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[ जवाहर - किरणावली
आज के लोग तो अपनी आयु संसारकार्य में ही पूरी कर देते हैं, परन्तु पहले के लोग चौथी अवस्था में या तो साधु हो जाते थे या साधु न होने की अवस्था में धर्मध्यान में लग जाते थे। इससे आगे वालों के सामने एक अच्छा आदर्श खड़ा हो जाता था और वह अपना कल्याण कर लेता था ।
सेठजी को उन मुनीमजी के खाली होने की खबर लगी । वह मुनीम को जानते थे । अपना काम-काज संभालने के लिए सेठजी ने उन्हें उपयुक्त समझा और एक दिन बुलाकर कहामैं आपकी चतुराई से परिचित हूँ। आप हमारी दुकान का काम-काज संभाल लें। मुनीम आजीविका की तलाश में था ही । उसने सेठजी की दुकान पर रहना स्वीकार कर लिया । सेठजी ने उसे सब नौकरों का अध्यक्ष बनाकर सब काम उसके सुपुर्द कर दिया ।
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थोड़े दिन बाद सेठ ने मुनीम से कहा - अमुक बही के अमुक पाने का खाता निकालिए । मुनीम ने खाता निकाला । खाता उसी सेठ का था, जिसके यहाँ मुनीम पहले नौकर था और जिसकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी । खाते में कुछ रुपया बकाया था । सेठ ने कहा- यह रकम वसूल कीजिए ।
मुनीम बही लेकर उस सेठ के यहाँ पहुँचे । सेठ ने प्रेम के साथ आदर-सत्कार करके बिठलाया । मुनीम संकोच के कारण मुँह से तकाजा न कर सका। उसने खाता खोलकर
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