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बीकानेर के व्याख्यान)
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संसार में घोर पाप छा जाता। यहाँ तक कि आत्मघात की नौवत आ जाती या मनुष्य, मनुष्य को खाने लगता।क्या ऐसा करना घोरतर पाप न होता ? शास्त्र में कहा है कि अन्न-पानी के विना जो विलविलाहट करता हुआ मरता है वह अकाममरण मरता है और अनन्त संसार बढ़ाता है।
एक ओर उस समय की प्रजा के भूखों मरने का प्रश्न था और दूसरी ओर महारंभ होने की संभावना थी। तब भगवान् ने विचार किया कि महारंभ से बचकर जीवन नीतिमय और धर्ममय किस प्रकार बन सकता है और फिर
आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ? जीवन धारण करने का अल्पारंभ के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं था और न आज है। अतः अल्पारंभ का मार्ग सिखाकर भगवान् ने प्रजा को महारंभ के महापाप से बचाने का उपाय किया।
'अन्नं वै प्राणाः' अर्थात् अन्न प्राण हैं । शरीर के लिए अन्न की अनिवार्य आवश्यकता है और खेती के विना अन्न प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् ने अन्न उत्पन्न करने की कला बतलाई । खेती के कार्य में प्रारंभ तो है ही, लेकिन भगवान् कहते हैं कि शरीर निभाने के लिए खेती करने वाला अल्पारंभी है । अलबत्ता जो धनवान बनने के उद्देश्य से खेती करता है वह अवश्य महारंभी है। इसी प्रकार अपना तन हँकने तथा गर्मी-सर्दी और वर्षा से बचने के लिए वस्त्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com