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बीकानेर के व्याख्यान ]
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साधु जिन कष्टों को सहन करते हैं, उन्हें उसे भी सहन करना पड़ता है । फिर भी उसका कष्ट सहना उत्तम अर्थ में नहीं लगता । वह जो कुछ करता है, जो कष्ट सहता है सो सिर्फ इसलिए कि लोग उसे साधु समझें । वह आडम्बर करता है और असलियत की उपेक्षा करता है। इस प्रकार वह ऐहलौकिक सुखों से भी वंचित रहता है और पारलौकिक सुखों से तो वंचित है ही । वह न इधर का रहता है न उधर का रहता है । 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' की कहावत उस पर पूरी तरह घटती है । ऐसे व्यक्ति का इस लोक में भी कोई आदर नहीं करता और परलोक में तो उसे पूछेगा ही कौन ? वह जो कष्ट सहन करता है सो समभाव से नहीं करता । ऐसा मनुष्य अनाथ का अनाथ ही बना रह जाता है ।.
कोई भी मनुष्य हो, यह जिस उद्देश्य के लिए घर से निकलता है उसके विषय में सावधानी न रक्खे तो सांसारिक कामों के लिए जैसे गृहस्थ उलाहना देते हैं, उसी तरह पारलोकिक कार्य के लिए शास्त्र उलाहन देते हैं। अपने ध्येय को भूल जाने वाले ऐसे मनुष्य की क्या दशा होती है, यह सब लोग समझ सकते हैं। इस संबंध में मैं अपने स्वानुभव की बात कहता हूँ ।
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गृहस्थ लोग संवत्सरी के दूसरे दिन जमाई को बुलाकर कोई भेट देते हैं और उससे खमतखामणा करते है । जब मैं बालक था तो मेरे संसारी मामाजी ने रिश्ते के एक जमाई को
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