़ जाता है तो कोई महापुरुष जन्म लेता ही है। कहा जा सकता है कि भगवान् ऋषभदेव से पहले धर्म की कौन-सी ग्लानि हुई थी कि उनका जन्म हुआ? विना प्रारंभसमारंभ किये सीधी तरह खाने-पीने को मिल जाता था, सब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [२८१ लोग मजे में रहते थे और मौज करते थे। धर्म की इसमें क्या ग्लानि हुई ? तीर्थकर जैसे परमोत्कृष्ट पुण्यशाली पुरुष का जन्म होने पर तो कल्पवृक्षों की शक्ति अधिक बढ़नी चाहिए थी, मगर उन्होंने तो, जो पहले देते थे, वही देना बन्द कर दिया । इसका क्या कारण है ? मित्रो ! लोग ऐसे ही चक्कर में पड़े हैं । आत्मा जिस सुख के लिए ललचा रहा है, जिस सुख को भोगने की इसे टेव पड़ गई है, उसमें कमी होते ही यह चिल्लाने लगता है, हाय-हाय करने लगता है। पहले कल्पवृक्ष वस्तुएँ देते थे और फिर उन्होंने देना बंद कर दिया। ऐसी दशा में हाय-हाय होना स्वाभाविक है । और उस हाय-हाय को मिटाने के लिए महापुरुष का जन्म होना भी स्वाभाविक है। तीर्थकर अनेक लब्धियाँ लेकर जन्मते हैं । उनमें आश्चर्य-- जनक शक्तियाँ मौजूद रहती हैं। फिर भी उन्होंने संसार की हाय-हाय मिटाने का उपाय कृत्रिम बतलाया है या अकृत्रिम बतलाया है ? महापुरुष का जन्म और कर्म कितना दिव्य होता है, यह बात पूरी तरह तो दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर ही जानी जा सकती है। शास्त्रों में वह दिव्यता,प्रकट की गई है लेकिन सर्वसाधारण की समझ निराली होती है । भगवान् ऋषभदेव दिव्य ज्ञानी थे । वे ऐसे पोले उपाय नहीं बतला सकते थे कि अमुक मंत्र जप लो और तुम्हारी मनचाही चीज़ तुम्हें मिल जायगी । भगवान् का जन्म अकर्मण्यभूमि मिटाकर कर्मभूमि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २=२ ] [ जवाहर - किरणावली बनाने के लिए हुआ था । यह बात प्राचीन है और समझ की कमी के कारण उसे समझना कठिन हो रहा है। स्तुति में कहते हैं ---- श्री आदीश्वर स्वामी हो, प्रणम् सिर नामी तुम भणी । श्रादि धरमप्रभु श्रन्तर्यामी श्राप कीधी हो, भरत खेतर सर्पिणि काल में || निवार, कोई जुगल्याधर्म पेला नम्वर मुनिवर हो || तीर्थंकर जिन हुआ केवली, प्रभु थाप्या तीरथ चार || श्री० ॥ कुछ लोग कहेंगे कि भगवान् ने 'जुगल्याधर्म' मिटाकर कौन-सा अच्छा काम किया ? मज़े में विना हाथ पैर हिलाये सीधा खाना-पीना मिलता था । फिर कर्मभूमि चलाने से क्या लाभ हुआ ? कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि भगवान् ऋषभ-देव ने आरंभ-समारंभ करना ही सिखलाया है ! घर बनाना, खेती करना, वर्त्तन और कपड़े बनना आदि काम बतलाकर निरारंभी जीवन में बाधा डाल दी है । • वास्तव में संकीर्ण विचार वाले लोग धर्म के तत्व का नहीं समझ सकते। पहले कहा जा चुका है कि नैतिक जीवन के अभाव में धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन नहीं बन सकता । मगर लोग नैतिक जीवन के महत्त्व को नहीं सम , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २८३ भते । पर भगवान् ने सब से पहले नैतिक जीवन की ओर ही दृष्टि किया। उन्होंने सोचा कि यह लोग अगर आलसी बने रहेंगे तो इनकी आत्मा ऊँची नहीं चढ़ सकेगी। अतएव सर्वप्रथम इनका आलस्य मिटाकर इनके जीवन के नीतिमय बनाना आवश्यक है। जब मनुष्य में सामर्थ्य है तो उसका उपयोग होना चाहिये । भगवान् ने उस समय की प्रजा से कहा - अरे मनुष्यो ! तुम्हारे हाथ-पैर हैं, नाक-कान हैं, तुम्हारे भीतर शक्ति भरी हुई है, फिर आलस्य में क्यों पड़े रहना चाहते हो ? क्यों किसी की भीख के सहारे जीना चाहते हो ? अपनी शक्ति के पहचाना और अपनी शक्ति के सहारे रहा । ऐसा करने से प्रकृति तुम्हारा साथ देगी । तुम हाथ में हल पकड़ोगे तो बैल भी तुम्हारी मदद करेंगे। अगर तुम हाथ-पैर ही न हिलाओगे तो प्रकृति कैसे मदद करेगी ? इसलिए आलस्य छोड़ो, फितूर मत बढ़ाओ, सादगी से रहे। और अपना भार दूसरों पर मत डालो | अपने लिए आप ही उद्योग कर लो। जब जीवन में इतनी नैतिकता आ जाएगी तो जीवन आध्यात्मिकता की ओर भी अग्रसर हो सकेगा । भगवान् की यह बात युगलियों ने स्वीकार की मगरमहाजनो येन गतः स पन्थाः । इस कहावत के अनुसार भगवान् को सब काम अपने हाथ से करके बतलाने पड़े। बहुत से काम श्राँखों से देखकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २=४ ] [ जवाहर - किरणावली ही सीखे जाते हैं, तदनुसार भगवान् ने सब काम असली तौर पर उस समय की प्रजा को सिखलाए | भगवान् ने आरंभ-समारंभ करना क्यों सिखलाया ? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि जीवन सर्वथा निरारम्भ न हुआ है, न है और न होगा। आरंभ के अभाव में जीवन टिक ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में आरंभ की तरतमता का विचार करना पड़ता है और जो कार्य कम आरंभ का हो उसे अपनाना पड़ता है । आत्मघात करने वाला धर्मात्मा नहीं हो सकता । अतएव जीवन निभाने के लिए किये जाने वाले अनिवार्य आरंभ का विरोध करना बुद्धिमत्ता नहीं है । भगवान् ऋषभदेव पर यह आरोप लगाना कि उन्होंने पाप करना सिखलाया है, निरी मूर्खता है । कल्पवृक्षों से जीवनपयोगी वस्तुएँ मिलना बंद हो गया था, ऐसी दशा में भगवान् लोगों को अगर आर्यकलाओं के द्वारा जीवन धारण करने की शिक्षा न देते तो लोग अनार्य कलाओं की श्रीर झुकते, उनमें प्रवृत्त होते और फिर उनके जीवन का पतन कहाँ जाकर रुकता ? उस समय की जरा कल्पना कीजिए कि कल्पवृक्षों ने देना बन्द कर दिया और प्रजा को कलाओं का ज्ञान नहीं था ! उस समय की प्रजा पर यह कितना घोर संकट था ! उन पर जो बीती होगी उसे कौन अनुभव कर सकता है ! उस समय भी अगर भगवान् कलाएँ न सिखलाते तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान) [२८५ --- ----- --- संसार में घोर पाप छा जाता। यहाँ तक कि आत्मघात की नौवत आ जाती या मनुष्य, मनुष्य को खाने लगता।क्या ऐसा करना घोरतर पाप न होता ? शास्त्र में कहा है कि अन्न-पानी के विना जो विलविलाहट करता हुआ मरता है वह अकाममरण मरता है और अनन्त संसार बढ़ाता है। एक ओर उस समय की प्रजा के भूखों मरने का प्रश्न था और दूसरी ओर महारंभ होने की संभावना थी। तब भगवान् ने विचार किया कि महारंभ से बचकर जीवन नीतिमय और धर्ममय किस प्रकार बन सकता है और फिर आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ? जीवन धारण करने का अल्पारंभ के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं था और न आज है। अतः अल्पारंभ का मार्ग सिखाकर भगवान् ने प्रजा को महारंभ के महापाप से बचाने का उपाय किया। 'अन्नं वै प्राणाः' अर्थात् अन्न प्राण हैं । शरीर के लिए अन्न की अनिवार्य आवश्यकता है और खेती के विना अन्न प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् ने अन्न उत्पन्न करने की कला बतलाई । खेती के कार्य में प्रारंभ तो है ही, लेकिन भगवान् कहते हैं कि शरीर निभाने के लिए खेती करने वाला अल्पारंभी है । अलबत्ता जो धनवान बनने के उद्देश्य से खेती करता है वह अवश्य महारंभी है। इसी प्रकार अपना तन हँकने तथा गर्मी-सर्दी और वर्षा से बचने के लिए वस्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जवाहर-किरणावली बनाने वाले को अल्पारंभी और धन के लिए मिल चलाने वाले को महारंभी कहा है । मतलब यह है कि जीवन की रक्षा के लिए जो कार्य आवश्यक हैं और जिनके विना जीवन की रक्षा नहीं हो सकती, उन कार्यों में होने वाले आरंभ को भगवान्ने अल्पारंभ कहा है और भोग-विलास आदि की अभिलाषा से किये जाने वाले अनावश्यक सावध व्यापार को महारंभ कहा है। महारंभ से बचाने के लिए ही भगवान् ने पुरुषों को बहत्तर कलाएँ और स्त्रियों को चौंसठ कलाएँ सिखलाईं, जिससे कि सुखपूर्वक नैतिक जीवन व्यतीत हो सके और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति हो सके। जब आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश हो चुके तब इन इन्हीं कामों को भगवान् ने त्याज्य बतलाया है। आध्यात्मिक जीवन की साधना के पथ पर आरूढ़ होने के पश्चात् शरीर पर भी ममता न रखने का विधान किया गया है । भगवान् ने कहा है कि पूरी तरह ममता का त्याग कर दो और आत्मा पर ही ध्यान रक्खो और सोचो कि मैं अविनाशी हूँ। इस रीति से भगवान् ने आध्यात्मिक विचार फेलाया, जिससे बहुत से लोगों ने अपनी आत्मा को ऊँचा चढ़ाया, अपना कल्याण किया। सारांश यह है कि आप यह तो कहते हैं कि भगवान् ऋषभदेव के स्तोत्र से पापों का नाश होता है तो फिर हमारे पापों का नाश क्यों नहीं हुआ, परन्तु स्तोत्र के अनुसार आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ) [२८७ ---- -- कार्य नहीं करते । आप भगवान् ऋषभदेव के कथन के विरुद्ध जीवन यापन करते हैं । आप प्रत्येक वस्तु को भोग की तराजू पर तोलते हैं, कमाते नहीं हैं। जब शरीर को वस्तु की आवश्यकता है तब बिना पैदा किये उस वस्तु का भोग कैसे होगा ? जब तक यह बात आप भलीभांति नहीं समझ लेंगे तब तक आध्यात्मिक जीवन को कैसे समझेगे? और जब तक आध्यात्मिक जीवन को नहीं समझेंगे तब तक स्तोत्र बोल लेने मात्र से पापों का नाश कैसे हो सकता है ? जिसने पक्षपात और स्वार्थ की दृष्टि का त्याग कर दिया है, उसके पाप भगवान के स्तोत्र से अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं। एक आदमी दूसरे गरीब के कंधे पर चढ़ा है और कंधे को इस तरह दबाता है कि जिधर चाहे उधर ही उसे ले जाता है। तिस पर भी सवार कहता है कि मैं इस गरीब पर दया करता हूँ। मैं न हाऊँ तो इसकी न जाने क्या दशा हो ! मगर कंधे पर चढ़ने वाले से पूछा जाय कि जब तुझे कंधे पर बिठाने वाला नहीं मिलेगा तो तेरी क्या दशा होगी? आज करीब-करीब यही दशा हो रही है। अमीर लोग गरीबों पर सवार हैं, उनके धन का शोषण कर रहे हैं; तिस पर ऐहसान करते हैं कि हम गरीबों पर दया कर रहे हैं ! सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने उपकारी का उपकार करने का ही विचार करता है। किपी से उधार लेकर न देना सम्यग्दृष्टि का काम नहीं है। लेकिन अपने ऐश-आराम के लिए गरीबों के प्रति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [ जवाहर-किरणावली अन्याय करना और फिर उस अन्याय को गरीबों पर दया करना कहना आत्मा और परमात्मा के बीच दीवाल खड़ी करना है । जब तक यह दीवाल नहीं हटेगी और हृदय साफ नहीं होगा तब तक परमात्मा का दर्शन किस प्रकार हो सकेगा ? प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग न कर सको तो कम से कम उपकारी के उपकार को तो स्वीकार करो। आज समय बदल रहा है तो लोग रोते हैं, जैसे युगलिया रोते थे। यह रोना और हाय-हाय केवल भोग के लिए है। ऐश-आराम में कमी हो जाने के डर से ही यह रोना है। मगर मित्रो! भोग के लिए क्यों रोते हो ? जरा भगवान् ऋषभदेव को याद करो। धनिक लोग सोचते हैं कि हमने पुण्य किया है। उसका फल भोग रहे हैं। अब उद्योग करने की शवश्यकता ही क्या है ? उनके कथन का आशय यह है कि जो परिश्रम न करे वह धर्मात्मा है और जो परिश्रम करके खाता है वह पापी है । यह समझ की बड़ी भूल है। अब समय पलट रहा है। समय की प्रगति को देखो और अपने धर्म का भी विचार करो। आपको सही गस्ता मिल जायगा। अगर आपका बिगड़ा हुआ नैतिक जीवन सुधर जाएगा और आरंभपरिग्रह के प्रति आपकी उग्र ममता छूट जाएगी तो परमात्मा की स्तुति आपके पापों का नाश कर देगी और आप निष्पाप बन जाएँगे । आपका कल्याण होगा। बीकानेर, १४-८-३०. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलयतिमुपैति ननून्द विन्दुः ||८|| हे नाथ, ऐसा मानकर अल्पबुद्धि वाला भी मैं आपके प्रभाव से स्तुति प्रारंभ करता हूँ। यह स्तुति ( आपके प्रभाव से) सत्पुरुषों के चित्त को हरण करेगी। जल का बूँद कमलिनी के पत्ते पर मोती की कान्ति प्राप्त करता है ! I श्रीमानतुंगाचार्य कहते हैं - हे नाथ ! मैं आपके प्रताप सेश्राप के बल पर ही स्तुति बनाना प्रारंभ करता हूँ, अपने बुद्धिबल के सहारे नहीं । मैं अपने बुद्धिबल के संबन्ध में तो पहले ही कह चुका हूँ कि मुझमें अल्पबुद्धि है । ऐसी स्थिति में मैं आपके सहारे ही स्तुति करने को उद्यत हो रहा हूँ। मेरे द्वारा की गई आपकी स्तुति अवश्य ही सज्जनों के चित्त को हरण करने वाली होगी। इसका कारण यह नहीं है कि मैं अपने बुद्धिकौशल से सुन्दर रचना करूँगा, बल्कि यह स्तुति आपकी है। आपकी स्तुति, जो पारमात्मिक भाव से होती है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [ जवाहर-किरणावली सजनों के मन को हरण करने वाली होनी ही चाहिए । जल का बूंद जब कमलिनी के पत्ते पर ठहरा होता है तब मोती की तरह चमकने लगता है, यह बात छिपी नहीं है। यह बड़ाई उस पानी की नहीं है किन्तु उस स्थान की है, जिसे पाकर वह चमकने लगता है। मेरे शब्द भी पानी के समान हैं किन्तु आपका आधार पाकर अर्थात् आपकी स्तुति के काम में आकर वे मोती के समान हो गये हैं। मित्रो ! मानतुंगाचार्य के काव्य की उत्तमता को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे विद्वान् नहीं थे या उनका काव्य साधारण कोटि का है। उनकी कविता से प्रकट है कि वे असाधारण विद्वान् थे । ऐसा होते हुए भी उन्होंने जो नम्रता प्रकट की है, वह हम लोगों को मार्ग दिखाने के लिए है। प्राचार्य दिग्गज विद्वान् और भक्त कवि थे। ऐसी सुन्दर रचना करना साधारण कवि का काम नहीं है। इसमें भाषा की सुन्दरता के साथ भावों की जो विशिष्ट सुन्दरता है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इसके रचियता असामान्य भक्त विद्वान थे। फिर भी उन्होंने जो नम्रता प्रकट की है उससे हम लोगों को यह सूचना मिलती है कि अपनी शक्ति का अहंकार तज दो । शब्द चाहे जैसे हों, परमात्मा को समर्पित कर दो। मुझ अल्पबुद्धि वाले के शब्द भी प्रभु की स्तुति में लगने के कारण सज्जनों का मन हरण करेंगे. यह कहकर प्राचार्य प्रकट करते हैं कि मनुष्य को देखना चाहिए कि उसके शब्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [२६१ किधर जाते हैं ! शब्द भले ही टूटे-फूटे हों फिर भी यदि ये परमात्मा के प्रति समर्पित होंगे तो उत्तम ही हैं और सज्जन पुरुषों को मनोहर प्रतीत होंगे। ___ बहुत-से लोग देवता को फूल फल-पत्ता चढ़ाते हैं और कई अनार्य पुरुष बकरा तथा भैंसा जैसे त्रसजीवों की बलि देते हैं । यह सब आडम्बर है । देवता सजन हैं । उन्हें प्रसन्न करना है तो परमात्मा को अपनी वाणी चढ़ाओ । ऐसा करने से देवता स्वतः प्रसन्न हो जाएँगे, क्योंकि वे भी परमात्मा के भक्त और दास हैं। महामहिम परमात्मा की स्तुति करने से देवताओं का प्रसन्न हो जाना स्वाभाविक है। ___ आधार-.प्राधेय का विचार करके देखना चाहिए कि वस्तु कहाँ जाती है ? विद्वानों ने वस्तु की गति तीन प्रकार की बतलाई है। एक ही वस्तु उत्तम स्थान पर जाने से उत्तम हो जाती है, मध्यम स्थान पर जाने से मध्यम हो जाती है और नीच स्थान पर जाने से नीच बन जाती है । भृर्तृहरि ने जल के सम्बन्ध में कहा है - संसप्लायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते, मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थि - राजते । स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तम्मौक्तिकं जायते, प्रायेणाघममध्यमोत्तमगुणाः संसर्गतो देहिनाम् ।। यों पानी के विन्दु की कोई कीमत नहीं करता। लेकिन वही पानी का विन्दु जब स्वाति नक्षत्र में सीप के मुख में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [जवाहर-किरणावली गिरता है तो मोती बन जाता है। तब यह आदर पाता है और उसे धारण करने के लिए राजा अपना कान छिदवाता है और रानी अपनी नाक छिदवाती है। वह मोती है उसी पानी का प्रताप, मगर पानी जब सीप से मिला तभी उसे यह प्रतिष्ठा मिली। उत्तम पात्र को पाकर पानी भी उत्तम हो गया। जल के बूंद की दूसरी गति है कमल के पत्ते पर गिरना । कमल के पत्ते पर गिरने वाला पानी मोती तो नहीं बनता, लेकिन मोती सरीखा दिखाई देता है। उसकी कीमत तो नहीं श्रा सकती फिर भी देखने से चित्त को वह प्रसन्न अवश्य करता है। ___ जो जल-विन्दु सीप में पड़कर मोती बन जाता है, कमल के पत्ते पर पड़कर मोती सरीखा दिखाई देने लगता है, वही अगर गरम तवे पर पड़ जाय तो तत्काल भस्म हो जाता है। यह उसकी तीसरी गति हुई। जल-विन्दु की यह तीन बड़ी गतियाँ बतलाई गई हैं। उसकी अवान्तर दशाएँ तो बहुत-सी हैं । जैसे-वह अन्न में पड़कर अन्न-सा हो जाता है, इक्षु में पहुँचकर मधुर हो जाता है, नीम में पहुँचकर कटुक बन जाता है और साँप के मुँह में पड़कर ज़हर बन जाता है। इस प्रकार की अनेक अवस्थाएँ उसकी होती हैं । मगर तीन अवस्थाएँ उसकी ध्यान आकर्षित करने वाली हैं । इन तीन अवस्थाओं में से स्तुतिकर्ता ने यहाँ मध्यम अवस्था पकड़ी है। मध्यम के सहारे आदि और अन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान 1 [ २६३ की अवस्था भी पकड़ी जा सकती है। आचार्य कहते हैंमेरे शब्द भले ही कौड़ी के बराबर हों लेकिन स्तुति में लग जाने से मोती बन गये हैं । भगवान् की वचन और काय हम लोगों को पुण्य के उदय से मन, की प्राप्ति हुई है । वह पुराय तीव्र था, इस कारण आर्य क्षेत्र मिला, मनुष्यगति मिली' और दूसरी सब उत्तम सामग्री मिली। वैसे देखा जाय तो इन सब की कोई कीमत नहीं है, फिर भी यह महान दुर्लभ वस्तुएँ हैं । लोगों का दृष्टिकोण इतना अर्थप्रधान बन गया है कि अर्थ के सामने किसी दूसरी चीज़ की कोई कीमत ही नहीं है ! महत्त्व उसी का समझा जाता है जिसके बदले में पैसा चुकाना पड़ता है । यह एकदम भौतिक दृष्टिकोण अपने आप को भुलावे में डालने वाला है । धनवान् की कोई कीमत नहीं, जो कुछ है धन की ही कीमत है ! धन के सामने जीवन तुच्छ है, आत्मा नाचीज़ है ! यह दृष्टिकोण इतना व्यापक हो गया है और इसका असर लोगों पर इतना अधिक हो चुका है कि इससे भिन्न दूसरी बात सोचना भी उनके लिए कठिन हो गया है । मगर मनुष्य अपनी मनुष्यता को भूल जाय, यह कितने संताप की बात है ! आर्थिक मूल्य न चुकाने पर भी देखना चाहिए कि वस्तु का महत्त्व कितना है ? इस दृष्टि से अपने वचन और काय की कीमत समझनी चाहिए । इनके लिए हमें पैसा नहीं देना पड़ा है, यह सही है, मगर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [जवाहर-किरणावली यह मुफ्त में भी नहीं मिले हैं। इनके लिए पहले से संचित पुण्य की एक बड़ी राशि खर्च करनी पड़ी है और पुण्य की पूजी पैसे की पूंजी से हल्की नहीं वरन् बहुत ज्यादा कीमती है । कहना चाहिए कि पुण्य की पूजी से ही पैसे की पूजी प्राप्त होती है । जब पुण्य समाप्त हो जाता है तब ज़मीन खोदकर गाड़ा हुश्रा धन भी कोयला हो जाता है, मोतियों की माला भी सांप बन जाती है। इस प्रकार पुण्य ही सब प्रकार की सम्पत्ति का आद्य स्रोत है। जिस वस्तु के लिए पुण्य को व्यय करना पड़ता है वह बड़ी कीमती वस्तु है ! इस दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होगा कि गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम की अपेक्षा भी मन, वचन और काय का संगम होना कठिन है। गंगा यमुना और सरस्वती के एक ही जगह मिलने से उस स्थान को त्रिवेणी कहते हैं और लोग उसे तीर्थ मानते हैं । इसी प्रकार मन, वचन और काय का जहाँसंगम है, वह क्या तीर्थ से कम है ? यह तीर्थ सञ्चा तीर्थ है, जिसके द्वारा भवसागर तिरा जा सकता है। मगर इन तीनों के लिए आपको इस समय पैसा नहीं देना पड़ा है, इसीलिए आप इनकी कद्र नहीं करते ! फिर भी विचार करने पर मालूम होगा कि यह कितनी उत्तम वस्तुएँ हैं। आपके मन, वचन और तन की आर्थिक दृष्टि से कितनी कीमत है ? कितना धन लेकर आप अपना मन बेच सकते हैं ? कितने रुपये पाकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान [२६५ आप वचन बेच देंगे और गूंगा होना स्वीकार कर लेंगे ? और आपकी काया की कीमत क्या है ? कितना मूल्य लेकर आप अपनी काया त्याग सकते हैं ? इन प्रश्नों पर विचार करो तो असली बात समझ में आयगी। जब इनका महत्व इतना अधिक है और यह उत्तम वस्तुएँ हैं तो इन्हें उत्तम काम में ही लगाना चाहिए या नीच काम में लगाना चाहिए ? किसी पागल को राज्य देने लगो तो उसके किस काम का? अर्थात् मन राज्य से भी मूल्यवान् है। वाणी की महिमा किसी गूंगे से पूछो। उसे वाणी और मोतियों की माला में से एक चीज़ देना चाहो तो वह माला पसन्द नहीं करेगा; वाणी ही लेना चाहेगा । और काया के सहारे तो यह सब खेल ही है! यह तीनों चीजें आपको मिली हैं और वे भी दुरुस्त हालत में मिली हैं, यह कितने आनन्द और संतोष की बात है ! जिन्हें यह प्राप्त नहीं हैं, उनके साथ अपनी तुलना करके देखो तो ज्ञात हो कि यह अपूर्व और अमूल्य वस्तुएँ हैं। किन्तु वादामपाक खाते-खाते जिसे अजीर्ण हो गया है वह रोटी की कीमत नहीं समझता, उसी प्रकार आप भी इस अपूर्व सम्पत्ति की कीमत नहीं समझते। ___ मन वचन और काय अत्यन्त तीव्र पुण्य के उदय से मिले हैं और धर्म रूपी सीप हमारे सामने मुँह फाड़े खड़ा है, तो हम इन्हें पानी के बूंद की तरह धर्म-सीप के ही मुँह में क्यों न डाल दें ? धर्म और परमेश्वर एक ही हैं, दो नहीं । उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] [ जवाहर - किरणावली धर्म भी कह सकते हे। और परमेश्वर भी कह सकते हो। 'सचं भगवो' (सत्य भगवान् ) भी कह सकते हो। उस सत्य की सीप में अपने मन, वचन, काय को डाल दोगे तो ये मोती बन जाएँगे । ये ऐसे मोती बनेंगे जो राजा-महाराजाओं के आदर के ही पात्र नहीं बनेंगे वरन् देवता भी इनकी पूजा करेंगे । देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सथा मणो । अर्थात् जिसके मन में सदैव धर्म का वास होता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं । इस प्रकार कांक्षाहीन होकर अगर आप भगवान् की भक्ति करेंगे तो देवता भी आपको नमस्कार करेंगे । विनयचन्द्रजी कहते हैं श्रागम - साख सुणी छे एहवी, जो जिनसेवक थाय हो सुभागी । तेहमी आशा पूरे देवता, चौंसठ इन्द्रादिक साथ हो सुभागी ॥ श्रीशान्ति जिनेश्वर सायब सोलवां, शान्तिदायक तुम नाम हो सुभागी । तन मन वचन हो शुध कर ध्यावतां, पूरे सगली हाम हो सुभागी || श्री ० || यह आगम की साक्षी है कि जो तन, मन और धन का अहंकार त्याग कर उन्हें परमात्मा को समर्पित कर देता है और फिर भी निष्काम बना रहता है, उसकी आशा देवता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ २६७ पूर्ण करते हैं। आप देवताओं से आशा रखते हैं, इसी कारण वे आपकी आशा पूरी नहीं करते । अगर आप तन, मन, धनपरमात्म-समर्पण कर दें तो देवता आपकी आशा पूरी करेंगे और इन्द्र दास हो जाएँगे । मन रात-दिन घोड़े की तरह दौड़ लगाता रहता है । लेकिन यह देखना आवश्यक है कि परमात्मा की ओर कितना दौड़ता है और नीच कामों की ओर कितना दौड़ता है ? यह अपूर्व चीज़ आपको मिली है । क्षण भर के लिए भी इसका दुरुपयोग मत होने दो। सोते-बैठते सब समय परमात्मा में ही मन संलग्न रहना चाहिए । सुत्ता मुहिया जितात्मा संयमी मुनि जब सोते हैं तब भी उनके योग उसी प्रकार काम करते रहते हैं, जैसे कि जागृत अवस्था में करते हैं । कुम्भार का चाक वेग के साथ घुमाकर छोड़ दिया जाता है तो थोड़ी देर तक बिना घुमाये घूमता रहता है । इसी प्रकार जिसने जागते समय मन को परमात्मा में सम्पू-र्णता के साथ लगाया है, उसका मन सोते समय भी वहाँ लगा रहेगा। जो निरन्तर परमात्मा की भावना से हृदय को भावित करता रहेगा, उसका मन सुषुप्ति दशा में अन्यत्र जा ही नहीं सकता । आज अधिकांश लोग ऊपरी दिखावे के लिए परमात्मा के भक्त बनते हैं । जैसे कोई अच्छा मकान बनाने वाला समझता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [ जवाहर किरणावली है कि फर्नीचर के विना इस मकान की इज्ज़त नहीं होगी और यह सोचकर वह दिखावे के लिए फर्नीचर बसा लेता है; इसी तरह लोग सोचते हैं- दुनियादारी के सब काम - काज करते हैं, अगर धर्म न करेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा । करीब-करीब ऐसे ही विचारों से लोग धर्मक्रिया करते हैं । मगर जो धर्मात्मा है, जिसने धर्म का मर्म समझ लिया है, उसके विचार निराले होते हैं । वह सोचता है - संसारव्यवहार के काम माथे आ पड़े हैं तो मकान में फर्नीचर बसाने की तरह करने पड़ते हैं, लेकिन धर्म तो मकान ही है । फर्नीचर के चक्कर में फँसकर मकान की उपेक्षा नहीं की जा सकती । मकान ही न होगा तो फर्नीचर किसमें बसाएँगे ? जल में रहने वाली मछली खाती तो है, मगर उसके भीतर ही बाहर नहीं । वह देखती भी है, मगर जल के भीतर ही । जल के बाहर तो उसके लिए घोर अंधकार है । वह चलती-फिरती भी है, मगर जल के बाहर नहीं । इसी प्रकार जिसमें सच्ची धर्मभावना होगी वह धर्मभावना से बाहर कभी नहीं निकलेगा । उसे धर्मभावना से बाहर निकलना उसी प्रकार अरुचिकर होगा, जिस प्रकार जल से बाहर निकलना मछली के लिए रुचिकर होता है । ऐसी प्रगाढ़ धर्मभावना की प्रशंसा इन्द्र भी करते हैं । इन्द्र पौधशाला में बैठे हुए की प्रशंसा करे तब तो के।ई बात ही नहीं, मगर इन्द्र जहाज में बैठे हुए धर्मात्मा की, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान] [२६६ जहाँ प्रारंभ ही आरंभ है, प्रशंसा क्यों करता है ? इसका कारण यही है कि जहाज में बैठे हुए भी धर्मात्मा की भावना परमात्मा में ही लगी है। धर्मभावना वाला पुरुष चाहे जहाज में बैठा हो, चाहे पौषधशाला में बैठा हो, मन उसका परमात्मा में ही लगा रहता है। इसी कारण वह इन्द्र द्वारा प्रशंसनीय हो जाता है। __ आप यह न समझे कि धर्म केवल पौषधशाला में ही है, अन्यत्र पाप ही पाप है। इस प्रकार की भावना से पाप की अधिक वृद्धि होती है। आपका विचार यह होना चाहिए कि मैं धर्मी हूँ और धर्म की आजीविका करता. हूँ। पौषधशाला तो धर्म की शिक्षा-शाला है। उस शिक्षा का उपयोग तो बाहर ही होता है अगर आपने पाठशाला में पाँच और पाँच दस गिने और पाठशाला से बाहर निकलते ही ग्यारह गिनने लगे, तो आपकासीखना निरर्थक हुआ । इसी प्रकार अगर पौषधशाला में धर्म की शिक्षा ली और बाहर जाकर उसे भूल गये और अधर्म में प्रवृत्त हो गये, कपट करने लगे, झूठ बोलने लगे, तो आपकी वह शिक्षा व्यर्थ हुई। धर्म का संस्कार धर्मस्थान से ऐसा ग्रहण करो कि वह जीवन व्यवहार में काम आवे । कदाचित् श्राप सोचते हों कि व्यवहार में धर्म का अनुसरण करने से काम नहीं चलेगा, व्यवहार चौपट हो जायगा, तो आप अपने हृदय से यह भ्रम दूर कर दीजिए | धर्म का घ्यावहारिक अनुसरण करने वाले कभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] [जवाहर-किरणावली भूखों नहीं मरते। बहुत लोग धर्म के सम्बन्ध में एक भ्रम में पड़े हैं । उनका यह अभिप्राय है कि धर्म व्यवहार की वस्तु नहीं है ? अगर धर्म व्यवहार में लाने की वस्तु न होती तो उसका इतना माहात्म्य ही न होता । प्राचीन काल के अनेक चरित हमारे सामने हैं, जिनसे भलीभाँति समझा जा सकता है कि लोकव्यवहार में धर्म का आचरण करने वालों का व्यवहार कभी नहीं रुका है । धर्म न दिखावे की वस्तु है और न कीर्ति उपार्जन का साधन है। यह बात दूसरी है कि धर्मात्मा की कीर्ति स्वतः संसार में फैल जाती है, पर धर्म का उद्देश्य कीर्ति उपार्जन करना नहीं है। धर्म तो आचरण की वस्तु है। धर्मस्थान का जीवन और दुकान का जीवन अलग-अलग नहीं है। वह एक है, अविभक्त है । अतएव धर्मस्थान और दुकान के जीवन-व्यवहार में भी एकरूपता होनी चाहिए । जीवन में एकरूपता लाने के लिए सदा सर्वदा परमात्मा की भक्ति में लीन रहना चाहिए व्यावहारिक कार्य करते समय भी परमात्मा अन्तःकरण में मौजूद रहना चाहिए । परमात्मा को भुलानेवाला अर्थात् परमात्मा के आदेशों के विरुद्ध व्यवहारकरने वाला भक्ति के मर्म को नहीं समझा है। जो भक्ति के मर्म को और प्रभाव को समझ जायगा वह क्षण भर के लिए भी परमात्मा को विस्मरण नहीं करेगा । वही कल्याण का पात्र बनेगा। । बीकानेर, १२-८-३०. । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्तां तव स्तदनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरिता निहन्ति | दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभान्जि ।। ६ ।। अर्थसूर्य की बात तो जाने दीजिए, उसकी प्रभा से ही सरोवरों में कमल खिल जाते हैं। इसी प्रकार समस्त दोषों से रहित आपकी स्तुति की तो बात ही क्या, आपका नाम लेने से ही जीवों के पापों का नाश हो जाता है। ___ भगवान ऋषभदेव की स्तुति करते हुए प्राचार्य मानतुंग कहते हैं कि साधारण वस्तु भी जब किसी विशिष्ट वस्तु का आश्रय लेती है तो उसकी साधारणता मिट जाती है और उसमें असाधारणता आ जाती है। आश्रय की विशेषता वस्तु में विशेषता उत्पन्न कर देती है। इसी प्रकार अच्छी वस्तु अगर दुरी वस्तु का आश्रय लेनी है तो वह भी बुरी बन जाती है। मुझे जो सामान्य वस्तु मिली है, उसे अगर परमात्मा का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] [ जवाहर - किरणावली श्राश्रय प्राप्त हो जाय, अगर वह प्रभु के प्रति समर्पित हो जाय तो वह असाधारण बन जायगी । परमात्मा का यह आह्वान है कि तू जैसा है वैसा ही मेरे पास आ । यह मत विचार कि मेरे पास ऋद्धि, सम्पदा या विद्वत्ता नहीं है तो मैं परमात्मा के पंथ पर कैसे पाँव रख सकूँगा ! इस विचार को छोड़ दे और जैसा है वैसा ही परमात्मा की शरण में जा । जैसे कमल के पत्ते का संयोग पाकर जल का साधारण बूँद भी मोती की कान्ति पा जाता है, उसी प्रकार तू परमात्मा का संयोग पाकर असाधारण बन जायगा । अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर किसी में स्तोत्र बनाकर गाने की शक्ति न हो तो उसे क्या करना चाहिए । स्तोत्र छन्दबद्ध होने के कारण बड़ों का अर्थात् विद्वानों का मन चाहे हर ले, लेकिन छोटों का इससे क्या लाभ होगा ? लेकिन स्तोत्र से अगर विद्वानों का ही मनोरंजन होता हो और छोटों को उससे लाभ न पहुँचे तो वह स्तोत्र ही क्या ? जवार मोतियों से कम कीमती होने पर भी अधिक कीमती होती है, क्योंकि उससे गरीब और अमीर- सब का काम चलता है । मोती तो सिर्फ अमीरों के ही काम आते हैं । इसी प्रकार वही स्तोत्र मूल्यवान् है जिससे सब लोग लाभ उठा सकते हैं। । मगर जो लोग छन्दबद्ध स्तोत्र से लाभ नहीं उठा सकते वे अपने मन, वचन और काया परमात्मा को किस प्रकार अर्पित कर सकते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३०३ इस संबंध में आचार्य कहते हैं कि जिसके प्रभाव से सब पाप धुल जाते हैं, उस प्रभु की प्रसंगकथा भी सब पापों का नाश कर सकती है, यहाँ तक कि उसका नामकीर्तन भी पापों को नष्ट कर देता है । जिस प्रभु का नामकीर्तन और प्रसंगकथा भी पापमोचिनी है उसके स्तोत्र के प्रभाव का कहना ही क्या है ! प्रभु के स्तोत्र में वह शक्ति है कि अन्तःकरण की बलवती प्रेरणा से स्तोत्र बनाने वाला स्वयं इन्द्र की स्तुति का पात्र बन जाता है । जिनके स्तोत्र बनते हैं उनकी कथा भी महान् होती है । इसी कारण स्तोत्र भी महान बनते हैं । 1 इतिहास वह है जिसमें बीती बातों का वर्णन हो । इतिहास के लिखने में तो थोड़ी ही देर लगती है और परिश्रम भी कम करना पड़ता है, लेकिन इतिहास में वर्णित कार्यों को करने में कितना परिश्रम हुआ होगा ? कितना समय लगा होगा ? किसी व्यक्ति के चरित को ही लीजिए । चरित की रचना तो सहज ही की जा सकती हैं मगर चरित में लिखित बातों का अमल करने में चरितनायक को कितना परिश्रम करना पड़ा होगा ? कल्पना कीजिए - किसी राजा ने एक सुन्दर और विशाल महल बनवाया। दूसरे आदमी ने उसका वर्णन लिखा कि इस महल में इतने कमरे, इतनी खिड़कियाँ और इतने द्वार हैं, आदि -आदि । बस, मकान की कथा तो इतने में ही समाप्त हो गई; मगर विचार कीजिए कि महल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] [ जवाहर-किरणावली -- --- ------- - " ---------.. वनाने में कितना श्रम और समय लगा होगा ? इस प्रकार विचार करने पर आपको भगवान् की कथा की महिमा ज्ञात होगी। महापुरुषों की कथा पापों को हरण करने वाली होती है। और जिनकी कथा पापों को हरण करने वाली होती है, उन्हीं का स्तोत्र महान कल्याणकारी होता है। आचार्य कहते हैं - परमात्मा सम्बन्धी कथा भी पापों का विनाश करने वाली होती है। जैसे कमल को विकसित करने के लिए सूर्य तो दूर रहा, उसकी प्रभा ही पर्याप्त है, उसी प्रकार भगवान् की स्तुति का तो कहना ही क्या है, उनकी कथा भी पापों का नाश करने वाली है। जिसकी कथा भी पापों को हरण कर सकती है, उसका स्तोत्र पापों का क्यों विनाश करेगा? तात्पर्य यह है कि स्तोत्र सूर्य के समान है और कथा प्रभा के समान । अतएव पापों को हरने के लिए कथा ही काफी है। गीता में कहा है जन्म कर्म च मे दिव्यं-मेवं यो वेत्ति नन्वतः । स्यक्रवा देवं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽजुन ।। अर्थात्-जिस दिव्य दृष्टि से मेरा जन्म और कर्म जानने योग्य है, उस दिव्य दृष्टि से जो मेरे जन्म और कर्म को जान लेता है, वह देह त्याग कर पुनर्जन्म धारण नहीं करता। जिनकी कथा से पाप-नाश होता है और फिर जन्म नहीं लेना पड़ता, उनकी कथा कैसी होती है, यह भी जान लेना कावश्यक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३०५ कोई भी लोकोत्तर शक्तिसम्पन्न महापुरुष, यकायक महापुरुष नहीं बन जाता । आत्मा नित्य है और वह एक भव के पश्चात् दूसरे भव को ग्रहण करता है । दूसरे भव में पहले भव का शरीर नहीं रहता मगर संस्कार अवश्य रहते हैं । इस प्रकार एक आत्मा अपने पूर्वभव के संस्कारों के साथ अगला भव ग्रहण करता है । और उस भव में अपने पूर्वकालीन संस्कारों में वृद्धि करता है, उन्हें अधिक उच्च और पवित्र बनाता है। इस प्रकार क्रमशः उच्च और पवित्र बनते हुए संस्कार जिस जन्म में बहुत विकसित हो जाते हैं, उसी भव में आत्मा महापुरुष की पदवी प्राप्त करता है । किसी भी महापुरुष की महत्ता उसके वर्त्तमान् जीवन की साधना का ही परिणाम नहीं है, किन्तु भवभवान्तर की चिर साधना का फल है । · चाहे भगवान् ऋषभदेव की कथा लो, चाहे किसी दूसरे महापुरुष की, उसे पूर्वजन्म की सहायता प्राप्त होती है । पूर्वजन्म में उन्होंने महान् तप और धर्म का आचरण करके संसार के कल्याण में भाग लिया है । उस समय उनकी क्रिया जब उत्कृष्ट दशा को पहुँच गई, तब उन्होंने नवीन जन्म धारण किया । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव को पहचानने के लिए उनके तेरह भवों की कथा देखने की आवश्यकता है । उन्होंने ऋषभदेव के भव में जो महिमा और सिद्धि प्राप्त की है, उसके लिए पहले के बारह भवों में साधना की थी । तब कहीं तेरहवें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] [ जवाहर - किरणावली भव में वे ऋषभदेव हुए। जो भव्य पुरुष उन कथाओं के साथ अपने जीवन की तुलना करेगा, उनके आदर्श का अनुसरण करेगा, वह अवश्य ही संसार के जन्म-मरण रूप दुःखों से मुक्त होगा । एक पूर्वभव में भगवान् ऋषभदेव गाथापति थे । उस समय उनका जीवन ऐसा दिव्य था कि श्रीमन्त होते हुए भी वे गरीबों से भेदभाव नहीं रखते थे । श्राज तो बढ़िया खाने और बढ़िया पहनने में ही श्रीमंताई समझी जाती है, लेकिन इस बढ़िया खाने-पहनने के कारण श्रीमन्तों और गरीबों के बीच एक जबर्दस्त दीवार खड़ी है। गई है । यही कारण है कि आज वर्गयुद्ध हो रहा है और समाज पंगु बन रहा है । मित्रो ! सत्य की खोज करो और सत्य को ही अपनाओ । कथा को सुनकर यह देखो कि मुझमें सत्य कितना है ? कथा सुनने का यही प्रयोजन है । मैं पूछता हूँ - जो पुरुष बढ़िया कपड़े पहनेगा, वह गरीबों के साथ रहेगा ? • 'नहीं !' तो सोचिए कि उसकी श्रीमंताई गरीबों का साथ देने के लिए है या गरीबों से दूर भागने के लिए है ? बढ़िया चटकीले कपड़े पहन लेने पर गरीबों की तो मानों छूत लगती है ! मगर स्मरण रक्खो, सम्पत्ति होने पर जो गरीबों से दूर भागता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [307 उसकी सम्पत्ति पाप रूप हो जाती है। सम्पत्ति में प्रायः यह बात पाई जाती है, इसी कारण सम्पत्ति-परिग्रह-की गणना पाप में की गई है। पाप सोना-चाँदी में नहीं बैठा है, किन्तु धन की ममता में फँसकर गरीबों से दूर रहने और गरीबों का रङ्गशोषण करके भन बढ़ाने की तृष्णा में पाप है। कल्पना कीजिए-एक सेठ बग्घी में बैठा जा रहा है और एक किसान अपनी बैलगाड़ी में बैठा आ रहा है ।मान में एक तीसरा गरीब और बेहाल थका हुआ पथिक मिला / वह अगर बग्घी और गाड़ी में अपने को बिठा लेने की प्रार्थना करे तो उसे कौन बैठा लेगा? 'किसान !' बग्घी वाले को तो वह थका हुआ बटेाही भूत-सा दिखाई देगा। लेकिन किसान के दिल में दया उपजेगी और वह अपनी गाड़ी में उसे विठा लेगा / इन दोनों में से किसे पुण्यवान् समझना चाहिए ? इसीलिए कहा है दया धर्म पाचे तो कोई पुण्यवंत पावे / जाने दया की बात सुहावे जी / भारी कर्मा ने अनन्त संसारी, आरे दया दाब नहिं भावें जी // दया० / / गरीबों और अमीरों के बीच मेदभाव की दीवाल खड़ी हो गई है, जिससे अमीर लोग गरीबों से अलग रहते हैं। इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] [ जवाहर-किरणावली दीवाल को गिराने के लिए ही संत महात्मा कहते हैं कि गरीबों के अनुकूल रहो, प्रतिकूल मत रहो। अनुकूल रहने वाला ही पुण्यवान है। ____ अमीरों को यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें गरीबों की क्या परवाह है ! उनके विना हमारा कौन-सा काम अटकता है ? वास्तव में अमीर लोग गरीबों की सहायता के विना एक दिन भी नहीं जी सकते। धर्म तो ऊँधी चीज़ है। पर मैं मैतिक जीवन के लिए ही कहता हूँ। नैतिक जीवन में गरीबों की सहायता की पद-पद पर आवश्यकता रहती है। अमीरों की विशाल और सुन्दर हवेलियाँ गरीबों के परिश्रम ने ही तैयार की हैं, अमीरों का षट्स भोजन गरीबों के पसीने से ही बना है। अमीरों के बारीक और मुलायम वस्त्र गरीबों की मिहनत के तारों से ही बने हैं। याद रक्खो, आध्यात्मिक जीवन का पाया नैतिक जीवन है। जिसकी सहायता के विना एक दिन भी काम नहीं चल सकता उसकी सहायता को भुला देना और यह कहना कि गरीबों के बिना हमारा क्या काम अटकता है, घोर कृतघ्नता है / यह कृतघ्नता नैतिक पतन को सूचित करती है। जैन शास्त्रों में पृथ्वी पानी आदि की दया इसलिए भी बतलाई गई है कि उनकी सहायता से ही जीवन टिकता है। जिनकी सहायता पर जीवन निर्भर है, समय पर उनकी याद न करना कृतघ्नता है। विवाह के अवसर पर गरीबों का चाहे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [306 चूरा हो जावे, लेकिन लोग अमीरों की ही सेवा करते हैं और उनके लिए ही थाल सजाते हैं। पर गरीबों के प्रति ध्यान नहीं देते / यह बड़ी कृतघ्नता है। अमीर और गरीब के बीच की दीवाल गिराने के लिए ही शास्त्र की कथाएँ हैं। श्रीकृष्णाजी ने गरीब बूढ़े की ईटें उठवाई तो ऐसा करने से वह दीवास मज़बूत हुई या ट्टी ? 'टी!' घरका कोई आदमी बीमार हो जाय तो छैल छबीले लोगों को वह भी प्यारा नहीं लमता। ऐसे समय में गरीब ही सेवा करते हैं। छैल छबीली बाई को बीमार सासू को सेवा कब अच्छी लगेगी ? बहुत हुआ तो वह किसी नौकरानी को रख देगी, मगर नौकरानी भी तो गरीबिनी ही है / तो फिर दया किस पर होनी चाहिए-गरीबों पर या अमीरों पर? कौन अधिक दया का पात्र है ? __ आप मैनचेस्टर का मलमल पहनने में अपना गौरव समझते हैं। और खादी पहनने में गौरवहीनता मानते हैं। तो आपके दिल में दया कहाँ रही ? जिस दिन आपके दिल में दया उपजेगी उस दिन आपके शरीर पर बारीक वस्त्र नहीं रहेंगे। भारत की बहुत-सी बहिनें, विदेशी वस्त्रों पर पिकेटिंग करने के कारण अपने कोमल शरीर पर लाठियाँ और बेंत सहन करती हैं और आप मर्द होकर भी बेपरवाह हैं ? अगर आप पिकेटिंग नहीं कर सकते तो कम से कम स्वयं तो चर्वी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] [ जवाहर-किरणावली लगे विदेशी वस्त्रों के पहनने का परित्याग कर सकते हैं ? विदेशी वस्त्रों के व्यवसाय का त्याग तो कर सकते हैं ? मगर आपको तो पैसाचाहिए, देश रहे या डूबे, इस बात की चिन्ता ही क्या है ? धरना देने वाली बहिनें जो बुरी तरह मार खा रही हैं उनकी उस मार-पीट का कारण कौन है ? व्यापारी अमर विदेशी वस्त्र न घेचे और खरीददार न खरीदें तो उन्हें क्यों इतना कष्ट सहन करना पड़े ? मगर लोग पैसे के लोभ में पड़करे दया भूल गये हैं, धर्म को विसर गये हैं / श्राप मर्द हैं और आपकी मां-बहिने पापमय विदेशी वस्त्रों का व्यवहार बन्द कराने के लिए मार खा रही हैं / फिर भी आपको लज्जा नहीं आती? यहां तक कि आप उन वस्त्रों का त्याग नहीं कर सकते / अहंकार त्याग कर देश की भलाई के लिए मार खाने वाली बहिनों की तपस्या कम नहीं है। महारानी देवकी विना अपराध हथकड़ी-बेड़ी पहनकर कारागार में रहीं, चन्दनबाला विना अपराध हथकड़ी-बेड़ी में जकड़ी भौंयरे में बन्द रही, अंजना ने विना अपराध घोर अपमान सहन किया, तो क्या इन देवियों के नाम प्रातः-स्मरणीय नहीं हो गये ? जिन देवियों ने घोर संकट सहकर भी सत्य को नहीं छोड़ा है, उनमें कैसी शक्ति रही होगी, इस बात पर विचार करो। थोड़े दिनों पहले किसी को खयाल ही न होगा कि बहिनें इस प्रकार लाठियाँ की मार खाएँगी, पर सत्य न मालूम कब किस रूप में प्रकट होता है ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [ 311 बहिनो, अगर आपको अंजना, द्रौपदी आदि सतियों की बात याद हो तो आप अपने धर्म का विचार करो। अपने धर्म का विचार करने और उसे व्यवहार में लाने से ही चरितकथा सुनने का लाभ मिलेगा। __आपको चन्दनबाला की कौन सी पोशाक महत्वपूर्ण मालूम होती है ? देवों द्वारा पहनाई हुई या हथकड़ी-बेड़ी के समय की ? चन्दनबाला के जीवन में एक समय वह था जब उसका सिर मुड़ा हुअाथा और हाथ-पैर हथकड़ियों बेड़ियों से उसके जकड़े हुए थे और वह भौयरे में बँधी पड़ी थी। दूसरा समय वह था जब देवों ने उसे पोशाक पहनाकर सिंहासन पर विराजमान किया था। आपको इन दोनों अवस्थाओं में से कौन-सी अवस्था अच्छी लगती है ? 'हथकड़ी-बेड़ी वाली!' भाइयो, तप दुर्लभ है। न मालूम उसका तप कितने महत्त्व का था कि उस अवस्था में भी उसे प्रानन्द का ही अनुभव हुश्रा / वह समझती थी कि धर्म की सजा भुगतने में तो आनन्द ही है ! पश्चात्ताप तो तब हो जब मैं पाप की सजा भुगतू ! यह भावना और दया आपमें कहाँ है ? इसीलिए तो अमीरों और गरीबों के बीच दीवाल खड़ी है। इसी कारण तो अमीर लोग गरीबों पर निर्भर होते हुए भी उनके सुख-दुख की परवाह नहीं करते ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [ जवाहर-किरणावली परिग्रह में आदि से ही पाप है। इस पाप को मिटाने के लिए ही महापुरुषों ने परिग्रह के त्याग की कथा बनाई है। श्रीकृष्ण में ऐसी शक्ति थी कि वे गर्भ में रहे हुए कंस को मार सकते थे। फिर भी वे ग्वालों के साथ रहे, ग्वालों का काम करते रहे, ग्वालों के वस्त्र पहनते रहे। इसका उद्देश्य क्या था ? सादगी का महत्त्व प्रकट करने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया। उन्होंने समाज में बड़े समझे जाने वालों का सम्पर्क गरीबों के साथ कर दिया / गरीब-अमीर के बीच की दीवाल तोड़ दी और यह दिखा दिया कि सादगी में ही धर्म है। इसी लिए कवियों ने उनके स्तोत्र बनाये हैं / एक कवि कहता है मोर मुकुट सिर पर धरें, उर गुजन की माल / वाववि मेरे उर बसो, सदा विहारीलाल / / कवि विहारीलाल कहते हैं-मेरे हृदय में वही वेष बसा रहे जिसमें सिर पर मोर-पंख का मुकुट है, गले में चिर्मियों की माला है और कमर में लंगोटा है ! कवि ने यहाँ उस रूप की कामना की है जिसके लिए धन की आवश्यकता नहीं होती। उसने धनिकों के वेष की कामना नहीं की / श्रीकृष्ण ने धनिकों और गरीबों के बीच की दीवाल तोड़ने के लिए ही यह चरित रचा था / श्रीमंतों और गरीबों के बीच की दीवाल तोड़ने वाले महापुरुषों में भगवान् ऋषभदेव सब से प्रथम हैं। उन्होंने उस समय के निरुद्यम लोगों से कहा था कि कल्पवृक्ष की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [313 आशा छोड़कर उद्योगी बनो। उन्होंने स्वयं कला और विज्ञान द्वारा लोगों को स्वावलम्बी बनना सिखलाया था। इसी से प्रजा स्वतंत्र जीवन का लाभ लेने वाली बन सकी / उन्होंने अपने लम्बे जीवन का एक बड़ा भाग प्रजा के नैतिक जीवन का सुधार करने में लगाया। जब वे नैतिक जीवन की शिक्षा दे चुके तो बाद में उन्होंने धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन का पाठ पढ़ाया। नैतिक जीवन के अभाव में धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता। इसी कारण भगवान् ने धार्मिक जीवन की शिक्षा देने से पहले जीवन को नीतिमय बनाने की शिक्षा दी थी। आध्यात्मिक जीवन ऊँचा अवश्य है पर उसका अाधार तो नैतिक जीवन ही है ! धन्ना सेठ ने ढिंढोरा पिटवा दिया था कि जिसके पास कपड़ा, भोजन, पूंजी या सवारी न हो, वह मुझ से ले ले। मेरे साथ जो चलना चाहे, चल सकता है। परदेश में जो खर्च होगा, मेरा होगा और जो आमदनी होगी, कमाने वाले की होगी। ऐसा करने से गरीब-अमीर के बीच की दीवाल टूटी या मज़बूत हुई ? इसलिए मानतुंगाचार्य कहते हैं-'प्रभो! आपकी कथा का रहस्य समझने वाले के भी पाप धुल जाते हैं।' अगर आप अपने पाप धोना चाहते हैं तो आप भी गरीबों की सुध लीजिए। एक गरीब आपके पास भूख का मारा तड़फड़ाता रहे और बादामपाक उड़ाता रहे, दूसरा कड़ाके की सर्दी में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [जवाहर-किरणावली सिकुड़ता और काँपता रहे और आपकी पेटियाँ कपड़ों से भरी पड़ी रहें, यह कितनी घोर निष्ठुरता है ? ऐसा निष्ठुर व्यक्ति कभी दयाधर्म पा सकता है ? 'नहीं !' आश्चर्य की बात तो यह है कि आजकल के कतिपय धर्मगुरु कहलाने वाले लोग भी यह शिक्षा देते हैं कि तुम तो मौज़ करो और दूसरे मरते हैं तो उन्हें मरने दो। उनका कथन है कि जो मोटर या बग्घी में बैठा है वह पुण्यवान है और जो थका हुआ पड़ा है वह पापी है। परपी अपने कर्म खपाता है। उसे सहायता देकर कर्म खपाने में बाधा क्यों पहुँचाते हो ? कैसी अनोखी शिक्षा है ? ऐसे पाखंडों को चलते भी देखोगे और डूबते भी देखोगे। वास्तविक बात तो यह है कि जिसका नैतिक जीवन पतित है उसका आध्यात्मिक जीवन ऊँचा हो ही नहीं सकता / अतएव जीवन को नीतिमय बनाओ / हृदय में दीन-दुखियों के प्रति प्रेम रक्खो, सत्य का आचरण करो, सादगी से रहो और परमात्मा की कथा का म्मरण करो। अपने संघ को साथ लेकर जब धन्ना सेठ व्यापार के लिए जा रहे थे, तब एक मुनि ने कहा-इस जंगल को पार करने के लिए हम भी तुम्हारे साथ चलते हैं / धन्ना सेठ ने कहाअवश्य चलिए। आपके साथ चलने से बढ़कर बात और क्या होगी / मेरा अहोभाग्य है कि आप साथ चल रहे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [315 ----- -- -- - -- - जंगल में सेठ ने अपने सब साथियों की रक्षा की / सब को अपने खेमे में रक्खा / सब की सार-संभाल की / परन्तु मुनि गुफा में बैठे थे, इस कारण धन्ना सेठ उनकी संभाल नहीं कर सके / इस कारण रात भर उन्हें मुनि की चिन्ता लगी रही / प्रातःकाल होते ही सेठ, मुनि के पास पहुंचे और आँखों में आँस भर कर उनसे क्षमाप्रार्थना करने लगे। मुनि ने कहा-हम तेरी सहायता से बड़े मज़ में आये हैं / तू चिन्ता क्यों करता है ? इन मुनि की सेवा के प्रभाव से धन्ना सेठ ने तीर्थकर गोत्र की नींव डाल ली। मित्रो ! उनकी यह कथा पाप को हरण करेगी या नहीं? आप गरीबों की ओर ध्यान दो और ऐसा उपाय करो कि कोई भूखों न मरे / गरीबों में आज जो अशक्तता है वह आप लोगों में सादगी न होने के कारण है। आप सादगी को अपनाएँ तो गरीबों की दुर्दशा बहुत कुछ दूर हो सकती है। ऐसा करने पर ही परमात्मा की भक्ति सार्थक होगी। प्रभु की कथा का यही आदेश है। प्राणीमात्र के सुख के लिए यत्नशील होना और स्वार्थभावना का परित्याग कर देना ही परमात्मा की भक्ति करना है। ऐसा करने वाले निष्पाप और निस्ताप बनते हैं। बीकानेर, 13-8-30 / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ अर्थ-हे लोक के भूषण ! हे प्राणियों के नाथ ! आपके वास्तविक गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले भक्त आपके ही समान हो जाते हैं; यह कोई अद्भुत बात नहीं है। आखिर उस स्वामी से लाभ ही क्या है जो अपने आश्रित जन को अपने समान वैभव वाला नहीं बना देता है ! दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्य तिदुग्धसिन्धोः, चारं जलं जलनिधेरसितुम् क इच्छेत् ॥११॥ अर्थ-प्रभो! आप टकटकी लगाकर देखने योग्य हैं। आपको देख लेने के बाद भक्त के नेत्र किसी दूसरे को देखकर संतोष नहीं पाते । चन्द्रमा की किरणों के समान धवल क्षीरसागर का जल पी लेने के पश्चात् साधारण समुद्र का जल कौन पीना चाहेगा? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३१७ हे भुवनभूषण ! हे भूतनाथ ! मुझे इस बात से आश्चर्य नहीं होता कि आपके गुणों का अभ्यास करने वाला, आपके गुणों में तल्लीन हो जाने वाला, और आपका स्मरण करने वाला श्राप सरीखा ही हो जाता है। ऐसा होना कोई अद्भुत बात नहीं है । संसार में भी देखा जाता है कि लक्ष्मीवान की सेवा करने वाले को लक्ष्मीवान् अपना--सा बना लेता है । फिर जो तेरा भजन करके तेरी शरण में आए, वह अगर तेरे ही समान बन जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? समुद्र में पड़े हुए को जब कोई आधार न मिल रहा हो, तब अचानक ही अगर नौका का आश्रय मिल जाय तो उसके आनन्द का पार नहीं रहता। वह नौका पाकर अत्यन्त प्रसन्न होता है। इसी प्रकार भवसागर में पड़े हुए प्राणियों के लिए परमात्मा परम आधार है और भक्त जन इस आधार को पाकर असीम और अनिर्वचनीय आनन्द अनुभव करते हैं ! किसी सेठ की सेवा करने पर सेठ सेवक पर प्रसन्न होकर उसके दारिद्रय दूर कर देता है। सेठ की सच्ची सेठाई इसी में है कि वह अपने उपकारक या सहायक के उपकार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे और उसे अपना-सा बना ले। जो सेठ अपने सेवक की सम्पूर्ण शक्तियों को अपने हित में प्रयुक्त करता रहता है, उसके द्वारा धन-दौलत, यश, प्रतिष्ठा आदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] [जवाहर-किरणावली प्राप्त करता है, किन्तु उस सेवा का बदला अपनी ओर से उचित रूप में नहीं देता, उसे कृतज्ञ या कर्तव्यनिष्ट नहीं कहा जा सकता । सचा श्रीमान् ऐसा नहीं करेगा। इसी प्रकार ग्रामस्वामी, देशस्वामी और चक्रवर्ती की सेवा से अधिक-अधिक लाभ होता है। चक्रवर्ती की सेवा करने पर चक्रवर्ती राजा का भी पद दे देता है । और चक्रवर्ती भी अपने राज्य की उन्नति की प्राशा से इन्द्र की सेवा करता है । अर्थात् चक्रवर्ती भी इन्द्र की प्राशा रखता है और हे प्रभो! इन्द्र भी तेरा दास है। ऐसी स्थिति में अगर मुझे आप मिलगये तो फिर क्या प्राप्त करना शेष रह गया ? गरीब लोग सेठ की सेवा करते हैं और सेठ ग्रामधनी की सेवा करता है । वह जानता है ग्रामधनी ग्राम का स्वामी है। मेरा वैभव उसी के अनुग्रह पर निर्भर है। वह चाहेगा तो रह सकूँगा, नहीं चाहेगा तो गाँव छोड़कर भागना पड़ेगा। ऐसा सोचकर सेठ, ग्रामधनी की सेवा करता है । और ग्रामधनी, देशधनी की सेवा करता है। देशधनी चक्रवर्ती की आशा रखता है और सोचता है कि चक्रवर्ती की कृपा रहने पर ही मैं राजा रह सकता हूँ। मगर चक्रवर्ती भी देव की भाशा रखता है। वह समझता है कि मेरा अखंड एकछत्र राज्य दैवी कृपा पर ही निर्भर है। दैवी कृपा से अनायास ही जो कार्य हो जाता है वह दैवी कृपा के अभाव में बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी नहीं हो सकता। इस कारण चक्रवर्ती, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३१६ इन्द्र की आशा रखता है । और चक्रवर्त्ती का आराध्य देवराज इन्द्र भी तेरी आराधना में ही अपनी कृतार्थता समझता है । और सब तो भौतिक लालसा से एक-दूसरे की सेवा करते हैं, परन्तु इन्द्र को भगवान् से क्या लालसा पूरी करनी है ? प्रमे ! इन्द्र किस आशा से तेरी सेवा करता है ? इन्द्र भगवान् की सेवा करता है, इस बात पर विचार करने से विदित होता है कि इन्द्र बन जाने पर भी और इन्द्र की सेवा करने पर भी आत्मा सनाथ नहीं हो सकता । इन्द्र स्वर्ग का स्वामी है, देवगण का राजा है, लोकोत्तर शक्तियों का निधान है, अनुपम वैभव उसे प्राप्त है, फिर भी वह - सनाथ नहीं है । जब इन्द्र की आयु पूर्ण हो जाती है और वह अपने पद से च्युत होता है तो उसे आधार देने वाला दूसरा कोई नहीं है । इन्द्राणी अपने स्वामी की रक्षा नहीं कर सकती । सामानिक देव, लोकपाल या आत्मरक्षक देव देखते रह जाते हैं, मगर इन्द्र को गिरने से नहीं बचा सकते। उस समय इन्द्र भी अनाथ हो जाता है। जो अपने कृपाकटाक्ष से एक दिन दूसरों को निहाल कर देता था, काल आने पर उसे कोई बचा नहीं सकता और न वह आप ही बच सकता है । इसी कारण इन्द्र भी कालविजेता परमात्मा की शरण में जाता है । परमात्मा की शरण ग्रहण करने के पश्चात् काल का जोर नहीं चलता । इस प्रकार इस विशाल विश्व में एक पर दूसरे की लत्ता + Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] [ जवाहर-किरणावली चल रही है, परन्तु एक सत्ता वह है जिस पर किसी की सत्ता नहीं चलती:) उस सत्ता का श्राश्रय समस्त दुःखों का अन्त करने वाला है। वह स्वतः मंगलमयी सत्ता अपने आश्रित को मंगलमय बना लेती है। वह सत्ता क्या है ? अनन्त जिनेश्वर नित नमू, अद्भुत ज्योति अलेख । ना कहिये ना देखिये, जाके रूप न रेख ॥ अनन्त ।। यहाँ भगवान् अनन्तनाथ को नमस्कार किया गया है। भगवान् को चाहे अनन्तनाथ कहो, चाहे आदिनाथ कहो, बात एक ही है। भक्तामरस्तोत्र में ही इसका स्पष्टीकरण कर दिया गया है: स्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यम्, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्ककेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, . ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ अर्थात्-हे प्रभो! संत पुरुष अनेक नामों से तेरी उपासना करते हैं। कोई तुझे अव्यय (अच्युत ) कहता है, कोई त्रिभु, अचिन्त्य, असंख्य, आध, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, आदि नामों से तुझे पुकारता है। मगर तू वास्तव में एक है । इन सब नामों में तेरी ही शक्ति व्याप्त है । परमात्मा के वाचक सभी शब्द तेरे ही गुणों पर प्रकाश डालते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३२१ वह परमात्मशक्ति बड़ी अद्भुत है। न आँख उसे देख सकती है, न जिह्वा उसे कह सकती है। वहाँ किसी इन्द्रिय की पहुँच नहीं हो पाती। प्रश्न हो सकता है जब वह शक्ति इतनी अगम अगोचर है तो हमें उसका पता किस प्रकार लग सकता है ? हम उसे कैसे ध्यान में लावें? आज संयोगवश शरपूर्णिमा है ? ग्रंथों में आज की पूर्णिमा की बड़ी महिमा गाई गई है। ग्रंथों के कथनानुसार आज वनस्पति में रस आता है। आज आपके अन्तःकरण में भी ऐसा रस उत्पन्न होना चाहिए, जिससे लोहा भी कंचन बन जाता है। इस रसायन को बनाने के लिए मेरी बात पर ध्यान दो। अगर आपने ध्यान दिया तो रसायन अवश्य बनेगी। जो शक्ति आँखों से देखी नहीं जा सकती और जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता, उस पर विश्वास हुआ, वह शक्ति प्रापके ध्यान में आ गई तो आपके भीतर एक अभूतपूर्व और अद्भुत शक्ति पैदा होगी । वही शक्ति तो रसायन है ! उसे देख कर कह नहीं सकते फिर भी उसकी सत्ता अखंड और अबाधित है। दृश्य शक्ति में अदृश्य शक्ति काम करती है । उस अदृश्य शक्ति को पहिचान लो तो बस रसायन बन गई । लेकिन उस शक्ति की ओर आपका ध्यान नहीं जाना । श्रापकी प्रात्मा तो इन्द्रियों का खेल देखने में ही लगी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] [ जवाहर-किरणावली रहती है। उसे उस अदृश्य सत्ता को पहिचानने का अवकाश नहीं मिलता। फिर वह ज्ञान में आवे कैसे ? अदृश्य शक्ति को जानने के लिए एक उदाहरण लीजिए एक सेठ कलकत्ता में है और सेठानी घर पर है। सेठ कलकत्ता में धन कमाता है और सेठानी बीकानेर में, अपनी हवेली में बैठी रहती है। फिर भी सेठ की कमाई में सेठानी की शक्ति कुछ काम करती है या नहीं ! 'करती है!' सेठानी कमाई के लिए कोई काम करती हो, यह नहीं देखा जाता और न सेठानी की शक्ति ही देखी जाती है, फिर कैसे मान लिया कि सेठानी की शक्ति कलकत्ते में भी अदृश्य रूप में काम करती है ? आप यहाँ बैठे हैं। आपको मालूम नहीं कि मेरे घर खाने को क्या बना है। लेकिन आप भोजन करने बैठे और मेवे की खिचड़ी आपके सामने आई, जो आपको प्रिय लगी । अब आप विचार कीजिए कि आपकी शक्ति ने मेवे की खिचड़ी बनाने में कुछ भाग लिया है या नहीं? 'लिया है !' इष्ट गंध, इष्ट रस और इष्ट स्पर्श आदि विषय पुण्य के प्रभाव से प्राप्त होते हैं। वह पुण्य क्या है ? आपका पुण्य आपकी ही शक्ति है, जिसके द्वारा नाना देशों में आपके लिए. नाना प्रकार के उपभोग के योग्य पदार्थ तैयार होते हैं । जिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३२३ पदार्थ में आपकी शक्ति ने काम नहीं किया होगा वह आपको मिल ही नहीं सकता। मगर देखना तो यह चाहिए कि वह किस प्रकार अपना काम करती है । इन उदाहरणों के श्राधार से अदृश्य शक्ति को पहचानने का प्रयत्न करो और कहोअनन्त जिनेश्वर नित नमू, श्रद्भुत ज्योति श्रलेख ! ना कहिये ना देखिए, जा के रूप न रेख ॥ मैं अनन्तनाथ या आदिनाथ भगवान् की जिस शक्ति के विषय में कह रहा हूँ, अह अनन्त है । आपकी शक्ति का अन्त है, मगर उस शक्ति का अन्त नहीं है । वह काल से अनन्त है और परिमाण से भी अनन्त है। ऐसी शक्ति कितनी अद्भुत होगी, ज़रा इस बात पर विचार कीजिए । अपने मन को उस शक्ति की ओर खींच ले जाइए । उस शक्ति की ओर मन की गति किस प्रकार हो सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर शब्दों द्वारा देना कठिन नहीं है, यद्यपि उन शब्दों के अनुसार साधना करने में कठिनाई हो सकती है । पर वह कठिनाई आरंभ में ही मालूम होगी, आगे नहीं । आलस्य से यह काम न होगा । वह शक्ति तुम्हारे उद्योग और तुम्हारी निष्ठा में है। शुद्ध निष्ठा रखकर उद्योग में लगने से ही उस शक्ति के दर्शन हो सकते हैं । भारत में अंगरेजी राज्य के संस्थापक लार्ड क्लाइव के www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] [ जवाहर - किरणावली संबन्ध में एक बात सुनी थी । उसने एक बार ढाका के नवाब से मिलने की इच्छा प्रकट की । नवाब ने मिलने का समय दिया और साथ ही कहला भेजा कि तुम्हें नीचे खड़ा रहना पड़ेगा । क्लाइव ने उत्तर दिया- मुझे जहां खड़ा करोगे वहीं खड़ा रह जाऊँगा । नवाब ने क्लाइव से मिलने की तैयारी की। उसने अपने गुलामों को अच्छी पोशाक पहनाकर कतार में खड़ा किया । गुलाम नियमानुसार हाथ बांध कर और सिर नीचा करके खड़े हो गये । क्लाइव को नीचे स्थान पर बिठलाया गया और नवाब साहब रौव के साथ तख्त पर विराजमान हुए । नवाब की धारणा थी कि जिसके पास जितने ज्यादा गुलाम हों, वह उतना ही बड़ा आदमी होता है । अतएव नवाब ने क्लाइव से पूछा- तुम्हारे बादशाह के यहां कितने गुलाम हैं ? क्लाइव - गुलाम हैं ही नहीं । नवाब - तुम्हारा बादशाह इतना बड़ा है और गुलाम हैं ही नहीं ? क्लाइव ने अपना विचार पलट कर कहा- नहीं, हैं तो सही । नवाब - कितने हैं ? क्लाइव - उनकी कोई निश्चित संख्या नहीं है । नवाब - परस्पर विरोधी बातें कैसे कह रहे हो ? क्लाइव - समझ में फर्क है; बातें विरोधी नहीं हैं। नवाब - समझ में फर्क कैसा ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३२५ क्लाइव-हमारे बादशाह के यहाँगुलाम तो हैं, पर जिस्म के नहीं, दिल के गुलाम हैं। नवाब को कुछ नवीनता मालूम हुई । उसने पूछा-क्या मतलब है ? दिल के गुलाम कैसे होते हैं। क्लाइध-जिस्म का गुलाम गुलामी के बदले में धन चाहता है और वह तभी तक गुलाम रहता है जब तक उसे रकावियों में अच्छा खाना मिलता रहता है । लेकिन दिल का गुलाम ऐसा है कि गुलामी छोड़ देने के लिए उसके टुकड़ेटुकड़े कर दिये जाएँ तो भी वह अपने मालिक से नहीं बदलता । उन्हीं गुलामों में से एक मैं भी हूँ। मित्रो! आपको भी उस अदृश्य शक्ति के इसी प्रकार के दास बनना चाहिए । कहा गया है दीनदयाल दीनबन्धु के। खानाजाद कहास्यां राज ॥ तन धन प्राण समर्फी प्रभु ने । इन पर वेगि रिमास्यां राज ॥ अाज म्हारा संभव जिनजीरा । हित चित से गुण गास्यां राज। परम प्रभु के ऐसे गुलाम बनो तो संसार तुच्छ जान पड़ेगा और प्राण जाने पर भी स्वामी से विमुख न होओगे। हृदय में परमात्मा का वास होते ही रस का ऐसा प्रवाह बहने लगेगा मानो शरपूर्णिमा के चन्द्र का रस प्रापके ही हपय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] [जवाहर-किरणावली आ गया है । मगर विश्वास का होना अत्यन्त आवश्यक है। __ महाभारत के अनुसार अर्जुन और दुर्योधन श्रीकृष्ण को अपनी-अपनी ओर से युद्ध में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने गये थे। कृष्ण उस समय सो रहे थे। उन्हें जगाने का तो किसी में साहस नहीं था, अतएव दोनों उनके जागने की प्रतीक्षा करने लगे। अर्जुन में कृष्ण के प्रति सेवकभाव था, अतएव उसने उनके चरणों की ओर खड़ा रहना उचित समझा । वह चरणों की ओर ही खड़ा हो गया। दुर्योधन में अहंकार था । वह सोचता था-मैं राजा हेोकर पैरों की ओर कैसे खड़ा रह सकता हूँ? इस अभिमान के कारण वह कृष्ण के सिर की ओर खड़ा हुआ। कृष्ण जागे। कोई भी मनुष्य जब सोकर उठता है तो स्वाभाविक रूप से पैरों की ओर वाले मनुष्य के समीप और सिर की और वाले मनुष्य से दूर हो जाता है। इसके अतिरिक्त पहले उसी पर दृष्टि पड़ती है जो पैरों की ओर खड़ा होता है। इस नियम के अनुसार अर्जुन, कृष्ण के नज़दीक हो गये और अर्जुन पर ही उनकी दृष्टि पहले पड़ी। दुर्योधन पश्चात्ताप करने लगा कि सिर की तरफ क्यों खड़ा हो गया! हाय ! मैं पैरों की तरफ क्यों नहीं खड़ा हुआ ! अर्जुन, कृष्ण से पहले मिल रहा है । कहीं ऐसा न हो कि वे उसका साथ देना स्वीकार कर लें । मैंने इतनी दौड़ धूप की। कहीं ऐसा न हो कि मेरा पाना वृथा हो जाय ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३२७ इस प्रकार सोचकर दुर्योधन ने किसी संकेत द्वारा कृष्ण पर अपना आना प्रकट कर दिया । अर्जुन के प्रणाम करने पर श्रीकृष्ण ने आने का कारण पूछा । अर्जुन ने कहा-कौरवों के साथ युद्ध होना निश्चित हो चुका है। अतएव मैं आपको युद्ध का निमंत्रण देने आया हूँ। श्रीकृष्ण-मुझे जो आमंत्रित करे, मैं उसी के यहाँ जाने को तैयार हूँ । लेकिन दुर्योधन भी पाया है। उसे भी निराश करना उचित नहीं होगा। इसलिए एक ओर मैं हूँ और दूसरी और मेरी सेना है। दोनों में से जिसे चाहो, पसंद कर लो। अर्जुन को श्रीकृष्ण पर विश्वास था। उसने कहा-मैं आपको ही चाहता हूँ। ___ अर्जुन की माँग सुनकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। वह मन में सोचने लगा-मेरा भाग्य अच्छा है, इसी कारण तो अर्जुन ने सेना नहीं मांगी। युद्ध में तो आखिर सेना ही काम श्राएगी। अकेले कृष्ण क्या करेंगे? अर्जुन के बाद दुर्योधन की बारी आई। उससे भी पाने का प्रयोजन पूछा गया। दुर्योधन ने भी यही कहा कि मैं भी युद्ध का निमंत्रण देने आया हूँ। श्रीकृष्ण ने कहा- ठीक है। एक ओर मैं ओर दूसरी और मेरी सेना ! अर्जुन ने मुझे मांग लिया है । तुम क्या चाहते हो ? दुर्योधन मन में सोच रहा था कि मैं अकेले कृष्ण को लेकर क्या करूँगा ? मुझे तो सेना चाहिए जो काम आएंगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] [जवाहर-किरणावली मगर प्रकट रूप में वह ऐसा नहीं कह सका । उसने कहाजिसे अर्जुन ने मांग लिया है उसे मांगने से क्या लाभ ? मांगी हुई चीज़ को फिर मांगना क्षत्रियों का काम नहीं है। अतएव आप अपनी सेना मुझे दे दीजिए । कृष्ण बड़े चतुर थे। दुर्योधन की समझ पर मन ही मन वह हँसे और सोचने लगे-दुर्योधन को मुझ पर विश्वास नहीं है, मेरी सेना पर विश्वास है ! आखिर उन्होंने कहाअर्जुन मैं तुम्हारा हूँ और दुर्योधन ! सेना तुम्हारी है। अर्जुन को कृष्ण पर और दुर्योधन को सेना पर विश्वास था। फल क्या हुआ ? गीता के अन्त में कहा है यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं-आप युद्ध के विषय में क्या पूछते हैं ? यह निश्चित समझिए कि जिस ओर योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हैं, विजय उसी पक्ष की होगी। विरोधी पक्ष को विजय मिलना असंभव है। गीता की आलंकारिक भाषा में उलझा रहने वाला यही समझेगा कि गीता लड़ाई के लिए उत्साहित करने वाली पुस्तक है। लेकिन अलंकारों के आवरण को दूर करके उसके तथ्यों को समझने वाला ही उसके मर्म को समझ सकता है । गीता अगर सिर्फ महाभारत युद्ध के लिए ही थी तो अब किस काम की ? और लड़ाई कराने वाली पुस्तक को हाथ में लेने की आवश्यकता ही क्या है ? मगर बात ऐसी नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३२६ सम्यग्दृष्टि के साथ उसे समझने का प्रयत्न करने पर उसमें कई खूबियां मिलती हैं । शास्त्र वह है जिसके सुनने पर आत्मा में नवीन ज्योति जागृत होती है । जिसके सुन लेने पर भी नवीन ज्योति नहीं जागती, उसे सुना भले ही, पर ज्योति जागने पर कुछ निराली ही बात होती है । गांधीजी ने गीता की अन्तिम टिप्पणी में लिखा हैयोगेश्वर कृष्ण का अर्थ है, अनुभवसिद्ध शुद्ध ज्ञान और अर्जुन का आशय है-उस शुद्ध ज्ञान के अनुसार की जाने वाली क्रिया । थोथा ज्ञान काम का नहीं । थोथीं क्रिया भी निकम्मी है । अनुभवसिद्ध शुद्ध ज्ञान से युक्त शुद्ध क्रिया ही सुफलदायिनी होती है। जहां दोनों का समन्वय है, वहाँ सिद्धि हाथ बांधे खड़ी रहती है । श्रीकृष्ण ने कहा था- हम शस्त्र नहीं उठाएँगे, केवल ज्ञान देंगे । इसका अर्थ यही है कि ज्ञान प्राप्त करके क्रिया करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है । हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिनां क्रिया । क्रिया से शून्य ज्ञान और शान से शून्य क्रिया- दोनों बेकार हैं । सारांश यह है कि उस अदृश्य शक्ति पर विश्वास रखकर निष्काम भाव से ज्ञानयुक्त क्रिया करोगे तो बेड़ा पार हुए विना नहीं रहेगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] [ जवाहर-किरणावली - - - -- -- - -- - -- - - - - -- -- -- - - आचार्य मानतुंग कहते हैं-हे भुवनभूषण ! मुझे इस बात में कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि आपकी स्तुति करने वाला आप जैसा बन जाता है। ऐसा होना तो स्वाभाविक है। या तो अनहोनी बात हो जाने पर आश्चर्य होता है या जिससे जो काम होना संभव न प्रतीत होता हो, फिर भी वह उसे कर डाले । विनीत पुत्र पिता की और पतिव्रता स्त्री पति की सेवा करे तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो तब है, जब अविनीत पुत्र पिता की और असती स्त्री पति की सेवा करे ! इस कथन के अनुसार परमात्मा के गुणों का स्तवन करने से, स्तवन करने वाला अगर स्वयं परमात्मा बन जाता है तो आश्चर्य ही क्या है ! प्रश्न किया जा सकता है-परमात्मा अनादि और अनंत है । ऐसी स्थिति में परमात्मा के गुणों का स्तवन करने वाला परमात्मा किस प्रकार बन सकता है ? क्या आत्मा में ऐसे गुण हैं कि वह परमात्मा के साथ एकाग्रता साध कर परमात्मा बन जाए ? आत्मा और परमात्मा जब अलग-अलग हैं तो आत्मा का परमात्मा बन जाना अचरज की बात क्यों नहीं हैं ? जब तक वस्तु का ठीक-ठीक स्वभाव मालूम नहीं होता तब तक भ्रम बना ही रहता है । परन्तु गम्भीर विचार करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३३१ I वस्तुस्वरूप समझ लेने पर भ्रम हट जाता है । आत्मा और परमात्मा के विषय में पहली बात यह समझ लेना आवश्यक है कि वास्तव में दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है । मैं अनेक बार कह चुका हूँ कि आत्मा जब तक आवरणों से लिपटा है, जब तक उसकी अनन्त शक्तियाँ कुंठित हैं, तब तक वह आत्मा है। आत्मा की सम्पूर्ण मलीनता हट जाती है, आत्मा अपनी शुद्ध दशा में श्रा जाता है, तब उसमें 'परम' विशेषण लगा दिया जाता है । अर्थात् श्रात्मा परम - आत्मा-परमात्मा कहलाने लगता है । परमात्मा को अनादि मानना भ्रमपूर्ण है । अगर आत्मा लाख प्रयत्न करने पर भी परमात्मा नहीं बन सकता तो उसका पुरुषार्थ व्यर्थ ही सिद्ध होता है । अतएव यह निश्चित है कि आत्मा, परमात्मा के प्रति जब एकाग्र बन जाता है तो वह स्वयं परमात्मा का रूप धारण कर लेता है । आप भोजन करते हैं । मेोज्य पदार्थों में किसी का नाम रोटी है, किसी का नाम भात है, किसी का और कुछ । इन भाज्य वस्तुओं को जब आप ग्रहण करते हैं तो वह शरीर का रूप धारण कर लेती हैं। पहले जो आहार के रूप में थीं वही अब शरीर के रूप में परिणत हो जाती हैं। शरीर में भी उनके नाना रूप बनते हैं, जैसे रक्त, मज्जा हड्डी आदि ! यह सब धातुएँ अन्न से ही बनी हैं । अन्न में यह जो विलक्षण परिवर्तन हुआ है सो आपकी चैतन्यशक्ति के प्रताप से ही हुआ है । मुर्दे के पेट में रोटी ठूंस दी जाय तो वह सड़ - गल जायगी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] [ जवाहर - किरणावली उससे रस, रक्त आदि नहीं बनेगा । चैतन्य शक्ति के संयोग से अन्न के द्वारा रक्त आदि धातुओं के निर्माण का कार्य प्रतिदिन, यहाँ तक कि प्रतिक्षण, होता रहता है। अपनी चेतना में ऐसी. अद्भुत शक्ति है । मगर हम लोग इसका विचार ही नहीं करते कि चेतन आत्मा में कैसी-कैसी शक्तियाँ भरी हैं। रोटी से रक्त बनता है, इस बात को छोड़ कर अब आगे की बात पर विचार कीजिए । यह देखिए कि उस रोटी से आत्मा में कौन-कौन-सी शक्तियाँ निखरती हैं। दूध का आहार नहीं किया गया हो और वह पात्र में पड़ा हो तो जगत् के किसी भी वैज्ञानिक में यह शक्ति है कि वह उसे आँख के रूप में परिणत कर सके ? जिन आंखों से श्राप देखते हैं, उन्हें बनाने की किसी में ताक़त है ? लेकिन आपका चिदानन्द नित्य ही बनाता रहता है । . जब आप चैतन्य शक्ति के द्वारा जड़ से भी सब काम करा सकते हैं, जड़ भी आपकी चेतन्य शक्ति से मिल जाता है और उस जड़ का भी आपके चैतन्य से शक्ति मिलती है । तो फिर क्या आश्चर्य है कि आत्मा, परमात्मा से लगकर परमात्मा बन जाता है ? जब उस अन्न को आपकी आत्मा शक्ति प्रदान करती है तो आत्मा को परमात्मा शक्ति क्यों नहीं देगा ? मित्रो ! संसार की समस्त शक्तियों से आपकी चैतन्य शक्ति बढ़कर है और अलौकिक है। जड़ शक्तियों को एकत्रित करके अगर आप चैतन्य शक्ति से तोलेंगे तो पता चलेगा कि अन्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३३३ ---- ---- - -- - शक्तियाँ चैतन्य शक्ति के सामने कुछ भी नहीं हैं- नगण्य हैं। डाक्टर नकली आँख बनाते हैं, लेकिन उससे दिखाई नहीं देता । परन्तु जिन आँखों से आप देख सकते हैं, जिनकी उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से, अन्न से, या माता-पिता के रक्त से हुई है, जो आँखें आपकी आन्तरिक शक्ति से बनी हैं, उन सरीखी आँखें कोई बना सकता है ? 'नहीं' चींटी और रेल में से किस की शक्ति अधिक है ? 'रेल की!' क्योंकि आप समझते हैं कि रेल सवारी का काम देती है और हजारों मन बोझ खींचती है लेकिन चींटी तो बेचारी चींटी ही रही ! लेकिन यह उत्तर देते समय आपने अपनी बुद्धि का ठीक उपयोग नहीं किया। वास्तव में जो शक्ति चींटी में है वह रेल में कदापि नहीं हो सकती। रेल जड़ है। वह घुमाने से घूमती है, चलाने से चलती है। उसे चलाने के लिए पटरी, ड्राइवर आदि की आवश्यकता होती है और इंजिनियर उसे बनाता है। चींटी बिना किसी की सहायता के स्वयं ही दीवाल पर चढ जाती है और उतर आती है । क्या रेल इस प्रकार चढ़-उत्तर सकती है ? 'नहीं' तो फिर विचार करना चाहिए कि चींटी और रेल में स्वतंत्र शक्तिसम्पन्न कौन है ? आप परतंत्रता के संस्कारों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] [जवाहरे-किरणावली - -- --- पड़कर स्वतंत्रता को भूल गये हैं। मगर अाप विचार करेंगे तो चींटी के सामने रेल तुच्छ दिखाई देगी। चींटी क्या-क्या करती है, किस-किस प्रकार से कैसी-कैसी बातों का पता लगाती है, और किस प्रकार संगठित होकर कार्य को सम्पादित करती है, इत्यादि बातों पर विचार करेंगे तो चींटी के सामने मनुष्य को भी लजित हो जाना पड़ेगा। . __ कहने का आशय यह है कि जब दूध का खून आदि बन जाता है तो यह सिद्ध है कि आत्मा में शक्ति है। प्रश्न यही है कि उस शक्ति का उपयोग कहाँ किया जाय ? इस सम्बन्ध में विद्वानों और शास्त्रकारों का मत है कि जड़ पदार्थों के प्रति जो अहंकार है, उसे हटा लिया जाय और आत्मा की समस्त शक्ति उसे ऊर्ध्वगामी बनाने में ही लगाई जाय । ऐसा करने से आत्मा की शक्ति बढ़ेगी और वह परमात्मा बन जायगा । कल एक सजन (श्री रामनरेश त्रिपाठी) के सामने मैंने टाल्सटाय का जिक्र किया । तब उन्होंने उसके जीवन की एक बात मुझे सुनाई। उसके पतित जीवन का उत्थान किस प्रकार हुआ, यह दिखलाने के लिए ही मैं उस घटना का उल्लेख कर रहा हूँ । टाल्सटाय का पतन इतना अधिक हो चुका था कि उसके कुकृत्यों की पराकष्ठा हो चुकी थी। शायद ही कोई कुकर्म शेष रहा होगा, जिसका टाल्सटाय ने सेवन न किया हो। ऐसी पतित आत्मा एक वेश्या की घटना से जागृत हो उठी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३३५ धन एक सुन्दरी कुंवारी कन्या को टाल्सटाय ने धन का लोभ देकर भ्रष्ट किया था। वह उस समय युवक तो था ही, भी उसके पास चालीस लाख रूबेल का था और साथ ही सत्ता भी प्राप्त थी । एक रूबेल करीब डेढ़ रुपये के बराबर माना जाता है । टाल्सटाय राजघराने में जन्मा था, अतएव अधिकार भी उसे प्राप्त था । यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ? जवानी, धन, अधिकार और अविवेक में से कोई एक भी अनर्थ का कारण हो जाता है। जहाँ चारों मिल जाएँ वहाँ तो कहना ही क्या है ? यह चाण्डाल चौकड़ी सभी अनर्थों का कारण बन जाती है । प्रथम तो युवावस्था को ही शान्तिपूर्वक विताना कठिन है । फिर ऊपर से धन-सम्पत्ति और अधिकार मिल जाय तो उसकी अनर्थकरी शक्ति वैसे ही बढ़ जाती है, जैसे तीन इकाइयाँ मिल जाने पर एक सौ ग्यारह हो जाते हैं। इन तीनों के होने पर भी अगर विवेक हुआ तो वह इन्हें ठीक रास्ते पर लगा देता है। अगर अविवेक हुआ तो मत पूछिये बात ! फिर तो अनर्थ की सीमा नहीं रहती । टाल्सटाय को तीनों शक्तियाँ प्राप्त थीं और ऊपर से अविवेत्र था । इस कारण उसने कुंवारी कन्या को भ्रष्ट कर दिया । कन्या गर्भवती हो गई । घर वालों ने सगर्भा समझ कर उसे घर से निकाल दिया । कुछ दिन तक तो वह इधर-उधर भटShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] [ जवाहर-किरणावली कती रही, मगर दूसरा मार्ग न मिलने से उसने वेश्यावृत्ति अंगीकार कर ली। कहा है विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । जो एक बार विवेक से भ्रष्ट हो जाता है उसका पतन होता ही चला जाता है। कोई भी स्त्री जब पतित होती है और उसकी पवित्रता मलीनता के रूप में परिणत हो जाती है तो फिर उसके पतन का ठिकाना नहीं रहता । वेश्या के संबंध में भी यही बात है। वेश्या किन-किन नीच कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करती, यह कहना कठिन है। इस वेश्या ने भी किसी धनिक को अपने चंगुल में फांस लिया और धन के लोभ में पड़कर उसे मार डाला। पुलिस ने पता लगा लिया और वेश्या अदालत में पेश की गई। संयोगवश उस अदालत का न्यायाधीश वही टाल्सटाय था, जिसने उसे भ्रष्ट किया था और जिसकी बदौलत उसे वेश्यावृत्ति स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। वेश्या ने तो उसे नहीं पहचान पाया, मगर वह वेश्या को पहचान गया । टाल्सटाय ने उस वेश्या को धैर्य बन्धाकर हत्या के विषय में पूछा। वेश्या ने हत्या करने का अपराध स्वीकार करते हुए कहा-'मुझे एक पापी ने धन का लोभ देकर भ्रष्ट किया। उस समय मैं अबोध थी और उस पाप के परिणाम को नहीं समझ सकी थी। इसी कारण मैं उसके चंगुल में आ गई। मैं गर्भवती हुई। घर से निकाली गई। निरुपाय होकर मैंने वेश्यावृत्ति स्वीकार कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३३७ ली। एक दूसरी वेश्या की बातों में आकर धन के लिए मैंने इस धनिक की हत्या की ।' वेश्या या बयान सुनते-सुनते टाल्सटाय घबरा उठा। उसकी अन्तरात्मा प्रश्न करने लगी-इस हत्या के लिए कौन उत्तरदायी है-वेश्या या मैं ? वास्तव में इस पाप के लिए यह अपराधिनी नहीं है । अपराधी मैं हूँ। लोग अपने अपराधों को छिपाना जानते हैं, उन्हें स्वीकार करना नहीं आता। इस अविद्या से आज संसार पतित हो रहा है। टाल्सटाय अपने पाप की भीषणता का विचार करके इतने घबराये कि पसीने से तर हो गये। पास में बैठे हुए दूसरे न्यायाधीश उसकी यह दशा देखकर आश्चर्य करने लगे। टाल्सटाय की परेशानी और घबराहट का कारण समझ में नहीं प्राया । टाल्सटाय ने अपना आसन छोड़ दिया। उनकी जगह दूसरा जज अभियोग का विचार करने के लिए बैठा। टाल्सटाय ने जाते हुए अपने स्थानापन्न जज से कहा-किसी भी उपाय से इस वेश्या को फांसी से बचा लेना। टाल्सटाय एकान्त में जाकर जी भर रोये और अपने अपराध के लिए पश्चात्ताप करने लगे। वह सोचने लगे-इस वेश्या के समस्त पापों का कारण मैं ही हूँ। वेश्या पापिनी नहीं, मैं पापी हूँ। मैंने ही इसे पापकार्य में प्रवृत्त किया है। ईश्वर का उपदेश दूसरी जगह नहीं, उन बन्धुओं से ही मिल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] [ जवाहर - किरणावली सकता है, जिन्हें हमने हानि पहुँचाई है । जिन्हें हमने हानि पहुँचाई है, वे हमारे विषय में क्या कहते होंगे ? इस वेश्या ने यथार्थ ही कहा है । अदालत ने वेश्या को साइबेरिया भेज दिया। साइबेरिया रूस का वह भाग है जो वहाँ का काला पानी समझा जाता है और जहाँ शीत अधिक पड़ता है । टाल्सटाय सोचने नगे - वेश्या को तो दंड मिल गया । पर असली अपराधी बच गया । मगर दूसरे की निगाहों से बच गया तो क्या हुआ, मैं अपनी निगाह से कैसे बच सकता हूँ ? टाल्सटाय ने साइबेरिया के अधिकारियों से मिल-जुल कर उस वेश्या को सहायता पहुँचाना आरंभ किया । उसने यह भी प्रबन्ध कर लिया कि वेश्या के समाचार उसे मिलते रहें । यद्यपि टाल्सटाय उसकी यथायोग्य सहायता कर रहा था, किन्तु किसी के पूछने पर वह यही उत्तर देती थी कि एक दुष्ट ने मुझे भ्रष्ट कर दिया था और उसी पापी का पाप मैं यहाँ भोग रही हूँ । वेश्या के यह उद्गार टाल्सटाय को मालूम होते रहते थे । दूसरा होता तो कह सकता था - क्या मैं अकेला ही पापी हूँ ? उसने भी तो पाप किया था । उस पापिनी की मैंने जान बचाई और सहायता भी कर रहा हूँ, इतने पर भी वह ऐसा कहती है ! लेकिन इस घटना से टाल्सटाय की आँखें खुल चुकी थीं। वह उस वेश्या की बातें सुनकर पश्चात्ताप करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३३९ और उसकी अधिकाधिक सहायता करते थे। वह सोचतेमेरा ही पाप उसके पास पहुँचकर ऐसा कहला रहा है। वह मुझे अपशब्द नहीं कहती वरन् मंगल-उपदेश दे रही है। धीरे-धीरे टाल्सटाय के जीवन में आमूल परिवर्तन हो गया। ___ संदेह किया जा सकता है कि कहीं गालियों से या वेश्या से भी उपदेश मिल सकता है ? इसका उत्तर यही है कि हम सब में और वेश्या में मूल तत्त्व तो एक ही है। मगर उसे समझने के लिए गहराई में घुसना पड़ता है। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा में भी मूल तत्त्व समान है । उसे खोज लेने, उस तक पहुँचने और प्राप्त करने के लिए जिस उपाय की आवश्यकता है, वह प्राचार्य मानतुंग ने प्रकट कर दिया है। मित्रो! आप लोग दूसरों की बुराई देखना छोड़कर अपनी बुराइयाँ देखो । यह देखो कि आपने दूसरों को पतित ही किया है या किसी का उत्थान भी किया है ? इस बात पर विचार करने से आपका उत्थान होगा। ईश्वर दूर नहीं है। जिनको तुमने पतित किया है, उनके अन्तःकरण से निकलने वाली ध्वनि अपने कानों से सुनो और सोचो कि वह तुम्हारे विषय में क्या कहते हैं ? टाल्सटाय ने वेश्या को भ्रष्ट किया था। अगर आपके जीवन में ऐसा कोई काला धब्बा नहीं है तो आप भाग्यशाली हैं ! लेकिन दूसरे पदार्थों को तो आप भ्रष्ट करते ही हैं। यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] [ जवाहर-किरणावली - - - कपड़े जब तक आपने नहीं पहने थे, पवित्र माने जाते थे, मगर आपके पहन लेने पर यह निर्माल्य हो गये । इसी प्रकार श्राप स्वादिष्ट और सुगंधित भोजन पेट में डालते हैं। मगर पेट में पहुँचकर उसकी क्या स्थिति हो जाती है ? क्या आप पवित्र वस्तु को अपवित्र करने के लिए ही पैदा हुए हैं ? मित्रो ! दूसरे के कल्याण में अपना कल्याण मानने से आत्मा का उद्धार होने में देर नहीं लगती। इसलिए शास्त्र में कहा गया है परोपकाराय सतां विभूतयः ।। अर्थात्-सत्पुरुषों की विभूतियाँ परोपकार के लिए होती हैं। टाल्सटाय ने धीरे-धीरे ही सही, पर अपनी सम्पत्ति किस प्रकार परोपकार में लगाई, यह देखने योग्य है। आप सदा माल खाते हैं। आपके खाने के समय एक दिन कोई भूखा आ गया और आपने उसे थोड़ा-सा दे दिया तो बुरा नहीं है, पर ऐसा करने में आपकी कोई विशेषता भी नहीं है। विशेषता तो तब है जब आप इस बात का विचार करें कि-'यह भूखा क्यों मर रहा है ? एक जून का भोजन तो मैंने दिया है, पर इससे क्या इस की दरिद्रता जीवन भर की दूर हो जायगी ? इसका यह दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है ? अगर आप इस प्रकार विचार करेंगे और आपके हृदय में थोड़ी-बहुत भी दयाभावना होगी तो आपकाखानाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३४१ -- - -- -- -- - --- - - - - ------- पीना छूट जायगा और उनका दुःख दूर करने की चिन्ता लग जायगी। इसी प्रकार विचार कर बड़ी-बड़ी ऋद्धि वाले अपनी ऋद्धि छोड़ देते हैं। धन्नाजी बत्तीस कोटि दीनारों का त्याग करके मुनि बने थे। मुनि होने के बाद वे ऐसा भोजन करते थे जैसा गरीब से गरीब भी करना पसंद नहीं कर सकता। आज यह बातें आपको अद्भुत मालूम होती हैं और आपकी कल्पना में भी नहीं आतीं, लेकिन जैन कथाओं पर विचार करो कि वे क्या संदेश देती हैं ? उनसे क्या परिणाम निकलता है ? बत्तीस कोटि दीनारों के स्वामी का भोजन कैसा रहा होगा? और अब वही दो दिन के बाद तीसरे दिन भोजन करते हैं और वह भी रूखा-सूखा, नीरस, बचा-खुचा, जिसे भिखारी भी खाना पसंद न करे। यह बात आज कल्पना में भी आती है ? थोड़ी देर के लिए इसे कल्पना ही मान लो, फिर भी टाल्सटाय आदि के सिद्धान्तों पर दृष्टि डालते हुए विचार किया जाय तो मालूम होगा कि यह कल्पना भी कितनी सहृदयतापूर्ण, सत्य, शिव, सुन्दर और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण है ! लेकिन एक बात आप ध्यान में रखिए । कल्पना किसी सर्वथा असत् पदार्थ की नहीं की जाती। जो वस्तु किसी अंश में विद्यमान होती है, जिसका किसी रूप में सिलसिला चालू होता है, उसी की कल्पना की जाती है । कल्पना के लिए कोई आधार तो होना ही चाहिए । निराधार कल्पना संभव नहीं है। धन्ना (धन्यकुमार ) मुनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] [ जवाहर - किरणावली के इस चरित से प्रकट होता है कि उस समय अनेक महात्माओं ने आश्चर्यजनक सादगी धारण की थी । राम ने जनक के घर और अपने घर कैसे-कैसे बढ़िया भोजन किये होंगे ? परन्तु वनवास के समय वे अपने साथ कुछ ले गये थे ? 'नहीं ।' उन्होंने वन में खट्टे-मीठे, कटुक- कसैले वनफल खाये थे । उन फलों को पकाने वाली सीता थी और लाने वाले लक्ष्मण थे | क्या आज के धनिक लोग इस प्रकार का जीवन व्यतीत कर सकते हैं ? आज तो ऐसी स्थिति की कल्पना मात्र से ही लोगों का गला सूखने लगता है ! राणा प्रताप अठारह वर्ष तक अपनी रानी और अपने बालबच्चों के साथ वन में भटकते रहे । जङ्गली अन्न और फलों से गुज़ारा करते रहे। उस रूखे-सूखे भोजन के समय भी जब शत्रु आ पहुँचते तो भोजन त्याग कर उनका सामना करते रहे। आज के लोग भोगों के कीड़े बन रहे हैं, इसी से उन्हें यह घटनाएँ कल्पित मालूम पड़ती हैं । रामचन्द्र को वन के कटुक फल क्यों अच्छे लगे थे ? क्या कारण था कि भरत और कैकेयी के अयोध्या लौटने के ग्रह को ठुकराकर उन्होंने वनवास के कष्टों को स्वेच्छापूर्वक अंगीकार किया ? राम समग्र भारत के समक्ष एक आदर्श उपस्थित करना चाहते थे । इसी लिए उन्होंने हँसते-हँसते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३४३ संकटों का सामना किया। आज आप लोग चाहे जितनी कायरता दिखलाएँ, मगर इस भारतभूमि पर उन महात्माओं के चरण पड़ चुके हैं । अतएव भारत में कब कौन-सी शक्ति आजाएगी, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे टाल्सटाय ने विचार किया था कि इस बाई को विगाड़ने वाला कौन है, उसी प्रकार राम भी विचारते थे कि मेरी माता के पवित्र हृदय को विगाड़ने वाला कौन है ? ___में भी प्रापसे प्रश्न करता हूँ कि हिन्दुस्तान को विगाड़ने वाला कौन है ? अगर आप परावलम्बी जीवन का त्याग कर दें, स्वतंत्रजीवी बनें, फिजूल के खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के चक्कर में न पड़ें तथा अपने कर्तव्य का विचार कर पालन करें तो देश में पाप आ सकता है ? 'नहीं' कौन इस बात को अस्वीकार कर सकता है कि हमारे कर्त्तव्य न पालने से ही देश में पाप प्रा घुसा है ? राम ने विचार किया कि माता कैकेयी के मन में यह भेद भाव क्यों पाया कि राम हमारा बेटा नहीं है, भरत हमारा बेटा है; राम को राज्य मिलेगा तो कौशल्या प्रसन्न होगी और भरत को राज्य मिलेगा तो मैं प्रसन्न होऊँगी ! आप कैकेयी को बुरी कह देने में देर नहीं लगाते, मगर राम ने उसे बुरी क्यों नहीं कहा, अगर यह समझ लें तो आप का दुःख ही मिट जाय। जिस दिन संसार राम के इस कार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] [ जवाहर-किरणावली का मर्म समझ लेगा उस दिन संसार स्वर्ग बन जायगा । राम अगर राम सरीखे ही न होकर जैसा आप सोचते हैं वैसे हो तो उनके राज्य को छीनने की किसी में शक्ति नहीं थी। कैकेयी को छोड़कर सभी उनके पक्ष में थे। राम कह सकते थे–'तुम स्त्री हो। घर का काम संभालो। राज्य हमारा है और हमारा ही रहेगा।' पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा। राम अगर भरत के लिए अपने अधिकार का राज्य न छोड़ते और अयोध्या में ही मौज उड़ाते रहते तो आज उनका नाम कौन लेता? मगर उन्होंने कैकेयी के हृदय को पहचाना और उसमें पैदा होने वाली दुई को भी समझ लिया। वह कहने लगे-जिस घर में मैं पैदा हुआ हूँ, उस घर में माता के हृदय में इस प्रकार के विचार उत्पन्न होना मेरा दुर्भाग्य है। माता की यह दुर्भावना मेरी तपस्या से ही दूर होगी । यहाँ के राज्य का कार्य तो भरत संभाल ही लेगा, मगर संसार की शुद्धि का काम मुझे ही करना होगा। अगर मैंने सादगी धारण न की, गरीबों के योग्य वस्त्र न पहनें और गरीबों जैसा भोजन न किया तथा राजमहल को न त्यागा तो मेरे द्वारा गरीबों का कल्याण न होगा। इन महान् आदर्शों पर ही टाल्सटाय आदि के विचार बने हैं । लेकिन हमारा देश कितनी पतन-अवस्था में पहुँच गया है कि इन कथाओं को ही असंभव मानता है ! राम को अगर रावण का पराजय ही करना अभीष्ट होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३४५ तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वन में जाने की क्या आवश्यकता थी ? अयोध्या में रहते हुए ही उसे परास्त करने की तैयारी वे कर सकते थे । अयोध्या में सेना सजाकर रावण पर चढ़ाई कर सकते थे और उसे जीत सकते थे। फिर ऐसा . न करके वन में जाकर नंगे पैर घूमने, वनफल खाने, सर्दीगर्मी और वर्षा का कष्ट सहने, महल छोड़कर झाड़ों के नीचे सोने और कुटिया में रहने की क्या आवश्यकता थी ? क्या राम को, जो राजकुमार थे और राज्य के उत्तराधिकारी थे, ऐसा करना शोभा देता है ? पर इसका रहस्य तो वही समझ सकता है जिसने शुद्ध चित्त से मनन किया हो। दुखी जीवन में किस प्रकार उत्थान भरा है, यह देखने के लिए राम का जीवन स्वच्छ दर्पण है। वे लोगों को त्याग की महिमा दिखलाना चाहते थे और अपनी जीवनी से ही बतलाना चाहते थे कि जो काम शस्त्रों से भी संभव नहीं है वह त्याग के प्रभाव से सहज ही हो सकता है । राम ने बड़ी खूबी के साथ यह दिखला दिया है। राम की महिमा रावण को मारने से नहीं, त्याग के कारण है । वन-भ्रमण के कष्टों से उनका शरीर तो अवश्य दुबला हुआ होगा पर आत्मा तो उनका बलवान् ही हुआ । आत्मा को बलवान बनाने की यह सीधी चर्या सिखाने से ही राम खब के हृदयेश्वर हुए हैं। अगर राम ने शस्त्रों से ही काम लिया होता तो वे चाहे बड़े-राजा हो जाते पर आज जैसे सब के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] [जवाहर-किरणावली - - - --...-- - -- -- -- स्मरणीय बने हुए हैं, वैसे न हो सके होते। भगवान महावीर की तरफ खयाल करो। उन्होंने तप का कष्ट क्यों सहन किया ? उन्हें कर्म ही खपाने थे तो कर्म खपाने के लिए शुक्लध्यान आदि साधनों को वे भलीभाँति जानते थे। मगर भगवान् ने व्यवस्थित रूप से धर्मशासन चालू रह सके, इस उद्देश्य से संघ की स्थापना की और संघ का उद्धार करने के लिए, जनता को सिखाने के लिए तप किया। इसी हेतु भगवान् ने पाँच मास और पच्चीस दिन के महान् उपवास के पारणे में उड़द के छिलके खाये । ऐसा करके उन्होंने तप, त्याग और सादगी का आदर्श स्थापित किया। ऐसी स्थिति में आप लोग सादगी न धारण करके मौज-शौक में रहते हुए ही धर्म माने तो कहना होगा कि अभी आप दयाधर्म से दूर हैं। जो भावनाशील व्यक्ति संसार के दुःखों को अपना ही दुःख मानता है, उसे अपना व्यक्तिगत दुःख जान ही नहीं पड़ता। रोग होने पर आप दुगंधयुक्त और कडुवी दवाई गले के नीचे उतार जाते हैं । आप जानते हैं कि हमारे पेट में रोग है और यह दवा हमें शांति पहुँचायगी । इसी विचार से आप दवा पी जाते हैं और वैद्य को पुरस्कार देते हैं। ऐसी ही नात महापुरुषों के कष्टसहन में भी है । अन्तर है तो यही कि आप सिर्फ अपने ही दुःख को दुःख समझते हैं और महापुरुष संसार के दुःख को अपना दुःख मानते हैं। राम को अपनी माता का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३४७ - - -- --. - -. --- -. .-- -. ... . ....... - - - - - - -- ... - - - - - - - हृदय शुद्ध करना था। महावीर स्वामी को साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का संघ चलाकर उनके दुःखों का अन्त करना था। धन्यकुमार (धना ) मुनि को दूसरे मुनियों के सामने आदर्श उपस्थित करना था। इसीलिए तो चौदह हजार मुनियों में यह बहुत उत्तम मुनि माने जाते थे। मतलब यह है कि दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानकर उनकी सहायता करना और अपनी संकीर्ण वृत्तियों को व्यापक बना लेना ही अध्यात्मिक उत्कर्ष का उपाय है। आध्यात्मिक उत्कर्ष की चरम सीमा ही परमात्मदशा प्राप्त होना है। भगवान् की स्तुति और भावना से उसकी प्राप्ति होती है। स्तुतिकार ने भगवान् ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उन्हें भुवनभूषण और भूतनाथ कहकर संबोधित किया है। भगवान् की स्तुति ऐसी प्यारी वस्तु है कि हार्दिक भावना के साथ उस पर विचार करने पर ऐसा आनन्द होता है कि कहा नहीं जा सकता। हृदय अपूर्व आनन्द का केन्द्र बन जाता है। हृदय की दुर्बलता भी उससे दूर हो जाती है। शरीर के श्रृंगार के लिए बहुत से आभूषण पहिने जाते हैं। विशेषतया स्त्रियां हाथ, कान आदि अवयवों को सिंगारती हैं । यह भूषण शरीर के भूषण हैं और शरीर को सिंगारते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] [ जवाहर - किरणावली इसी प्रकार घर का भूषण घर को, कुल का भूषण कुल को, ग्राम का भूषण ग्राम को, नगर का भूषण नगर को और देश का भूषण देश को सिंगारता है । इसी तरह जो जगत् का भूषण है वह जगत् को सिंगारता है । लोग अपने-अपने आभूषण से प्रेम करते हैं । गृहभूषण से गृहवालों का और राष्ट्रभूषण से राष्ट्र का प्रेम होता है । ऐसी दशा में विचारणीय बात यह है कि जो अखिल विश्व का भूषण है और जिसे हम इसी रूप में मानते हैं, उससे किस प्रकार प्रेम किया जाय ? अगर हम यह स्तुति हृदय से करते हों तब तो जगद्भूषण का विचार बहुत विशाल हो सकता है । मगर हम लोग यह भूल कर रहे हैं कि हम जगद्भूषण की स्तुति तो करते हैं किन्तु साथ ही उनके कामों का विरोध भी करते हैं । वास्तव में विश्व के कल्याण में ही परमेश्वर का वास है । संसार के कल्याण की आन्तरिक कामना ही परमेश्वर का दर्शन कराती है । अगर हम हृदय से भुवन भूषण का स्मरण करें और उनके कामों में बाधा न डालें तो कोई त्रुटि ही न रह जाय । आप जानना चाहते होंगे कि हम भुवनभूषरण के काममें क्या बाधा डाल रहे हैं ? यह बतलाने के लिए मैं संसारव्यवहार संबंधी कामों में से ही कुछ उदाहरण देता हूँ । उनसे श्राप समझ जाएँगे कि आप किस प्रकार बाधा डाल रहे हैं ! राजा आपको मुफ्त में बिजली दे दे तो आप अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [ ३४६ गौरव समझेंगे । आपकी प्रसन्नता का पार नहीं रहेगा । मगर राजा उदार होकर सभी के घर अगर मुफ्त बिजली पहुँचा दे तो आपको उतना आनन्द होगा ? 'नहीं ।' क्यों ? क्या सब के घर बिजली चली जाने से आपके घर की बिजली का प्रकाश कम हो गया ? ऐसा नहीं है तो प्रसन्नता क्यों नहीं होती ? इसी कारण न कि आप यह चाहते हैं कि मेरे यहाँ हो और दूसरों के यहां न हो ! राजा ने सब के घर बिजली भेजकर आपके यहां अंधकार नहीं कर दिया हैं । आपके घर भी उजाला है और दूसरों के घर भी । फिर आपकी प्रसन्नता क्यों मिट गई ? हृदय की संकीर्णता ने आपके आनन्द को नष्ट कर दिया । बस भुवनभूषण को पहिचानने में भी हृदय की संकीर्णता, हृदय की दुर्बलता और हृदय की क्षुद्रता ही बाधा डालती है । क्षुद्र हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप । हे अर्जुन ! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को छोड़कर तैयार हो जा । यह हृदय की दुर्बलता ही है जो आप से कहलाती है कि बिजली दूसरों के घर न हो सिर्फ मेरे घर हो । तभी मैं सुख का अनुभव करूँगा । आपने कान में मोती पहिने हैं । अब किसी गरीब को भी मोती मिल जायें और वह भी कान में पहन ले तो आपको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] प्रसन्न होना चाहिए या अप्रसन्न होना चाहिए ? 'प्रसन्न होना चाहिए !' लेकिन आपको प्रसन्नता नहीं होती। यही नहीं, उस समय आपकी क्षुद्रता जाग उठती है और अभिमान मिलमिसाने लगता है। कई जगह तो हरिजनों की स्त्रियों को सिर्फ इसलिए पीटा गया है कि उन्होंने पैरों में चांदी के गहने पहन लिये ! इस अभिमान और क्षुद्रता की कोई सीमा है ! अगर इस प्रकार की क्षुद्रता मन में रखना है तो फिर भुवन भूषण के गुण गाने की आवश्यकता ही क्या है ? आप अपने ही भूषणों के गुण क्यों नहीं गाते? इस तरह की विचारधारा रखकर परमात्मा के गुण गाने वाले को परमात्मा नहीं मिल सकता | बहिनों का भी यही हाल है । वे भी यही सोचती हैं कि मेरे ही हाथों में मोतियों की बँगड़ियाँ रहें और दूसरी के हाथ में न रहें। अगर उन्हीं के हाथ में रहीं तो उनका सेठानीपन कायम रहेगा और दूसरी के हाथ में भी हो गई तो सेठानीपन डूब जाएगा ! मित्रो ! हृदय की दुर्बलता के ही कारण इस प्रकार के विचार आपके मस्तिष्क में पैदा होते हैं ! आप दूसरों के सुख को अपना सुख नहीं समझते बल्कि दुःख समझते हैं। सिर्फ आप सुखी बनना चाहते हैं और चाहते हैं कि संसार का सारा सुख आपके ही घर में आकर जमा हो जाय। किसी दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com [ जवाहर - किरणावली - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३५१ के हिस्से में न जावे ! ___ अच्छा आप बतलाइए कि सूर्य का प्रकाश अधिक है या बिजली का ? 'सूर्य का! विज्ञान द्वारा लाख प्रयोग करके भी सूर्य के समान दूसरा प्रकाश नहीं बनाया जा सकता। कदाचित् सूर्य के समान प्रकाश देने वाली बिजली कोई बना भी दे तो भी उससे भयकर बीमारियों के उत्पन्न होने की संभावना है। आज जो विजली प्रकाश दे रही है उससे भी अनेक हानियाँ हुई हैं। चन्द्रमा फलों में जैसा रस उत्पन्न करता है, सूर्य उन्हें जिस प्रकार पकाता है, वैसा दूसरा कोई नहीं कर सकता। इसी लिए सूर्य को जगत्पोषक की पदवी मिली है । यह पदवी सूर्य ने स्वयं नहीं माँगी, किन्तु बड़े-बड़े ऋषियों ने, विद्वानों ने और तत्त्ववेताओं ने गंभीर अनुसंधान करने के पश्चात् सूर्य को जगत्पोषक आदि पदवियाँ प्रदान की हैं शरीर में रक्त का बेगवान् संचार हो रहा है, इन्द्रियों में जो विकास है, शब्द दूसरों के कानों तक पहुँच कर सुनाई देता है, इन सब का निमित्त कारण सूर्य है। सूर्य न हो तो न शरीर में खून दौड़े, न शब्द सुनाई दे और न जीवन ही स्थिर रहे । एक वृक्ष ऐसी जगह हो जहाँ सूर्य की किरणे न पहुँच पाती हों; और दूसरा ऐसी खुली जगह में हो कि जहाँ विना रुकावट सूर्य की किरणे पहुँचती हो: तो इन दोनों में से कौन-सा वृक्ष हरा-भरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] [जवाहर-किरणावली - - - ---------- - --- रहेगा और बढ़ेगा? 'जिसके पास किरणें पहुँचती हैं !' वैज्ञानिकों का कहना है कि रंग भी सूर्य की किरणों से ही बनता है। सूर्य की किरणों के आदान-प्रदान पर ही रंग की विशेषता निर्भर है। सूर्य किसी फूल को अपनी जितनी किरणे देता है, उन सब किरणों को अगर फूल लौटा देता है तो वह फूल सफेद होता है। सफेद रंग सब रंगों में अच्छा समझा जाता है। इस रंग को प्राप्त करने वाले फूल सूर्य की जितनी किरणें लेते हैं, उतनी या उससे भी अधिक सूर्य को लौटा भी देते हैं । फिर जो फूल किरणे लेते ज्यादा हैं, और लौटाते कम हैं, उनमें लौटाने की कमी के अनुपात से ही रंगभेद हो जाता है। गुलाब का फूल सूर्य से जितनी किरणे ग्रहण करता है उतनी वापिस नहीं लौटाता, कम लौटाता है। इस कारण उसका रंग गुलाबी होता है। जो फूल जितनी किरणें कम लौटाता है उसका रंग उतना ही खराब होता जाता है। जो फूल सूर्य की किरणें लेता तो है मगर लौटाता बिलकुल नहीं, उसका रंग काला हो जाता है। सूर्य की किरणों के आधार पर फूलों के रंगों में वैज्ञानिकों ने जो भेद बतलाये हैं, वैसे ही भेद ज्ञानियों ने लेश्या के बतलाये हैं। सफेद फूल के जो गुण बतलाये गये हैं वही गुण उदार पुरुष में होते हैं। इसी प्रकार उन लोगों को काले फूल के समान बतलाया गया है जो प्रकृति की सहायता लेते तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३५३ हैं मगर देने के समय कह देते हैं कि हमें इसके बाप का क्या देना है ! फोटो खींचते समय काला कपड़ा ढँकने का कारण यही बतलाया जाता है कि काला कपड़ा सूर्य की किरणों को कैमरे में प्रवेश नहीं करने देता, आप ही हज़म कर जाता है । तात्पर्य यह है कि जिसमें कालिमा होगी, जिसका हृदय काला होगा, वह ले तो लेगा परन्तु देगा नहीं । सूर्य की किरणों में अलौकिक गुण हैं। उन्हीं गुणों के कारण वह जगत् का चक्षु हो रहा है । सूर्य आपको प्रकाश देता है सो बदले में क्या कुछ लेता भी है ? 'नहीं !' अगर आपको विजली मुफ्त में मिल जाय तो आप विजली देने वाले का उपकार मानते हैं और उसे बड़ा समझते हैं, लेकिन सूर्य का प्रकाश मुफ्त में लेकर के भी कभी सूर्य का उपकार माना है ? अगर सूर्य सिर्फ आपको ही प्रकाश देता और दूसरों को न देता तो आपके घमंड का अन्त न रहता । आप इतना आनन्द मानते कि फूले न समाते । आप अपने को ईश्वर समझने लगते। लेकिन सूर्य सभी को प्रकाश देता है, यह बात आपके लिए आनन्ददायक नहीं है । इसीलिए आप सूर्य के प्रति कृतज्ञ नहीं होते । आप थे|ड़ा विचार तो कीजिए कि सूर्य ने सब को प्रकाश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] [ जवाहर-किरणावली दिया तो आपकी क्या हानि हो गई ? आपके हिस्से काप्रकाश तो सूर्य ने दूसरों को नहीं दिया है ! सूर्य ने समान रूप से सब को प्रकाश दिया है, यह उसकी महिमा है या बुराई है ? 'महिमा है !' तो फिर सूर्य का प्रकाश पाकर आप प्रसन्नता का अनुभव क्यों नहीं करते ? आपको प्रकृति पर ध्यान देकर विचार करना चाहिए कि मुझे सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि से आनन्द मिला है तो मैं इनका उपकार क्यों न मानूँ ? लेकिन हृदय की क्षुद्रता आपकी प्रसन्नता को उत्पन्न ही नहीं होने देती । इसीलिए प्राचार्य कहते हैं कि आप भुवनमूषण के गुण जानोगे तो न आत्मा में द्वेष उत्पन्न होगा, न गर्व होगा और न दीनता ही आएगी। आपको संतोष प्राप्त होगा। परमात्मा की स्तुति से दर्प और दीनता दोनों दूर हो जाएँगे। ___ अपने मनोभावों को आप पर प्रकट करने के लिए मैं अधिक से अधिक सरल पद्धति से काम लेता हूँ। आप मेरे भाव को समझ गये होंगे। फिर भी एक उदाहरण और लीजिये। आपके ऊपर पंखा किया जाय या चँवर ढोरा जाय तो आपको आनन्द होता है, लेकिन प्रकृति ने सभी को समान रूप से पंखा कर दिया तो आपको आनन्द क्यों नहीं होता? क्या सब पर पंखा होने से आपकी कुछ हानि हो गई ? फिर आपका प्रानन्द क्यों चला गया ? मगर आप सोचते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३५५ ------ ---- - ---- प्राकृतिक पंखा अर्थात् पवन तो सभी के लिए समान है । इस में अानन्द की क्या बात है? आप उसी वस्तु में आनन्द मानते हैं जो सिर्फ आपके लिए ही हो, औरों के लिए न हो! ___अकृत्रिम पवन में जो गुण हैं वे क्या कृत्रिम पंखे के पवन में हो सकते हैं ? 'नहीं!' फिर भी आपनैसर्गिक पवन में आनन्द न मानकर कृत्रिम में आनन्द मानते हैं । आपने कभी सोचा है कि आपके हृदय की कौन-सी भावना इसमें कार्य कर रही है ? ऐसा करके आप संसार के कल्याण का परोक्ष रूप में विरोध करते हैं । स्मरण रखना चाहिए कि विश्व-कल्याण का विरोध न करने वाला ही परमात्मा को पहिचान सकता है। आपकी जीभ 'ईश्वरईश्वर' भले ही जपती हो परन्तु आपका हृदय ईश्वर को भूला हुआ है और मस्तिष्क ईश्वर के विरोधी कामों में उलझा हुआ हैं । हृदय और मस्तिष्क दोनों जब परमात्मा के आदेश को शिरोधार्य करते हैं तभी कल्याण होता है। हदय और मस्तिष्क का अन्तर समझ लेने की आवश्यकता है। हृदय के काम प्रायः जगत्-कल्याण के लिए होते हैं और मस्तिष्क के काम प्रायः जगत् के अकल्याण के लिए हुआ करते हैं। कपटाचार मस्तिष्क की उपज है, जिसमें दिखलाया कुछ जाता है और किया कुछ और जाता है ! यथाविजली के विषय में कहा तो यह जाता है कि लोगों के आराम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] [जवाहर-किरणावली के लिए इसकी खोज की गई है परन्तु वास्तव में यह अपना स्वार्थ साधने और लोगों को पराधीन रखने का साधन है। इस प्रकार की बातें संसार को खराब कर रही हैं। विजली, रेल, कल, कारखाने आदि मस्तक की उपज हैं। यह हृदय की उपज नहीं हैं । हृदय की उपज के काम तो भगवान ऋषभदेव ने बतलाये हैं। एक हल बैलों से चलता है और दूसरा एंजिन से । बैलों से चलने वाले हल की उपज हृदय की है और एंजिन से चलने वाले हल की उपज मस्तिष्क की है। हृदय की उपज और मस्तक की उपज के कामों की पहचान यह है कि जिस काम से अपना भी भला हो और दूसरे का भी भला हो वह काम हृदय की उपज है। जिन कामों से अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना होता है, दूसरे के कल्याण की अोर दृष्टिपात नहीं किया जाता किन्तु दूसरों को पंगु बनाना अभीष्ट होता है, वे काम मस्तिष्क की उपज हैं। मस्तिष्क की उपज के काम राक्षसी राज्य के हैं और हृदय की उपज के काम रामराज्य के हैं । सिक्का भी मस्तक की उपज का नमूना है। उसके संबन्ध में कहा तो यह जाता है कि सिक्के से दुनिया के व्यवहार में बड़ा सुभीता होता है और इसीलिए उसका निर्माण किया गया है। लेकिन वास्तविक बात यह नहीं है। थोड़ी देर के लिए यह कथन सही मान लिया जाय तो सिक्का बना लेने की छूट सब के लिए क्यों नहीं है ? प्राचीन काल में सोनैया ( स्वर्ण मोहरें ) थे। मगर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [३५७ - -- - - --- --- - ---- ... ---- ---- - - - --- --- - -- ----- ----- उनका मूल्य कल्पित नहीं था, अतएव उनसे कोई हानि नहीं होती थी। मगर कल्पित मूल्य के सिक्कों ने जगत् को बड़ी हानि पहुँचाई है। सिक्कों के प्रताप से आज विश्व में आर्थिक विषमता रूपी पिशाचिनी का भैरवनृत्य हो रहा है ! यह हृदय और मस्तिष्क के संबंध में व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया गया है। आध्यात्मिक कार्यों में भी इसी प्रकार विचार किया जा सकता है। हृदय और मस्तक के कार्यों की तुलना की जाय तो दोनों का भेद अनायास ही समझ में आ जायगा । हृदय में दया, करुणा, परोपकार, संवेदना, सहानुभूति, सहृदयता आदि गुण भरे हैं । मस्तिष्क जब हृदयशून्य होता है तो स्वार्थबुद्धि की प्रबलता के कारण इन सब दिव्य और मृदुल भावनाओं को नष्ट कर देता है । वह स्वार्थ भी थोड़े ही दिनों का मेहमान होता है। कुछ दिनों बाद स्वार्थ भी नष्ट हो जाता है और सारा संसार चक्कर में पड़ जाता है। ठंडाई, शर्बत, शराब आदि से स्वास्थ्यनाश के सिवाय कुछ भी लाभ नहीं है। क्या पानी के विना जीवन निभ सकता है ? 'नहीं' फिर भी आप पानी में अानन्द न मानकर गुलाब के शर्बत में ही प्रानन्द मानते हैं । यह संसार के कल्याण से विरुद्ध है या नहीं? एकान्त रूप से धर्म का आचरण करने वालों को भी पाँच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] [जवाहर-किरणावली ------ ---- वस्तुओं का उपकार नहीं भूलना चाहिए, ऐसा शास्त्र का आदेश है । उनमें से छह काय का बहुत बड़ा उपकार बतलाया गया है। क्या पृथ्वी की सहायता के विना संयम पल सकता है ? 'नहीं!' इसीलिए भगवान् महावीर कहते हैं कि पृथ्वी का उपकार मानो। जिस भूमिपर पैर टेक कर खड़े हो वह स्वर्ग से भी बड़ी है । भूमि कहीं की हो, लेकिन जो हमारा वजन उठा रही है और जिस भूमि पर हमारी संयम की क्रिया पल रही है, उसे अगर स्वर्ग से हीन मानें तो उस पर पैर धरने का क्या अधिकार है ? इस भूमि पर आप सामायिक करते हैं । क्या स्वर्गभूमि में सामायिक की जा सकती है ? 'नहीं!' यहाँ के पवन से और पुद्गलों से आपका शरीर पल रहा है, आपका धर्मध्यान हो रहा है, फिर आप अपनी जन्मभूमि की महिमा न समझकर स्वर्ग की भूमि को बड़ी समझें, यह कैसे उचित कहा जा सकता है ? । रामनरेशजी त्रिपाठी ने एक ग्राम्यगीत सुनाया। उसका आशय यह है कि-एक ओर राजा का महल है जिसमें सब प्रकार की तैयारी के साथ प्रकाश जगमगा रहा है और दूसरी ओर एक किसान का टूटा झोंपड़ा है, जिसमें शीत, ताप और वर्षा नहीं रुकती । किसान इतना गरीब है कि घर में जलाने के लिए दीपक तक नहीं है। फिर भी किसान खड़ा हुआ मस्ती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [३५६ के साथ गा रहा है। वह कहता है-प्रभो ! तूने राजा के घर तो दीपक का प्रकाश किया परन्तु मेरे घर का तो अंधकार ही हर लिया ! गरीब किसान ऐसी अवस्था में, जब कि उसकी झोंपड़ी टूटी-फूटी है, और सामने राजमहल है, क्यों मस्त होकर गा रहा है ? जो लोग मस्तक से ही विचार करते हैं उन्हें इसका कारण मालूम नहीं हो सकता। अहिंसा, संयम और तप हृदय की उपज हैं । कोरे मस्तिष्क की सहायता से इनका महत्त्व और रहस्य कैसे समझा जा सकता है? किसान के गाने में कौन-सी प्रेरणा काम कर रही है, यह कौन कह सकता है ? फिर भी कल्पना की जा सकती है। वह दरिद्रता की अवस्था में दूसरों की तरह परमात्मा को गालियाँ न देकर उनका उपकार मान रहा है। उपकार इसलिए कि राजा के घर में संसार के समस्त अन्यायों का पैसा है। वेश्या, शराबी, कसाई, चोर, डाकू, निस्संतान आदि सब का पैसा राजा के घर में जाता है। उन्हीं पेसों से राजा के घर में दीपक जग-मगा रहे हैं। किसान ऐसे दीपकों की मौजूदगी में भी अंधकार ही मानता है । वह प्रसन्न है, क्योंकि वह अन्याय और अत्याचार से दूर है। वह किसी दूसरे के परिश्रम का नहीं खाता। स्वयं परिश्रम करता है और उसके बदले में जो कुछ पाता है, संतोष के साथ खा लेता है। जो सहदय होगा वह अवश्य ही विचार करेगा कि मेरे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [जवाहर-किरणावली --------- किसी भी कार्य से दूसरे को दुःख न उठाना पड़े। जिन कार्यों में करुणा का अभाव होगा वे हृदय की नहीं वरन् मस्तिष्क की उपज होंगे। हृदय में करुणा होने पर ही भुवनभूषण को पहिचाना जा सकता है। दयाधर्म को पाने वाला ही पुण्यवान् होता है। जिसका हृदय दया से भरपूर है, वह स्वर्गीय सम्पत्ति से सुशोभित है। आप ऊपरी वैभव देखकर ही किसी को पुण्यवान् मान लेते हैं, पर हृदय के विचारों से पता लगता है कि वास्तव में कौन पुण्यशाली है और कौन नहीं ? ___ एक करोड़पति गहनों और कपड़ों से सजा हुआ मोटर में बैठा हुआ है। मोटर तेजी के साथ जा रही है। किसी गरीब को मोटर की ठेस लगी । इधर तो मोटर की ठेस लगी, उधर सेठजी उसे डाटकर कहने लगे-'मूर्ख कहीं का ! देखता नहीं मोटर आ रही है ! एक किनारे हटने के बदले सामने आता है और हमें बदनाम करना चाहता है ! इतना कहकर सेठजी चले गये। उस चोट खाये गरीब को उठाना या सहानुभूति प्रकट करना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। इतने में दूसरा गरीब वहाँ आ पहुँचा। उसने आहत गरीब को उठाकर छाती से लगाया, चिकित्सालय में पहुँचा दिया और उसकी यथोचित सेवा की। अब आपका हृदय किसे पुण्यवान् कहता है-उस अमीर को या इस गरीब को ? ..'गरीब को ! ." Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] इस निर्णय में आपको शंका तो नहीं है ? 'नहीं !' यद्यपि हृदय गरीब को पुण्यवान् स्वीकार करता है, लेकिन जब मस्तिष्क के विचार हृदय की भावना को दबा लेते हैं तब उस अमीर को ही पुण्यशाली मान लिया जाता है । यह विवेक है । [ ३६१ भगवान् के लिए भूतनाथ शब्द का भी प्रयोग किया गया है । इस शब्द में क्या भाव भरा है, यह समझाने के लिए बहुत समय चाहिए। संक्षेप में अभी इतना ही कहता हूँ कि प्रभु प्राणीमात्र के नाथ हैं । भगवान् जब प्राणीमात्र के नाथ हैं तो किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाना, उसके सुख में बाधा डालना अथवा अपने स्वार्थ में अंधे होकर दूसरे के सुख-दुःख की परवाह न करना उचित नहीं । ऐसा करने वाला भगवान् का सच्चा भक्त नहीं हो सकता । भगवद्भक्ति की प्राथमिक भूमिका भूतमात्र को अपना भाई मानकर उसके प्रति सहानुभूति रखना है । प्राणीमात्र के प्रति आत्मभाव रखकर भगवान् की स्तुति करने से कल्याण का द्वार खुलता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे प्रभो ! आपके विद्यमान गुणों का यथावस्थित रूप से अभ्यास करने वाला आप सरीखा हो जाता है, इस बात में मुझे कोई आश्चर्य नहीं लगता। यह तो संसार में भी देखा जाता है कि किसी लक्ष्मीवान् की सेवा करके सेवक स्वयं लक्ष्मीवान् बन जाता है। साधारण मनुष्य भी अपने सेवक को अपना सरीखा बना लेता है तो आपके गुणों में लीन हो जाने वाला अगर आप सरीखा ही हो जाता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? प्रश्न हो सकता है कि भगवान् के गुणों का अभ्यास किस प्रकार किया जाय ? भगवान् अरूपी सत्ता हैं, उनके अनन्त गुण हैं, ऐसी दशा में उनके गुणों का अभ्यास करने की क्या विधि हो सकती है ? ___इस प्रश्न के उत्तर में ज्ञानियों का कहना है कि भगवान् के गुणों का अभ्यास करना कठिन नहीं है। लेकिन लोगों ने ऊपरी आडम्बर में पड़कर कठिनाई मान ली है, इसी कारण कठिनाई मालूम होती है। भगवान में जो गुण हैं वे उनके नाम से अच्छी तरह प्रकट हो जाते हैं। भगवान् के 'भुवनभूषण' नाम के विषय में कल कहा जा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३६३ -- - -- - चुका है। भगवान् को 'भूतनाथ' भी कहा है। अर्थात् परमात्मा प्राणीमात्र का मालिक है। अभ्यास करने के लिए एक ही वस्तु काफी होती है। एक ही वस्तु पर विचार करके अभ्यास किया जाय तो यह शंका नहीं रह सकती कि भगवान् दिखाई नहीं देते, उनके गुण हमारी बुद्धि में नहीं आते, ऐसी दशा में हम भगवान् की सेवा कैसे करें और उनके गुणों का अभ्यास कैसे करें ? भगवान् अरूपी सत्ता हैं, उसे देखे विना उसकी उपासना किस प्रकार हो सकती है, इस तर्क को मिटाने के लिए ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसके द्वारा ईश्वर की उपासना करने की पद्धति स्वीकार की है। अव्यक्त का ध्यान करना कठिन है, इस विचार से लोग मूर्ति स्थापित करते हैं। लेकिन मेरा कथन यह है कि जब परमात्मा की मूर्ति बिना बनाये ही मौजूद है तो फिर दूसरी मूर्ति के बदले क्यों नहीं उसी पर अपना लक्ष्य स्थापित करते ? परमात्मा की मूर्ति किस प्रकार विद्यमान है, यह समझ लेना चाहिए । ईश्वर मनुष्यदेह में ही हुआ है और मनुष्य आज भी मौजूद हैं। मनुष्यशरीर स्वाभाविक रीति से बनी हुई ईश्वर की प्राकृति है। लाख प्रयत्न करने पर भी कोई कारीगर ऐसी प्राकृति नहीं बना सकता । जव मनुष्य परमात्मा की मूर्ति हैं तो इन्हें देखकर परमात्मा का ध्यान आना चाहिए । सोचना चाहिए कि यह शरीर वह है जिसमें परमात्मा हुआ था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] . [जवाहर-किरणावली ईश्वर की मूर्ति की कोई अवज्ञा करेगा? 'नहीं!' तो यह मनुष्यशरीर ईश्वर की मूर्ति है, ऐसा समझकर मनुष्यों की अवहेलना या घृणा न करना ही सच्ची मूर्तिपूजा है। परमात्मा की मूर्ति की अवहेलना किस प्रकार नहीं करना चाहिए, इसके लिए सर्वप्रथम तो प्राणातिपात का त्याग करना आवश्यक है । ऐसा करने से परमात्मा की आराधना होगी। क्योंकि मनुप्य परमात्मा की मूर्ति हैं, इसलिए इनकी हिंसा न करना, न कराना और न हिंसा का अनुमोदन करना चाहिए। ऐसा करके उस अहिंसा को परमात्मा के लिए समर्पित कर देने से ईश्वर की पूजा हो जायगी। मनुष्य की हिंसा त्यागने के लिए कहा गया है सो इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य प्राणियों की हिंसा त्याज्य नहीं है। हिंसा तो प्राणीमात्र की त्याज्य है। लेकिन मनुष्य, मनुष्य की विशेष और अन्य प्राणियों की सामान्य हिंसा करता है। इसी कारण यहाँ मनुष्यहिंसा के त्याग पर जोर दिया गया है। मनुष्य विशेष मूर्ति है और अन्य जीव सामान्य मूर्ति हैं। यों तो सभी शरीर मूर्ति ही हैं । भगवान् ने कहा है पुढयीकायमहगो उक्कसं जीवो उ संवसे। . कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ।। हे गौतम ! हमारा-तुम्हारा यह जीव असंख्यात काल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकानेर के व्याख्यान ] [३६५ तक पृथ्वीकाय में रहा । इस प्रकार भगवान की आत्मा कभी पृथ्वीकाय में रही और कभी मनुष्य शरीर में । अतएव सोचना चाहिए कि सन्निकर में तो मनुष्यशरीर को भगवान महावीर का स्वरूप मान और दूर में पृथ्वी में भी ईश्वरीय सत्ता मानें । ऐसा समझकर किसी की हिंमा न करने से परमात्मा की पूजा हो जायगी। जब भगवान् भूतनाथ हैं तो पृथ्वीकाय के भी नाथ हैं। कदाचितू आप परमात्मा को नहीं देख सकते तो भी वे जिनके नाथ हैं, उन्हें तो देखते हैं ? अतएव परमात्मा के नाते से ही सब प्राणियों के साथ सलूक करो । प्राणियों की सेवा करने से ईश्वर की सेवा हो जायगी। ईश्वरीय आदेश का पालन ही ईश्वर की सच्ची सेवा है । और ईश्वर का आदेश है कि किसी भी प्राणी को कष्ट मत पहुँचाओ। । , मनुष्य का मनुष्य का साथ विशेष सम्बन्ध है, इसलिए मनुष्य की हिंसा त्यागने के लिए विशेष रूप से कहा जाता है। जो मनुष्य पर दयाभाव रक्खेगा वह दूसरे जीवधारियों पर भी दया रक्खेगा। मगर मनुष्य ही मनुष्य को अधिक सताता है। पशुओं को तो केवल हाड़, मांस, चर्वी आदि के लिए मारा जाता है, लेकिन मनुष्य, मनुष्य का सैकड़ों तरह से घात करता है । मनुष्य को मनुष्य से जितना भय लगा रहता है, उतना किसी पिशाच और राक्षस से भी नहीं लगता। यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] [जवाहर-किरणावली - - .. -. मशीनगनें, तोप, बंदूक आदि किसलिए बने हैं ? 'मनुष्यों को मारने के लिए !' मनुष्यों ने मनुष्य को मारने के लिए जितने उपाय रचे हैं, उतने उपाय पशु को मारने के लिए नहीं रचे । मनुष्य को मनुष्य पर जितना द्वेष होता है और मनुष्य, मनुष्य को जितनी हानि पहुँचाता है, उतनी पशु को नहीं पहुँचाता और न पशु ही पशु या मनुष्य को पहुँचा सकता है। पशु मनुष्य को कदाचित् हानि पहुँचाता है तो अल्प ही पहुँचाता है। इसी कारण मनुष्यों पर विशेष रूप से दया करने की आवश्यकता है। जो मनुष्य पर दयावान् होगा उसे अन्य सत्ताह पाप भी छोड़ने होंगे। मनुष्य की दया करने वाले को सब से पहले झूठ का त्याग करना पड़ेगा; क्योंकि झूठ मनुष्य से ही बोला जाता जाता है, पशु से नहीं । झूठ कपट आदि पापों का सेवन मनुष्य, मनुष्य को ठगने के लिए ही करता है। ऐसा साहित्य तो मिल सकता है जिससे लाखों-करोड़ों मनुष्य भ्रष्ट हो गये हों, लेकिन क्या ऐसा भी कोई साहित्य मिल सकता है जिससे पशु भ्रष्ट हो गये हों ? 'नहीं!' तो जो ऐसा साहित्य नहीं रचता है और मनुष्यजाति के उत्थान के लिए साहित्य की रचना करता है वह क्या परमात्मा की सेवा नहीं करता ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] - -------- --- नियमित रूप से सत्य वही बोलेगा जो मनुष्य के प्रति अहिंसक होगा। जिसके हृदय में मनुष्य के प्रति दया होगी वह झूठ नहीं बोलेगा। जो कपट करेगा उसमें हिंसकता आये विना नहीं रहेगी। संसार में प्रचण्ड हिंसा के प्रसार का प्रधान कारण यही है कि मनुष्य, मनुष्य के साथ झूठकपटमय व्यवहार कर रहा है। __ मनुष्य मुख्य रूप से मनुष्य की ही चोरी करता है। वह पशुओं को चुराता है तो वे पशु भी आखिर मनुष्य के ही . होते हैं। जो मनुष्य, मनुष्य पर दयालु होगा वह किसी की वस्तु चुराकर उसे दुःखी न करेगा। ____ अगर आपके हृदय में इस प्रकार की भावना बद्धमूल हो गई कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिनिधि है और उसके प्रति दुर्व्यवहार करना परमात्मा के प्रति दुर्व्यवहार करना है तो आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि आपके अन्तःकरण में अपूर्व भक्तिभाव पैदा होगा और आप परमात्मा के सच्चे उपासक बन जाएँगे। पाषाण की बनी परमात्मा की मूर्ति की पूजा करता हुआ भी अगर कोई मनुष्य रूप मूर्ति की चोरी करता है तो सपझना चाहिए कि वह परमात्मा की उपासना के मर्म को नहीं समझता। इसी प्रकार जिसके हृदय में दया होगी वह दूसरे की स्त्री की तरफ कदापि बुरी दृष्टि से नहीं देखेगा। वह कभी किसी स्त्रीको भ्रष्ट करने की इच्छा नहीं करेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] [ जवाहर-किरणावली जिसका अन्तःकरण दया से द्रवित रहता है वह कभी अनुचित संग्रह नहीं करेगा। वह दूसरों का भाग हड़पने की । चेष्टा से संदा घृणा करेगा। दूसरे को दुखी करके आप मोटा बनने की इच्छा नहीं करेगा। ____ जहाँ परिग्रह है वहाँ आरंभ है। बहुतेरे परिग्रहशील व्यक्ति इतना अमर्याद संग्रह करते हैं कि वह संग्रह न उनके काम आता है, न दूसरों के काम आ पाता है। हृदय में अहिंसा या करुणा न होने के कारण ही लोग चाहते हैं कि मैं ही सब का मालिक बना रहूँ। दूसरे मरते हैं तो मरें। उन्हें मरने वालों की परवाह नहीं। मनुष्य. दूसरे मनुष्यों का ही हिस्सा छीनकर संग्रह करता है और दूसरों के प्रति दया न होने के कारण ही संग्रह करता है। इसी कारण महात्मा पुरुष पूर्ण रूप से निष्परिग्रह बन कर जंगल में जाकर तप करते हैं और वह तप भी कितना कठार ! कहा है शीत पड़े कपि-मद भरे, दामै सब वनराय । ताल तरंगिनि के निकट ठाड़े ध्यान लगाय । वे गुरु मेरे मन बसो तारण तरण जहाज || जिस महानुभाव के चित्त में ईश्वर का दिव्य स्वरूप बस जाता है, जो दया से भूषित है, अहिंसा की भावना से जिस का हृदय उन्नत है, वह कभी किसी प्राणी का अनिष्ट नहीं करता । अगर कोई उसका अनिष्ट करता है तो भी वह उससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३६६ बदला लेने का विचार नहीं करता । वह सोचता है - यह मेरा अनिष्ट नहीं कर रहा है किन्तु मेरा अदृष्ट ही मुझे सता रहा है । यह मनुष्य जिस क्रोध के वश होकर मुझे पीड़ा पहुँचा रहा है वह क्रोध मेरे अन्तःकरण में आविर्भूत न हो तो मेरे लिए बहुत है । अगर मुझमें भी काम-क्रोध आ गया तो मैं भी भ्रष्ट हो जाऊँगा । अतएव अपने अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार न उत्पन्न होने देना परमात्मा की सच्ची उपासना है । जीवनव्यवहार जब अहिंसामय बन जाता है तो काम, क्रोध आदि विकार सहज ही जीते जा सकते हैं । जो पुरुष, मनुष्य को ईश्वर का प्रतिनिधि मानेगा वह उसके प्रति असत्यमय व्यवहार कैसे करेगा ? चन्दन पड्यो चमार घर, नित उठ चीरे चाम । कह चन्दन ! कैसी भई पड़यो नीचे से काम | जो चन्दन देवता पर चढ़ाया जाता है, ललाट पर लगाया जाता है और पवित्र कार्यों में, व्यवहृत होता हैं, उस चन्दन का वृक्ष एक चमार के घर था । चमार उस पर चमड़ा सुखाया करता था । किसी ने चन्दन से पूछा- कहो चन्दन, कैसी बीती ! चन्दन ने कहा- जिसके घर रहते हैं, वैसा ही गुण श्रा जाता है ! चन्दन के वृक्ष पर चमार चमड़ा सुखाता है, इससे चन्दन की महिमा नहीं घटी, वरन् चमार की ही महिमा घटी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] [ जवाहर-किरणावली ऐसा करने वाले चमार को आप बुरा कह सकते हैं लेकिन आप अपनी तरफ भी देखें । यह तुम्हारा मनुष्यशरीर जो ईश्वर को मिला था और जो समस्त शरीरों में उत्तम है, चन्दन के समान है। लेकिन यह चमार के घर पड़ा है। चमार के घर किस प्रकार पड़ा है, यह बात मैं भक्तों की ही वाणी में कहता हूँ। तुलसीदास जी कहते हैं चतुराई चूल्हे पड़ो, धिक् धिक् पड़े अचार । तुलसी हरि के भजन विन, चारों वर्ण चमार । जो लोग ऊपर से चतुराई करते हैं; लेकिन जिनके हृदय में दया नहीं है-भक्ति नहीं है, जो ऊपरी प्राचार-विचार से ही ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, ऐसे लोगों की गणना तुलसीदासजी चमार में ही करते हैं, चाहे वह किसी भी वर्ण का हो। ____ कोई दूसरे को तो चाण्डाल कहते और घृणित समझते हैं, लेकिन स्वयं क्रोध करके चाण्डाल बनते हैं । उन्हें इसका पता ही नहीं होता! परमा-या ऊपर की चतुराई से कभी नहीं रीझता । मैं बाहरी आचार या चतुराई की बुराई नहीं करता, लेकिन अन्तःकरण की पवित्रता के अभाव में, लोकदिखावे के लिए किये जाने वाले याह्याचार से ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकता। अतएव अान्तरिक शुद्धता पर ध्यान देने की बड़ी आवश्यकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-जिसने ऊपरी चतुराई तो की, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३७१ । आडम्बर दिखाने के लिए द्रव्य आचार तो पाला, लेकिन हृदय से भक्ति नहीं की वह दूसरे वर्ण में होता हुआ भी चमार ही है। माला फेर लेना ही भक्ति नहीं है किन्तु परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए तन, धन, प्राण देने के लिए तैयार होना ही भक्ति है। सुदर्शन सेठ आदर्श भक्त था। उसे घर में बैठकर माला फेरने से कोई रोकता नहीं था। फिर वह मरने का खतरा उठाने के लिए क्यों गया ? वह भी आजकल के लोगों की तरह बहाना कर सकता था कि आने-जाने में क्रिया लगती है, इसलिए मैं घर बैठा-बैठा ही वन्दना कर लेता हूँ। मगर इस क्रिया को बचाना वास्तव में क्रिया बचाना नहीं, मगर प्राण बचाने के लिए बहाना करना ही होगा। बहुत से लोग दान करने में पाप लगने का बहाना करते हैं, मगर वे लोग पाप को देखते होते तो व्याह ही न करते । सच तो यह है कि इस प्रकार की बहानेबाज़ी से धर्म की घोर निन्दा होती है और लोग समझने लगते हैं कि धर्म स्वार्थसाधन का उपाय है । तुलसीदास जी के कथनानुसार भगवान् का भजन न करने वाले चारों वर्ण चमार हैं। चमड़े का धोना, रंगना और सजाना चमार का काम है। चमार यह काम अपने लिए नहीं, दूसरा के लिए करते हैं। चमार अपना काम छोड़ बैठे तो लोगों को बड़ी कठिनाई हो जाय । ऐसी हालत में अगर आप चमार को एकांततः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] [ जवाहर-किरणावली बुरा ही कहेंगे तो आपको जूते पहिनना छोड़ना होगा। चमार को बुरा कहने वाले जरा अंपनी अोर देखें । वे क्या कर रहे हैं ? क्या वे चमार की तरह ही शरीर के चमड़े को नहलानेधुलाने और सिंगारने में ही नहीं लगे रहते हैं ? क्या यह काम चर्मकार का काम नहीं है ? बढ़िया-बढ़िया कपड़े और मोतियों के गहने क्या चमड़ी को सजाने के लिए ही नहीं पहने जाते ? अगर आप अपने शरीर के चमड़े को सिंगार कर दयाभाव रक्खें, भक्ति करें, शरीर को दूसरों की सेवा और परोपकार में लगावें, तब तो आपका चमड़ा रंगना चमारपन नहीं कहलाएगा; और यदि यह कुछ भी न किया, सिर्फ चमड़ी की सजावट में ही लगे रहे तो तुलसीदासजी का कथन आप पर भी लागू होगा ही। ___कई लोग कहते हैं हमसे खादी नहीं पहिनी जाती । वह चमड़ी में चुभती है। ऐसे लोगों को चमड़ी का भक्त कहा जाय या नहीं ? महीन कपड़ों के लिए चाहे पंचेन्द्रिय पशुओं की चमड़ी उतारी जाय, चर्बी निकाली जाय और चाहे देश बर्बाद हो जाय, पर इनकी चमड़ी की सुकुमारता कायम रहनी चाहिए ! इनकी चमड़ी खादी से नहीं छिलनी चाहिए ! ऐसा विचार करने वाले लोगों के दिल में दया का वास कैसे हो सकता है ? किसी पतिव्रता स्त्री ने शृंगार किया और वह श्रृंगार पति को प्रिय न लगा तो वह श्रृंगार भी कोई शृंगार है ? इसी प्रकार जिन वस्त्रों के पहिनने से दया का घात होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [ ३७३ है और दया का घात होने से जो परमात्मा के प्रतिकूल हैं, वे कपड़े क्या पहनने योग्य हैं ? 'नहीं !' प्रेम, दया, अहिंसा, परोपकार, संयम और सादगी का निर्वाह खादी पहनने से अधिक हो सकता है या मैन्चेष्टर के हिंसामय वस्त्रों के पहनने से ? खाड़ी पहनने से गरूर कम होता है, भावना में सात्विकता आती है, देश-प्रेम जागृत होता है । मिलों का बना वस्त्र राक्षसी वस्त्र है जो संयम और सादगी का विनाश करता है, प्रेम का अन्त कर देता है । इन वस्त्रों के कारण पशुओं की ही नहीं, मनुष्यों की भी हिंसा होती है । अब मैं अपनी मूल बात पर आता हूँ। ऊपर के विवेचन से समझा जा सकता है कि जिसके हृदय में मनुष्यों के प्रति दयाभाव होगा प्रायः वह न हिंसा, करेगा न झूठ बोलेगा, न चोरी करना, न परस्त्रीगमन करेगा और न अनुचित संग्रह ही करेगा । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष क्लेश आदि मानसिक विकारों की उत्पत्ति प्रायः मनुष्य के प्रति ही होती है । हृदय में मानव - दया उत्पन्न होने पर इन सब विकारों पर तुषारपात हो जाता है और जो इन सब पापों एवं विकारें से बच जायगा, स्वाभाविक है कि वह परमात्मा के निकट पहुँचेगा । इसलिए मैं कहता हूँ कि इन पापों का परित्याग करो । अगर यकायक पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सकते तो धीरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] [जवाहर-किरणावली धीरे करो । पापों के परित्याग के पथ पर एक कदम भी जो चलेगा और उसी पथ पर आगे बढ़े चलने की भावना रक्खेगा वह एक दिन अपनी मंज़िल पूरी कर लेगा। मगर ऐसे काम तो सर्वप्रथम त्यागने योग्य हैं जिनसे मनुष्यों का घात होता हो। ऐसा मत करो कि पराया भोजन छीनकर आप मौज़ करें और वह बेचारा भूखा मरे। ज्यादा कुछ न कर सको तो कम से कम परोपकार को तो पाप मत मानो ! आवश्यकता से अधिक संग्रह तो न करो । इस बात को मत भूलो कि अन्ततः धन-दोलत काम नहीं आयगी। शास्त्र में कहा है वित्तंण ताणं न लभे पमत्त । अर्थात्-प्रमादशील पुरुष धन-दौलत के द्वारा अपना बचाव नहीं कर सकता। मत भूलो कि आज जो लखपती है, वही कल कंगाल हो जाता है। फिर परोपकार करने में क्यों कृपण बनते हो ? कृपणता करके बचाया हुआ धन साथ नहीं जायगा, किन्तु कृपणता के द्वारा लगने वाला पाप साथ जायगा। यह जानते हुए भी लोग जब खर्च में कमी करना चाहते हैं तो सब से पहले परोपकार के ही काम बंद करते हैं। मित्रो ! यह परमात्माप्राप्ति का मार्ग नहीं है । उदार हृदय से, शुद्ध बुद्धि से और निर्मल मस्तिष्क से परमात्मा के आदेशों को समझो और पालन करो। ऐसा करने से आप परमात्मा के ही समान बन जाएँगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्वं, निर्मापिस्त्रिभुवनैकललामभूत! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्त समाममपरं न हि रूपमस्ति ||१२|| तीनों लोकों में अद्वितीय सुन्दर प्रभो ! जिन शान्त और सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपका निर्माण हुआ है, जान पड़ता है कि पृथ्वी पर वे परमाणु उतने ही थे । क्योंकि तुम्हारे समान दूसरा कोई रूप नहीं है। वक्त्रं व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् । विम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ||१३!। अर्थ-प्रमा! सुर, नर और नागकुमारों के नेत्रों को हरण करने वाला और तीन लोक की समस्त उपमाओं को जीतने वाला कहाँ तो आपका मुख और कहाँ कलंक से मलीन चन्द्रमा का विम्ब ! चन्द्रमा का विम्ब तो दिन में ढाक के सूखे पत्ते के समान फीका पड़ जाता है ! उसके साथ आपके मुख की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६] [जवाहर-किरणावली तुलना नहीं की जा सकती। प्राचार्य मानतुंगजी ने भगवान् ऋषभदेव की स्तुति करते हुए यहाँ उनके शरीरसौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन किया है। कहा गया है कि भगवान् का रूप, जिसे देखकर चण्डकौशिक जैसे क्रूर प्राणियों को भी शांति मिली है, ऐसे पुद्गल-परमाणुओं से बना है जो तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ थे। मैं अनुमान करता हूँ कि जिन परमाणुओं से तेरा शरीर बना है वे परमाणु संसार भर में उतने ही थे। उनसे अधिक नहीं थे । अधिक होते तो तेरे शरीर के समान कोई दूसरा शरीर भी बना होता । लेकिन तेरे शरीर के समान शांतिमय और सुन्दर शरीर दूसरा नहीं है। इस कारण यही अनुमान होता है कि जितने श्रेष्ठ परमाणु तेरे शरीर में लगे हैं, उतने ही संसार में थे। यह परमात्मा की स्तुति है । स्तुति वह है जिसके उच्चारण से आत्मा की परमात्मा के प्रति प्रीति जागृत होकर बँध जाय । आज जो स्तुति की गई है उसमें बतलाया गया है कि कहाँ तो आपका वह सुर नर उरग के नेत्रों को हरण करने 'वाला और देखने पर भी तृप्ति न हो ऐसा, संसार को आनन्द देने वाला मुख और कहाँ चन्द्रमण्डल ! संसार की किसी भी श्रेष्ठ और सुन्दर वस्तु से आपके मुख की उपमा दी जाय किन्तु वह उपमा ठीक नहीं बैठती । आपका मुख सभी उपमाओं को जीत चुका है। संसार की कोई भी वस्तु आपके मुख की समा‘नता नहीं कर सकती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान] [ ३७७ कहा जा सकता है कि चन्द्रमा सौम्य, शीतल और आह्लादजनक है। फिर भगवान् के मुख के साथ उसकी तुलना क्यों नहीं की जा सकती ? लेकिन प्राचार्य मानतुंग चन्द्रमण्डल को घृणापूर्वक देखकर कहते हैं कि यह चन्द्र-बिम्ब तो स्पष्ट ही कलंक से मलीन है। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की कांति तभी तक रहती है जब तक सूर्य का उदय नहीं होता। सूर्य का उदय होते ही वह सूखे पत्ते के समान कान्तिहीन फीका पड़ जाता है । चन्द्रमा को राहु भी ग्रस लेता है। इस प्रकार कहाँ तो एक स्थिति में न रहने वाला चन्द्रमा का विम्ब और कहाँ भगवान् का मुखमण्डल ! वह मुखमण्डल जो सुर नर और उरग के नेत्रों को भी हरण करने वाला है। इसलिए प्रमो ! आपके मुख के सामने तीनों भुवन के पदार्थ तुच्छ दिखाई देते हैं और आपका मुख अनुपम है, अद्वितीय सौंदर्य से युक्त है। इस भक्तामरस्तोत्र के द्वारा परमात्मा से भेंट करना सभी को इष्ट है। इस स्तोत्र को दिगम्बर, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक सभी मानते हैं। सभी परम प्रीति के साथ इसका पाठ करके शांतिलाभ करना चाहते हैं । अतएव इसके भावों को ध्यानपूर्वक समझना चाहिए। ____प्राचार्य ने यहाँ जो कुछ कहा है, यदि वह सत्य है तो उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करो। अाज हमें स्थूल दृष्टि से परमात्मा के दर्शन नहीं हो सकते, फिर भी चन्द्रमण्डल तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] [ जवाहर-किरणावली दिखाई देता ही है। वैज्ञानिकों ने सर्च लाइट आदि नाना प्रकार के प्रकाशों का आविष्कार किया है लेकिन चन्द्रमा की समता करने वाला एक भी प्रकाश वे नहीं बना सके हैं । इस पर से हे मनुष्य ! तू अपनी अपूर्णता और अशक्ति का विचार कर। अपनी शक्ति पर गर्व मत कर । सच तो यह है कि जहाँ सूर्य और चन्द्रमा विद्यमान हैं वहाँ दूसरे प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं है। कोई कितना ही प्रयत्न करे लेकिन चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाश नहीं बन सकता । यह विचार कर खटपट में पड़ने की आवश्यकता नहीं थी लेकिन मनुष्य गज़ब का प्राणी है ! उसमें ईश्वरीय शक्ति विद्यमान है। अतएव वह प्रकृति से भी लड़ाई कर रहा है। मनुष्य प्रकृति से भी लड़ाई कर रहा है। मनुष्य प्रकृति पर विजय पाना चाहता है और प्रकृति को नीचा दिखाना चाहता है। प्रकृति से लड़ाई करने वालों को सोचना चाहिए कि मैंने विज्ञान के द्वारा जो वस्तुएँ बनाई हैं, उनसे पहले की वस्तुओं का विकाश है या विनाश हुआ है ? कल्पना कीजिए, किसी के घर में बिजली का सुन्दर प्रकाश हो परन्तु घर में कोई चीमार पड़ा हो। एक ओर वीमारी बढ़ती जाय और दूसरी ओर विजली का प्रकाश बढ़ता जाय । ऐसी स्थिति में प्रकाश का बढ़ना किस काम का ? अगर विजली का प्रकाश न हो और सूर्य-चन्द्र की किरणों से ही शान्ति पहुँचती हो तो समझना चाहिए कि हमें किसी की ओर से यह संकेत मिल रहा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३७६ तुम्हें प्रकृति के ही भरोले रहना चाहिए। प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने से विकृति बढ़ेगी। आपके पूर्वजों के सामने विजली का प्रकाश नहीं था। नकली घी और नकली श्राटा आदि भी नहीं था। लेकिन शारीरिक बल में, बौद्धिक विकास में और मानसिक चिन्तन में वे बड़े थे या आप बड़े हैं ? . 'पूर्वज बड़े थे।' उन्हें मोटर, बिजली, नकली घी आदि चीजें पसंद ही नहीं थीं। वे इन चीजों से घृणा करते थे और आप इनसे प्रेम करते हैं। आपने इन सब को अपनाया है सही, पर इसका परिणाम क्या हुआ है ? यही कि पहले के लोगों को वृद्धावस्था में भी चश्मे की आवश्यकता नहीं होती थी लेकिन आजकल के बहुत से नवयुवकों को भी चश्मा लगाना पड़ता है। इस अन्तर का क्या कारण है ? आज 'इलेक्ट्रिक लाइट' का आविष्कार हुआ तो नेत्रों का प्राकृतिक प्रकाश कहाँ विलीन हो गया ? पहले के लोग क्या आजकल की तरह दवाइयों का सेवन करते थे ? वे दही और बाजरे की रोटियाँ खाते थे, फिर भी उनमें जैसी शक्ति थी वैसी आप माल-मलीदा खाने वालों में है ? 'नहीं!' आप लोग प्रकृति से लड़ाई करके चाहे आगे बढ़ने की अाकांक्षा करें और चाहे 'वैज्ञानिक' नाम धराकर अभिमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०] [जवाहर-किरणावली --- - करें, लेकिन आप प्रकृति के विज्ञान का मुकाबिला नहीं कर सकते । जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता वहाँ की हवा तो गन्दी होती सुनी जाती है लेकिन जहाँ बिजली का प्रकाश न हो वहाँ की हवा गन्दी होती सुनी है ? 'नहीं!' इतना ही नहीं, बल्कि जहाँ बिजली का प्रचुर प्रचार है वहां की हवा गन्दी हो जाती है, ऐसा सुना गया है। नयीनयी वस्तुएँ देखकर आपका मन फिसल जाता है और आप उन्हें अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं परन्तु यह क्यों नहीं देखते कि ये वस्तुएँ प्रकृतिप्रदत्त लाभों को बढ़ाने वाली हैं या घटाने वाली ? संसार में अगर बिजली की रोशनी, बिजली के पंखे, बिजली की सहायता से तैयार होने वाली दवाइयाँ न हों तो मनुष्य की मूल प्रकृति को कोई हानि पहुँचने वाली नहीं है। यही नहीं, वरन् इनके अभाव में मनुष्य ज्यादा सुखी, ज्यादा समृद्ध और ज्यादा संतुष्ट होगा। लेकिन अगर प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुएँ न है। तो कैसी बीतेगी? अगर सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश न हो तो मनुष्यों की क्या स्थिति होगी ? सुनते हैं, दक्षिणी ध्रुवप्रदेश की तलाश करने के लिए कई अंग्रेजों ने जाने का साहस किया और वे कुछ दूरी तक गये भी, फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली। सूर्य का प्रकाश न मिलने के कारण उन्हें मृत्यु का प्रालिंगन करना पड़ा । तात्पर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३८१ - - -- - ----- यह है कि जहाँ नियमित रूप से सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश पहुँचता है वहीं मनुष्य जीवित रह सकता है। जहाँ यह प्रकाश नहीं मिलेगा वहां मनुष्य लम्बे समय तक प्राण धरणा नहीं किये रह सकता। भगवान् ने इन्द्रियों का स्वरूप बतलाने के साथ ही उनके निग्रह का भी स्वरूप बतलाया है। प्रश्नध्याकरणसूत्र में भगवान् ने मुनि के लिए नाटक देखने का निषेध किया है पर कहीं सूर्य और चन्द्रमा के प्रकाश को भी देखने का निषेध किया है ? 'नहीं!' 'क्यों ?' क्योंकि इसके विना काम नहीं चलता और इससे नेत्रों में विकार भी उत्पन्न नहीं होता। दुनिया का कोई भी धर्मशास्त्र प्रकृति की बातों को रोकने की हिमायत नहीं करता । सूर्य और चन्द्रमा काप्रकाश जीवन की अनिवार्य वस्तु है। उसके बिना जीवन का निर्वाह संभव नहीं है। ऐसी दशा में अगर कोई सूर्य-चन्द्र को देखने का निषेध करता है तो वह अज्ञानी ही समझा जायगा। जो मनुष्य हठपूर्वक सूरज के प्रकार से बचने की कोशिश करेगा उसका जीवन ही कठिन हो जायगा। भगवान् ने साधुओं को दीपक आदि के कृत्रिम प्रकाश के उपयोग की मनाई की है, मगर सूर्य-चन्द्र के नैसर्गिक प्रकाश के उपयोग की मनाई नहीं की है। अगर साधु दीपक के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] [जवाहर-किरणावली ----- -- ---------------- प्रकाश का उपयोग करे तो वह संयम से च्युत हो जाता है। लेकिन वह यदि सूर्य के प्रकाश का उपयोग न करे तो संयम का पालन नहीं हो सकता। सूर्य की साक्षी से ही हम लोग भोजन कर सकते हैं और संयम का परिपालन कर सकते हैं। सूर्य की साक्षी के अभाव में साधु को भोजन करने का निषेध है। आपमें समभाव होता तो आप बिजली की अपेक्षा सूर्यचन्द्र से अधिक प्रसन्न होते । बिजली, सूर्य और चन्द्र की तरह व्यापक नहीं है, जीवन के लिए अनिवार्य भी नहीं है और लाभदायक भी नहीं है, फिर भी आपको उसकी कीमत देनी पड़ती है, इसी कारण आप उसकी कद्र करते हैं । सूर्य और चन्द्रमा की कीमत नहीं देनी पड़ती. इस कारण उसकी कद्र नहीं की जाती और न उसका उपकार ही माना जाता है। प्रकाश असल में प्रकृति की देन है। उसे राजा अपनी मिल्कियत समझे, यह राजधर्म न जाने कहां से निकल पड़ा है ? राजा समाज की शक्ति के लिए होता है। अगर वह धीरे-धीरे सब आवश्यक वस्तुओं को अपने कब्जे में कर ले और अपनी निजी चीज़ समझ कर मनचाहा कर लगा दे तो संसार का काम किस प्रकार चलेगा? विशिष्ट पुण्य का उदय होने पर मनुष्य राजा बनता है। अतएव उसे प्रकृति के नियमों का विशिष्ट रूप से पालन करना चाहिए। दूसरे की भूलों से उतनी हानि नहीं होती, जितनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ) [३८३. -- ---- - - राजा की भूल से। ईसाई लोगों की मान्यता के अनुसार राजा ईश्वर का भेजा हुआ होता है। ईश्वर के द्वारा भेजा हुआ पुरुष कोई भूल नहीं कर सकता। अतएव वह जो भी कुछ करता है, उचित ही करता है । मगर यह विचार भ्रमपूर्ण है । मैं आचार्य हूँ। अगर मैं कहने लगूं कि मुझे ईश्वर ने प्राचार्य बनाया है, इसलिए मैं अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करूँगा और जो कुछ भी करूँगा वही उचित समझा जायगा। तो आप क्या कहेंगे? आप फौरन कहेंगे कि ईश्वर ने नहीं; संघ ने आपको आचार्य बनाया है और संघ को अधिकार है कि वह शास्त्र के विरुद्ध आचरण करने पर प्राचार्य की पदवी छीन ले। अगर कोई व्यक्ति अपराध करता है तो वह अपराध उसी व्यक्ति का समझा जाता है। लेकिन आचार्य के विषय में यह बात नहीं है । आचार्य अपराध करे तो वह न सिर्फ प्राचार्य का ही किन्तु उस संघ का भी समझा जायगा, जिस संघ का वह प्राचार्य है। क्योंकि संघ ने ही प्राचार्य को नियत किया है। यही बात राजा के विषय में है। प्रकृति के नियमों का पालन करके सब को सुविधा पहुँचाना राजा का धर्म है। इसके बदले वह प्रकृति का मालिक बन बैठे और कहने लगे कि मैं जैसे पृथ्वीपति हूँ उसी प्रकार सूर्यपति, चन्द्रपति जलपति और वायुपति भी हूँ, तो यह राजा का अन्याय समझा जायगा। राजा जीवन की सुविधाओं का स्वामी नहीं बन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] [ जवाहर - किरणावली सकता और न उनसे किसी को वंचित ही कर सकता है । अप्राकृतिक वस्तुओं का स्वामी बनकर उन पर भले ही वह टैक्स लगा दे, पर प्राकृतिक वस्तुओं पर, जो जीवन निर्वाह के लिए अनिवार्य रूप से उपयोगी हैं, टैक्स लगाना उचित नहीं और न पूरी तरह शक्य ही है। बिजली का टैक्स न चुकाने पर बिजली रोकी जा सकती है, क्योंकि उसकी चाबी राजा के हाथ में है । अगर वह सूर्य के प्रकाश पर या पवन पर कर लगा दे और प्रजा कर देना अस्वीकार कर दे तो राजा सूर्य या पवन को रोक देने में समर्थ नहीं है । इनकी चाबी उसके हाथ में नहीं है । यह बात दूसरी है कि प्रजा अपनी कमजोरी के कारण इन वस्तुओं का भी कर देती रहे ! ऐसी निर्वीर्य प्रजा तो शायद श्वास लेने का भी कर देने को तैयार हो जाएगी । मेरे कहने का आशय यह है कि प्राकृतिक पदार्थों में जैसा सौन्दर्य होता है और वे जैसे लाभदायक होते हैं वैसे कृत्रिम पदार्थ नहीं हो सकते । सूर्य और चन्द्रमा निसर्ग के सर्वोत्तम उपहारों में है । अतएव आचार्य मानतुंग ने चन्द्रमा के साथ भगवान् के मुख की तुलना की है। आचार्य का कथन है कि परमात्मा के मुख की समानता चन्द्रमा मी नहीं कर सकता । चन्द्रमा, सूर्य का उदय होने पर पीले पत्ते के समान निस्तेज और फीका पड़ जाता है । अतएव उससे भगवान् के मुख की उपमा कैसे दी जाय ! जब प्रकृति - रानी का सर्वोतम शृंगार चन्द्रमा श्री भगवान् के मुख के सामने नगण्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३८५ ...--- --.-... --- -------- - - - - - है तो मनुष्य के दिमाग से उपजने वाला कोई भी कृत्रिम पदार्थ उसकी बराबरी कैसे कर सकता है ? भगवान् का स्वरूप कितना सुन्दर और मनोरम है, यह बात इस काव्य से भलीभाँति मालूम हो जाती है। उस सौन्दर्य को परखने के लिए दृष्टि निर्मल होनी चाहिए । निर्मल दृष्टि से और साथ ही स्वच्छ अन्तःकरण से अगर आप परमात्मा के स्वरूप पर विचार करेंगे तो संसार के पदार्थ श्राप को निस्सार प्रतीत हुए विना नहीं रह सकते। इसलिए मेरा कथन है कि पक्षपात की दृष्टि दूर करके ईश्वरीय प्रेम को अपनाओ । ईश्वरीय प्रेम को अपनाने के लिए चार उपाय हैं और वे कामधेनु के समान हैं। इनमें पहली मैत्रीभावना दूसरी प्रमोद भावना, तीसरी करुणाभावना और चौथी मध्यस्थभावना है। मैत्री भावना का अर्थ चूरमा खाने-खिलाने वाले मित्र बनाना नहीं है । संसार में ऐसे भी मित्र होते हैं जिनके विषय में यह कहा गया है कि पात्रो मियांजी खाना खाओ, करो विसमिल्खा हाथ धुलाश्रो। पाश्री मियांजी छप्पर उठाओ, हम बुड्ढे कोई ज्वान बुलायो॥ इस प्रकार की मित्रता वास्तविक मित्रता नहीं है। मित्रता सूर्य के प्रकाश के समान होती है। सूर्य समान रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६] [जवाहर-किरणावली से समस्त संसार को प्रकाश देता है। किसी को कम और किसी को अधिक नहीं देता। या किसी को प्रकाश दे और किसी को न दे, ऐसा भी नहीं करता। इसी प्रकार मनुष्य के हृदय रूपी आकाश में जब मैत्रीभाव का सूर्य उदित होता है तो उसका प्रकाश प्राणी मात्र को समान रूप से मिलता है। जिसका अन्तःकरण मैत्रीभावना से उज्ज्वल हो जाता है, वह प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र समझता है। किसी के प्रति उसके चित्त में दुर्भावना नहीं हो सकती। इस प्रकार मैत्रीभावना की आराधना के लिए आपको प्राणी मात्र का मित्र बनना चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि गृहस्थ सब प्राणियों का मित्र कैसे बन सकता है ? उसे लेन-देन करना पड़ता है, कहनासुनना पड़ता है और पचासों काम करने पड़ते हैं, जिससे प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभावना में बाधा पड़ती है। ऐसी स्थिति में मैत्रीभावना की बात साधुओं को भले ही उपयोगी हो, गृहस्थों के लिए वह उपयोगी नहीं हो सकती। इस तरह का विचार भ्रमपूर्ण है। गृहस्थ अगर मैत्रीभावना को धारण नहीं कर सकता तो इसके मायने यह हुए कि वह धर्म का ही पालन नहीं कर सकता। क्या धर्म इतना संकीर्ण है कि सर्वसाधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते ? नहीं, ऐसा नहीं है । धर्म का प्रांगण बहुत विशाल है। उसमें सभी के लिए स्थान है। अगर गृहस्थ समझदारी से काम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३८७ ले तो मैत्रीभावना की आराधना उसके लिए कठिन नहीं है। गृहस्थ को गृहस्थ की भांति, साधु को साधु के समान और वीतराग को वीतराग की तरह मैत्रीभावना रखनी होती है। राजा राज्य करते हुए भी मैत्रीभावना का पालन कर सकता है। कहा जा सकता है कि राजा किसी को फाँसी देता है और किसी को जागीर देता है। तब उसमें मैत्रीभावना कहाँ रही? लेकिन राजा फाँसी देते और जागीर देते समय यह समझता है कि मैं प्रजा का मित्र हूँ, प्रजा की सेवा करना, रक्षा करना और इस प्रकार अपने राजधर्म का पालन करना ही मेरा कर्तव्य है। मैं किसी को दण्ड देता हूँ और किसी का सत्कार करता हूँ, मगर यह सब मित्र बनकर ही करता हूँ, शत्रु बनकर नहीं। किसी के प्रति मेरे अन्तःकरण में पक्षपात नहीं है, शत्रुता नहीं है, द्वेषभाव नहीं है। फिर ऐसा कौन-सा पुण्यमय दिवस होगा जब मैं इस कर्तव्य का भी त्याग करके इससे भी बहुत ऊँची श्रेणी के कर्तव्य का पालन करने में समर्थ हो सकूँगा । हे प्रभो ! मेरे हृदय में ऐसा भाव भर दो कि मैं किसी के प्रति अन्याय न करूँ। राजसत्ता का मद मेरे मन को मलिन न होने दे। मैं प्रजा की सुख-शांति के लिए अपने स्वार्थों को त्यागने के लिए सदैव उद्यत रहूँ। इस प्रकार की निष्पक्ष और उदार भावना से जो राजा राज्य करेगा वह अवश्य ही मैत्रीभावना का अधिकारी हो सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] [जवाहर-किरणावली - . -- - ---.. -... माता अपने पुत्र पर मैत्रीभावना रखती है, फिर भी समय पर उसे दंड देने से नहीं चूकती। उसकी दंड देने की क्रिया में पुत्र के कल्याण की ही भावना होती है। वास्तव में चाहे कोई त्यागी हो या गृहस्थ हो, राजा हो या व्यापारी हो, किसान हो या सराफ हो, अगर उसके अन्तःकरण में न्याय का भाव है, निष्पक्षता है और स्वार्थसाधन के लिए दूसरों का अनिष्ट करने का इरादा नहीं है तो अवश्य ही वह मैत्रीभावना की आराधना कर सकता है। समाज रूप विराट पुरुष की सेवा का जो भी काम किसी ने अपने हाथ में लिया हो, उसे प्रामाणिकतापूर्वक करने पर ही मैत्रीभावना होती है। जिसके हृदय में मैत्रीभावना जागृत होगी वह किसी को धोखा नहीं देगा। वह किसी से ईर्षा-द्वेष नहीं रक्खेगा। सचाई और सरलता के साथ ही वह सबके प्रति बर्ताव करेगा । वह दंड देगा तो आत्मा को शुद्ध करने के लिए ही देगा। __ दूसरी प्रमोदभावना है । यह भावना सदा गुणी जनों का ध्यान कराती है। एक आदमी शत्रु है मगर मुनि बन गया है और दूसरा मित्र है मगर पतित हो गया है। प्रमोदभावना वाला पुरुष इन दोनों में से गुणी को ही अपनाएगा, गुणी का ही आदर करेगा। घर में भी गुण के आदर की आवश्यकता है, केवल हड्डियों के आदर की नहीं । भाई का लड़का गुणी है फिर भी उसे पराया मानो और उसका आदर न करो और अपने निर्गुण लड़के का भी आदर करो और उसे अपना मानो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान]] [३८६ --- - --- --- ------- - - - यह प्रमोदभावना के विरुद्ध है। प्रमोदभावना का विकाश करके गुणी की पूजा-सेवा की वृद्धि करो तो आप स्वयं गुणमय बन जाएँगे और आपको प्रमोद की प्राप्ति होगी। अतएव गुणीजनों का सत्कार करो, उनके गुणों को अपनायो। अगर उनमें कोई त्रुटि दीखती हो तो उसका अनुकरण मत करो। कहा जा सकता है कि यह परस्पर विरोधी उपदेश है। एक ओर प्राणी मात्र पर मैत्रीभावना रखने का उपदेश दिया जाता है और दूसरी ओर गुणीजनों के आदर का उपदेश दिया जाता है । यह दोनों उपदेश कैसे संगत हो सकते हैं ? गाय के चारपैर और चार ही स्तन होते हैं। गाय लंगड़ी हो तो उसके स्तनों में भी त्रुटि हो जायगी। अतएव लंगड़ी गाय उतने काम की नहीं होती । इसीलिए करुणा भावना कही है । जिसमें गुण न हों उसके प्रति करुणा भावना धारण करो। .किसी को दुखी मत करो और कोई दुखी दिखाई दे तो उस पर करुणा भाव लाओ। करुणा इतनी उदार होती है कि वह गुण-अवगुण नहीं देखती । गुणी की पूजा होती है और दुखी पर करुणा की जाती है। मुनि को आहार दिया जाता है सों करुणा से नहीं वरन् गुणपूजा के भाव से दिया जाता है। गुणपूजा ही मुनि को वंदना करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार प्रमोदभावना गुणी जनों के प्रति और करुणा भावना दीन-दुखियों के प्रति धारण की जाती है। भगवान् ऋषभदेव ने मनुष्यों को दुखी देखकर ही इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ जवाहर - किरणावली स्थिति पर पहुँचाया था, कहा जा सकता है कि इस स्थिति पर पहुँचाने से तो आरंभ-समारंभ बढ़ गया ! परन्तु करुणा में डूबा हुआ आरंभ-समारंभ या भूत- भविष्य के विचार से अपने कर्त्तव्य का परित्याग नहीं करता और न अपनी मर्यादा का ही लोप करता है । वह पराये दुःख को भी अपना ही दुःख मानता है और जब तक उसे दूर नहीं कर देता तब तक चैन नहीं लेता । ऐसी भावना वाला सब का मित्र बन सकता है । हाँ जिसके दिल में यह विचार होगा कि अमुक की दया करूँ और अमुक की नहीं, वह पक्षपाती है । करुणा सर्वभूती होनी चाहिए । कल्पना करो कि आपके शत्रु का लड़का और आपका लड़का- दोनों साथ-साथ खेल रहे हैं । शत्रु का लड़का किसी गाड़ी की टक्कर लगने से गिर पड़ा। ऐसे समय पर आप क्या करेंगे ? अगर आपके हृदय में करुणाभाव है तो आप उस समय वैर का विचार नहीं करेंगे। अगर दोनों लड़के गिर पड़े हों और अपना लड़का दूर तथा शत्रु का लड़का पास हो तो करुणाभाव वाला मनुष्य पहले शत्रु के लड़के को ही उठायेगा । अगर वह पास में पड़े हुए लड़के की उपेक्षा करता है तो पक्षपात करता है । के चौथी मध्यस्थभावना है । सारा संसार आपकी इच्छा अनुसार कभी नहीं बन सकता । तीर्थकरों के समय में भी संसार एक-सा नहीं हुआ तो श्रब क्या होगा ? श्रतएव किसी का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३६१ अपने से विरुद्ध मार्ग पर चलते देखो, कोई धर्म के मार्ग में काँटे विखेरता दिखाई दे तो भी उस पर समभाव रखना चाहिए। इन चार भावनाओं का सेवन करने वाला भगवान् ऋषभदेव के पथ पर अग्रसर हो सकता है और अपने जीवन को धन्य बना सकता है। भगवान् की स्तुति करने के साथ उनके मार्ग पर चलने वाला ही कल्याण का भागी होता है। मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतम गणी। मंगलं स्थूलिभद्राचा जैनधर्मो ऽस्तु मंगलम् ॥ समाप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W Tuirរវេល៣យបារ 10ll inningum Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यश जवाहर-साहित्य के प्रा भावनगर DIRTA [1] श्री जवाहर विद्यापीठ, भीनासर (बीकानेर) ([2] हितेच्छु-श्रावक-मंडल, रतलाम (मालवा) [3] श्री जैन जवाहिर मित्र-मण्डल, ब्यावर ( राजपूताना) [4] श्री चिम्मनसिंहजी लोढ़ा ब्यावर ( राजपूताना) इनके अतिरिक्त जिनकी ओर से जो पुस्तक 17 प्रकाशित हुई है, वह उनके पास से भी मिल सकती है। CEO व्यावर छपाई का उत्तम साधन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com